शेष नारायण सिंह
महाराष्ट्र में सत्ता को बाँट लेने की राजनीतिक पार्टियों की कोशिश को ज़बरदस्त झटका लगा है . बीजेपी और शिव सेना की करीब तीस साल से चली आ रही चुनावी दोस्ती ख़त्म हो गयी है . हालांकि बीजेपी और शिव सेना के नेता बार बार कह रहे हैं कि उनका समझौता २५ साल पुराना है लेकिन सब जानते हैं कि १९८४ का लोकसभा चुनाव भी बीजेपी और शिव सेना ने साथ साथ लड़ा था . उस चुनाव में राजीव गांधी की वैसी ही आंधी चल रही थी जैसी लोकसभा २०१४ में नरेंद्र मोदी की चली थी . नतीजा यह हुआ था कि बीजेपी को भारी नुक्सान हुआ था और पार्टी शून्य पर पंहुंच गयी थी लेकिन जब बीजेपी ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को राम मंदिर बताकर हिंदुत्व के आधार पर राजनीतिक अभियान शुरू किया तो १९८९ में फिर दोनों पार्टियां एक हो गयी थीं. यह एकता चुनावी लाभ के लिए थी .इसके बाद के हर चुनाव के सीज़न में बीजेपी शिवसेना एक होती रहीं . बीजेपी शिव सेना गठबंधन को १९९५ में एक बार सत्ता भी मिल गयी थी . शिव सेना के नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बन गए थे . लेकिन उसके से अब तक राज्य सरकार बनाने का मौक़ा इस गठबंधन को नहीं मिला. हां इस गठबंधन को मुंबई नगर निगम में सफलता मिलती रही . जानकार जानते हैं कि मुंबई महानगर की नगरपालिका की सत्ता कोई मामूली सत्ता नहीं है . सारा मुंबई उसके दायरे में आता है ।इस तरह से सत्ता की सीमेंट इन दोनों ही पार्टियों को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल रही . लेकिन अब सब टूट गया है . बीजेपी और शिव सेना एक दूसरे के खिलाफ विधान सभा चुनाव मैदान में हैं और दीपावली के पूर्व ही पता लग जाएगा कि कौन कितने पानी में है.
बीजेपी शिवसेना गठबंधन के टूटने की राजनीति का स्थाई भाव सत्ता का लोभ है ।सत्ता की पक्की उम्मीद का कारण यह है कि दोनों ही पार्टियों को मालूम है कि सत्ताधारी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस बहुत कमज़ोर पड़ गयी हैं . लोकसभा चुनावों में सारी तस्वीर साफ़ हो चुकी है . ज़ाहिर है कि उनकी सत्ता ख़त्म होने वाली है . बीजेपी को लगता है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर लोकसभा २०१४ का चुनाव जीता गया है इसलिए शिवसेना को उसका एहसान मानना चाहिए और उसे ज़्यादा सीटें देनी चाहिए लेकिन शिवसेना के नेताओं का कहना है कि पुराना वाला इंतज़ाम सही था जहां बीजेपी से करीब डेढ़ गुनी ज़्यादा सीटें शिव सेना के पास हुआ करती थीं . शिवसेना के नए अध्यक्ष उद्धव ठाकरे मानते हैं कि उनके स्वर्गीय पिता बालासाहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र में बीजेपी को ज़मीन दी और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को उनके बुरे वक़्त में मदद की । शायद यही सब सोच कर उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी बना दिया है जबकि बीजेपी चाहती है कि जिसकी सीटें ज़्यादा आयें वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाए. लोकसभा चुनाव में सफलता के बाद बीजेपी ने दावा शुरू कर दिया कि २८८ सीटों वाली विधानसभा में उसको १४४ सीटें मिलनी चाहिए जिसे बाद में सौदेबाजी के दौरान कम कर दिया गया . बहरहाल कई दिनों तक दोनों पार्टियों के नेता सीटों की गिनती के सवाल पर बात करते रहे और गठबंधन के टूटने में सीटों की मांग एक महत्वपूर्ण कारण है . लेकिन जो सबसे बड़ा कारण है वह दोनों ही पार्टियों के नेताओं की तरफ से अपनी बात को ऊपर रखने की जिद है .
