Tuesday, September 30, 2014

महाराष्ट्र में सारे गठबंधन टूटे, नए रिश्ते बन रहे हैं.


शेष नारायण सिंह

महाराष्ट्र में सत्ता को बाँट लेने की राजनीतिक पार्टियों की कोशिश को ज़बरदस्त झटका लगा है . बीजेपी और शिव सेना की करीब तीस साल से चली आ रही चुनावी दोस्ती ख़त्म हो गयी है . हालांकि बीजेपी और शिव सेना के नेता बार बार कह रहे हैं कि उनका समझौता २५ साल पुराना है लेकिन सब जानते हैं कि १९८४ का लोकसभा चुनाव भी बीजेपी और शिव सेना ने साथ साथ लड़ा था . उस चुनाव में राजीव  गांधी की वैसी ही आंधी चल रही थी जैसी लोकसभा २०१४ में नरेंद्र मोदी की चली थी . नतीजा यह हुआ था कि बीजेपी को भारी नुक्सान हुआ था और पार्टी शून्य पर पंहुंच गयी थी लेकिन जब बीजेपी ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को राम मंदिर बताकर हिंदुत्व के आधार पर राजनीतिक अभियान शुरू किया तो १९८९ में फिर दोनों पार्टियां एक हो गयी थीं. यह एकता चुनावी लाभ के लिए थी .इसके बाद के हर चुनाव के सीज़न में बीजेपी शिवसेना एक होती रहीं . बीजेपी शिव सेना गठबंधन को १९९५ में एक बार सत्ता भी मिल गयी थी . शिव सेना  के नेता मनोहर जोशी मुख्यमंत्री  बन गए थे . लेकिन उसके से अब तक राज्य सरकार  बनाने का मौक़ा इस गठबंधन को नहीं मिला. हां  इस गठबंधन को मुंबई नगर निगम में सफलता मिलती रही . जानकार जानते हैं कि मुंबई महानगर की नगरपालिका की सत्ता  कोई मामूली सत्ता नहीं है . सारा मुंबई उसके दायरे में आता है ।इस तरह से सत्ता की सीमेंट इन दोनों ही पार्टियों को एकता के सूत्र में बांधे  रखने में सफल रही . लेकिन अब सब टूट गया है . बीजेपी और शिव सेना एक दूसरे के खिलाफ विधान सभा चुनाव मैदान में हैं और दीपावली के पूर्व ही पता लग जाएगा कि कौन कितने पानी में है.
बीजेपी शिवसेना गठबंधन के टूटने की राजनीति का स्थाई भाव सत्ता का लोभ है ।सत्ता की पक्की उम्मीद का कारण यह है कि दोनों ही पार्टियों को मालूम है कि सत्ताधारी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस बहुत कमज़ोर पड़ गयी हैं . लोकसभा चुनावों में सारी तस्वीर साफ़ हो चुकी  है . ज़ाहिर है कि उनकी सत्ता ख़त्म होने वाली है . बीजेपी को लगता है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर लोकसभा २०१४ का चुनाव जीता गया है इसलिए शिवसेना को उसका एहसान मानना चाहिए और उसे ज़्यादा सीटें देनी चाहिए  लेकिन शिवसेना के नेताओं का कहना  है कि पुराना वाला इंतज़ाम सही था जहां बीजेपी से करीब डेढ़ गुनी ज़्यादा सीटें शिव सेना के पास हुआ करती थीं . शिवसेना के नए अध्यक्ष उद्धव ठाकरे मानते हैं कि उनके स्वर्गीय पिता बालासाहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र में बीजेपी को ज़मीन दी और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को उनके बुरे वक़्त में मदद की । शायद यही सब सोच कर उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी बना दिया है जबकि बीजेपी चाहती है कि जिसकी सीटें ज़्यादा आयें वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाए. लोकसभा चुनाव में सफलता के बाद बीजेपी ने दावा शुरू कर दिया कि २८८ सीटों वाली विधानसभा में उसको १४४ सीटें मिलनी चाहिए जिसे बाद में सौदेबाजी के दौरान कम कर दिया गया . बहरहाल कई दिनों तक दोनों पार्टियों के नेता सीटों की गिनती के सवाल पर बात करते रहे और गठबंधन के टूटने में सीटों की मांग एक महत्वपूर्ण कारण है . लेकिन जो सबसे बड़ा कारण है वह दोनों ही पार्टियों के नेताओं की तरफ से अपनी बात को ऊपर रखने की जिद है .
महाराष्ट्र में गठबंधन की राजनीति को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह बात दिमाग में मजबूती से बैठा ली जाए कि १९८९ में जब स्वर्गीय बाल ठाकरे और स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने गठबंधन किया था तो सबसे बड़ा कारण हिंदुत्व की राजनीति पर दोनों ही पार्टियों की समान सोच थी . बाबरी मस्जिद के खिलाफ आर एस एस के आन्दोलन में शिव सेना ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था और शिव सेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे और बीजेपी के नौजवान नेता प्रमोद महाजन के बीच अच्छे सम्बन्ध थे . दोनों ही एक दुसरे के निजी और संगठनात्मक आत्मसम्मान का ख्याल रखते थे . कांग्रेस की सत्ता को ख़त्म करने के लिए आतुर भी थे . जहां तक शिवसेना का प्रश्न है बाल ठाकरे उसके सर्वे सर्वा थे और प्रमोद महाजन को भी बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था . उन दिनों मुंबई में चारों तरफ शिव सेना का दबदबा था और बीजेपी की कोई ख़ास मौजूदगी नहीं थी. समझौता हो गया और अब तक चलता  रहा  . बीजेपी को छोटे भाई के रोल में रहने में कोई दिक्कत नहीं थी . लेकिन अब हालात बदल गए हैं . बीजेपी अब देश की सबसे बड़ी पार्टी है ,उसके सबसे बड़े नेता ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का वायदा कर रखा है और कहीं भी अब उसे छोटे भाई की भूमिका स्वीकार नहीं है .ऐसे माहौल में इस बार के सीट के बंटवारे के बारे में समझौते की बात शुरू हुयी . स्व बालासाहेब ठाकरे की जगह पर उनके पुत्र उद्धव ठाकरे अब पार्टी के अध्यक्ष हैं . उनका राजनीतिक क़द वह नहीं है जो उनके पिता का हुआ करता था . उनकी अपनी  पार्टी में ही उनकी वह पोजीशन नहीं है जो पूर्व अध्यक्ष की थी.  उनसे बातचीत करने के लिए बीजेपी ने राजीव प्रताप रूडी को अधिकृत कर दिया  जो पार्टी के महत्वपूर्ण नेता हैं और ऊंचे पद पर हैं . लेकिन  उद्धव ठाकरे ने इसका बुरा माना . उनको लगा कि शिव सेना प्रमुख से पहले अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी चर्चा किया करते थे और अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह तो कहीं हैं नहीं एक मामूली नेता को भेज दिया गया  है. उन्होंने अपने हिसाब से इसका जवाब दिया और अपने बेटे आदित्य ठाकरे को बीजेपी के बड़े  नेता ओम माथुर के पास बातचीत करने के लिए भेज दिया . बीजेपी ने इसका बुरा मना और उसके बाद से रिश्ते लगातार बिगड़ते रहे . सीटों के तालमेल के बारे में बीजेपी ने लचीला रुख अपनाया लेकिन शिव सेना १५० से नीचे आने को तैयार नहीं थी . जब पर्चा दाखिल करने की अंतिम तारीख बिलकुल करीब आ पंहुची तो बीजेपी ने समझौते के खात्मे  का ऐलान कर दिया .
इसके लगभग तुरंत बाद ही कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का समझौता भी टूट गया .वहां भी  सीटों के तालमेल को ही कारण बताया गया . लेकिन लगता है कि कांग्रेस को एबीपी न्यूज़ पर दिखाए गए चुनाव  पूर्व सर्वे ने भी प्रभावित किया जिसमें बताया गया था कि अगर कांग्रेस पार्टी यह तय कर ले कि राष्ट्रवादी कांग्रेस से अलग रहकर चुनाव लड़ना है तो कांग्रेस को फ़ायदा होगा . पंद्रह साल से महाराष्ट्र में कांग्रेस-एन सी पी गठबंधन की सरकार है . उसके खिलाफ आम तौर पर माहौल बना हुआ है .पूरे देश में बीजेपी का डंका बज रहा है .  महाराष्ट्र में भी लोकसभा चुनाव में  अभी कुछ महीने पहले  बीजेपी की ताक़त देखी गयी है . उस चुनाव में मौजूदा सरकार पर तरह तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए . जो आरोप सबसे ज़्यादा  चर्चा में रहा , वह  सिंचाई मंत्री अजित पवार के घोटालों से सम्बंधित रहा . कांग्रेस को लग रहा है कि अगर अजित पवार के खिलाफ बोलने का मौक़ा ठीक से मिल जाए तो वह अपनी सरकार के भ्रष्टाचार का ठीकरा राष्ट्रवादी कांग्रेस के मत्थे मढ़ने में सफल हो जायेगी और कम सीटें हारेगी . जबकि  राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं को लगता है की जो एंटी इनकम्बेंसी है वह कांग्रेस को ज़्यादा नुकसान पंहुचायेगी लिहाजा कांग्रेस से पिंड छुडा लेना ही ठीक है .
दोनों ही गठबन्धनों के टूट जाने के बाद अब महाराष्ट्र में चुनाव बहुत ही दिलचस्प दौर  में पंहुच गया है और अब सारा ध्यान चुनाव के बाद  के गणित पर टिक गया है .बड़ी चर्चा है कि बीजेपी या शिव सेना को अगर ज़रुरत पडी तो चुनाव बाद वह शरद पवार से बात करके सरकार बना सकते हैं . जहां तक शरद पवार का सवाल है वे सत्ता  शीर्ष पर बैठे ज़्यादातर नेताओं से अच्छे सम्बन्ध रखते हैं .  और ज़रूरत पड़ने पर उनके  ऊपर कोई भी पार्टी भरोसा कर सकती है . उनके सन्दर्भ में अभी नतीजे आने तक अनिश्चितता बनी रहेगी . इस बीच एक और अनिश्चितता भी चुनावी अखाड़े में शामिल हो गयी . उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे भी चुनाव में अचानक महत्वपूर्ण हो गए हैं . २००९ के विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी ने सीटें तो ज्यादा नहीं  हासिल कीं लेकिन बहुत सारी सीटों पर बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को हराने में अहम् भूमिका निभाई थी. लगता है कि वही माहौल फिर बन रहा है . दूसरी दिलचस्प बात यह है कि पिछले दिनों हुए उपचुनावों में साफ़ समझ में आ गया है कि नरेंद्र मोदी की वह हवा नहीं है जैसी लोकसभा चुनाव के दौरान थी . उत्तर प्रदेश, बिहार , महाराष्ट्र ,उत्तराखंड समेत सभी राज्यों में बीजेपी के उम्मीदवार धडाधड  हारे हैं . इसलिए अब जब चुनाव बहुकोणीय हो गया है तो पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा  जा सकता . उधर खबर है कि गठबंधन तोड़ कर कांग्रेस वाले मुकामी तौर पर  समाजवादी पार्टी के साथ समझौता कर सकते हैं . समाजवादी पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता से बात करने पर पता चला कि महाराष्ट्र के चुनाव में वहां के अध्यक्ष अबू आसिम   आजमी को सारे अधिकार दे दिए गए हैं  और चुनावी गठजोड़ आदि के बारे में वही फैसला लेगें . अगर कांग्रेस और समाजवादी में कोई समझौता हो जाता है तो  दोनों ही पार्टियों को फ़ायदा होगा. सबसे दिलचस्प बात यह होगी कि इन पार्टियों का अगर सही समझौता हो गया तो मुंबई और थाणे में ऐसी बहुत सारी सीटें होंगीं जहां शिवसेना और बीजेपी के उम्मीदवारों को मुश्किल पेश आ सकती है . मुसलमानों के एक बड़े वर्ग में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के वोट हैं . दोनों पार्टियां जब अलग अलग लडती हैं  तो उनके सामने भारी  दुविधा आती है .लेकिन एकता हो जाने पर  मुसलमानों के वोट को एकमुश्त करना आसान होगा. शिवसेना से अलग होने पर बीजेपी को भी  उत्तर  भारतीयों के कुछ वोट मिल सकेगें क्योंकि जहां से वे आते हैं उन राज्यों में  बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में बहुत अच्छा किया है . लेकिन शिवसेना के परप्रांतीयों के खिलाफ अभियान के चलते  उत्तर प्रदेश, बिहार , मध्य प्रदेश और राजस्थान से आये हुए लोग  मुंबई में बीजेपी से दूर ही रहते हैं . अब बीजेपी का चुनाव शिवसेना के बैगेज से मुक्त है तो हिंदी भाषी राज्यों से आये लोग उसकी ओर  आकर्षित हो सकते हैं .
कुल मिलाकर महाराष्ट्र का चुनाव बहुत ही दिलचस्प मोड़ तक पंहुंच गया है . देखना यह है कि दीपावली के दिन किन पार्टियों के यहाँ  चरागाँ होगा और किसके यहाँ मातम मनाया जायेगा . 

