शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स ने अमरीकी दूतावास के संदेशों को पब्लिक डोमेन में लाकर भारतीय राजनीति का बहुत उपकार किया है . विकीलीक्स की कृपा से ही हम जानते हैं कि बीजेपी की नज़र में हिंदुत्व एक अवसरवादी राजनीति है. बीजेपी के बड़े नेता और टाप पद के प्रमुख दावेदार अरुण जेटली ने यह बात अमरीकी अफसर राबर्ट ब्लेक को एक अन्तरंग बातचीत में बतायी थी .श्री जेटली ने उसको भरोसे के साथ बताया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है . उन्होंने समझाया कि बातचीत शुरू करने के लिए यह ठीक तरीका है .इस से ज्यादा कुछ नहीं . आज से करीब छः साल पहले हुई इस बातचीत में अरुण जेटली ने अमरीका को बता दिया था कि लाल कृष्ण आडवानी कुछ वर्षों के बाद बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर आ जायेगें और अगली पीढी के लोग काम संभाल लेगें. अगर आडवाणी को उस वक़्त मालूम होता कि अरुण जेटली उनके बारे में इस तरह की बात करते हैं तो आज अरुण जेटली का राजनीतिक जीवन बिलकुल अलग होता .यह जिस दौर की बात चीत है उसके बारे में सबको मालूम है अरुण जेटली को बीजेपी के आडवाणी गुट ख़ास नेता माना जाता था . आडवाणी से पिछले पांच वर्षों में अरुण जेटली को बहुत समर्थन मिला है . जानकार बताते हैं कि अरुण जेटली को राज्यसभा का सदस्य बनवाने में भी आडवानी की प्रमुख भूमिका रही है . उनको राज्यसभा में बीजेपी का नेता भी आडवाणी ने ही बनवाया था. २००९ में लाल कृष्णा आडवाणी पूरे देश में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन कर घूमते फिर रहे थे और अरुण जेटली उनको उसके चार साल पहले ही रिटायर करवाने की तैयारी में थे . . बाद में मीडिया को अरुण जेटली ने बताया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था . यहाँ उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब पहले दिन विकीलीक्स के संदेशों को द हिन्दू अखबार ने छापा था और पता चला था कि कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बचाने के लिए २००८ में पैसे चले थे ,तो क्यों उसको अंतिम सत्य मानकर संसद नहीं चलने दिया था . सच्चाई यह है सारा देश जानता है कि २००८ में परमाणु बिल के मुद्दे पर पैसे चले थे और उस काण्ड में लाल कृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता किसी न किसी रूप में शामिल थे . लेकिन बीजेपी का यह आग्रह कि मनमोहन सिंह इस्तीफ़ा दें बिलकुल तर्कसंगत नहीं लगा था . अब नए खुलासे के बाद तो बीजेपी को उन सभी लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर पार्टी के रूप में बीजेपी को सम्मान दिया है और अपनाया है . बीजेपी की वैचारिक सोच की नियंता पार्टी आर एस एस है . आर एस एस की राजनीति का मकसद घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद है . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया है इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी और अब अरुण जेटली इसको बोगस विचारधारा के रूप में पेश कर रहे हैं . लेकिन विकीलीक्स के खुलासों ने इस अहम जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालकर भारतीय राजनीति के टाप नेताओं की सोच को उजागर किया है जिसकी सराहना के जानी चाहिए
Monday, March 28, 2011
Saturday, March 26, 2011
विकीलीक्स ने किया बीजेपी की दोहरी चाल को बेनकाब
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .
यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.
विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .
यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.
Friday, March 25, 2011
पी चिदंबरम को बर्खास्त करने की मांग ,दोनों सदनों में हंगामा
शेष नारायण सिंह
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने २००९ में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत को बताया कि अगर पूर्व और उत्तर भारत के लोग भारत का हिस्सा न होते तो भारत एक बहुत ज्यादा विकसित देश होता. भारत के गृहमंत्री का यह बयान हर तरह से निंदा करने लायक है . वैसे भी वे बहुत वर्षों से दिल्ली की काकटेल सर्किट के सदस्य हैं जिसमें अभी तक बिहारी शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है . वे दक्षिण से चुनकर ज़रूर आते हैं लेकिन उन्हें दक्षिण भारतीय नहीं कहा जा सकता . वे दरअसल दिल्ली में रहने वाली उस जाति के सदस्य हैं जिनके पूर्वज या तो अंग्रेजों के चाकर थे, उनके जी हुज़ूर थे या अंग्रेजों के राज में दिल्ली में दलाली वगैरह किया करते थे. पिछले साठ वर्षों में बाकी भारत से जो लोग भी दिल्ली आये उनकी एक बड़ी संख्या के लोग इसी बिरादरी की सदस्यता लेने के लिए व्याकुल रहते रहे हैं . इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रदेश या किसी भी वर्ग का कहना उस वर्ग का अपमान होगा. इनकी बिरादरी बहुत ही छोटी है . इसमें आम तौर पर नई भर्ती नहीं होती. कुछ ऐसे लड़के जो बिहार ,ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मूल निवासी होते हैं और आई ए एस या इनकम टैक्स जैसी नौकरियों में सिविल सर्विस परीक्षा पास करके चुन लिए जाते हैं , उनको शादी व्याह के चक्कर में फंसाकर इस काकटेल सर्किट वाले अपने साथ मिला अलेते हैं . बाद में उनके बाल बच्चे भी इसी तरह की ज़िंदगी के आदी हो जाते हैं और वे भी बिहारी शंब्द को बतौर गाली इस्तेमाल करने लगते हैं . दिल्ली शहर में आई ए एस या और नौकरियों में बहुत सारे ऐसे अफसर मिल जायेगें जिनकी शादी बचपन में ही हो गयी थी लेकिन बाद में बड़ी नौकरी में चुन लिए जाने के बाद काकटेल सर्किट वालों ने उन्हें फंसाया और दुबारा शादी करवा दी. उत्तर प्रदेश और बिहार का होने के बावजूद भी इन लोगों की जो औलादें है वे भी इसी दिल्ली की काकटेलजीवी बिरादरी के तरह बात करते पाए जाती हैं .. करीब तीस साल पहले तो यह बीमारी बहुत ही भयानक थी . उस दौर में चिदंबरम की उम्र के लोग यही कोई तीस पैंतीस साल के थे . चिदंबरम का अमरीकी आका को दिया गया बयान उनकी उसी मानसिकता की खुरचन है . इस तरह की बात करने वाले लोग आम तौर पर बिना किसी सोच समझ के ही यह बयान दे देते हैं .उन्हें मालूम नहीं रहता कि दुनिया कितनी बदल गयी है . ऐसे लोग जब पकडे जाते हैं तो कहते हैं कि वह बात तो मैंने निश्चिन्त भाव से की गई किसी बातचीत के दौरान कही थी. इनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आप जब औपचारिक नहीं होते तो क्या गाली गलौज की भाषा में बात करते हैं . बहरहाल जो बात सबसे ज्यादा संभव लगती है वह यह है कि इस तरह की बातचीत करने वाले किसी बीमारी का शिकार होते हैं और उन्हें मानसिक रोगी मानकर उनकी बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए . चिदंबरम के इस गैरज़िम्मेदार बयान पर उन्हें आज संसद के दोनों ही सदनों में लथेरा गया और सरकार को उनकी वजह से खिसियाहट झेलना पड़ा.
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को घटिया बताने के पहले इन लोगों को सोचना चाहिए कि इन दो राज्यों का योगदान भारत के राजनीतिक विकास में सबसे ज्यादा है . महात्मा गाँधी भी अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने के पहले चंपारण गए थे .वे राष्ट्रीय स्तर के नेता तभी बने जब उन्हें इस इलाके ने स्वीकार किया . जवाहलाल नेहरू का योगदान भारत की राजनीति में किसी से कम नहीं है. आज देश की सभी बड़ी संस्थाओं में इस इलाके से आये लोगों की भूमिका कम नहीं है. पी चिदंबरम को यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस सामंती मानसिकता में रहते हैं वह कब की ख़त्म हो चुकी है आज जिन लोगों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में हैं उनके पूर्वज दलाल नहीं थे.अंग्रेजों के जी हुजूर नहीं थे और किसी की दी हुई रोटी को तिरस्कार की नज़र से देखते थे , जिन लालू प्रसाद , मायावती, मुलायम सिंह यादव की पार्टियों के कृपा से आज पी चिदंबरम गृह मंत्री हैं , उन लोगों के पूर्वज अपनी मेहनत की कमाई खाते थे और दिल्ली के दलालों के पूर्वज उनके पूर्वजों का शोषण करते थे . इसलिए किसी तरह की गैरजिम्मेदार बात करने के पहले उन्हें अपने इन नए अन्न दाताओं के गुस्से का ध्यान कर लेना चाहिए . अगर चिदंबरम जैसे लोगों को यह औकात बोध रहे तो आने वाले वक़्त में कांग्रेस भी आराम से रहेगी और पी चिदंबरम की बर्खास्तगी की मांग भी नहीं होगी.
