Tuesday, September 9, 2014

भारतीय लोकतंत्र में आई खामियों को दुरुस्त किये बिना न्याय और समानता का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकेगा

( मेरा यह लेख अब भंग किये जा चुके योजना आयोग की हिंदी पत्रिका योजना के अंतिम अंक में छपा था )

शेष नारायण सिंह

पूरी दुनिया में लोकतंत्र के भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं . दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीका ने प्रचार कर रखा था कि शीत युद्ध के खात्मे  के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा लेकिन शीत युद्ध में अमरीकी जीत के दावे के बावजूद भी आज लोकतंत्र के बुनियादी लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका है . गरीब और अविकसित देशों की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है , सच्चाई  यह है कि अतिविकसित देशों में भी मानवाधिकारों के  रक्षक के रूप में लोकतंत्र उतना सफल नहीं हो सका है जितनी उम्मीद की जा रही थी. यूरोप और अमरीका के बहुत सारे  संगठनों ने रिसर्च के बाद तय किया है कि एक अवधारणा के रूप में लोकतंत्र को रिक्लेम करने की ज़रुरत है . शीत युद्ध के बाद भविष्यवाणी की गयी थी कि एक राजनीतिक विधा के रूप में लोकतंत्र सबसे बड़ा,कारगर और सफल व्यवस्था  बना  रहेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती न्याय और अधिकार की डिलीवरी की है . इंसानी मूल्यों के पोषक और रक्षक के रूप में राज्य और सरकार की उपयोगिता  पर सवाल उठ रहे  हैं . सबको मालूम है कि  मनुष्य और मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोकतंत्र सबसे ज़रूरी और उपयोगी साधन है लेकिन आज जो चुनौतियां हैं वे इसी बात को रेखांकित कर रही हैं कि लोकतंत्र विकास की तरकीबों में सुधार और गैरबराबरी की हालात को कम करने में नाकाम पाया जा  रहा है . दुनिया के हर इलाके में हिंसक संघर्ष हो रहे हैं . हिंसक संघर्षों को कम करना मानवता के अस्तित्व के सवाल से जुडा हुआ मुद्दा है .हमें मालूम है कि हिंसक संघर्ष का मुख्य कारण असुरक्षा  होती है . असुरक्षा तब होती है जब समाज के एक वर्ग या कुछ वर्गों को यह अहसास हो जाए कि  वे मुख्यधारा से अलग कर दिए गए हैं , या उनको ऐसा भरोसा हो जाए कि उपलब्ध तरीकों से  वे बाकी लोगों के साथ बराबरी नहीं कर सकते . हिंसक संघर्ष के कारणों में वंचना भी एक अहम् कारण है . जब किसी वर्ग को ऐसा शक हो जाए कि वह  संसाधनों से वंचित कर दिया गया है या उसे यह आभास हो जाए कि लोकतंत्र में जो राजनीतिक शक्ति उसकी वजह से राज्य को मिलती है वह एक व्यक्ति या  समाज के रूप में उस से वंचित रह गया है तो उसे परेशानी होती है और वह हिंसा को एक विकल्प के रूप में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है . लोकतंत्र को इस खामी को ठीक करने की कोशिश करनी पड़ेगी .