Thursday, September 18, 2014

जब तक सभी दलितों की हालत नहीं सुधरेगी , सामाजिक बराबरी का सपना बेमतलब है



शेष नारायण सिंह 

उसके गाँव में सबसे गरीब दलित बस्ती में रहने वाले लोग होते थे .चमार शब्द का उपयोग किसी को गाली देने के लिए किया जाता था .और हिदायत थी कि चमार को छूना नहीं है . वह भी बचपन में ऐसे ही करता था . लेकिन जब प्राइमरी स्कूल में गया तो दलितों के बच्चों के साथ टाट पर बैठना शुरू हो गया . हर साल गर्मियों की छुट्टियों में वह अपने मामा के यहाँ चला जाता था ,जौनपुर शहर से लगा हुआ गाँव . कई बार छुट्टी शुरू होने के पहले स्कूल की परवाह किये बिना अप्रैल में ही जाना पैड जाता था क्योंकि अगर कोई शादी ब्याह अप्रैल में पड़ गया तो स्कूल की छुट्टियों का इंतज़ार थोड़े ही किया जाएगा .मामा के गाँव में उसकी दोस्ती एक दलित लडके से हो गयी. शहर से लगे हुए उस गाँव में दलितों के साथ उतना अत्याचार नहीं होता था जितना उसके गाँव में .उसके अपने गाँव में गाली और अपमान के ज़्यादातर सन्दर्भ ऐसे थे जिसमें चमार शब्द का इस्तेमाल होता था. जब वह आठवी में था तो उसकी मुलाक़ात किसी समाजवादी नेता से हो गयी .  वे गाँव में ही किसी के दूर के रिश्तेदार थे . इस रिश्तेदार ने उसकी दुनिया में तूफ़ान ला दिया. उसको पता चला कि चमार भी उसकी तरह के ही इंसान होते हैं . उसने अपने बाबू की दलितों संबंधी जानकारी को गलत मानना शुरू कर दिया .बाबू के उस तर्क को उसने खारिज करना शुरू कर दिया जिसमें शूद्र को पीटने की बात को ज़मींदार का कर्त्तव्य बताया जाता था. उसके बाबू पढ़ाई लिखाई के भी खिलाफ थे . उनका कहना था कि पढ़ लिख कर लडके किसी काम के नहीं रह जाते . दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई पर रोक लग गयी थी  लेकिन उसकी माँ ने जिद करके अपने मायके ले जाकर जौनपुर में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए नाम लिखवा दिया .वह जौनपुर गया तो उसके बचपन के दलित साथी ने पढ़ाई छोड़ दी थी, उसका गौना आ गया था और वह किसी का हलवाहा बन गया था. उसने अपने बचपन के साथी से सम्बन्ध बनाए रखा. उसके अपने गाँव में दलितों के बच्चों के नाम ऐसे होते थे जो ठाकुरों ब्राह्मणों के नाम से अलग लगते थे . ढिलढिल ,फेरे, मतन, बुतन्नी, बग्गड़ ,मतई ,दूलम,दुक्छोर, बरखू, हरखू आदि . अगर किसी दलित बच्चे का नाम ठाकुरों के बच्चों से मिलता जुलता रख दिया जाता था तो व्यंग्य में कहा जाता था कि बिटिया चमैनी कै नाउ राजरनियाँ. यह कहावत उसके दिमाग में घुसी हुई थी . और जब उसके मामा के गाँव के हलवाहे और उसके बचपन के मित्र के घर बेटी पैदा हुई तो उसने उसका नाम राजरानी रखवा दिया. यह बात जब उसके बाबू को पता चली तो वे बहुत खफा हुए और परंपरा तोड़ने का आरोप लगा कर अपने ही बेटे को अपमानित किया , मारा पीटा .

बात आई गयी हो गयी . राजरानी को अफसर बनने लायक शिक्षा दिलवाने में उसने बहुत पापड़ बेले . तरह तरह के लोगों ने विरोध किया लेकिन लड़की कुशाग्रबुद्धि थी , पढ़ लिख गयी . और पुलिस में सब इन्स्पेक्टर हो गयी . ट्रेनिंग पर गयी और तैनाती सुल्तानपुर जिले में ही हो गयी . जब उसने अपने पिता के मित्र के बाबू जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की तो वे सन्न रह गए और कहा कि मैं तो पहले ही कहता था कि यह लड़की बहुत ऊंचे मुकाम तक जायेगी. हालांकि यह बात उन्होंने कभी नहीं कही थी . वे तो उसको गाली ही देते रहते थे .सच्चाई यह है कि उन बाबू साहेब और उन जैसी सामंती मानसिकता वालों की सोच की मुखालफत के बावजूद लडकी ने तरक्की की थी . अगर माकूल माहौल मिला होता तो शायद और ऊंचे पद पर जाती. इस कहानी की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि इस बात का मुगालता नहीं होना चाहिए कि अर्ध शिक्षित और अशिक्षित सामन्तों की मानसिकता कभी नहीं बदलेगी. यहाँ उन अर्द्धशिक्षितों को भी शामिल करना होगा जो डिग्रीधारी हैं . देश में तथाकथित शिक्षितों का एक वर्ग लड़कियों की शिक्षा का हमेशा विरोध करता रहा  है .  अगर सामाजिक बराबरी की लड़ाई लड़ने वाले लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान दें तो मकसद को हासिल करना ज्यादा आसान होगा . महात्मा फुले ने लड़कियों की ,खासका दलित लड़कियों की शिक्षा को सबसे अधिक प्राथमिकता दी थी और उनके बाद के महाराष्ट्र में यह सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा कारक बना था .
ज़रुरत इस बात की है कि दलित लड़कियों के लिए अलग से आरक्षण दिया जाना चाहिए . अजीब बात है कि इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो रहा है . शायद ऐसा इस्सलिये कि पुरुष प्रधान भारतीय समाज में दलित हित की बात करने वाले नेताओं की मूल सोच भी सामंती संस्कारों से ठस्स है .महिलाओं को अफरमेटिव एक्शन के ज़रिय बराबरी पर लाने की बात भी होती रही है .  इस बीच महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान मंडलों में सीटें रिज़र्व करने की बहस में बहुत सारे आयाम जुड़ गए हैं.. संविधान लागू होने के ६४ साल बाद भी दलितों को उनका हक नहीं मिल पाया है जबकि संविधान के निर्माताओं को उम्मीद थी कि आरक्षण की व्यवस्था को दस साल तक ही रखना होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिन लोगों के हाथों में सत्ता का कंट्रोल आया उनकी सोच जालिमाना और सामंती थी . शायद इसी लिए दलितों को उनका हक नहीं मिला. शिक्षा, न्याय, प्रशासन, राजनीति ,व्यापार , पत्रकारिता आदि जैसे जितने भी सत्ता के आले थे ,जहां सब पर दलित विरोधियों का क़ब्ज़ा था. जाति व्यवस्था का सबसे क्रूर पहलू दलितों के लिए ही आरक्षित था . उनके लिए संविधान के तहत जो अवसर मुहैया कराये गए थे , उन अवसरों को लागू करने वाले तंत्र पर भी पर भी जाति व्यवस्था का सांप कुण्डली मार कर बैठा हुआ था . डॉ अंबेडकर और डॉ लोहिया ने जाति व्यवस्था की बंदिश को तोड़ने की जो कोशिश की उसका भी वह नतीजा नहीं निकला जो निकलना चाहिए था . आरक्षण की वजह से जो दलित लोग उस चक्रव्यूह से बाहर आये उनमें से काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो शहरी मध्य वर्ग के सदस्य बन गए और उनकी भी सोच सामंती हो गयी. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन और बराबरी के लिए वह नहीं किया जो उनको करना चाहिए था. आज ज़रुरत इस बात की है कि मनुवादी व्यवस्था के वारिसों को तो दलित अधिकारों की चेतना से अवगत कराया ही जाए लेकिन दलित परिवारों से आये भाग्य विधाता नेताओं और नौकरशाहों को भी चेताया जाये कि जब तक सभी दलितों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरेगी सामाजिक बराबरी का सपना देखना भी बेमतलब है . अगर ऐसा हुआ तो नयी पीढी की राजरानी सब इन्स्पेक्टर नहीं होगी, वह सीधे आई पी एस में भर्ती होगी.