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने २००९ में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत को बताया कि अगर पूर्व और उत्तर भारत के लोग भारत का हिस्सा न होते तो भारत एक बहुत ज्यादा विकसित देश होता. भारत के गृहमंत्री का यह बयान हर तरह से निंदा करने लायक है . वैसे भी वे बहुत वर्षों से दिल्ली की काकटेल सर्किट के सदस्य हैं जिसमें अभी तक बिहारी शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है . वे दक्षिण से चुनकर ज़रूर आते हैं लेकिन उन्हें दक्षिण भारतीय नहीं कहा जा सकता . वे दरअसल दिल्ली में रहने वाली उस जाति के सदस्य हैं जिनके पूर्वज या तो अंग्रेजों के चाकर थे, उनके जी हुज़ूर थे या अंग्रेजों के राज में दिल्ली में दलाली वगैरह किया करते थे. पिछले साठ वर्षों में बाकी भारत से जो लोग भी दिल्ली आये उनकी एक बड़ी संख्या के लोग इसी बिरादरी की सदस्यता लेने के लिए व्याकुल रहते रहे हैं . इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रदेश या किसी भी वर्ग का कहना उस वर्ग का अपमान होगा. इनकी बिरादरी बहुत ही छोटी है . इसमें आम तौर पर नई भर्ती नहीं होती. कुछ ऐसे लड़के जो बिहार ,ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मूल निवासी होते हैं और आई ए एस या इनकम टैक्स जैसी नौकरियों में सिविल सर्विस परीक्षा पास करके चुन लिए जाते हैं , उनको शादी व्याह के चक्कर में फंसाकर इस काकटेल सर्किट वाले अपने साथ मिला अलेते हैं . बाद में उनके बाल बच्चे भी इसी तरह की ज़िंदगी के आदी हो जाते हैं और वे भी बिहारी शंब्द को बतौर गाली इस्तेमाल करने लगते हैं . दिल्ली शहर में आई ए एस या और नौकरियों में बहुत सारे ऐसे अफसर मिल जायेगें जिनकी शादी बचपन में ही हो गयी थी लेकिन बाद में बड़ी नौकरी में चुन लिए जाने के बाद काकटेल सर्किट वालों ने उन्हें फंसाया और दुबारा शादी करवा दी. उत्तर प्रदेश और बिहार का होने के बावजूद भी इन लोगों की जो औलादें है वे भी इसी दिल्ली की काकटेलजीवी बिरादरी के तरह बात करते पाए जाती हैं .. करीब तीस साल पहले तो यह बीमारी बहुत ही भयानक थी . उस दौर में चिदंबरम की उम्र के लोग यही कोई तीस पैंतीस साल के थे . चिदंबरम का अमरीकी आका को दिया गया बयान उनकी उसी मानसिकता की खुरचन है . इस तरह की बात करने वाले लोग आम तौर पर बिना किसी सोच समझ के ही यह बयान दे देते हैं .उन्हें मालूम नहीं रहता कि दुनिया कितनी बदल गयी है . ऐसे लोग जब पकडे जाते हैं तो कहते हैं कि वह बात तो मैंने निश्चिन्त भाव से की गई किसी बातचीत के दौरान कही थी. इनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आप जब औपचारिक नहीं होते तो क्या गाली गलौज की भाषा में बात करते हैं . बहरहाल जो बात सबसे ज्यादा संभव लगती है वह यह है कि इस तरह की बातचीत करने वाले किसी बीमारी का शिकार होते हैं और उन्हें मानसिक रोगी मानकर उनकी बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए . चिदंबरम के इस गैरज़िम्मेदार बयान पर उन्हें आज संसद के दोनों ही सदनों में लथेरा गया और सरकार को उनकी वजह से खिसियाहट झेलना पड़ा.
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को घटिया बताने के पहले इन लोगों को सोचना चाहिए कि इन दो राज्यों का योगदान भारत के राजनीतिक विकास में सबसे ज्यादा है . महात्मा गाँधी भी अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने के पहले चंपारण गए थे .वे राष्ट्रीय स्तर के नेता तभी बने जब उन्हें इस इलाके ने स्वीकार किया . जवाहलाल नेहरू का योगदान भारत की राजनीति में किसी से कम नहीं है. आज देश की सभी बड़ी संस्थाओं में इस इलाके से आये लोगों की भूमिका कम नहीं है. पी चिदंबरम को यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस सामंती मानसिकता में रहते हैं वह कब की ख़त्म हो चुकी है आज जिन लोगों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में हैं उनके पूर्वज दलाल नहीं थे.अंग्रेजों के जी हुजूर नहीं थे और किसी की दी हुई रोटी को तिरस्कार की नज़र से देखते थे , जिन लालू प्रसाद , मायावती, मुलायम सिंह यादव की पार्टियों के कृपा से आज पी चिदंबरम गृह मंत्री हैं , उन लोगों के पूर्वज अपनी मेहनत की कमाई खाते थे और दिल्ली के दलालों के पूर्वज उनके पूर्वजों का शोषण करते थे . इसलिए किसी तरह की गैरजिम्मेदार बात करने के पहले उन्हें अपने इन नए अन्न दाताओं के गुस्से का ध्यान कर लेना चाहिए . अगर चिदंबरम जैसे लोगों को यह औकात बोध रहे तो आने वाले वक़्त में कांग्रेस भी आराम से रहेगी और पी चिदंबरम की बर्खास्तगी की मांग भी नहीं होगी.
Wednesday, March 23, 2011
मोरारजी देसाई की पुरातनपंथी सोच से निराश होकर वंचित तबकों ने अपने मंच बनाया
शेष नारायण सिंह
आज से ठीक ३४ साल पहले २४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . कांग्रेस के खिलाफ जनता इतने बड़े पैमाने पर हो गयी थी कि जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरार्जी देसाई ने सत्ता संभाली थी , चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से पहली मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व , बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधान मंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इस लिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत खस्ता थी लेकिन ६ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी .
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के सबसे बड़े पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. सवर्णों के प्रभाव वाली राजनीतिक पार्टियों से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जनता पार्टी का जो जनादेश था ,उस से उम्मीद बंधी थी कि शायद उसकी सरकार आम आदमी की पक्षधर सरकार के रूप में काम करे . लेकिन जब उसकी कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वन दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत ही जोर शोर से आयोजन किया गया . बनाया . बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का आज से ठीक ३४ साल पहले सत्ता पर काबिज़ होना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की होसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक अहम मुकाम रखता है
आज से ठीक ३४ साल पहले २४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . कांग्रेस के खिलाफ जनता इतने बड़े पैमाने पर हो गयी थी कि जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरार्जी देसाई ने सत्ता संभाली थी , चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से पहली मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व , बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधान मंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इस लिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत खस्ता थी लेकिन ६ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी .
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के सबसे बड़े पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. सवर्णों के प्रभाव वाली राजनीतिक पार्टियों से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जनता पार्टी का जो जनादेश था ,उस से उम्मीद बंधी थी कि शायद उसकी सरकार आम आदमी की पक्षधर सरकार के रूप में काम करे . लेकिन जब उसकी कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वन दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत ही जोर शोर से आयोजन किया गया . बनाया . बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का आज से ठीक ३४ साल पहले सत्ता पर काबिज़ होना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की होसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक अहम मुकाम रखता है
Monday, March 21, 2011
बाप के पाग न लागल दाग , न माई के दाग लगा अंचरे में
शेष नारायण सिंह
( आलोक तोमर की याद २१ मार्च २०११ )
आलोक तोमर की अंत्येष्टि से लौटा हूँ.मन बहुत ही खिन्न है .आलोक की कलम की ताक़त का लोहा मानने वालों का नाम दिमाग में घूम रहा है . अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे पहले मन में आया . अटल जी आलोक के फैन थे. जब मुझे पता चला कि आलोक के लेखन को अटल बिहारी वाजपेयी बहुत पसंद करते हैं तो बहुत उत्सुक हुआ . आलोक तोमर को फिर से पढने की इच्छा हुई . पढ़ा भी . १९६७ में मैं भी अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक था . सही बात यह है कि हाई स्कूल के छात्र के रूप में मैंने उनको भाषण करते देखा था . और उनकी शैली को नक़ल करने की कोशिश की थी . बाद में उसी शैली की कृपा से अपने विश्वविद्यालय में एक वक्ता के रूप में नाम मिला. वजीफा मिला और पढाई हो सकी. ज़ाहिर है जिस को भी अटल बिहारी वाजपेयी पसंद कर रहे होगें,उसके बारे में मेरी राय निश्चित रूप से पाजिटिव होगी. उसके बाद से मैंने आलोक तोमर को नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया . बाद में पता लगा कि अमिताभ बच्चन ने ज़िंदगी भर में जो सबसे अच्छे गैर फ़िल्मी डायलाग बोले हैं , उनको भी आलोक तोमर ने लिखा था . अमिताभ के बेस्ट फ़िल्मी डायलाग तो खैर जावेद अख्तर ने लिखे थे , ज़ंजीर में भी और शोले में भी . प्रभाष जोशी ने निजी बातचीत में बार बार आलोक तोमर की तारीफ की थी .लिखा भी . प्रभाष जी की मृत्यु के बाद जब कुछ लोगों ने उनकी चावी के भंजन का अभियान चलाया तो आलोक ने अकेले सबसे लोहा लिया .प्रभाष जी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वालों को बाकायदा धमकाया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा .
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन आज जो कुछ देख कर आया हूँ ,उसके बाद हिम्मत हार गया हूँ .. लोदी रोड की श्मसान भूमि में आलोक तोमर के पिता जी को देख कर बहुत तकलीफ हुई . अपना जवान बेटा अगर इंसान के सामने ही गुज़र जाए तो उस से बड़ा कष्ट हो ही नहीं सकता . कुंवर सिंह महाकाव्य की वह पंक्ति याद आ गयी जब बेटे के शहीद होने का वर्णन किया गया है
.