लोकतंत्र की स्थापना और संचालन में संस्थाओं का बहुत बड़ा योगदान है लेकिन यह मानी हुयी बात है कि लोकतंत्र का संचालन पूरी तरह से संस्थाओं के ज़रिये ही नहीं किया जा सकता . यह भी ज़रूरी है कि लोकतंत्र की संस्थाओं  को टिकाऊ बनाने के लिए प्रयास किये जाएँ . इन संस्थाओं  को न्याय के वाहक के रूप में  विकसित करने  के लिए ज़रूरी है कि लोकतंत्र की संस्कृति को संस्थागत रूप देने की कोशिश की जाए .लोकतंत्र की संस्थाओं से जो अधिकार मिलते हैं उनका प्रयोग न्याय और बराबरी का निजाम कायम करने के लिए किया जाय , लोकशाही की संस्थाओं को शक्तिशाली बनाने का सबसे प्रभावशाली  तरीका यह है कि उसमें अधिकतर लोगों को शामिल करने की प्रक्रिया पर जोर दिया जाय और उसको लागू करने की कोशिश की जाए. एक समाज और देश  के रूप में हमको याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र को मजबूती देने का काम राजनीतिक काम है , उसे केवल किसी फारमूले या नियम क़ानून के बल पर नहीं बनाया जा सकता . इसके लिए ज़रूरी है कि सभी नागरिकों के आत्मसम्मान को महत्व दिया जाए , संसाधनों के मालिकाना हक तय करते वक़्त स्थानीय लोगों को शामिल किया जाए , नीति बनाते वक़्त हर स्तर पर  सब से संवाद की स्थिति पैदा की जाए. यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है कि सबको न्याय मिले और यह दिखे भी कि न्याय हो रहा है . यानी नीति निर्धारण, उसके परिपालन और उसके प्रभाव में हर तरह की  पारदर्शिता लाना किसी भी अधिकारप्राप्त संस्था का मकसद होना चाहिए . सही बात यह  है कि लोकतंत्र राजनीतिक शक्ति हासिल करने का सबसे  मानवीय तरीका है . इसकी सफलता के लिए ज़रूरी शर्त यह है कि इस राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल सकारात्मक तरीके से किया जाय . यह काम न्यायसंगत होना चाहिए और सबको यह पता होना चाहिए की वे भी राजनीतिक ताक़त  के इस्तेमाल की प्रक्रिया में शामिल हैं . लोकतंत्र या किसी भी राजव्यवस्था का मकसद और उसकी बुनियादी ज़रुरत इंसानी सुरक्षा  है . अब तक पाया गया है की इंसानी सुरक्षा के नाम पर हासिल की गयी शक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियां आ जाती हैं जो लोकतंत्र को जड़ से कमज़ोर करती हैं . लोकतंत्र की सभी संस्थाओं में जांच और नियंत्रण की प्रक्रिया को स्थाई रूप से शामिल किया जाना चाहिए .लोकतंत्र के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की कई शोध परियोजनाओं से यह बातें खुलकर सामने आयी हैं .

 इस पर्चे में लोकतंत्र से सम्बंधित इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की जायेगी. हमारे देश में लोकतंत्र अपेक्षाकृत बहुत ही नयी राजनीतिक व्यवस्था है . कुल बासठ साल पुरानी व्यवस्था में हर मुकाम पर अडचनें आती रही हैं . सबसे बड़ी दिक्क़त तो यही रही है की राजवंश व्यवस्था के तत्व  लोकशाही में घुस गए थे. जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद जब लाल बहादुर शास्त्री ने सत्ता संभाली तो शायद आनंद भवन , और नेहरू परिवार के पुराने संबंधों की मुरव्वत के  कारण उन्होंने नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को अपनी मंत्रिपरिषद में शामिल कर लिया था . स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की एक चूक को देश अब तक भोग रहा है . क्योंकि उसके बाद इंदिरा गांधी ने देश की सत्ता की राजनीति को वस्तुतः वंशानुगत बना दिया था .  अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया था. बहुत ही दुखद परिस्थितियों में उनके  छोटे बेटे की मृत्यु हो गयी .उसके बाद उन्होंने अपने अनमने बड़े बेटे को सत्ता  सौंपने का फैसला किया . इंदिरा जी की मृत्यु भी बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद हालात में हुयी थी . तब तक उनकी पार्टी के ज़्यादातर नेता कांग्रेस को एक राजवंशी पार्टी  के रूप में स्वीकार कर चुके थे लिहाज़ा इंदिरा जी की मृत्यु के बाद उनके  बड़े बेटे को सत्ता सौंप दी गयी. और इस तरह से एक  वंशानुगत सत्ता की व्यवस्था स्थापित हो गयी .इंदिरा जी के परिवार का देश की केंद्रीय सत्ता पर वर्चस्व कायम हो  गया था और एक समय तो ऐसा लगने लगा  था की भारत की लोकशाही का  भविष्य खतरे में  हैं. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार , हरियाणा , पंजाब, जम्मू-कश्मीर , तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों में भी राजवंशीय परमपरा कायम हुयी .लेकिन २०१३ में एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गयी जिसके बाद स्पष्ट हो गया कि देश में राजनीति की और व्यवस्थाएं मज़बूत हों  चाहे न हों ,वंशानुगत राजनीति की परम्परा तो ख़त्म होने वाली है . गुजरात के किसी गाँव वडनगर से आये एक व्यक्ति ने केंद्रीय स्तर पर वंशवाद की राजनीति को चुनौती दी और हरियाणा के किसी गांव से आये एक अन्य व्यक्ति ने राजनीतिक अभियान में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने की गांधीवादी पद्धति का फिर से सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया .  बाद में हमने देखा कि आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल की चुनाव प्रचार की तरकीब को बड़ी पार्टियों ने भी अपनाया . उनकी पार्टी मे फैसला लेने की पद्धति पर बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं लेकिन यहाँ मकसद लोकतंत्र में चुनाव अभियान की महत्ता पर चर्चा करना मात्र है , आम आदमी पार्टी या उसके नेता अरविन्द केजरीवाल की बात का केवल तर्क को एक ठोस रूप देने के लिए इस्तेमाल किया गया है .उनकी पार्टी के गुण दोष का विवेचन करना नहीं . अरविन्द केजेरीवाल और उनकी पार्टी ने चुनाव प्रक्रिया और उसके ज़रिये शक्ति हासिल करने के व्याकरण को फिर से स्थापित किया ,लोकतंत्र के विकास में यह उनका महत्वपूर्ण योगदान है . लेकिन वंशवाद की राजनीति में वे कुछ भी नहीं कर पाए .