उम्मीदों की बहन ,सियासत को नफरत समझ बैठे, उपचुनाव हार गए .


शेष नारायण सिंह 
लोकसभा चुनाव २०१४ में शानदार जीत के बाद हुए उपचुनावों में बीजेपी को वह आनंद नहीं आ रहा है जो उसने १६ मई २०१४ को अनुभव किया था . लगातार झटके लग रहे हैं . ताज़ा उपचुनाव में उत्तर प्रदेश और राजस्थान से  आ रहे  संकेत ऐसे नहीं हैं जिन्हें बीजेपी वाले पसंद करेगें . दोनों ही राज्यों में बीजेपी के उम्मीदवार उन सीटों पर हारे है जहां इसके पहले हुए चुनावों में बीजेपी को जीत हासिल हुयी थी. उत्तर प्रदेश में तो वे सीटें हैं जहां २०१२ के उस चुनाव में  बीजेपी ने इन सीटों को जीता था जब राज्य में पूरी बीजेपी पचास सीटों में सिमट गयी थी. बीजेपी वालों को भी पता है कि हार गैरमामूली है और  मुकम्मल है . लेकिन एक बात और भी सच है कि यह नतीजे समाजवादी पार्टी की जीत भी नहीं है. यह अलग बात है  कि समाजवादी पार्टी के आला नेता मुलायम सिंह यादव इसको अपनी जीत बता रहे हैं . लेकिन यह उनकी जीत बिलकुल नहीं है . उनकी पार्टी के उम्मीदवार केवल इसलिये जीते क्योंकि बीजेपी की राजनीति को नकारने का मन बना चुकी जनता के सामने कोई और विकल्प नहीं था. यह इस बात का भी सबूत है कि अगर जनता मन बना ले तो राजनीतिक पार्टियों को ज़रूरी सबक सिखाती ज़रूर है  हालात चाहे  जो भी हों . मसलन बिहार में लालू और नीतीश एक हो गए तो जनता ने बीजेपी को औकात बता दी. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे कि उसके खिलाफ पड़ने  वाले वोट कांग्रेस ,बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के बीच बंट जायेगें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस चुनाव में वोटों की ठेकेदारी करने वाली जमातों को भी झटका ज़रूर लगा होगा क्योंकि मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद हुए लोकसभा चुनाव में दलितों ने उस इलाके में बीजेपी को वोट दिया था . इस बार बीजेपी के रणनीतिकारों को यही मुगालता था कि दलित वोट किसी भी कीमत पर मुलायम सिंह  यादव को नहीं मिल सकते क्योंकि उनकी मानी हुयी नेता  मायावती ने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं . उनको इमकान था कि मायावती की पार्टी चुनाव मैदान में है नहीं तो दलित बीजेपी को वोट देगें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ . समाजवादी पार्टी के राज से परेशान और उसके मुकामी कार्यकर्ताओं से दहशत में रहने वाले दलित वर्गों ने भी बीजेपी के खिलाफ वोट दिया . हालांकि उनका वोट समाजवादी  पार्टी की राजनीति चमकाने में काम आ गया. ऐसा लगता है की उत्तर प्रदेश की जनता ने बीजेपी के  उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी और गोरखपुर के संसद सदस्य महंत आदित्यनाथ की राजनीति को धता बताने के लिए  कुछ भी करने का मन बना लिया था . और उसने  वह कर  भी दिया .
 बीजेपी की हार का मुख्य कारण यह है कि वह  आइडिया आफ इण्डिया को तोड़ मरोड़ कर पेश करती है . वह भारत को बहुमतवाद की तरफ घसीट रही है  और भारत को उसी ढर्रे पर डालने की कोशिश कर रही है जिसपर मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत के बाद शासक वर्गों ने पाकिस्तान  को डाल दिया था था. धार्मिक प्रभुतावादी और अधिसंख्यावादी लोकतंत्र के खतरों को पाकिस्तान के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है . मौजूदा उपचुनाव  के नतीजों को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . सितम्बर २०१४ के उपचुनावों में बीजेपी हार गयी है लेकिन जो पार्टियां जीती हैं उनसे लोकतंत्र के हित में कोई बहुत उम्मीद नहीं बनती . उत्तर प्रदेश में   जीत समाजवादी पार्टी की हुई है . समाजवादी पार्टी कोई बहुत लोकतांत्रिक पार्टी नहीं है . उसमें परिवारवाद बहुत ही गंभीर किस्म का है . राजस्थान में भी परिवारवाद से पहचानी जाने वाली पार्टी , कांग्रेस के लोग ही जीते  हैं . लेकिन जनता को बीजेपी को अपनी राजनीति सुधारने की चेतावनी देनी थी ,उसने दे दिया . इन  चुनावों के नतीजों से सबक लेकर अगर बीजेपी अपनी मनमानी की राजनीति से बाज़ आ जाती है तो वह देश के लिए हितकर होगा क्योंकि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के रूप में उसके पास कुछ भी कर गुजरने की राजनीतिक ताक़त मौजूद है . अगर उसको बेलगाम छोड़ दिया गया तो लोकशाही के लिए मुश्किल पेश आ सकती है .
बीजेपी की इस हार को उत्तर प्रदेश के हवाले से समझने की कोशिश की जायेगी . उत्तर प्रदेश में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी और महंत आदित्यनाथ ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की राजनीति के बल पर जीत हासिल करने की कोशिश की थी. इस काम के लिए लव जिहाद का नया फार्मूला तलाश लिया गया था . लव जिहाद को इतना बड़ा कर दिया गया था की बाकी कोई भी मुद्दा चर्चा में आ ही नहीं पाया . अपने लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे ऐसे वायदे किये थे जो सौ दिन में पूरे होने थे, मंहगाई और बेरोजगारी पर ज़बरदस्त हमला  होना था , भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जाना था, पाकिस्तान को उसकी औकात बता देनी थी, चीन  को बता देना था कि सीमा पर खामखाह का तनाव न पैदा करे . लेकिन इन  मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुयी  क्योंकि महंगाई ,बेरोजगारी,भ्रष्टाचार आदि तो ज्यों के त्यों बने हुए हैं , पाकिस्तान भी पहले की तरह की बदस्तूर सीमा पर गड़बड़ी कर रहा  है , और चीन से प्रधानमंत्री का अपनापा बनाने का अभियान चल रहा है . हमारा  मानना है कि चीन और पाकिस्तान से भारत को वैसे ही सम्बन्ध रखने चाहिए जैसे कि मौजूदा सरकार रख रही  है लेकिन फिर सवाल उठता है कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार भी तो वैसे ही सम्बन्ध रख रही थी. चुनाव अभियान के दौरान इतना हल्ला गुल्ला क्यों किया गया था. जहां तक नौजवानों को नौकरियाँ देने की बात है , वह सपना तो पचासों वर्षों से सत्ता हासिल करने के  लिए राजनीतिक पार्टियां दिखाती रही  हैं , अब भी दिखाती रहेगीं .ऐसी  हालात में लगता है की सरकार की सौ दिन की नाकामियों के खिलाफ जनता के गुस्से को कंट्रोल करने के लिए यह लव जिहाद वाला शिगूफा ईजाद किया गया था और इस बात की पूरी संभावना है कि इस चुनाव में मनमाफिक नतीजे न दे पाने के कारण अब इसको भुला दिया जाएगा .
दरअसल इस चुनाव का सबसे ज़रूरी सबक यह है की धार्मिक समुदायों में नफ़रत फैलाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता .इन नतीजों को  बीजेपी में मौजूद दो राजनीतिक धाराओं के टकराव को  समझने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इस बात में कोई विवाद नहीं है कि बीजेपी और आर एस एस की संस्थापक संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना १९२५ में वी डी सावरकर की किताब "हिंदुत्व " को आधार बनाकर की गयी थी लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद आर एस एस के नेताओं ने सावरकरवादी हिंदुत्व को नकारना शुरू कर दिया था . सावरकर की पार्टी ,हिन्दू महासभा में भी मतभेद पैदा हो गए थे. नफरत की राजनीति का विरोध कर रहे हिन्दू महासभा के नेता , डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने एक नयी पार्टी की स्थापना करने का मन बनाया . उन्होंने अपना मंतव्य आर एस एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को बताया जिन्होंने डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सहयोग देने का वचन दिया . वचन ही नहीं दिया बल्कि एक अपेक्षाकृत उदार सोच के प्रचारक स्व दीन दयाल उपाध्याय को  डॉ मुखर्जी के सहयोग के लिए भेज भी दिया . नतीजा यह हुआ कि सावरकर की राजनीतिक सोच से अलग राजनीति को आधार बनाकर  १९५१-५२ में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई . भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार आर एस एस के हिन्दुराष्ट्र के सिद्धांत को बुनियाद बनाकर  १९५२ के चुनाव में शामिल भी हुए और पश्चिम बंगाल में सफलता भी मिली . उसके बाद से हिन्दू महासभा को कट्टर हिंदुत्व की पार्टी का स्पेस खाली करने को मजबूर होना पडा और बाद में तो वह पूरी तरह से हाशिये पर आ गयी . आर एस एस और बीजेपी मूल रूप से हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार बने जो आज तक कायम है . जनसंघ और बीजेपी के अन्दर हमेशा से   सावरकर वादियों की मौजूदगी रही है और वे समय समय पर  हुंकार भरते रहे हैं . मौजूदा लव जिहाद में जो नफरत का तडका है वह उसी राजनीति का परिणाम है . स्व दीन दयाल उपाध्याय और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीतिक लाइन के सबसे बड़े पोषक अटल बिहारी वाजपेयी रहे हैं और उनके सक्रिय रहते  कभी भी सावरकर वादियों को प्रमुखता नहीं मिली लेकिन आजकल बीजेपी की वैचारिक सोच पर कब्जे की लड़ाई बार बार मुंह उठाती है .  मौजूदा दौर भी उसी में से एक है .
    