. पूत जुझाइ के देस बदे, बुढ़िया-बुढ़वा जहँ बैठल होइहें . जेकर कान्ह कुंआर जुझे उजरी मथुरा अब कौन बसईहें
आज जब मैंने आलोक की बच्ची को उनका अंतिम संस्कार करते देखा तो सिहर गया . जब वह बच्ची घड़े में जल लेकर आलोक के पार्थिव शरीर के चारों ओर परिक्रमा कर रही थी तो लगा कि पक्षाघात हो गया है मुझे. अंतिम क्षणों के अनुष्टान के दौरान जब उनकी पत्नी ने कहा कि आलोक उठ जाओ , तो लगा कि अगर जीवित होते तो अपनी मित्र और पत्नी की बात को ज़रूर पूरा करते. आलोक के बारे में सभी जानते हैं कि वे जिसके भी मित्र थे ,पूरी तरह उसके साथ रहते थे. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के कलाकार ,ओम पुरी आलोक के मित्र थे . जब अपने किसी आचरण की वजह से ओम जी की बहुत बदनामी हुई ,तो भी आलोक उनके साथ रहे , दिलासा दिया और कोशिश की कि उनका कम से कम नुकसान हो .
आलोक के कैंसर के बारे में सबसे पहले मुझे यशवंत सिंह ने बताया था . यशवंत सिंह से आलोक का परिचय ताज़ा था,पुराना नहीं था ,लेकिन वे यशवंत के पक्ष में हमेशा खड़े रहे . मेरे मित्र प्रदीप सिंह और आलोक तोमर ने साथ काम किया था . आलोक तोमर के बारे में कभी कोई सेमिनारनुमा चर्चा तो नहीं हुई लेकिन पिछले बीस-बाईस वर्षों में प्रदीप ने इतनी अच्छी बातें की हैं वे सारी याद आ रही हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता . उसमें प्रभाष जोशी और जनसत्ता की भी अहम भूमिका थी. आलोक उस टीम के प्रमुख नायक थे . लेकिन जब वी पी सिंह ने उलटे सीधे काम करने शुरू कर दिए तो आलोक ने सबसे पहले लाठी उठायी और फिर तो वी पी सिंह के पतन की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया. अटल जी के करीबी होने के बावजूद जब भी उनकी पार्टी ने कोई गैर ज़िम्मेदार काम किया,आलोक ने उसका पत्रकारीय विश्लेषण ज़रूर किया.
आलोक तोमर को अंतिम विदाई देने गए लोगों में मालवा से आये हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र शाह भी थे .जब मैंने बात चीत के दौरान कहा कि अगर आलोक पचास साल में चले गए तो मैं तो ओवरड्यू हो गया हूँ . रवीन्द्र ने कहा कि ऐसा नहीं है . सभी पत्रकारों की शारीरिक उम्र और संघर्ष की उम्र फिक्स रहती है. हम लोगों ने उतना संघर्ष नहीं किया है जितना आलोक तोमर ने किया . उन्होंने कभी भी किसी लड़ाई को टाला नहीं , फ़ौरन निपटा देने में विश्वास करते रहे . इस तरह उनका पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित था . हम लोग अभी उतना संघर्ष नहीं कर सके हैं ,इसलिए हमारी उम्र अभी बची हुई है . आलोक की संघर्ष और जीवन की उम्र बराबर ही थी . अलविदा आलोक . हम उम्मीद करते हैं कि तुम्हारी पत्नी जो तुम्हारी सबसे करीबी दोस्त भी हैं , अपने को संभाल सकें . हम दुआ करते हैं कि तुम्हारी बेटी भी उतनी ही मज़बूत बने जितने तुम थे .तुम्हारे माता पिता को पता नहीं किस जन्म की गलती के लिए सज़ा मिली है . उन्हने इतनी ताक़त मिले कि एक बहादुर बेटे के मान बाप के रूप में बाकी ज़िन्दगी बिता सकें . मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ लेकिन अगर डेटलाइन इंडिया जारी रहा तो जो कुछ भी लिखूंगा डेटलाइन इंडिया में ज़रूर भेजूंगा, चाहे किसी काम का हो या न हो. अलविदा एक बहादुर पत्रकार
( आलोक तोमर की याद २१ मार्च २०११ )
आलोक तोमर की अंत्येष्टि से लौटा हूँ.मन बहुत ही खिन्न है .आलोक की कलम की ताक़त का लोहा मानने वालों का नाम दिमाग में घूम रहा है . अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे पहले मन में आया . अटल जी आलोक के फैन थे. जब मुझे पता चला कि आलोक के लेखन को अटल बिहारी वाजपेयी बहुत पसंद करते हैं तो बहुत उत्सुक हुआ . आलोक तोमर को फिर से पढने की इच्छा हुई . पढ़ा भी . १९६७ में मैं भी अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक था . सही बात यह है कि हाई स्कूल के छात्र के रूप में मैंने उनको भाषण करते देखा था . और उनकी शैली को नक़ल करने की कोशिश की थी . बाद में उसी शैली की कृपा से अपने विश्वविद्यालय में एक वक्ता के रूप में नाम मिला. वजीफा मिला और पढाई हो सकी. ज़ाहिर है जिस को भी अटल बिहारी वाजपेयी पसंद कर रहे होगें,उसके बारे में मेरी राय निश्चित रूप से पाजिटिव होगी. उसके बाद से मैंने आलोक तोमर को नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया . बाद में पता लगा कि अमिताभ बच्चन ने ज़िंदगी भर में जो सबसे अच्छे गैर फ़िल्मी डायलाग बोले हैं , उनको भी आलोक तोमर ने लिखा था . अमिताभ के बेस्ट फ़िल्मी डायलाग तो खैर जावेद अख्तर ने लिखे थे , ज़ंजीर में भी और शोले में भी . प्रभाष जोशी ने निजी बातचीत में बार बार आलोक तोमर की तारीफ की थी .लिखा भी . प्रभाष जी की मृत्यु के बाद जब कुछ लोगों ने उनकी चावी के भंजन का अभियान चलाया तो आलोक ने अकेले सबसे लोहा लिया .प्रभाष जी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वालों को बाकायदा धमकाया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा .
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन आज जो कुछ देख कर आया हूँ ,उसके बाद हिम्मत हार गया हूँ .. लोदी रोड की श्मसान भूमि में आलोक तोमर के पिता जी को देख कर बहुत तकलीफ हुई . अपना जवान बेटा अगर इंसान के सामने ही गुज़र जाए तो उस से बड़ा कष्ट हो ही नहीं सकता . कुंवर सिंह महाकाव्य की वह पंक्ति याद आ गयी जब बेटे के शहीद होने का वर्णन किया गया है
.
. पूत जुझाइ के देस बदे, बुढ़िया-बुढ़वा जहँ बैठल होइहें . जेकर कान्ह कुंआर जुझे उजरी मथुरा अब कौन बसईहें
आज जब मैंने आलोक की बच्ची को उनका अंतिम संस्कार करते देखा तो सिहर गया . जब वह बच्ची घड़े में जल लेकर आलोक के पार्थिव शरीर के चारों ओर परिक्रमा कर रही थी तो लगा कि पक्षाघात हो गया है मुझे. अंतिम क्षणों के अनुष्टान के दौरान जब उनकी पत्नी ने कहा कि आलोक उठ जाओ , तो लगा कि अगर जीवित होते तो अपनी मित्र और पत्नी की बात को ज़रूर पूरा करते. आलोक के बारे में सभी जानते हैं कि वे जिसके भी मित्र थे ,पूरी तरह उसके साथ रहते थे. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के कलाकार ,ओम पुरी आलोक के मित्र थे . जब अपने किसी आचरण की वजह से ओम जी की बहुत बदनामी हुई ,तो भी आलोक उनके साथ रहे , दिलासा दिया और कोशिश की कि उनका कम से कम नुकसान हो .
आलोक के कैंसर के बारे में सबसे पहले मुझे यशवंत सिंह ने बताया था . यशवंत सिंह से आलोक का परिचय ताज़ा था,पुराना नहीं था ,लेकिन वे यशवंत के पक्ष में हमेशा खड़े रहे . मेरे मित्र प्रदीप सिंह और आलोक तोमर ने साथ काम किया था . आलोक तोमर के बारे में कभी कोई सेमिनारनुमा चर्चा तो नहीं हुई लेकिन पिछले बीस-बाईस वर्षों में प्रदीप ने इतनी अच्छी बातें की हैं वे सारी याद आ रही हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता . उसमें प्रभाष जोशी और जनसत्ता की भी अहम भूमिका थी. आलोक उस टीम के प्रमुख नायक थे . लेकिन जब वी पी सिंह ने उलटे सीधे काम करने शुरू कर दिए तो आलोक ने सबसे पहले लाठी उठायी और फिर तो वी पी सिंह के पतन की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया. अटल जी के करीबी होने के बावजूद जब भी उनकी पार्टी ने कोई गैर ज़िम्मेदार काम किया,आलोक ने उसका पत्रकारीय विश्लेषण ज़रूर किया.