वंशवाद को चुनौती देने  का काम निर्णायक रूप से गुजरात के वडनगर से आये व्यक्ति ने किया . पूरे चुनाव अभियान  के दौरान इस व्यक्ति ने वंशवाद को कभी भी फ़ोकस से नहीं  हटने दिया .  कांग्रेस के प्रथम परिवार के बारे में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के  संबोधनों के बारे में तरह तरह के सवाल उठाये गए लेकिन उन्होंने मुद्दे को ठंडा नहीं पड़ने दिया . आज देश में एक ऐसी सरकार है जिसके प्रधानमंत्री के पूर्वजों के बारे में उतनी ही जानकारी है जितनी कि सरकारी कागजों में होती है , इतिहास में उनके परिवार के किसी व्यक्ति का नाम कहीं नहीं  आता . लोकतंत्र को प्रभावशाली बनाने में वंशवाद सबसे बड़ी बाधा है और फिलहाल लगता है की सत्ता के शीर्ष पर अब इस तरह की कोई व्यवस्था प्रभावशाली नहीं होने वाली है . केंद्र में तो यह कमज़ोर हो ही गयी है राज्यों में भी अब इसके खिलाफ माहौल बनना शुरू हो जाएगा .अपने लोकतंत्र में इस बुराई के आने की जड़ में भी शायद आज़ादी के बाद की परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार हैं . क्योंकि जवाहरलाल नेहरू का परिवार यानी उनकी बेटी और उसके दो  बच्चे उनके साथ ही रहते रहे और नेहरू के करीब रहने वाले लोगों ने पूरे परिवार को राजनीतिक रंग में परवरिश देने के काम किया . इसके पलट सरदार पटेल  का राजनीतिक आचरण सामने रखकर देखें तो तस्वीर ज़्यादा साफ़ हो जायेगी . सरदार पटेल की बेटी भी उनके साथ ही रहती थीं क्योंकि  बुढापे में सरदार का ख्याल रखने के लिए और कोई नहीं था . मणिबहन की भूमिका सरदार पटेल के घर तक ही सीमित थी . एक बार जब उनके बेटे डाह्याभाई दिल्ली आये तो सरदार को अजीब लगा . डाह्याभाई पटेल उन दिनों मुंबई  में काम करते थे और किसी कम्पनी में अधिकारी थे. कंपनी के किसी काम से आये थे . सरदार पटेल ने उनको शाम को समझाया कि जब तक मैं यहाँ सरकार में काम कर रहा  हूँ तब तक दिल्ली आओ तो मेरे घर मत आओ . खुशी की बात यह  है कि अभी अभी देश में वंशवाद की राजशाही परम्परा को ध्वस्त करने वाला व्यक्ति भी अपने परिवार के किसी व्यक्ति को राजकाज में शामिल करने के खिलाफ है . हो सकता है कि उनकी पार्टी के लोग भी उनसे प्रेरणा लें और लोकतंत्र को अपनी जागीर बनाने की गलती न करें .  वंशवाद का खात्मा केवल इंदिरा गांधी के  वंशजों को सत्ता से  बेदखल करने से नहीं  होगा क्योंकि सभी पार्टियों में बड़े नेताओं ने अपने परिवार के लोगों को महत्व दे रखा है जिसके कारण लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा प्राभावित होती है . अगर लोकतंत्र की रक्षा होनी है तो हर पार्टी में मौजूद राजशाही के तत्वों को कमज़ोर करना पडेगा .

लोकतंत्र के बहाने वंश को स्थापित करने की कोशिश एक बड़ी समस्या है . जैसा कि इस पर्चे की शुरुआत में कहा गया है कि लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती न्याय और अधिकार की डिलीवरी की है . इस डिलीवरी को पारदर्शी तरीके से लागू किया जाना चाहिए . राजनीतिक विकास का  सामंती और वंशवादी तरीका लोकतंत्र के लक्ष्यों का सबसे बड़ा दुश्मन है . वास्तव में सामंतशाही और वंशवाद को ख़त्म करके ही तो लोकतंत्र की अवधारणा का विकास हुआ था . आज भारत में यही दो रिवाज़ लोकतंत्र के विकास में सबसे बड़े बाधक हैं . संतोष की बात यह है कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक खानदान के आधिपत्य पर लोकसभा चुनाव ने ज़बरदस्त असर डाला है . अब ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पार्टियों में के अलावा खुद सत्ताधारी पार्टी में जो परिवारवाद की जड़ें हैं उनको ख़त्म किया जाए .यह लोकतंत्र के विकास की सबसे बड़ी शर्त है .