 लोकसभा २०१४ के पहले भी बीजेपी और आर एस एस के बड़े नेताओं की एक मीटिंग में हिंदुत्व की नयी परिभाषा को सावरकर वादी  सांचे में फिट करने की कोशिश की गयी थी . मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि बीजेपी के नेता आर एस एस–बीजेपी के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को २०१४ के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं . इस बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और बीजेपी को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में  लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए . १२ फरवरी की बैठक में आर एस एस वालों ने बीजेपी नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है .जबकि बीजेपी का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता. बीजेपी वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके.इस बैठक से जब बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई .
बीजेपी ने जब १९८६ के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम  विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा .अयोध्या की बाबरी  मसजिद और राम जन्म भूमि विवाद इसी रणनीति का हिस्सा था.  बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के नाम पर आर एस एस ने काम किया और जो बीजेपी १९८४ के चुनावों में २ सीटों वाली पार्टी बन गयी  उसकी संख्या इतनी बढ़ गयी कि वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने के मुकाम पर पंहुच गयी . आर एस एस में मौजूद एक वर्ग की यही सोच  है  कि अगर चुनाव धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा गया तो बहुत फायदा होगा .लव जिहाद भी बीजेपी के अन्दर चल रहे वैचारिक मंथन का एक शिगूफा मात्र है और इसको उसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए लेकिन इन उपचुनावों के नतीजे के बाद बीजेपी में वैचारिक चिंतन के बार फिर जोर मारेगा . उम्मीद की जानी चाहिए कि दक्षिणपंथी ही सही लिबरल डेमोक्रेसी कायम रहेगी .
  

Monday, September 15, 2014

अमरीकी विदेशनीति की दुर्दशा और नेहरू की विदेशनीति की विरासत


शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया ,खासकर इराक और  सीरिया में अमरीकी विदेशनीति को बहुत ही कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है . अभी कुछ अरसा पहले  इराक के युद्ध से अपने देश को अलग कर चुके अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को फिर इराक में सैनिक कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है .  कई साल पहले अमरीकी शहरों पर ११  सितम्बर को आतंकवादी हमले के बाद से सभी अमरीकी राष्ट्रपतियों ने इराक पर हमले किये हैं . बड़े तामझाम के साथ बराक ओबामा ने इराक में युद्ध खत्म करने की घोषणा की थी लेकिन इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया की सैनिक कार्रवाई के मद्देनज़र उनको भी वहाँ शामिल होना पड़ गया. जनवरी ९१ में बुश सीनियर ने , दिसंबर ९८ में बिल क्लिंटन ने और मार्च २००३ में बुश जूनियर ने इराक पर सैनिक कार्रवाई शुरू किया था . अब सितम्बर २०१४ में बराक ओबामा ने भी इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के आतंक के राज को सीमित करने की मंसूबाबंदी कर ली है .बराक ओबामा का मामला थोडा अलग है .उन्होने जब इराक में अमरीकी सैनिक कार्रवाई खत्म करने की घोषणा की थी तो कहा था कि अमरीका के राष्ट्रपति के रूप में उनकी जिम्मेदारी है कि वे अमरीकी अवाम के जान-ओ-माल की हिफाज़त करें . अब दोबारा इराक पर सैनिक कार्रवाई करने के पहले वे फिर यही कह रहे हैं कि अमरीकी  जिंदगियों की रक्षा के लिए  वे यह काम कर  रहे हैं . हालांकि दोनों दावों के सन्दर्भ अलग हैं और दोनों के मायने भी बिलकुल अलग हैं .अभी कुछ दिन पहले बराक ओबामा ने कहा  था कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया से अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई ख़तरा नहीं है . लेकिन उन्होने  साथ साथ यह भी कह दिया कि उनके राज में कोई अगर अमरीका को धमकी देगा तो उसे बचने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिलेगी. हर बार जब भी अमरीका ने इराक पर हमला किया है तो सभे एराष्ट्रपति किसी न किसी रूप में अंतर राष्ट्रीय सहयोग की बात करते थे . सीनियर बुध और बिल क्लिंटन ने तो पूरी दुनिया को शामिल करने की  कोशिश की थी और अपने मुवक्किल देशों  को उस लड़ाई में झोंकने में भी कामयाब रहे थे लेकिन बराक ओबमा की बात से यह नहीं लगता कि वे कोई उस तरह की कोशिश भी कर रहे हैं . ओबामा और उनकी मंडली के और लोग यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह वाली लड़ाई पुराने अफगानिस्तान या इराक वाली लड़ाइयों जैसी नहीं होगी. इस बार कुछ सोमालिया या यमन जैसी गुपचुप हमलों टाइप ही  बात रखी जायेगी . हालांकि उनको मालूम है कि यह लड़ाई केवल हवाई हमलों से ही नहीं जीती जा सकती, ज़मीनी सेना भी चाहिए और ओबामा की योजना है कि ज़मीनी सेना का जुगाड इराक और सीरिया में मौजूद उन लड़ाकों से किया जाएगा जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के खिलाफ लड़ रहे हैं . यह बहुत ही विरोधाभासी सोच है . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के खिलाफ जो लोग सीरिया में लड़ रहे हैं ,उनमें सबसे महत्वपूर्ण तो सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ही हैं और उनको तबाह करने के लिए अमरीका और नैटो के सदस्य देश सुन्नी बागियों को मदद कर रहे हैं . उन सुन्नी बागियों में से एक बड़ी संख्या इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया वालों के हमदर्द हैं .

अमरीकी विदेशनीति में एक नई तरह की सोच पैदा हो रही है . इस नई सोच का अमरीकी विदेशनीति पर बहुत ही भारी असर पड़ने वाला है और यह भी तय है  कि यह असर बहुत ही दूर तलक जाएगा .अभी तक माना  जाता रहा है कि पश्चिम  एशिया में अमरीका सउदी अरब और इरान के बीच जारी प्राक्सी लड़ाई को ही बैलेंस करता रहा है . वह कहीं सुन्नी को मदद करता है तो कहीं शिया को . लेकिन अब इस सोच में बुनियादी बदलाव हो रहा है . अब अमरीकी विदेशनीति के नियामक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के विरोधाभासी झगड़े के चलते अब इस्लाम वाले सभी राज्यों से दूरी बना ली जाए . अगर ऐसा हुआ तो अमरीकी विदेश नीति एक बार फिर बुरी तरह से असफल होगी और सिर के बल खड़ी  नज़र आयेगी. इस्लामी और गैर इस्लामी के आधार पर अगर अमरीका अपनी भावी नीति तय करता है तो खासी उलटवांसी होगी क्योंकि एक तरफ तो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया और मुस्लिम ब्रदरहुड है और दूसरी तरफ इरान ,सीरिया की सरकारें हैं और शिया मिलिशिया संगठन हेज़बोल्ला और असीब अहल अल हक़ है .इसमें से सभी आतंकवादी नहीं हैं लेकिन इनकी राष्ट्रीय पहचान गौड़ है और इस्लामी पहचान मुख्य है . यानी इन सभी संगठनों के सदस्य अपने आपको मुसलमान पहले मानते हैं और किसी देश या संगठन का सदस्य या शिया और सुन्नी बाद में .पश्चिम एशिया या अन्य इस्लामी देशों में अमरीका के प्रति जो नफरत का भाव है उसके चलते अब अमरीका में नीति निर्धारक हर तरह के इस्लाम को अपना दुश्मन  मानकर चलने की रणनीति पर काम करने की योजना बना  रहे है .और यह आने वाले समय में  बहुत ही  खतरनाक हो सकता है ..
अमरीकी विदेशनीति में अक्सर इस तरह के हिचकोले आते रहते  हैं .इसका कारण यह है कि उनकी विदेशनीति के निर्धारकों ने आम तौर पर फौरी नतीजों को ध्यानमें रख कर सारा काम किया था. दूरदृष्टि का कहीं दूर दूर तक पता नहीं है . अमरीकी की शेखचिल्ली विदेशनीति की तुलना भारत की विदेशनीति से करना दिलचस्प होगा जो अब तक कहीं भी फेल नहीं हुई. उसका कारण यह है कि इस नीति के मुख्य निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने बहुत ही सोच विचार के बाद इस नीति को अमली जामा पहनाया था . लेकिन अजीब बात है कि आजकल नेहरू की विदेशनीति के बारे में बहस का सिलसिला शुरू हो गया है और वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं, नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की दौड़ में शामिल हो गए हैं ..कुछ टेलिविज़न चैनल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं लेकिन सच्चाई यह है कि नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है. तथाकथित बुद्धिजीवियो का एक ऐसा वर्ग भी देश में मौजूद है जो यह बताना अपना फ़र्ज़ समझता है कि अगर आज़ादी मिलने के बाद भारत ने अमरीका का साथ पकड़ लिया होता तो बहुत अच्छी विदेशनीति बनती . ज़ाहिर है इस तरह के लोगों को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है . लेकिन जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया, उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी , स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया. भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना जवाहरलाल की नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं , उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.' शुरुआती दिनों में सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि  “ भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा.” जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो अमरीका परस्त लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है. उन्हें अपने दिल्ली और वाशिंगटन में बैठे अपने आकाओं को  बता देना चाहिए अगर नेहरू की तरह सोच विचार कर अमरीका ने विदेशनीति को संचालित किया होता तो आज उसे पश्चिम एशिया में यह दुर्दशा न झेलनी पड़ती 

Tuesday, September 9, 2014

भारतीय लोकतंत्र में आई खामियों को दुरुस्त किये बिना न्याय और समानता का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकेगा

( मेरा यह लेख अब भंग किये जा चुके योजना आयोग की हिंदी पत्रिका योजना के अंतिम अंक में छपा था )

शेष नारायण सिंह

पूरी दुनिया में लोकतंत्र के भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं . दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीका ने प्रचार कर रखा था कि शीत युद्ध के खात्मे  के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा लेकिन शीत युद्ध में अमरीकी जीत के दावे के बावजूद भी आज लोकतंत्र के बुनियादी लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका है . गरीब और अविकसित देशों की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है , सच्चाई  यह है कि अतिविकसित देशों में भी मानवाधिकारों के  रक्षक के रूप में लोकतंत्र उतना सफल नहीं हो सका है जितनी उम्मीद की जा रही थी. यूरोप और अमरीका के बहुत सारे  संगठनों ने रिसर्च के बाद तय किया है कि एक अवधारणा के रूप में लोकतंत्र को रिक्लेम करने की ज़रुरत है . शीत युद्ध के बाद भविष्यवाणी की गयी थी कि एक राजनीतिक विधा के रूप में लोकतंत्र सबसे बड़ा,कारगर और सफल व्यवस्था  बना  रहेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती न्याय और अधिकार की डिलीवरी की है . इंसानी मूल्यों के पोषक और रक्षक के रूप में राज्य और सरकार की उपयोगिता  पर सवाल उठ रहे  हैं . सबको मालूम है कि  मनुष्य और मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोकतंत्र सबसे ज़रूरी और उपयोगी साधन है लेकिन आज जो चुनौतियां हैं वे इसी बात को रेखांकित कर रही हैं कि लोकतंत्र विकास की तरकीबों में सुधार और गैरबराबरी की हालात को कम करने में नाकाम पाया जा  रहा है . दुनिया के हर इलाके में हिंसक संघर्ष हो रहे हैं . हिंसक संघर्षों को कम करना मानवता के अस्तित्व के सवाल से जुडा हुआ मुद्दा है .हमें मालूम है कि हिंसक संघर्ष का मुख्य कारण असुरक्षा  होती है . असुरक्षा तब होती है जब समाज के एक वर्ग या कुछ वर्गों को यह अहसास हो जाए कि  वे मुख्यधारा से अलग कर दिए गए हैं , या उनको ऐसा भरोसा हो जाए कि उपलब्ध तरीकों से  वे बाकी लोगों के साथ बराबरी नहीं कर सकते . हिंसक संघर्ष के कारणों में वंचना भी एक अहम् कारण है . जब किसी वर्ग को ऐसा शक हो जाए कि वह  संसाधनों से वंचित कर दिया गया है या उसे यह आभास हो जाए कि लोकतंत्र में जो राजनीतिक शक्ति उसकी वजह से राज्य को मिलती है वह एक व्यक्ति या  समाज के रूप में उस से वंचित रह गया है तो उसे परेशानी होती है और वह हिंसा को एक विकल्प के रूप में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है . लोकतंत्र को इस खामी को ठीक करने की कोशिश करनी पड़ेगी .


लोकतंत्र की स्थापना और संचालन में संस्थाओं का बहुत बड़ा योगदान है लेकिन यह मानी हुयी बात है कि लोकतंत्र का संचालन पूरी तरह से संस्थाओं के ज़रिये ही नहीं किया जा सकता . यह भी ज़रूरी है कि लोकतंत्र की संस्थाओं  को टिकाऊ बनाने के लिए प्रयास किये जाएँ . इन संस्थाओं  को न्याय के वाहक के रूप में  विकसित करने  के लिए ज़रूरी है कि लोकतंत्र की संस्कृति को संस्थागत रूप देने की कोशिश की जाए .लोकतंत्र की संस्थाओं से जो अधिकार मिलते हैं उनका प्रयोग न्याय और बराबरी का निजाम कायम करने के लिए किया जाय , लोकशाही की संस्थाओं को शक्तिशाली बनाने का सबसे प्रभावशाली  तरीका यह है कि उसमें अधिकतर लोगों को शामिल करने की प्रक्रिया पर जोर दिया जाय और उसको लागू करने की कोशिश की जाए. एक समाज और देश  के रूप में हमको याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र को मजबूती देने का काम राजनीतिक काम है , उसे केवल किसी फारमूले या नियम क़ानून के बल पर नहीं बनाया जा सकता . इसके लिए ज़रूरी है कि सभी नागरिकों के आत्मसम्मान को महत्व दिया जाए , संसाधनों के मालिकाना हक तय करते वक़्त स्थानीय लोगों को शामिल किया जाए , नीति बनाते वक़्त हर स्तर पर  सब से संवाद की स्थिति पैदा की जाए. यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है कि सबको न्याय मिले और यह दिखे भी कि न्याय हो रहा है . यानी नीति निर्धारण, उसके परिपालन और उसके प्रभाव में हर तरह की  पारदर्शिता लाना किसी भी अधिकारप्राप्त संस्था का मकसद होना चाहिए . सही बात यह  है कि लोकतंत्र राजनीतिक शक्ति हासिल करने का सबसे  मानवीय तरीका है . इसकी सफलता के लिए ज़रूरी शर्त यह है कि इस राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल सकारात्मक तरीके से किया जाय . यह काम न्यायसंगत होना चाहिए और सबको यह पता होना चाहिए की वे भी राजनीतिक ताक़त  के इस्तेमाल की प्रक्रिया में शामिल हैं . लोकतंत्र या किसी भी राजव्यवस्था का मकसद और उसकी बुनियादी ज़रुरत इंसानी सुरक्षा  है . अब तक पाया गया है की इंसानी सुरक्षा के नाम पर हासिल की गयी शक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियां आ जाती हैं जो लोकतंत्र को जड़ से कमज़ोर करती हैं . लोकतंत्र की सभी संस्थाओं में जांच और नियंत्रण की प्रक्रिया को स्थाई रूप से शामिल किया जाना चाहिए .लोकतंत्र के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की कई शोध परियोजनाओं से यह बातें खुलकर सामने आयी हैं .

 इस पर्चे में लोकतंत्र से सम्बंधित इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की जायेगी. हमारे देश में लोकतंत्र अपेक्षाकृत बहुत ही नयी राजनीतिक व्यवस्था है . कुल बासठ साल पुरानी व्यवस्था में हर मुकाम पर अडचनें आती रही हैं . सबसे बड़ी दिक्क़त तो यही रही है की राजवंश व्यवस्था के तत्व  लोकशाही में घुस गए थे. जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद जब लाल बहादुर शास्त्री ने सत्ता संभाली तो शायद आनंद भवन , और नेहरू परिवार के पुराने संबंधों की मुरव्वत के  कारण उन्होंने नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को अपनी मंत्रिपरिषद में शामिल कर लिया था . स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की एक चूक को देश अब तक भोग रहा है . क्योंकि उसके बाद इंदिरा गांधी ने देश की सत्ता की राजनीति को वस्तुतः वंशानुगत बना दिया था .  अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया था. बहुत ही दुखद परिस्थितियों में उनके  छोटे बेटे की मृत्यु हो गयी .उसके बाद उन्होंने अपने अनमने बड़े बेटे को सत्ता  सौंपने का फैसला किया . इंदिरा जी की मृत्यु भी बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद हालात में हुयी थी . तब तक उनकी पार्टी के ज़्यादातर नेता कांग्रेस को एक राजवंशी पार्टी  के रूप में स्वीकार कर चुके थे लिहाज़ा इंदिरा जी की मृत्यु के बाद उनके  बड़े बेटे को सत्ता सौंप दी गयी. और इस तरह से एक  वंशानुगत सत्ता की व्यवस्था स्थापित हो गयी .इंदिरा जी के परिवार का देश की केंद्रीय सत्ता पर वर्चस्व कायम हो  गया था और एक समय तो ऐसा लगने लगा  था की भारत की लोकशाही का  भविष्य खतरे में  हैं. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार , हरियाणा , पंजाब, जम्मू-कश्मीर , तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों में भी राजवंशीय परमपरा कायम हुयी .लेकिन २०१३ में एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गयी जिसके बाद स्पष्ट हो गया कि देश में राजनीति की और व्यवस्थाएं मज़बूत हों  चाहे न हों ,वंशानुगत राजनीति की परम्परा तो ख़त्म होने वाली है . गुजरात के किसी गाँव वडनगर से आये एक व्यक्ति ने केंद्रीय स्तर पर वंशवाद की राजनीति को चुनौती दी और हरियाणा के किसी गांव से आये एक अन्य व्यक्ति ने राजनीतिक अभियान में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने की गांधीवादी पद्धति का फिर से सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया .  बाद में हमने देखा कि आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल की चुनाव प्रचार की तरकीब को बड़ी पार्टियों ने भी अपनाया . उनकी पार्टी मे फैसला लेने की पद्धति पर बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं लेकिन यहाँ मकसद लोकतंत्र में चुनाव अभियान की महत्ता पर चर्चा करना मात्र है , आम आदमी पार्टी या उसके नेता अरविन्द केजरीवाल की बात का केवल तर्क को एक ठोस रूप देने के लिए इस्तेमाल किया गया है .उनकी पार्टी के गुण दोष का विवेचन करना नहीं . अरविन्द केजेरीवाल और उनकी पार्टी ने चुनाव प्रक्रिया और उसके ज़रिये शक्ति हासिल करने के व्याकरण को फिर से स्थापित किया ,लोकतंत्र के विकास में यह उनका महत्वपूर्ण योगदान है . लेकिन वंशवाद की राजनीति में वे कुछ भी नहीं कर पाए .