आलोक तोमर को अंतिम विदाई देने गए लोगों में मालवा से आये हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र शाह भी थे .जब मैंने बात चीत के दौरान कहा कि अगर आलोक पचास साल में चले गए तो मैं तो ओवरड्यू हो गया हूँ . रवीन्द्र ने कहा कि ऐसा नहीं है . सभी पत्रकारों की शारीरिक उम्र और संघर्ष की उम्र फिक्स रहती है. हम लोगों ने उतना संघर्ष नहीं किया है जितना आलोक तोमर ने किया . उन्होंने कभी भी किसी लड़ाई को टाला नहीं , फ़ौरन निपटा देने में विश्वास करते रहे . इस तरह उनका पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित था . हम लोग अभी उतना संघर्ष नहीं कर सके हैं ,इसलिए हमारी उम्र अभी बची हुई है . आलोक की संघर्ष और जीवन की उम्र बराबर ही थी . अलविदा आलोक . हम उम्मीद करते हैं कि तुम्हारी पत्नी जो तुम्हारी सबसे करीबी दोस्त भी हैं , अपने को संभाल सकें . हम दुआ करते हैं कि तुम्हारी बेटी भी उतनी ही मज़बूत बने जितने तुम थे .तुम्हारे माता पिता को पता नहीं किस जन्म की गलती के लिए सज़ा मिली है . उन्हने इतनी ताक़त मिले कि एक बहादुर बेटे के मान बाप के रूप में बाकी ज़िन्दगी बिता सकें . मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ लेकिन अगर डेटलाइन इंडिया जारी रहा तो जो कुछ भी लिखूंगा डेटलाइन इंडिया में ज़रूर भेजूंगा, चाहे किसी काम का हो या न हो. अलविदा एक बहादुर पत्रकार
Sunday, March 20, 2011
कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है
शेष नारायण सिंह
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
Saturday, March 19, 2011
लाल बुझक्कड़ की दूरदृष्टि और मुंगेरीलाल के हसीन सपने भी शरमा जाएँ इस अदा पर
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स के खुलासों के बाद बीजेपी को एक बार फिर गद्दी नज़र आने लगी थी. पिछले लोक सभा चुनाव में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी ने द हिन्दू अखबार में छपी कुछ ख़बरों के बाद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को आदेश दे डाला कि वे लोक सभा में आयें और वहां अपने इस्तीफे की घोषणा करें. आडवाणी जी की यह इच्छा २००४ के लोक सभा चुनाव से ही रह रह कर कुलांचे मारती रही है . जब भी मौक़ा लगता है कि वे डॉ मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग कर देते हैं . मीडिया में उनकी पार्टी और मालिक संस्था,आर एस एस के बहुत सारे समर्थक मौजूद हैं और यह बात जोर शोर से उछल भी जाती है . लेकिन किसी सरकार के इस्तीफे की याचना करना और उसे गिरा देना दो अलग अलग बातें हैं . बजट सेशन में तो सरकार गिरा देना बहुत ही आसान होता है क्योंकि अगर सरकार के वित्तीय प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव विपक्ष की ओर से लाये जाएँ और वे स्वीकार हो जाएँ तो सरकार को जाना पड़ता है . अविश्वास प्रस्ताव का रास्ता तो हमेशा ही खुला रहता है . `लेकिन बीजेपी वाले केवल मीडिया का इस्तेमाल करके सरकार की किरकिरी करने के चक्कर में रहते हैं. लेकिन यह बात चलती नहीं है . जिस मुद्दे पर बीजेपी वाले प्रधान मंत्री को घेरने के चक्कर में थे वह पिछली लोकसभा का मामला था. . परमाणु बिल पास कराने के लिए उस वक़्त की यू पी ए सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया था. उस दौरान यह चर्चा भी थी कि सरकार ने सांसदों की खरीद फरोख्त की थी. बीजेपी वाले खुद लोक सभा में हज़ार हज़ार के नोटों की गड्डियाँ लेकर आ गए थे और दावा किया था कि यूपीए के सहयोगी और समाजवादी पार्टी के नेता ,अमर सिंह ने वह नोट उनके पास भिजवाये थे, बाद में एक टी वी चैनल ने सारे मामले को स्टिंग का नाम देकर दिखाया भी था लेकिन वह वास्तव में स्टिंग नहीं था क्योंकि वह बीजेपी के साथ मिल कर किया गया एक ड्रामा था. बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनके कहने पर ही उनकी पार्टी के सांसद वह भारे रक़म लेकर लोकसभा में आये थे . सारे मामले की जे पी सी जांच भी हुई थी और जे पी से ने सुझाव दिया था कि मामला गंभीर है लेकिन जे पी सी के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आपराधिक मामलों की जांच कर सके . इसलिए किसी उपयुक्त संस्था से इसकी जांच करवाई जानी चाहिए . जिन लोगों की गहन जांच होनी थी , उसमें बीजेपी के नेता, लाल कृष्ण आडवाणी के विशेष सहायक सुधीन्द्र कुलकर्णी का भी नाम था जे पी सी की जांच के नतीजों के मद्दे नज़र लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष ,सोम नाथ चटर्जी ने आदेश भी दे दिया था कि गृह मंत्रालय को चाहिए कि सारे मामले की जांच करे . लेकिन कहीं कोई जांच नहीं हुई . और अब जब विकीलीक्स के लीक हुए दस्तावेजों में बात एक बार फिर सामने आई तो बीजेपी वालों को फिर गद्दी नज़र आने लगी . नतीजा वही हुआ जो टी वी चैनलों पर पूरे देश ने देखा . आर एस एस के मित्र एंकरों ने जिस हाहाकार के साथ मामले को गरमाने की कोशिश की वह बहुत ही अजीब था. बीजेपी ने भी अपने बहुत तल्ख़- ज़बान प्रवक्ताओं को मैदान में उतारा और मामला बहुत ही मनोरंजक हो गया . लेकिन आज सब कुछ शांत है . इस बात की गंभीर संभावना लगने लगी है कि लाल कृष्ण आडवाणी के तत्कालीन सहायक , सुधीन्द्र कुलकर्णी के ऊपर जांच बैठ जायेगी . ऐसा इसलिए संभव लगता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता , सीताराम येचुरी ने आज जोर देकर कहा कि सोमनाथ चटर्जी ने जिस जेपीसी का गठन किया था उसने सुधीन्द्र कुलकर्णी, संजीव सक्सेना और सुहेल हिन्दुस्तानी की गंभीर जांच करने का सुझाव दिया था . यानी अगर यह जाँच होती है तो लाल कृष्ण आडवाणी एक बार फिर शक़ के दायरे में आ जायेगें . . ज़ाहिर है कि बीजेपी ने इसलिए इतना हल्ला गुल्ला नहीं मचाया था कि उनकी जूती उनके ही सर आकर पद जाए . ऊपर से आज अपने जवाब में मनमोहन सिंह ने बीजेपी के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया . उन्होंने sansad के दोनों सदनों को बताया कि विपक्ष का आचरण गैर ज़िम्मेदार है . अमरीकी दूतावास और अमरीकी सरकार के बीच हुए पत्र व्यवहार को महत्व देकर विपक्ष ने एक गलत परंपरा डाली है . उन्होंने बीजेपी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यह सारे आरोप पब्लिक डोमेन में हैं . इन पर चर्चा हो चुकी है और 2009 के लोकसभा चुनावों में जनता इन्हें खारिज कर चुकी है .उन चुनावों में कैश फार वोट के तथाकथित स्टिंग में शामिल बीजेपी की सीटें कम हो गयी थीं जबकि कांग्रेस की सीटों की संख्या बढ़ गयी थी . इसलिए जनता ने जिन आरोपों को रिजेक्ट कर दिया है , उनको फिर से चर्चा में laana ठीक नहीं है . संसद होली के अवकाश के लिए बंद रहेगा और अब २२ मार्च को फिर बैठक होगी लेकिन बीजेपी की आतुरता को देखते हुए यह आशंका बनी रहेगी कि पता नहीं sansad का काम यह लोग चलने देगें कि नहीं
विकीलीक्स के खुलासों के बाद बीजेपी को एक बार फिर गद्दी नज़र आने लगी थी. पिछले लोक सभा चुनाव में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी ने द हिन्दू अखबार में छपी कुछ ख़बरों के बाद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को आदेश दे डाला कि वे लोक सभा में आयें और वहां अपने इस्तीफे की घोषणा करें. आडवाणी जी की यह इच्छा २००४ के लोक सभा चुनाव से ही रह रह कर कुलांचे मारती रही है . जब भी मौक़ा लगता है कि वे डॉ मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग कर देते हैं . मीडिया में उनकी पार्टी और मालिक संस्था,आर एस एस के बहुत सारे समर्थक मौजूद हैं और यह बात जोर शोर से उछल भी जाती है . लेकिन किसी सरकार के इस्तीफे की याचना करना और उसे गिरा देना दो अलग अलग बातें हैं . बजट सेशन में तो सरकार गिरा देना बहुत ही आसान होता है क्योंकि अगर सरकार के वित्तीय प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव विपक्ष की ओर से लाये जाएँ और वे स्वीकार हो जाएँ तो सरकार को जाना पड़ता है . अविश्वास प्रस्ताव का रास्ता तो हमेशा ही खुला रहता है . `लेकिन बीजेपी वाले केवल मीडिया का इस्तेमाल करके सरकार की