 लोकतंत्र के विकास के लिये ख़त्म तो सामंती सोच के तरीकों को भी करना पडेगा .आम तौर पर देखा गया है कि चुनाव की प्रक्रिया ख़त्म होते ही जो व्यक्ति निर्वाचित होते हैं , उनमें से कुछ लोग अपने आपको राजा समझने लगते हैं . इस रिवाज़ को  भी खत्म करना पडेगा .इस पर्चे की शुरुआत में जो प्रतिस्थापना की  गयी है कि  मनुष्य और मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोकतंत्र सबसे ज़रूरी और उपयोगी साधन है लेकिन आज जो चुनौतियां हैं वे इसी बात को रेखांकित कर रही हैं कि लोकतंत्र की संस्था , विकास की तरकीबों में सुधार और गैरबराबरी  की हालात को कम करने में नाकाम पाई जा  रही है .इस तरह की हालात के पैदा होने और उनके नासूर की हद तक नुक्सान कर सकने की क्षमता हासिल कर सकने का कारण यह है कि निर्वाचित लोग लोकतंत्रीय तरीकों से चुनकर आते हैं लेकिन फैसलों में मनमानी करने लगते हैं . फैसलों में न्याय की कमी का सबसे बड़ा कारण है कि जनप्रतिनिधि  लोकतंत्रीय तरीके से स्थापित की गयी संस्थाओं  को नज़रअंदाज़ करते है और सामन्ती तरीके से फैसले लेते हैं .इस कमी के कारण न्याय की डिलीवरी नहीं हो पाती . ज़रूरी है कि सबकुछ नए तरीके से कर सकने के जनादेश के साथ आये प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी अपने लोकतंत्र में घुस चुकी राजकाज की इस सामंती प्रवृत्ति का खात्मा करने की योजना  को गंभीरता से लें . हालांकि सरसरी तौर पर देखने से लगता  है कि उसकी शुरुआत हो चुकी  है . पिछली सरकार में अगर मनमानी करने की संस्कृति को रोक लिया गया होता तो जिस तरह से  दूरसंचार घोटाले को अंजाम दिया गया , शायद वह न हो पाता . पिछले दिनों हर मंत्रालय के इंचार्ज अफसरों को निर्णय प्रक्रिया के सुचारू सञ्चालन की ज़िम्मेदारी देकर मौजूदा सरकार के प्रधानमंत्री ने यह पक्का कर दिया है कि अब  दूरसंचार घोटाला जैसा कोई घोटाला करने के पहले मंत्री अपनी सीट गंवाने का ख़तरा मोल ले रहा होगा. ज़रुरत इस बात की है कि सामंती और  मनमानी फैसलों की कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों की आदतों पर रोक लगाई  जाए.

राजनीति शास्त्र के विख्यात प्रोफ़ेसर आशुतोष  वार्ष्णेय ने अपनी ताज़ा किताब " बैटिल्स हाफ वन : इंडियाज़ इम्प्राबेबिल डेमोक्रेसी " में  लिखा है कि भारत की आज़ादी के बाद तीन परियोजनाएं सबसे महत्वपूर्ण थीं जिनको कि नए लोकतंत्र को हासिल करना था. पहली , राष्ट्रीय एकता को सुरक्षित करना ,दूसरी सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर मौजूद भारतीयों के लिए न्याय सुनिश्चित करना और उनको गरिमापूर्ण जीवन देना  और तीसरी परियोजना थी कि चारों  तरफ फैली हुयी गरीबी को ख़त्म करना . सभी राष्ट्रों के लिए इस तरह के लक्ष्य रखना सामान्य बात है . हमारे संस्थापकों ने मंसूबा बनाया था कि आज़ादी का लाभ सबको मिल सके. और उसी जद्दोजहद में शुरू से ही हमारा लोकतंत्र लगा हुआ है . पिछले साठ वर्षों के सफ़र में  बहुत सारी अडचनें आयी हैं जिनमें से कुछ को इस पर्चे में गिनाया भी गया  है .भारत की लोकशाही की  खासियत है कि समय  समय पर उनको  दुरुस्त करने की कोशिश भी होती रहती है लेकिन सच्ची बात यह  है कि अभी सही लोकतंत्र की स्थापना  के लिए बहुत अधिक प्रयास किये जाने हैं .

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