वंशवाद को चुनौती देने  का काम निर्णायक रूप से गुजरात के वडनगर से आये व्यक्ति ने किया . पूरे चुनाव अभियान  के दौरान इस व्यक्ति ने वंशवाद को कभी भी फ़ोकस से नहीं  हटने दिया .  कांग्रेस के प्रथम परिवार के बारे में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के  संबोधनों के बारे में तरह तरह के सवाल उठाये गए लेकिन उन्होंने मुद्दे को ठंडा नहीं पड़ने दिया . आज देश में एक ऐसी सरकार है जिसके प्रधानमंत्री के पूर्वजों के बारे में उतनी ही जानकारी है जितनी कि सरकारी कागजों में होती है , इतिहास में उनके परिवार के किसी व्यक्ति का नाम कहीं नहीं  आता . लोकतंत्र को प्रभावशाली बनाने में वंशवाद सबसे बड़ी बाधा है और फिलहाल लगता है की सत्ता के शीर्ष पर अब इस तरह की कोई व्यवस्था प्रभावशाली नहीं होने वाली है . केंद्र में तो यह कमज़ोर हो ही गयी है राज्यों में भी अब इसके खिलाफ माहौल बनना शुरू हो जाएगा .अपने लोकतंत्र में इस बुराई के आने की जड़ में भी शायद आज़ादी के बाद की परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार हैं . क्योंकि जवाहरलाल नेहरू का परिवार यानी उनकी बेटी और उसके दो  बच्चे उनके साथ ही रहते रहे और नेहरू के करीब रहने वाले लोगों ने पूरे परिवार को राजनीतिक रंग में परवरिश देने के काम किया . इसके पलट सरदार पटेल  का राजनीतिक आचरण सामने रखकर देखें तो तस्वीर ज़्यादा साफ़ हो जायेगी . सरदार पटेल की बेटी भी उनके साथ ही रहती थीं क्योंकि  बुढापे में सरदार का ख्याल रखने के लिए और कोई नहीं था . मणिबहन की भूमिका सरदार पटेल के घर तक ही सीमित थी . एक बार जब उनके बेटे डाह्याभाई दिल्ली आये तो सरदार को अजीब लगा . डाह्याभाई पटेल उन दिनों मुंबई  में काम करते थे और किसी कम्पनी में अधिकारी थे. कंपनी के किसी काम से आये थे . सरदार पटेल ने उनको शाम को समझाया कि जब तक मैं यहाँ सरकार में काम कर रहा  हूँ तब तक दिल्ली आओ तो मेरे घर मत आओ . खुशी की बात यह  है कि अभी अभी देश में वंशवाद की राजशाही परम्परा को ध्वस्त करने वाला व्यक्ति भी अपने परिवार के किसी व्यक्ति को राजकाज में शामिल करने के खिलाफ है . हो सकता है कि उनकी पार्टी के लोग भी उनसे प्रेरणा लें और लोकतंत्र को अपनी जागीर बनाने की गलती न करें .  वंशवाद का खात्मा केवल इंदिरा गांधी के  वंशजों को सत्ता से  बेदखल करने से नहीं  होगा क्योंकि सभी पार्टियों में बड़े नेताओं ने अपने परिवार के लोगों को महत्व दे रखा है जिसके कारण लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा प्राभावित होती है . अगर लोकतंत्र की रक्षा होनी है तो हर पार्टी में मौजूद राजशाही के तत्वों को कमज़ोर करना पडेगा .

लोकतंत्र के बहाने वंश को स्थापित करने की कोशिश एक बड़ी समस्या है . जैसा कि इस पर्चे की शुरुआत में कहा गया है कि लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती न्याय और अधिकार की डिलीवरी की है . इस डिलीवरी को पारदर्शी तरीके से लागू किया जाना चाहिए . राजनीतिक विकास का  सामंती और वंशवादी तरीका लोकतंत्र के लक्ष्यों का सबसे बड़ा दुश्मन है . वास्तव में सामंतशाही और वंशवाद को ख़त्म करके ही तो लोकतंत्र की अवधारणा का विकास हुआ था . आज भारत में यही दो रिवाज़ लोकतंत्र के विकास में सबसे बड़े बाधक हैं . संतोष की बात यह है कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक खानदान के आधिपत्य पर लोकसभा चुनाव ने ज़बरदस्त असर डाला है . अब ज़रूरत इस बात की है कि अन्य पार्टियों में के अलावा खुद सत्ताधारी पार्टी में जो परिवारवाद की जड़ें हैं उनको ख़त्म किया जाए .यह लोकतंत्र के विकास की सबसे बड़ी शर्त है .

 लोकतंत्र के विकास के लिये ख़त्म तो सामंती सोच के तरीकों को भी करना पडेगा .आम तौर पर देखा गया है कि चुनाव की प्रक्रिया ख़त्म होते ही जो व्यक्ति निर्वाचित होते हैं , उनमें से कुछ लोग अपने आपको राजा समझने लगते हैं . इस रिवाज़ को  भी खत्म करना पडेगा .इस पर्चे की शुरुआत में जो प्रतिस्थापना की  गयी है कि  मनुष्य और मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोकतंत्र सबसे ज़रूरी और उपयोगी साधन है लेकिन आज जो चुनौतियां हैं वे इसी बात को रेखांकित कर रही हैं कि लोकतंत्र की संस्था , विकास की तरकीबों में सुधार और गैरबराबरी  की हालात को कम करने में नाकाम पाई जा  रही है .इस तरह की हालात के पैदा होने और उनके नासूर की हद तक नुक्सान कर सकने की क्षमता हासिल कर सकने का कारण यह है कि निर्वाचित लोग लोकतंत्रीय तरीकों से चुनकर आते हैं लेकिन फैसलों में मनमानी करने लगते हैं . फैसलों में न्याय की कमी का सबसे बड़ा कारण है कि जनप्रतिनिधि  लोकतंत्रीय तरीके से स्थापित की गयी संस्थाओं  को नज़रअंदाज़ करते है और सामन्ती तरीके से फैसले लेते हैं .इस कमी के कारण न्याय की डिलीवरी नहीं हो पाती . ज़रूरी है कि सबकुछ नए तरीके से कर सकने के जनादेश के साथ आये प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी अपने लोकतंत्र में घुस चुकी राजकाज की इस सामंती प्रवृत्ति का खात्मा करने की योजना  को गंभीरता से लें . हालांकि सरसरी तौर पर देखने से लगता  है कि उसकी शुरुआत हो चुकी  है . पिछली सरकार में अगर मनमानी करने की संस्कृति को रोक लिया गया होता तो जिस तरह से  दूरसंचार घोटाले को अंजाम दिया गया , शायद वह न हो पाता . पिछले दिनों हर मंत्रालय के इंचार्ज अफसरों को निर्णय प्रक्रिया के सुचारू सञ्चालन की ज़िम्मेदारी देकर मौजूदा सरकार के प्रधानमंत्री ने यह पक्का कर दिया है कि अब  दूरसंचार घोटाला जैसा कोई घोटाला करने के पहले मंत्री अपनी सीट गंवाने का ख़तरा मोल ले रहा होगा. ज़रुरत इस बात की है कि सामंती और  मनमानी फैसलों की कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों की आदतों पर रोक लगाई  जाए.

राजनीति शास्त्र के विख्यात प्रोफ़ेसर आशुतोष  वार्ष्णेय ने अपनी ताज़ा किताब " बैटिल्स हाफ वन : इंडियाज़ इम्प्राबेबिल डेमोक्रेसी " में  लिखा है कि भारत की आज़ादी के बाद तीन परियोजनाएं सबसे महत्वपूर्ण थीं जिनको कि नए लोकतंत्र को हासिल करना था. पहली , राष्ट्रीय एकता को सुरक्षित करना ,दूसरी सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर मौजूद भारतीयों के लिए न्याय सुनिश्चित करना और उनको गरिमापूर्ण जीवन देना  और तीसरी परियोजना थी कि चारों  तरफ फैली हुयी गरीबी को ख़त्म करना . सभी राष्ट्रों के लिए इस तरह के लक्ष्य रखना सामान्य बात है . हमारे संस्थापकों ने मंसूबा बनाया था कि आज़ादी का लाभ सबको मिल सके. और उसी जद्दोजहद में शुरू से ही हमारा लोकतंत्र लगा हुआ है . पिछले साठ वर्षों के सफ़र में  बहुत सारी अडचनें आयी हैं जिनमें से कुछ को इस पर्चे में गिनाया भी गया  है .भारत की लोकशाही की  खासियत है कि समय  समय पर उनको  दुरुस्त करने की कोशिश भी होती रहती है लेकिन सच्ची बात यह  है कि अभी सही लोकतंत्र की स्थापना  के लिए बहुत अधिक प्रयास किये जाने हैं .