किरकिरी करने के चक्कर में रहते हैं. लेकिन यह बात चलती नहीं है . जिस मुद्दे पर बीजेपी वाले प्रधान मंत्री को घेरने के चक्कर में थे वह पिछली लोकसभा का मामला था. . परमाणु बिल पास कराने के लिए उस वक़्त की यू पी ए सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया था. उस दौरान यह चर्चा भी थी कि सरकार ने सांसदों की खरीद फरोख्त की थी. बीजेपी वाले खुद लोक सभा में हज़ार हज़ार के नोटों की गड्डियाँ लेकर आ गए थे और दावा किया था कि यूपीए के सहयोगी और समाजवादी पार्टी के नेता ,अमर सिंह ने वह नोट उनके पास भिजवाये थे, बाद में एक टी वी चैनल ने सारे मामले को स्टिंग का नाम देकर दिखाया भी था लेकिन वह वास्तव में स्टिंग नहीं था क्योंकि वह बीजेपी के साथ मिल कर किया गया एक ड्रामा था. बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनके कहने पर ही उनकी पार्टी के सांसद वह भारे रक़म लेकर लोकसभा में आये थे . सारे मामले की जे पी सी जांच भी हुई थी और जे पी से ने सुझाव दिया था कि मामला गंभीर है लेकिन जे पी सी के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आपराधिक मामलों की जांच कर सके . इसलिए किसी उपयुक्त संस्था से इसकी जांच करवाई जानी चाहिए . जिन लोगों की गहन जांच होनी थी , उसमें बीजेपी के नेता, लाल कृष्ण आडवाणी के विशेष सहायक सुधीन्द्र कुलकर्णी का भी नाम था जे पी सी की जांच के नतीजों के मद्दे नज़र लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष ,सोम नाथ चटर्जी ने आदेश भी दे दिया था कि गृह मंत्रालय को चाहिए कि सारे मामले की जांच करे . लेकिन कहीं कोई जांच नहीं हुई . और अब जब विकीलीक्स के लीक हुए दस्तावेजों में बात एक बार फिर सामने आई तो बीजेपी वालों को फिर गद्दी नज़र आने लगी . नतीजा वही हुआ जो टी वी चैनलों पर पूरे देश ने देखा . आर एस एस के मित्र एंकरों ने जिस हाहाकार के साथ मामले को गरमाने की कोशिश की वह बहुत ही अजीब था. बीजेपी ने भी अपने बहुत तल्ख़- ज़बान प्रवक्ताओं को मैदान में उतारा और मामला बहुत ही मनोरंजक हो गया . लेकिन आज सब कुछ शांत है . इस बात की गंभीर संभावना लगने लगी है कि लाल कृष्ण आडवाणी के तत्कालीन सहायक , सुधीन्द्र कुलकर्णी के ऊपर जांच बैठ जायेगी . ऐसा इसलिए संभव लगता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता , सीताराम येचुरी ने आज जोर देकर कहा कि सोमनाथ चटर्जी ने जिस जेपीसी का गठन किया था उसने सुधीन्द्र कुलकर्णी, संजीव सक्सेना और सुहेल हिन्दुस्तानी की गंभीर जांच करने का सुझाव दिया था . यानी अगर यह जाँच होती है तो लाल कृष्ण आडवाणी एक बार फिर शक़ के दायरे में आ जायेगें . . ज़ाहिर है कि बीजेपी ने इसलिए इतना हल्ला गुल्ला नहीं मचाया था कि उनकी जूती उनके ही सर आकर पद जाए . ऊपर से आज अपने जवाब में मनमोहन सिंह ने बीजेपी के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया . उन्होंने sansad के दोनों सदनों को बताया कि विपक्ष का आचरण गैर ज़िम्मेदार है . अमरीकी दूतावास और अमरीकी सरकार के बीच हुए पत्र व्यवहार को महत्व देकर विपक्ष ने एक गलत परंपरा डाली है . उन्होंने बीजेपी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यह सारे आरोप पब्लिक डोमेन में हैं . इन पर चर्चा हो चुकी है और 2009 के लोकसभा चुनावों में जनता इन्हें खारिज कर चुकी है .उन चुनावों में कैश फार वोट के तथाकथित स्टिंग में शामिल बीजेपी की सीटें कम हो गयी थीं जबकि कांग्रेस की सीटों की संख्या बढ़ गयी थी . इसलिए जनता ने जिन आरोपों को रिजेक्ट कर दिया है , उनको फिर से चर्चा में laana ठीक नहीं है . संसद होली के अवकाश के लिए बंद रहेगा और अब २२ मार्च को फिर बैठक होगी लेकिन बीजेपी की आतुरता को देखते हुए यह आशंका बनी रहेगी कि पता नहीं sansad का काम यह लोग चलने देगें कि नहीं
Thursday, March 17, 2011
वे समाज जाहिल हैं जहां औरत की इज्ज़त नहीं है
शेष नारायण सिंह
पिछले दिनों नई दिल्ली में एक पत्रकार संगठन के कार्यक्रम में महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये के बारे में आयोजित चर्चा में शामिल होने का मौक़ा मिला . आम तौर पर महसूस किया गया कि समाज के रूप में औरतों के प्रति हमारा रुख दकियानूसी है और उसको हर हाल में बदलना होगा . इस बहस का असर यह हुआ कि बहुत सारी तस्वीरें दिमाग मे घूमने लगीं जहां औरत को पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे का मना जाता रहा है .जब आर एस एस के कारसेवक अयोध्या में ६ दिसंबर १९९२ के दिन बाबरी मस्जिद को ढहा रहे थे तो वहां बड़ी संख्या में पत्रकार भी मौजूद थे.आज की तरह लाइव टेलीविज़न का ज़माना नहीं था .उन दिनों सबसे ज्यादा विश्वसनीय ख़बरों का सूत्र बी बी सी को ही माना जाता था . बी बी सी के भारत संवाददाता , मार्क टली भी वहां थे . कारसेवकों ने पत्रकारों के साथ भी बहुत ज्यादती की, जिन पत्रकारों को वे आर एस एस का विरोधी मानते थे ,उनके साथ ज्यादा ही अभद्र व्यवहार किया गया . लेकिन सबसे ज्यादा परेशान हमारी साथी पत्रकार रुचिरा गुप्ता को किया गया . बाद में पता चला कि आर एस एस की असहिष्णु सोच में औरत की इज्ज़त करने का कोई प्रावधान नहीं होता . दूसरी बात और भी ज़्यादा अजीब थी . रुचिरा ने ठण्ड से बचने के लिए अपने सिर पर एक तरह की टोपी पहन रखी थी जो आम तौर पर मुसलमान पहनते हैं . अयोध्या में पत्रकारों को पीटने की ड्यूटी कर रहे कारसेवकों ने सोचा कि रुचिरा कोई मुसलमान औरत है . यह सारी बातें बाद में सब को पता चलीं , जब इसकी जांच वगैरह हुई . रुचिरा के साथ औरत होने की वजह से ऐसा आचरण क्यों हुआ ? यह बात उस वक़्त तो राजनीतिशास्त्र के जानकारों का विषय थी लेकिन बाद में यह समाज शास्त्र के विद्वानों की चर्चा का विषय है . रुचिरा गुप्ता को हम बहुत अरसे से जानते हैं ,उनकी ज़िंदगी के इस दुखद पहलू का उल्लेख करके हम बार बार यह सवाल पूछते रहे हैं कि क्यों एक समाज के रूप में हम औरत के प्रति न्याय नहीं कर पाते. भारतीय समाज में औरत के प्रति एक ख़ास सोच की मौजूदगी के लाखों उदाहरण हैं . हर आदमी को ऐसी बहुत सारी कहानियां मालूम होगीं जिन से यह साबित हो जाएगा कि अपने देश और समाज के एक बड़े तबके में औरत को वह जगह नसीब नहीं है जो उसको मिलनी चाहिए . इसके पीछे हमारी वह सोच काम करती है जिसे हमने सैकड़ों वर्षों में एक समाज के रूप में अपनाया है . ऐसे कुछ और उदाहरणों का ज़िक्र किया जाएगा . दिल्ली शहर में प्रगतिशील वामपंथी वर्गों का एक बड़ा समूह है . माना जाता है कि एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ,औरत और मर्द के बीच बराबरी के सवाल पर हमेशा प्रगतिशील रुख अपनाता है . लेकिन जब बात अपने घर की होती है तो शायद ऐसा नहीं होता . १९४0 के दशक में दिल्ली के एक प्रगतिशील परिवार के एक नौजवान ने समाज में न्याय की भावना को भरने की गरज से लड़ाई लडी. मुल्क के बँटवारे के वक़्त उसने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया और इंसानी बिरादरी की एकता में विश्वास करते हुए दिल्ली में ही रहने का फैसला किया , शादी की और 1९४९ में उन्हें एक बेटी पैदा हुई . बेटी को वामपंथी प्रगातिशील सोच की घुट्टी पिलाकर बड़ा किया गया, हमेशा बताया गया कि एक इंसान के रूप में उस लडकी को पूरी आज़ादी है लेकिन जब उस लड़की ने १९७० में अपने मन से शादी कर ली तो अपने इस नौजवान ने , जो अब बाप था ,अपनी बेटी से ही बोलना बंद कर दिया . उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में एक लगभग अनपढ़ ज़मींदार के यहाँ १९५५ में बेटी पैदा हुई . उसने अपनी बेटी को प्राइमरी स्कूल के बाद पढने नहीं दिया क्योंकि उसे डर था कि पढ़ लिखकर लडकी सवाल करने लगेगी . १४ साल की उम्र में एक सस्ता लड़का ढूंढ कर उस बच्ची की शादी कर दी , बच्ची के दो बेटे हुए और जब उसकी उम्र २१ साल की थी ,वह विधवा हो गयी. जब ज़मींदार के परिवार वालों ने लडकी के दूसरे विवाह की सलाह दी तो बाबू साहेब ने हंगामा कर दिया और कहा कि अगर लड़का होता तो शायद इस लाइन पर सोचा जा सकता था . लडकी के लिए नहीं .