महाराष्ट्र में गठबंधन की राजनीति को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह बात दिमाग में मजबूती से बैठा ली जाए कि १९८९ में जब स्वर्गीय बाल ठाकरे और स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने गठबंधन किया था तो सबसे बड़ा कारण हिंदुत्व की राजनीति पर दोनों ही पार्टियों की समान सोच थी . बाबरी मस्जिद के खिलाफ आर एस एस के आन्दोलन में शिव सेना ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था और शिव सेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे और बीजेपी के नौजवान नेता प्रमोद महाजन के बीच अच्छे सम्बन्ध थे . दोनों ही एक दुसरे के निजी और संगठनात्मक आत्मसम्मान का ख्याल रखते थे . कांग्रेस की सत्ता को ख़त्म करने के लिए आतुर भी थे . जहां तक शिवसेना का प्रश्न है बाल ठाकरे उसके सर्वे सर्वा थे और प्रमोद महाजन को भी बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था . उन दिनों मुंबई में चारों तरफ शिव सेना का दबदबा था और बीजेपी की कोई ख़ास मौजूदगी नहीं थी. समझौता हो गया और अब तक चलता रहा . बीजेपी को छोटे भाई के रोल में रहने में कोई दिक्कत नहीं थी . लेकिन अब हालात बदल गए हैं . बीजेपी अब देश की सबसे बड़ी पार्टी है ,उसके सबसे बड़े नेता ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का वायदा कर रखा है और कहीं भी अब उसे छोटे भाई की भूमिका स्वीकार नहीं है .ऐसे माहौल में इस बार के सीट के बंटवारे के बारे में समझौते की बात शुरू हुयी . स्व बालासाहेब ठाकरे की जगह पर उनके पुत्र उद्धव ठाकरे अब पार्टी के अध्यक्ष हैं . उनका राजनीतिक क़द वह नहीं है जो उनके पिता का हुआ करता था . उनकी अपनी पार्टी में ही उनकी वह पोजीशन नहीं है जो पूर्व अध्यक्ष की थी. उनसे बातचीत करने के लिए बीजेपी ने राजीव प्रताप रूडी को अधिकृत कर दिया जो पार्टी के महत्वपूर्ण नेता हैं और ऊंचे पद पर हैं . लेकिन उद्धव ठाकरे ने इसका बुरा माना . उनको लगा कि शिव सेना प्रमुख से पहले अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी चर्चा किया करते थे और अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह तो कहीं हैं नहीं एक मामूली नेता को भेज दिया गया है. उन्होंने अपने हिसाब से इसका जवाब दिया और अपने बेटे आदित्य ठाकरे को बीजेपी के बड़े नेता ओम माथुर के पास बातचीत करने के लिए भेज दिया . बीजेपी ने इसका बुरा मना और उसके बाद से रिश्ते लगातार बिगड़ते रहे . सीटों के तालमेल के बारे में बीजेपी ने लचीला रुख अपनाया लेकिन शिव सेना १५० से नीचे आने को तैयार नहीं थी . जब पर्चा दाखिल करने की अंतिम तारीख बिलकुल करीब आ पंहुची तो बीजेपी ने समझौते के खात्मे का ऐलान कर दिया .
इसके लगभग तुरंत बाद ही कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का समझौता भी टूट गया .वहां भी सीटों के तालमेल को ही कारण बताया गया . लेकिन लगता है कि कांग्रेस को एबीपी न्यूज़ पर दिखाए गए चुनाव पूर्व सर्वे ने भी प्रभावित किया जिसमें बताया गया था कि अगर कांग्रेस पार्टी यह तय कर ले कि राष्ट्रवादी कांग्रेस से अलग रहकर चुनाव लड़ना है तो कांग्रेस को फ़ायदा होगा . पंद्रह साल से महाराष्ट्र में कांग्रेस-एन सी पी गठबंधन की सरकार है . उसके खिलाफ आम तौर पर माहौल बना हुआ है .पूरे देश में बीजेपी का डंका बज रहा है . महाराष्ट्र में भी लोकसभा चुनाव में अभी कुछ महीने पहले बीजेपी की ताक़त देखी गयी है . उस चुनाव में मौजूदा सरकार पर तरह तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए . जो आरोप सबसे ज़्यादा चर्चा में रहा , वह सिंचाई मंत्री अजित पवार के घोटालों से सम्बंधित रहा . कांग्रेस को लग रहा है कि अगर अजित पवार के खिलाफ बोलने का मौक़ा ठीक से मिल जाए तो वह अपनी सरकार के भ्रष्टाचार का ठीकरा राष्ट्रवादी कांग्रेस के मत्थे मढ़ने में सफल हो जायेगी और कम सीटें हारेगी . जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं को लगता है की जो एंटी इनकम्बेंसी है वह कांग्रेस को ज़्यादा नुकसान पंहुचायेगी लिहाजा कांग्रेस से पिंड छुडा लेना ही ठीक है .