Saturday, September 6, 2014

प्रधानमंत्री जी , नेहरू की राह पर चलकर ही सफलता हासिल होगी



शेष नारायण सिंह  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा को मीडिया बहुत ही सफल यात्रा के रूप में पेश कर रहा है . सरकार की तरफ से भी यही बताया जा रहा है . विदेश मंत्रालय में जो अफसर भर्ती होते हैं वे आई ए एस वालों से भी ज़्यादा काबिल  होते हैं और उनको इस काम में महारत हासिल होती है लेकिन सही बात यह है कि प्रधानमंत्री की जापान यात्रा को सफल किसी तरह से भी नहीं कहा जा सकता . जिस जापानी  निवेश को बार बार चर्चा का विषय बनाया जा रहा है वह तो भारत में आ ही रहा था. भारत में जापानी  निवेश  कोई नई बात नहीं है .वैसे भी जापान के  निवेशक पाकिस्तान और पश्चिम एशिया की  खतरनाक राजनीति के माहौल से बचकर भारत में कुछ  ऐसा निवेश करना चाहते हैं जिसमें सब कुछ तबाह होने का खतरा न हो . इस तरह से जापान को जो बेलगाम निवेश के मौके दिए गए हैं उसमें भारत से ज़्यादा जापान का हित है .
एक बात जो भारत के हित में हो सकती थी वह है भारत और जापान के बीच में गैरसैनिक परमाणु समझौता . इसकी चर्चा कहीं नहीं हो रही है .तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में 1998 में भारत ने राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में परमाणु परीक्षण किया था . उसके बाद से जापान भारत से नाराज़ हो गया था. तब से ही भारत सरकार की कोशिश रही है  कारण परमाणु नीतियों को लेकर दोनों देशों में मतैक्य स्थापित हो जाए लेकिन वह अभी नहीं हो पाया है . असैन्य परमाणु करार और सैन्य  समझौते पर इस बार कोई एकमत नहीं बना पाया जिसका कि कहीं ज़िक्र नहीं हो रहा है . भारत की विदेशनीति और ऊर्जा नीति के प्रबंधकों को मालूम है कि अगर बिजली पैदा करने के लिए परमाणु ऊर्जा की की टेक्नालोजी जापान दे दे तो भारत का बिजली संकट बहुत हद तक ठीक किया जा सकता है .नरेंद्र मोदी को भारत में शुरू से ही एक ऐसे नेता के रूप में जाना जाता है जो जापान को बहुत महत्व देता है , गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने जापानी उद्योगों को महत्व दिया था. अब जापान जाकर तो उन्होंने वाराणसी को वहाँ के एक शहर की नकल पर बना देने का मंसूबा बना लिया है . यह सब मीडिया में चर्चा में रहने के लिए सही है लेकिन इस यात्रा को बहुत सफल बताने वालों को फिर से विचार करना चाहिए . यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जापान को सज़ा देने के उद्देश्य से जब अमरीका और ब्रिटेन से उसपर दबाव बनाया था तो भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उसका विरोध किया था. आज भी जापान के विदेश नीति के प्रबंधक उसको याद रखते हैं .
भारत और जापान के संबंधों में जिन तीन लोगों को जापान कभी भी नहीं भुला सकता ,उनमें जवाहरलाल नेहरू , सुभाष चन्द्र बोस और जस्टिस राधाबिनोद पाल का नाम है . सुभाष चन्द्र बोस ने जापानियों के साथ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सहयोग किया था. जापान के प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि जापान में जस्टिस राधाबिनोद पाल को सभी जानते हैं . ताज्जुब है कि एक ऐसे व्यक्ति के बारे में प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने उनको कुछ नहीं बताया था  जो भारतीय है और जिसको जापान में सभी जानते हैं . जापान के कई प्रसिद्ध मठों में जिनके स्मारक बने हुए हैं और जो भारत-जापान संबंधों की सबसे मज़बूत कड़ी हैं .
राधाबिनोद पाल ने टोक्यो मुकदमों की सुनवाई के दौरान जज के रूप में काम किया था .१९४६ में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टोक्यो ट्रायल के लिए उनको भारत सरकार ने जज बनाकर भेजा था   उन्होंने वहाँ पर जो फैसला दिया उसी के आधार पर जापान को एक राष्ट्र के रूप में फिर से पहचान बनाने का मौक़ा लगा . अमरीका सहित विजेता देशों की इच्छा थी कि कानून का सहारा लेकर जापान को युद्ध अपराधों का दोषी साबित कर दिया जाए और उसकी तबाही को सुनिश्चित कर दिया जाय  लेकिन राधाबिनोद पाल ने इस फैसले में असहमति का नोट लगा दिए और जापान  बच गया . विजेता सहयोगी देशों में विश्वयुद्ध जीत लेने के  बाद युद्ध अपराधों की एक श्रेणी बनाई थी जिसमें हारे हुए देश का कोई पक्ष नहीं था. जस्टिस राधाबिनोद पाल ने कहा कि यह सही नहीं है . उन्होंने कहा कि युद्ध के दौरान जापान ने कुछ ऐसे काम  किये हैं जो मानवता के खिलाफ अपराध हैं लेकिन  अभियुक्त को अपनी बात कहने की आज़ादी दिए बिना न्याय नहीं हो सकता . उन्होंने उस ट्राईबुनल की वैधता पर ही सवालिया निशान लगा दिया . उन्होंने कहा कि अमरीका समेत विजेता देश बदले की भावना को सही ठहराने के लिए कानून का सहारा ले रहे हैं . इस तरह से न्याय तो  कभी नहीं हो सकता . उनके एक हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों के  फैसले को अमरीका ने प्रतिबंधित कर दिया . ब्रिटेन में भी वे फैसले कभी नहीं छप सके लेकिन जापानी नेताओं ने बाद के वर्षों में इस फैसले को सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्तेमाल किया और अपने राष्ट्र की इज्ज़त को बहाल करने की कोशिश की . अजीब बात है कि जापान के प्रधानमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री को जस्टिस पाल के बारे में बताया जबकि जो भी भारतीय नेता जापान जाता है वह जस्टिस राधाबिनोद पाल का नाम ज़रूर लेता है . जापान के सम्राट ने जस्टिस पाल को अपने देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान दिया  था और जापान के मौजूदा प्रधानमंत्री ने ही कोलकता जाकर  जस्टिस पाल के बेटे प्रणब कुमार पाल से मुलाकात की थी . जस्टिस पाल के दामाद देबी प्रसाद पाल भारत की पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त राज्य मंत्री थे और डॉ मनमोहन सिंह के सहयोगी थे . लेकिन प्रधानमंत्री ने इस सबका ज़िक्र नहीं किया . ज़ाहिर है कि उनके लोगों ने उनको सही जानकारी समय पर नहीं दी थी .
भारत जापान संबंधों में जवाहरलाल नेहरू भी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किये जाते हैं जो जापानियों के दुर्दिन के साथी थे. दूसरे  विश्वयुद्ध के बाद जब जापान हार गया  तो अमरीका ने हर तरह से उसको अपमानित करने के मन बनाया . जस्टिस राधाबिनोद पाल ने न्याय के मैदान में सत्य की पक्षधरता दिखाकर जापानियों को  उपकृत किया तो राजनीति के मैदान में जवाहरलाल नेहरू का सहयोग जापान में सबसे अधिक याद किया जाता है, हुआ यह कि जापान को और नीचा दिखाने के लिए अमरीका ने १९५१ में  सान  फ्रांसिस्को पीस कान्फरेंस का आयोजन किया . जवाहरलाल ने साफ़ मना कर दिया कि भारत इस तथाकथित शान्ति सम्मेलन में शामिल नहीं होगा. उन्होंने कहा कि इस सम्मलेन का उद्देश्य जापान की संप्रभुता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता पर लगाम लगाना है . और बाद में न्यायप्रिय दिखने के लिए जब जापान की संप्रभुता को अमरीका ने बख्श दिया तब जवाहरलाल नेहरू ने एक संप्रभु जापान राष्ट्र के साथ अलग से शान्ति समझौता किया और उसके बाद औपचारिक रूप से स्वतन्त्र संप्रभु जापान के साथ  अप्रैल १९५२ में  राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किया .  दूसरे विश्व द्ध के खत्म होने के बाद जब कोई देश जापान के साथ खड़ा नहीं होना चाहता था , भारत ने उसको संप्रभु देश मानकर समझौता किया और बाद में सभी देशों की लाइन लग गयी . यह मान्यता भी जापान में आभार के साथ याद की जाती है .
बीजेपी वालों की नेहरू विरोधी राजनीति से मौजूदा सरकार के मंत्री इतने प्रभावित  हैं कि उनको नेहरू का वह योगदान भी नहीं याद रहता जिसकी  वजह से दुनिया भर के देशों में भारत की इज्ज़त होती है .लगता है नरेंद्र मोदी को भी उनके सलाहकार डर के मारे सही बात बताने के कतराते हैं . अब जब नरेंद्र मोदी ने  विदेश नीति के संचालन में जवाहरलाल नेहरू के तौर  तरीके का अनुसरण करना शुरू कर दिया है तो उनको विदेश नीति के नेहरू माडल से परहेज़ नहीं करना चाहिए . जवाहरलाल नेहरू ने भी विदेश नीति के संचालन में किसी विदेशमंत्री को साथ नहीं रखा , वे खुद ही विदेश मंत्रालय का काम देखते थे . मौजूदा सरकार में सुषमा स्वराज को विदेशमंत्री के रूप में तैनात तो कर  दिया है लेकिन विदेश यात्राओं में या विदेशनीति के संचालन में उनकी भूमिका कहीं नहीं नज़र आती .  संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जवाहरलाल नेहरू का अनुकरण इस मामले में कर रहे हैं . सही बात यह है कि किसी भी प्रधानमंत्री को देश के सबसे महान प्रधानमन्त्री  से  प्रेरणा लेते रहना चाहिए . यह देशहित में रहेगा . इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की बात करना तो ज्यादती होगी क्योंकि उन लोगों को गद्दी नेहरू  के वंशज होने की वजह से मिली थी लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने तो १९४६ तक का जीवन संघर्ष में बिताया था , अंग्रेजों की जेलों में रहकर महात्मा गांधी की अगुवाई में देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी और आर्थिक आज़ादी की मज़बूत नींव डाली थी .

 विदेशनीति के अलावा मौजूदा प्रधानमंत्री अगर कश्मीर नीति के बारे में भी जवाहरलाल को ही  आदर्श मानें तो गलातियों की संभावना बहुत कम हो जायेगी . जैसे उन्होने अपनी पार्टी की बहुत सारी मान्यताओं को  तिलांजलि दी है अगर उसी तरह कश्मीर नीति के बारे में भी बीजेपी की पुरानी नीति को अलविदा कह दें तो उनकी राजनीतिक छवि को ताकत मिलेगी ..जो लोग नेहरू की नीति को कश्मीर के मामले में गलत मानते हैं उनको इतिहास की जानकारी बिल्कुल नहीं है.  कश्मीर आज भारत का हिस्सा इसलिए है कि सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू ने मिलकर काम किया था. सितम्बर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . और जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . जिस जनमत संग्रह का आजकल विरोध किया  जाता है वह उन दिनों भारत के पक्ष में था. महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन पाकिस्तान जनता की राय लेने के खिलाफ था . लेकिन जवाहरलाल नेहरू को पाकिस्तान की नीयत पर भरोसा नहीं था .उन्होंने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इसलिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडेपेट्रोल और राशन की सप्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.  सच्ची बात यह  है कि कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया.
आज जापान से भारत के अच्छे संबंधों में जस्टिस राधोगोबिंद पाल और जवाहरलाल नेहरू का सबसे ज्यादा योगदान है . आज की सरकार उसी ढर्रे पर चल रही है . ज़रूरी है कि नेहरू को आजादी के  संघर्ष का हीरो  माना जाए और उनकी नीतियों को देशहित में प्रयोग किया जाए.