लोकसभा में ग्रामीण विकास मंत्रालय की बजट मांगों पर बहस के दौरान एक पुराने सरकारी नौकर और मौजूदा सांसद ने विधवा पेंशन के हवाले से औरतों के बारे में अजीब बात कही, जब सदन में मौजूद कुछ महिला सांसदों ने आपत्ति की तो उनको यह कर टालने की कोशिश की कि हमें मालूम है कि आप कहाँ से आई हैं और कहाँ जाने वाली हैं . आमतौर पर इस तरह की टिप्पणी पर हंगामा हो जाता लेकिन इस केस में जिन महिलाओं के खिलाफ टिप्पणी की गयी थी , उनके अलावा कोई कुछ नहीं बोला . सवाल पैदा होता है कि एक समाज के रूप में औरतों के प्रति यह रुख क्यों है . क्या इसमें बदलाव की ज़रुरत है ? अगर बदलाव की ज़रुरत है तो उसकी पहल कहाँ से होनी चाहिये .
सामाजिक परवर्तन के लिए सबसे ज़रूरी राजनीतिक समझदारी होती है ..अगर राजनीति की समझ आधुनिक और प्रगति शील मूल्यों पर आधारित हो तो बहुत कुछ बदल सकता है . एक बार सही राजनीतिक समझ विकसित हो जाए तो संचार माध्यमों की भूमिका शुरू हो जाती है . इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है राजनीतिक समझ में न्याय और बराबरी को अहम स्थान दिया जाए क्योंकि अगर राजनीति की समझ पुरातनपंथी और पोंगा ज्ञान पर आधारीत होगी तो संचार माध्यमों से उसी का प्रचार हो जाएगा. संचार माध्यमों ने औरत के उसी रूप को आगे बढाया जो पुरुष प्रधान समाज में स्वीकार्य था . शुरू में संचार माध्यमों का सबसे सशक्त माध्यम यात्रियों के वर्णन हुआ करते थे . लेकिन वक़्त की साथ साथ हालात बदल गए हैं .आज संचार माध्यमों का सबसे नया रूप इंटरनेट है. लेकिन सिनेमा और टेलीविज़न आज के समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि इन दोनों की माध्यमों में औरत को मर्द की मर्जी की कठपुतली या उसके द्वारा डिजाइन किये गए रोल में ही दिखाया जाता है .इसी रोल को टेलिविज़न भी आगे बढाता है . हमारी फिल्मों में महिला एक पूरक रोल में ही पेश की जाती है . वह स्वतंत्र रूप से कहीं नहीं आती . अगर किसी फिल्म में महिला को बहुत आधुनिक दिखाया भी जाता है तो उसे पुरुषों की तरह गालियाँ बकते हुए दिखाया जाता है . यह आधुनिकता नहीं है .टेलिविज़न में भी औरत की साँचाबद्ध तस्वीर को ही प्रमुखता दी जाती है . ज़ाहिर है कि इस सोच का बदलाव ज़रूरी है . अगर ऐसा न हुआ तो समता मूलक समाज की कल्पना करना बहुत मुश्किल होगा .
पिछले दिनों नई दिल्ली में एक पत्रकार संगठन के कार्यक्रम में महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये के बारे में आयोजित चर्चा में शामिल होने का मौक़ा मिला . आम तौर पर महसूस किया गया कि समाज के रूप में औरतों के प्रति हमारा रुख दकियानूसी है और उसको हर हाल में बदलना होगा . इस बहस का असर यह हुआ कि बहुत सारी तस्वीरें दिमाग मे घूमने लगीं जहां औरत को पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे का मना जाता रहा है .जब आर एस एस के कारसेवक अयोध्या में ६ दिसंबर १९९२ के दिन बाबरी मस्जिद को ढहा रहे थे तो वहां बड़ी संख्या में पत्रकार भी मौजूद थे.आज की तरह लाइव टेलीविज़न का ज़माना नहीं था .उन दिनों सबसे ज्यादा विश्वसनीय ख़बरों का सूत्र बी बी सी को ही माना जाता था . बी बी सी के भारत संवाददाता , मार्क टली भी वहां थे . कारसेवकों ने पत्रकारों के साथ भी बहुत ज्यादती की, जिन पत्रकारों को वे आर एस एस का विरोधी मानते थे ,उनके साथ ज्यादा ही अभद्र व्यवहार किया गया . लेकिन सबसे ज्यादा परेशान हमारी साथी पत्रकार रुचिरा गुप्ता को किया गया . बाद में पता चला कि आर एस एस की असहिष्णु सोच में औरत की इज्ज़त करने का कोई प्रावधान नहीं होता . दूसरी बात और भी ज़्यादा अजीब थी . रुचिरा ने ठण्ड से बचने के लिए अपने सिर पर एक तरह की टोपी पहन रखी थी जो आम तौर पर मुसलमान पहनते हैं . अयोध्या में पत्रकारों को पीटने की ड्यूटी कर रहे कारसेवकों ने सोचा कि रुचिरा कोई मुसलमान औरत है . यह सारी बातें बाद में सब को पता चलीं , जब इसकी जांच वगैरह हुई . रुचिरा के साथ औरत होने की वजह से ऐसा आचरण क्यों हुआ ? यह बात उस वक़्त तो राजनीतिशास्त्र के जानकारों का विषय थी लेकिन बाद में यह समाज शास्त्र के विद्वानों की चर्चा का विषय है . रुचिरा गुप्ता को हम बहुत अरसे से जानते हैं ,उनकी ज़िंदगी के इस दुखद पहलू का उल्लेख करके हम बार बार यह सवाल पूछते रहे हैं कि क्यों एक समाज के रूप में हम औरत के प्रति न्याय नहीं कर पाते. भारतीय समाज में औरत के प्रति एक ख़ास सोच की मौजूदगी के लाखों उदाहरण हैं . हर आदमी को ऐसी बहुत सारी कहानियां मालूम होगीं जिन से यह साबित हो जाएगा कि अपने देश और समाज के एक बड़े तबके में औरत को वह जगह नसीब नहीं है जो उसको मिलनी चाहिए . इसके पीछे हमारी वह सोच काम करती है जिसे हमने सैकड़ों वर्षों में एक समाज के रूप में अपनाया है . ऐसे कुछ और उदाहरणों का ज़िक्र किया जाएगा . दिल्ली शहर में प्रगतिशील वामपंथी वर्गों का एक बड़ा समूह है . माना जाता है कि एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ,औरत और मर्द के बीच बराबरी के सवाल पर हमेशा प्रगतिशील रुख अपनाता है . लेकिन जब बात अपने घर की होती है तो शायद ऐसा नहीं होता . १९४0 के दशक में दिल्ली के एक प्रगतिशील परिवार के एक नौजवान ने समाज में न्याय की भावना को भरने की गरज से लड़ाई लडी. मुल्क के बँटवारे के वक़्त उसने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया और इंसानी बिरादरी की एकता में विश्वास करते हुए दिल्ली में ही रहने का फैसला किया , शादी की और 1९४९ में उन्हें एक बेटी पैदा हुई . बेटी को वामपंथी प्रगातिशील सोच की घुट्टी पिलाकर बड़ा किया गया, हमेशा बताया गया कि एक इंसान के रूप में उस लडकी को पूरी आज़ादी है लेकिन जब उस लड़की ने १९७० में अपने मन से शादी कर ली तो अपने इस नौजवान ने , जो अब बाप था ,अपनी बेटी से ही बोलना बंद कर दिया . उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में एक लगभग अनपढ़ ज़मींदार के यहाँ १९५५ में बेटी पैदा हुई . उसने अपनी बेटी को प्राइमरी स्कूल के बाद पढने नहीं दिया क्योंकि उसे डर था कि पढ़ लिखकर लडकी सवाल करने लगेगी . १४ साल की उम्र में एक सस्ता लड़का ढूंढ कर उस बच्ची की शादी कर दी , बच्ची के दो बेटे हुए और जब उसकी उम्र २१ साल की थी ,वह विधवा हो गयी. जब ज़मींदार के परिवार वालों ने लडकी के दूसरे विवाह की सलाह दी तो बाबू साहेब ने हंगामा कर दिया और कहा कि अगर लड़का होता तो शायद इस लाइन पर सोचा जा सकता था . लडकी के लिए नहीं .
लोकसभा में ग्रामीण विकास मंत्रालय की बजट मांगों पर बहस के दौरान एक पुराने सरकारी नौकर और मौजूदा सांसद ने विधवा पेंशन के हवाले से औरतों के बारे में अजीब बात कही, जब सदन में मौजूद कुछ महिला सांसदों ने आपत्ति की तो उनको यह कर टालने की कोशिश की कि हमें मालूम है कि आप कहाँ से आई हैं और कहाँ जाने वाली हैं . आमतौर पर इस तरह की टिप्पणी पर हंगामा हो जाता लेकिन इस केस में जिन महिलाओं के खिलाफ टिप्पणी की गयी थी , उनके अलावा कोई कुछ नहीं बोला . सवाल पैदा होता है कि एक समाज के रूप में औरतों के प्रति यह रुख क्यों है . क्या इसमें बदलाव की ज़रुरत है ? अगर बदलाव की ज़रुरत है तो उसकी पहल कहाँ से होनी चाहिये .
