शेष नारायण सिंह
१ सितम्बर १९२५ को उत्तर प्रदेश के शहर गाजीपुर में डॉ राही मासूम रज़ा का जन्म हुआ था. अब से २२ साल पहले उनकी मृत्यु हो गयी थी . राही की ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा था जिसको याद रखा जाय . उनकी याद में उनकी एक नज़म को शेयर करना चाहता हूँ .जिसका उनवान है " चांद तो अब भी निकलता होगा' उनकी नज़म है . अलीगढ से राही को बेपनाह मुहब्बत थी .अलीगढ़ को वे 'शहरे-तमन्ना' कहते थे . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को वे अपनी दूसरी मां मानते थे .अलीगढ़ को उन्होंने अपने उपन्यास 'टोपी शुक्ला' में अमर कर दिया था .. आज राही के शहर ,मुंबई में बैठा हूँ जहां डॉ राही मासूम रज़ा ने अलीगढ से भगाए जाने के बाद पनाह ली थी. मुंबई में भी राही अपने गाजीपुर और अलीगढ को नहीं भूले, इस नज़म में अपने शहरे तमन्ना को उन्होने याद किया है .
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग
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जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है
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कौन आया है मियां खां की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहां
सुबह होती है कहां
शाम कहां ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है
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चांद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं म्रेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम
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