दोनों ही गठबन्धनों के टूट जाने के बाद अब महाराष्ट्र में चुनाव बहुत ही दिलचस्प दौर में पंहुच गया है और अब सारा ध्यान चुनाव के बाद के गणित पर टिक गया है .बड़ी चर्चा है कि बीजेपी या शिव सेना को अगर ज़रुरत पडी तो चुनाव बाद वह शरद पवार से बात करके सरकार बना सकते हैं . जहां तक शरद पवार का सवाल है वे सत्ता शीर्ष पर बैठे ज़्यादातर नेताओं से अच्छे सम्बन्ध रखते हैं . और ज़रूरत पड़ने पर उनके ऊपर कोई भी पार्टी भरोसा कर सकती है . उनके सन्दर्भ में अभी नतीजे आने तक अनिश्चितता बनी रहेगी . इस बीच एक और अनिश्चितता भी चुनावी अखाड़े में शामिल हो गयी . उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे भी चुनाव में अचानक महत्वपूर्ण हो गए हैं . २००९ के विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी ने सीटें तो ज्यादा नहीं हासिल कीं लेकिन बहुत सारी सीटों पर बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को हराने में अहम् भूमिका निभाई थी. लगता है कि वही माहौल फिर बन रहा है . दूसरी दिलचस्प बात यह है कि पिछले दिनों हुए उपचुनावों में साफ़ समझ में आ गया है कि नरेंद्र मोदी की वह हवा नहीं है जैसी लोकसभा चुनाव के दौरान थी . उत्तर प्रदेश, बिहार , महाराष्ट्र ,उत्तराखंड समेत सभी राज्यों में बीजेपी के उम्मीदवार धडाधड हारे हैं . इसलिए अब जब चुनाव बहुकोणीय हो गया है तो पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता . उधर खबर है कि गठबंधन तोड़ कर कांग्रेस वाले मुकामी तौर पर समाजवादी पार्टी के साथ समझौता कर सकते हैं . समाजवादी पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता से बात करने पर पता चला कि महाराष्ट्र के चुनाव में वहां के अध्यक्ष अबू आसिम आजमी को सारे अधिकार दे दिए गए हैं और चुनावी गठजोड़ आदि के बारे में वही फैसला लेगें . अगर कांग्रेस और समाजवादी में कोई समझौता हो जाता है तो दोनों ही पार्टियों को फ़ायदा होगा. सबसे दिलचस्प बात यह होगी कि इन पार्टियों का अगर सही समझौता हो गया तो मुंबई और थाणे में ऐसी बहुत सारी सीटें होंगीं जहां शिवसेना और बीजेपी के उम्मीदवारों को मुश्किल पेश आ सकती है . मुसलमानों के एक बड़े वर्ग में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के वोट हैं . दोनों पार्टियां जब अलग अलग लडती हैं तो उनके सामने भारी दुविधा आती है .लेकिन एकता हो जाने पर मुसलमानों के वोट को एकमुश्त करना आसान होगा. शिवसेना से अलग होने पर बीजेपी को भी उत्तर भारतीयों के कुछ वोट मिल सकेगें क्योंकि जहां से वे आते हैं उन राज्यों में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में बहुत अच्छा किया है . लेकिन शिवसेना के परप्रांतीयों के खिलाफ अभियान के चलते उत्तर प्रदेश, बिहार , मध्य प्रदेश और राजस्थान से आये हुए लोग मुंबई में बीजेपी से दूर ही रहते हैं . अब बीजेपी का चुनाव शिवसेना के बैगेज से मुक्त है तो हिंदी भाषी राज्यों से आये लोग उसकी ओर आकर्षित हो सकते हैं .
कुल मिलाकर महाराष्ट्र का चुनाव बहुत ही दिलचस्प मोड़ तक पंहुंच गया है . देखना यह है कि दीपावली के दिन किन पार्टियों के यहाँ चरागाँ होगा और किसके यहाँ मातम मनाया जायेगा .