सामाजिक परवर्तन के लिए सबसे ज़रूरी राजनीतिक समझदारी होती है ..अगर राजनीति की समझ आधुनिक और प्रगति शील मूल्यों पर आधारित हो तो बहुत कुछ बदल सकता है . एक बार सही राजनीतिक समझ विकसित हो जाए तो संचार माध्यमों की भूमिका शुरू हो जाती है . इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है राजनीतिक समझ में न्याय और बराबरी को अहम स्थान दिया जाए क्योंकि अगर राजनीति की समझ पुरातनपंथी और पोंगा ज्ञान पर आधारीत होगी तो संचार माध्यमों से उसी का प्रचार हो जाएगा. संचार माध्यमों ने औरत के उसी रूप को आगे बढाया जो पुरुष प्रधान समाज में स्वीकार्य था . शुरू में संचार माध्यमों का सबसे सशक्त माध्यम यात्रियों के वर्णन हुआ करते थे . लेकिन वक़्त की साथ साथ हालात बदल गए हैं .आज संचार माध्यमों का सबसे नया रूप इंटरनेट है. लेकिन सिनेमा और टेलीविज़न आज के समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि इन दोनों की माध्यमों में औरत को मर्द की मर्जी की कठपुतली या उसके द्वारा डिजाइन किये गए रोल में ही दिखाया जाता है .इसी रोल को टेलिविज़न भी आगे बढाता है . हमारी फिल्मों में महिला एक पूरक रोल में ही पेश की जाती है . वह स्वतंत्र रूप से कहीं नहीं आती . अगर किसी फिल्म में महिला को बहुत आधुनिक दिखाया भी जाता है तो उसे पुरुषों की तरह गालियाँ बकते हुए दिखाया जाता है . यह आधुनिकता नहीं है .टेलिविज़न में भी औरत की साँचाबद्ध तस्वीर को ही प्रमुखता दी जाती है . ज़ाहिर है कि इस सोच का बदलाव ज़रूरी है . अगर ऐसा न हुआ तो समता मूलक समाज की कल्पना करना बहुत मुश्किल होगा .
Wednesday, March 16, 2011
विकीलीक्स का सही इस्तेमाल किया गया तो देश की राजनीति का बहुत भला होगा
शेष नारायण सिंह
सूचना क्रान्ति को इस्तेमाल करके जनपक्षधरता के एक बड़े पैरोकार के रूप में विकीलीक्स ने इतिहास में अपनी जगह बना ली है . विकीलीक्स के संस्थापक ,जूलियन असांज के काम को पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है . यह अलग बात है कि अब अमरीकी शासक वर्गों को उनका काम पसंद नहीं आ रहा है और उनके खिलाफ तरह तरह के मुक़दमे भी किये जा रहे हैं . अमरीकी कूटनीति की खासी दुर्दशा भी हो रही है . अमरीकी राजनीति की वे बातें भी पब्लिक डोमेन में आ रही हैं जो आम तौर पर गुप्त रखी जाती हैं . उन बातों को कहने के लिए कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जिसका आम तौर पर कुछ् मतलब नहीं होता . एक ही बयान के तरह तरह के अर्थ निकाले जाते हैं और यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक चलती रहती है . मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका परस्त त मंत्रियों की तैनाती की सूचना को जिस कच्ची भाषा में भारत में तैनात अमरीकी राजदूत ने वाशिंगटन को दिया था ,उसके चलते नई दिल्ली के कई मंत्रियों के चेहरे से नकाब उठ गया है. अब सबको पता है कि मुरली देवड़ा क्यों मंत्री बने थे और मणि शंकर ऐय्यर को क्यों पैदल किया गया था. दोनों का कारण एक ही था. सरकार के बनने में अमरीका की मर्जी चल रही थी. कभी इस देश की राजनीति में अमरीका विरोधी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. सत्ता में आने के बाद इंदिरा गाँधी ने अमरीका विरोध को अपनी विदेश नीति और राजनीति का स्थायी भाव बना दिया था . दो खेमों में बंटी दुनिया में अमरीका और रूस के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी . इंदिरा गाँधी का दुर्भाग्य था कि उनके पास कुछ ऐसे मौक़ापरस्त और फैशनेबुल लोग इकठ्ठा हो गए थे जो कभी बायें बाजू की छात्र राजनीति में रह चुके थे . बाद में वे खिसक कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे . जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद हासिल किया तो यह लोग उनके साथ लग लिए और रूस छाप कम्युनिज्म के आधार पर राजनीतिक सलाह देने लगे . इसके बहुत सारे घाटे हुए लेकिन एक फ़ायदा भी हुआ.फायदा यह हुआ कि भारत की सरकार अमरीकी हित साधन का माध्यम नहीं बनीं. यह राजनीति १९९१ तक चली लेकिन सोवियत रूस के ढहने के बाद जब पी वी नरसिम्हाराव देश के प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने ऐलानियाँ अमरीका की पक्षधरता की कूटनीति की बुनियाद डाल दी. आर्थिक रूप से अपने मुल्क में पूरी तरह से अमरीकी हितों को आगे बढाने का काम शुरू हो गया. पी वी नरसिम्हाराव के वित्तमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी हितों का पूरा ध्यान रखा और भारत के राष्ट्रीय हित को अमरीकी फायदों से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई . बाद में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो भारतीय विदेशनीति की छवि अमरीकी हुक्म के गुलाम की बन गयी. अमरीकी विदेश विभाग के एक मझोले दर्जे के अफसर को पटाने के लिए भारत के विदेश मंत्री बिछ बिछ जाते थे.उसको लेकर अपने गाँव भी गए और हर तरह से राजपूताने की चापलूसी वाली परंपरा के हिसाब से उसका स्वागत सत्कार किया . हालांकि यह विदेश मंत्री महोदय दावा करते थे कि उनके पूर्वज महान थे और वे राजपूताने की गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि थे लेकिन इन श्रीमान जी ने चापलूसी वाला रास्ता ही अपनाया . बाद में उस अफसर ने जब एक किताब लिखी तो भारतीय विदेश मंत्री की छवि की खासी छीछालेदर की.वाजपेयी जी के बाद डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने जिनकी अमरीका के प्रति मुहब्बत किसी से छुपी नहीं है . इस पृष्ठभूमि में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत के तार को देखने से तस्वीर साफ़ हो जाती है .अमरीकी राजदूत का यह दावा कि मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका के कई दोस्तों को जगह दी गयी है ,भारतीय राजनीति की दुखती रग पर हाथ रख देता है . साथ ही यह भी साफ़ हो जाता है कि अमरीका विरोध की राजनीति अब इतिहास की बात है , भारत में अमरीका परस्ती पूरी तरह से घर बना चुकी है . इस तार के अलावा भी बहुत सारी सूचनाओं को सार्वजनिक करके विकीलीक्स ने पारदर्शिता का निजाम कायम करने की दिशा में पहला क़दम उठा दिया है . राष्ट्रीय अखबार " द हिन्दू " ने इन तारों को सिलसिलेवार छापकर भारतीय राजनीति के ऊपर बहुत उपकार किया है . एक तार में अमरीकी राजदूत ने सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली का विश्लेषण किया है . अगर कांग्रेस का आला नेतृत्व इस तार को ध्यान में रख कर आगे की रणनीति बनाए तो उसकी राजनीति को सही ढर्रे पर लाया जा सकता है . जो बात सारे देश को मालूम है वह अमरीकी राजदूत के तार में स्पष्ट तरीके से लिख दी गयी है . जनवरी २००६ के एक तार में अमरीकी राजदूत ने अपनी सरकार को सूचित किया है कि कांग्रेस की एलीट लीडरशिप हिन्दी बेल्ट के ग्रामीण इलाकों में जाकर आम आदमी से कोई भी संपर्क बनाने की कोशिश नहीं करती .इस एलीट लीडरशिप में सोनिया गांधी और उनके बच्चे भी शामिल हैं . तार में लिखा है पूरी कांग्रेस राजनीति सोनिया गाँधी के करिश्मा के आधार पर सत्ता में बने रहने की राजनीति को प्रमुखता देती है . सोनिया गांधी के आस पास जमी हुई कोटरी को भरोसा है कि अगर वे मैडम की नज़र में ठीक हैं तो किसी की भी इज्ज़त उतारने का उन्हें लाइसेंस मिला हुआ है . पार्टी के नंबर एक परिवार के अलावा बाकी लोग एक दूसरे की टांगखिंचाई और निंदा अभियान में मशगूल रहते हैं . इसी तार में कांग्रेस के २२ जनवरी २००६ के हैदराबाद अधिवेशन का भी ज़िक्र है जब वहां जुटे करीब दस हज़ार कांग्रेसियों में से बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि राहुल गांधी को मंच पर बैठाया जाए. ज़ाहिर है उन कांग्रेसियों के दिमाग में रहा होगा कि अगर राहुल गांधी की बात की जायेगी तो मैडम को खुशी होगी. इस तरह विकीलीक्स के दस्तावजों में बहुत सारी सूचना पब्लिक डोमेन में आई है अगर उसका सही इस्तेमाल किया गया तो देश की राजनीति का बहुत भला होगा