Friday, September 5, 2014

राम तजूं पर गुरू न बिसारूँ


शेष नारायण सिंह
शिक्षक दिवस पर  मुझे अपने केवल एक शिक्षक की याद आती है. बी ए में उन्होंने मुझे दर्शन शास्त्र पढ़ाया था. उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के तिलकधारी पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में आज से ४५ साल पहले मैंने बी ए के पहले साल में नाम लिखाया था. वहाँ दर्शनशास्त्र के लेक्चरर डॉ अरुण कुमार सिंह थे. दो साल पहले ही उनकी नियुक्ति हुई थी . इंटरमीडियेट में मैंने तर्कशास्त्र की पढाई की थी लिहाजा प्रवेश के फ़ार्म में दर्शनशास्त्र भी एक विषय के रूप में भर दिया .  तिलकधारी कालेज उन दिनों उस इलाके का सबसे अच्छा कालेज माना जाता था. आसपास के कई जिलों के बच्चे वहाँ पढ़ने आते थे . हम लोगों का जलवा थोडा ज्यादा था क्योंकि हमने तिलकधारी सिंह इंटरमीडियेट कालेज से बारहवीं पास किया था. तब तक शिक्षक के बारे में हमारी राय बहुत अच्छी नहीं होती थी . हाँ, तिलकधारी सिंह इंटरमीडियेट कालेज के हमारे प्रिंसिपल बाबू प्रेम बहादुर सिंह एक भले इंसान थे. खेलकूद , वादविवाद  और नाटक का बहुत अच्छा माहौल बना रखा था .उनकी प्रेरणा से ही इंटरमीडियेट कालेज सेक्शन के छात्रों और शिक्षकों ने मिलकर जयशंकर प्रसाद का नाटक स्कंदगुप्त खेला था जो बाद के कई वर्षों तक चर्चा में बना रहा था. वे ही शिक्षकों को आदेश देते थे कि बच्चों को वादविवाद प्रतियोगिताओं में ले जाओ . जिसके चलते मुझे बहुत दूर दूर तक के कालेजों में डिबेट में शामिल होने का मौक़ा मिला था . लेकिन वे प्रिंसिपल थे , शिक्षक नहीं . बहरहाल जब हम मुकामी छात्र डिग्री कालेज में जाते थे तो थोडा ठसका रहता था .उसी ठसके के चक्कर में मैंने दर्शनशास्त्र के शिक्षक से सवाल पूछ दिया .मैंने पूछा था कि दर्शनशास्त्र की पढाई की ज़रूरत क्या है . सवाल तफरीहन पूछा गया था लेकिन डॉ अरुण कुमार सिंह ने जिस गंभीरता से जवाब दिया , उस से मैं बहुत ही असहज हो गया. वहीं पर पहली बार सुना कि हर विषय अंत में जाकर दर्शनशास्त्र हो जाता  है . सारे धर्म , सारा विज्ञान, सारी कायनात एक फिलासफी की बुनियाद पर बनी है . बहुत देर तक बात करते रहे . उन्होंने बताया कि फिजिक्स और गणित भी अंत में दर्शनशास्त्र हो जाते हैं . बहरहाल जब क्लास खत्म हुई तो  साथियों ने मेरी खासी धुलाई की कि बेवकूफ ने ऐसा सवाल पूछ दिया कि उसका जवाब ही नहीं खत्म होने वाला है . लेकिन जब अगले दिन की क्लास में भी उन्होंने  अपने पिछले लेक्चर से ही शुरू किया और दर्शनशास्त्र की महत्ता पर चर्चा करते रहे तो हमें लग गया कि शिक्षकों की किसी नई प्रजाति से आमना सामना हो गया है . स्कालरशिप की जो शुरुआत 1969 की जुलाई में उनकी इस क्लास में हुई थी वह आज तक कायम है और आज भी पढाई लिखाई की किसी बात को समझने के लिए उन्हीं डॉ अरुण कुमार सिंह की याद करता हूँ .  कालेज की नौकरी करते हुए उन्होंने बहुत सम्मानित जीवन बिताया , कालेज के प्रिंसिपल बने और अब वहीं जौनपुर में रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं . मैंने जो कुछ भी पढ़ा है या पढता हूँ उनको ज़रूर बताता हूँ. जब हम बी ए में भर्ती हुए थे तो जितना भी प्रेमचंद मैंने पढ़ा है , एक बार पढ़ चुका था. मैंने ताराशंकर बंद्योपाध्याय का भारतीय ज्ञानपीठ से विभूषित उपन्यास गणदेवता पढ़ रखा था. डॉ धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, वृंदावनलाल वर्मा की मृगनयनी  ,जयशंकर प्रसाद ,निराला, आदि हिंदी के बहुत सारे साहित्य में चंचुप्रवेश था . कबीर , रहीम , मीरा, रसखान आदि को भी तोडा बहुत पढ़ रखा था . किसी भी नार्मल शिक्षक को घुमा देने भर की शेखी अपने पास थी  लेकिन अब हमें साफ़ अंदाज़ लग गया था कि अरुण कुमार सिंह जैसे जिज्ञासु से , सीखने के अलावा  कोई रास्ता नहीं बचा था  . धीरे धीरे मेरी क्लास के कुछ बच्चे उनके साथ किताबों पर चर्चा  करने लगे थे . इस बीच कोर्स में बौद्ध दर्शन का अध्ययन शुरू हो चुका था. उसका कार्य कारण सिद्धांत बिलकुल वैज्ञानिक तरीके से हम समझ रहे थे . कोर्स के अलावा किसी भी विषय पर उनसे बात  की जा सकती थी और  अगर किसी विषय पर उनकी जानकारी ऐसी होती थी जिसपर उनको  भरोसा न हो तो बेलौस कहते थे कि भाई कल बतायेगें , पढकर आयेगें  तब बात होगी . अंग्रेज़ी , समाजशास्त्र , इतिहास , धर्मशास्त्र ,मनोविज्ञान सभी विषयों के वे विद्यार्थी थे और जो भी पढते थे , उसकी चर्चा की परम्परा मेरे इसी शिक्षक ने शुरू कर दी.  हम नियमित रूप से उनके स्टूडेंट केवल दो साल रहे लेकिन उनके शिक्षकपन के इतने मुरीद हो गए कि आज भी मैं उनको शिक्षक मानता हूँ .  उन्होंने मुझे कई बार बताया है कि कुछ विषयों में मेरी जानकारी उनसे ज़्यादा है  लेकिन आज तक मैंने अपनी हर नई जानकारी को तभी पब्लिक डोमेन में डाला है जब अपने गुरु से उसकी  तस्दीक करने के बाद संतुष्ट हो गया हूँ .
पिछले चालीस वर्षों में मैंने बहुत किताबें पढ़ी हैं , बहुत सारी विचारधाराओं पर चर्चा की है . लेकिन अपने इकलौते शिक्षक के हवाले के बिना मैंने किसी भी विचार को फाइनल नहीं किया ,उसपर बहस नहीं की. उनकी कृपा से ही मैंने सार्त्र को पढ़ने की कोशिश की , अस्तित्ववाद के दर्शन को समझने की कोशिश की, अरविंद को पढ़ा , बर्गसां को पढ़ा ,सारे दार्शानिक उनकी वजह से ही पढ़ा . बर्ट्रेंड रसेल की शिक्षा , विवाह और नैतिकता को झकझोर देने वाली मान्यताएं मैंने बी ए के  छात्र के रूप में पढ़ लिया  था. Will Durant की किताब स्टोरी आफ फिलासफी मैंने बी ए पास करने के बाद उनकी निजी लाइब्रेरी से लेकर पढ़ा था.  .दर्शनशास्त्र को इतने बेहतरीन गद्य में मैंने और कहीं नहीं पढ़ा  है . बाद में उनको सीरीज़ स्टोरी आफ सिविलाइजेशन को पूरी के पूरी खरीद लिया था .चंद्रधर  शर्मा की पाश्चात्य दर्शन की हिंदी किताब को भी इसी श्रेणी में रखना चाहता हूँ . उन्होंने ही सिखाया था कि अच्छे शिक्षक का मिशन अपने छात्रों में सही सवाल पूछने की कला को सिखाना होना चाहिए . अगर सवाल सही है तो जवाब तो कहीं भी मिल जाएगा . स्पिरिट आफ इन्क्वायरी को जगाना अच्छे शिक्षक की  सबसे महत्वपूर्ण खासियत होनी चाहिए . किसी भी मान्यता को चुनौती देकर ,अगर कहीं गलती हो रही है तो अपनी गलती स्वीकार करने की तमीज डॉ अरुण कुमार सिंह ने ही मुझको सिखाया था .उस वक़्त जो सीखा था, वह आदत बन गयी , जो आज तक बनी हुई है . उसका लाभ यह है कि कभी खिसियाना नहीं पड़ता . पाश्चात्य दर्शन के पर्चे में देकार्त के बारे में जो जानकारी उन्होने दी , वह उस पर्चे को पढ़ने वाले सभी  छात्रों को हर कालेज में मिलती होगी लेकिन अपनी बात कुछ अलाग थी . हमने देकार्त के तर्क काजिटो अर्गो सम को बौद्धिक इन्क्वायारी के एक हथियार के रूप में अपनाने की प्रेरणा पाई और आजतक उसका प्रयोग करके  ज्ञान के सूत्र तक पंहुंचने की कोशिश करते हैं . उनकी कृपा से ही मैंने किताबें खरीदने की आदत डाली . मेरे घर में कई बार बुनियादी ज़रूरतों की भी किल्लत रहती थी लेकिन पढ़ने के प्रति जो उत्सुकता मन में है उसके चलते किताबें खरीदने से बाज़ नहीं आते थे .
मैंने अपने जीवन के साथ बहुत सारे प्रयोग किये हैं  लेकिन इस गुरु का ही जलवा है कि आज पूरे विश्व में कोई एक इंसान नहीं मिलेगा जो कह सके कि शेष नारायण सिंह नाम के आदमी ने उसके साथ अन्याय किया है या धोखा दिया है . मेरा गुरु ऐसा है कि आज भी मुझे कुछ न कुछ सिखाता है . जब मैं कुछ लिखता हूँ तो उसकी समीक्षा करता है , टेलीविज़न पर अगर कोई बात ऐसी कह दी जो मूर्खतापूर्ण है तो आज भी फोन आ जाता है और मैं भी अगले अवसर पर उसको सुधार लेता हूँ .आज मैं भी पूरे देश के विद्यार्थियों के साथ अपने शिक्षक को  बारम्बार प्रणाम करता हूँ .