सूचना क्रान्ति को इस्तेमाल करके जनपक्षधरता के एक बड़े पैरोकार के रूप में विकीलीक्स ने इतिहास में अपनी जगह बना ली है . विकीलीक्स के संस्थापक ,जूलियन असांज के काम को पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है . यह अलग बात है कि अब अमरीकी शासक वर्गों को उनका काम पसंद नहीं आ रहा है और उनके खिलाफ तरह तरह के मुक़दमे भी किये जा रहे हैं . अमरीकी कूटनीति की खासी दुर्दशा भी हो रही है . अमरीकी राजनीति की वे बातें भी पब्लिक डोमेन में आ रही हैं जो आम तौर पर गुप्त रखी जाती हैं . उन बातों को कहने के लिए कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जिसका आम तौर पर कुछ् मतलब नहीं होता . एक ही बयान के तरह तरह के अर्थ निकाले जाते हैं और यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक चलती रहती है . मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका परस्त त मंत्रियों की तैनाती की सूचना को जिस कच्ची भाषा में भारत में तैनात अमरीकी राजदूत ने वाशिंगटन को दिया था ,उसके चलते नई दिल्ली के कई मंत्रियों के चेहरे से नकाब उठ गया है. अब सबको पता है कि मुरली देवड़ा क्यों मंत्री बने थे और मणि शंकर ऐय्यर को क्यों पैदल किया गया था. दोनों का कारण एक ही था. सरकार के बनने में अमरीका की मर्जी चल रही थी. कभी इस देश की राजनीति में अमरीका विरोधी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. सत्ता में आने के बाद इंदिरा गाँधी ने अमरीका विरोध को अपनी विदेश नीति और राजनीति का स्थायी भाव बना दिया था . दो खेमों में बंटी दुनिया में अमरीका और रूस के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी . इंदिरा गाँधी का दुर्भाग्य था कि उनके पास कुछ ऐसे मौक़ापरस्त और फैशनेबुल लोग इकठ्ठा हो गए थे जो कभी बायें बाजू की छात्र राजनीति में रह चुके थे . बाद में वे खिसक कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे . जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद हासिल किया तो यह लोग उनके साथ लग लिए और रूस छाप कम्युनिज्म के आधार पर राजनीतिक सलाह देने लगे . इसके बहुत सारे घाटे हुए लेकिन एक फ़ायदा भी हुआ.फायदा यह हुआ कि भारत की सरकार अमरीकी हित साधन का माध्यम नहीं बनीं. यह राजनीति १९९१ तक चली लेकिन सोवियत रूस के ढहने के बाद जब पी वी नरसिम्हाराव देश के प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने ऐलानियाँ अमरीका की पक्षधरता की कूटनीति की बुनियाद डाल दी. आर्थिक रूप से अपने मुल्क में पूरी तरह से अमरीकी हितों को आगे बढाने का काम शुरू हो गया. पी वी नरसिम्हाराव के वित्तमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी हितों का पूरा ध्यान रखा और भारत के राष्ट्रीय हित को अमरीकी फायदों से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई . बाद में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो भारतीय विदेशनीति की छवि अमरीकी हुक्म के गुलाम की बन गयी. अमरीकी विदेश विभाग के एक मझोले दर्जे के अफसर को पटाने के लिए भारत के विदेश मंत्री बिछ बिछ जाते थे.उसको लेकर अपने गाँव भी गए और हर तरह से राजपूताने की चापलूसी वाली परंपरा के हिसाब से उसका स्वागत सत्कार किया . हालांकि यह विदेश मंत्री महोदय दावा करते थे कि उनके पूर्वज महान थे और वे राजपूताने की गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि थे लेकिन इन श्रीमान जी ने चापलूसी वाला रास्ता ही अपनाया . बाद में उस अफसर ने जब एक किताब लिखी तो भारतीय विदेश मंत्री की छवि की खासी छीछालेदर की.वाजपेयी जी के बाद डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने जिनकी अमरीका के प्रति मुहब्बत किसी से छुपी नहीं है . इस पृष्ठभूमि में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत के तार को देखने से तस्वीर साफ़ हो जाती है .अमरीकी राजदूत का यह दावा कि मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका के कई दोस्तों को जगह दी गयी है ,भारतीय राजनीति की दुखती रग पर हाथ रख देता है . साथ ही यह भी साफ़ हो जाता है कि अमरीका विरोध की राजनीति अब इतिहास की बात है , भारत में अमरीका परस्ती पूरी तरह से घर बना चुकी है . इस तार के अलावा भी बहुत सारी सूचनाओं को सार्वजनिक करके विकीलीक्स ने पारदर्शिता का निजाम कायम करने की दिशा में पहला क़दम उठा दिया है . राष्ट्रीय अखबार " द हिन्दू " ने इन तारों को सिलसिलेवार छापकर भारतीय राजनीति के ऊपर बहुत उपकार किया है . एक तार में अमरीकी राजदूत ने सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली का विश्लेषण किया है . अगर कांग्रेस का आला नेतृत्व इस तार को ध्यान में रख कर आगे की रणनीति बनाए तो उसकी राजनीति को सही ढर्रे पर लाया जा सकता है . जो बात सारे देश को मालूम है वह अमरीकी राजदूत के तार में स्पष्ट तरीके से लिख दी गयी है . जनवरी २००६ के एक तार में अमरीकी राजदूत ने अपनी सरकार को सूचित किया है कि कांग्रेस की एलीट लीडरशिप हिन्दी बेल्ट के ग्रामीण इलाकों में जाकर आम आदमी से कोई भी संपर्क बनाने की कोशिश नहीं करती .इस एलीट लीडरशिप में सोनिया गांधी और उनके बच्चे भी शामिल हैं . तार में लिखा है पूरी कांग्रेस राजनीति सोनिया गाँधी के करिश्मा के आधार पर सत्ता में बने रहने की राजनीति को प्रमुखता देती है . सोनिया गांधी के आस पास जमी हुई कोटरी को भरोसा है कि अगर वे मैडम की नज़र में ठीक हैं तो किसी की भी इज्ज़त उतारने का उन्हें लाइसेंस मिला हुआ है . पार्टी के नंबर एक परिवार के अलावा बाकी लोग एक दूसरे की टांगखिंचाई और निंदा अभियान में मशगूल रहते हैं . इसी तार में कांग्रेस के २२ जनवरी २००६ के हैदराबाद अधिवेशन का भी ज़िक्र है जब वहां जुटे करीब दस हज़ार कांग्रेसियों में से बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि राहुल गांधी को मंच पर बैठाया जाए. ज़ाहिर है उन कांग्रेसियों के दिमाग में रहा होगा कि अगर राहुल गांधी की बात की जायेगी तो मैडम को खुशी होगी. इस तरह विकीलीक्स के दस्तावजों में बहुत सारी सूचना पब्लिक डोमेन में आई है अगर उसका सही इस्तेमाल किया गया तो देश की राजनीति का बहुत भला होगा
Monday, March 14, 2011
दो तिहाई दलित बच्चे दसवीं क्लास के पहले ही स्कूल छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं .
शेष नारायण सिंह
दलितों को शिक्षित करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है .संविधान में व्यवस्था है कि दलित भारतीयों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये समता मूलक समाज की स्थापना की जायेगी. उसके लिए १९५० में संविधान के लागू होने के साथ ही यह सुनिश्व्चित कर दिया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व अगर दलितों के विकास के लिए कोई योजनायें बनाना चाहे तो उसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन न आये . लेकिन संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा के क्षेत्र में बाकी लोगों के बराबर करने के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया है . सबको मालूम है कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा ही है . जिन समाजों में भी बराबरी का माहौल बना है उसमें दलित और शोषित वर्गों को शिक्षित करना सबसे बड़ा हथियार रहा है लेकिन भारत सरकार और मुख्य रूप से केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर उठाने की दिशा में कोई राजनीतिक क़दम नहीं उठाया है . उनकी जो भी कोशिश रही है वह केवल खानापूर्ति की रही है . ऐसा लगता है कि १९५० से अब तक कांग्रेस ने दलितों को वोट देने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा . शायद इसीलिये दलितों के वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व के विकास की आवश्यकता समझी गयी और कुछ हद तक यह काम संभव भी हुआ. दक्षिण में तो यह राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के करीब २० साल बाद ही प्रभावी होने लगा था लेकिन उत्तर में अभी यह बहुत कमज़ोर है . उत्तर प्रदेश में एक विकल्प उभर रहा है लेकिन उसमें भी शासक वर्गों की सामंती सोच के आधार पर ही दलितों के विकास की राजनीति की जा रही है क्योंकि नौकरशाही पर अभी निहित स्वार्थ ही हावी हैं . कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियां जब भी दलितों के विकास के लिए कोई काम करती हैं तो यह उम्मीद करती हैं कि दलितों के हित के बारे में सोचने वाली जमातें उनका एहसान मानें . कारण जो भी हों दलितों को शक्तिशाली बनाने के लिए जो सबसे ज़रूरी हथियार शिक्षा का है उस तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पंहुच अभी सीमित है . पिछले हफ्ते लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि स्कूलों में पहली से दसवीं क्लास तक की पढाई करने जाने वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की कुल संख्या में से बहुत बड़ी तादाद में बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं . यह आंकड़े हैरतअंगेज़ हैं और हमारे राजनीतिक नेताओं की नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के पहले अनुसूचित जातियों के बच्चों का ड्राप रेट डरावना है . २००६-०७ में करीब ६९ प्रतिशत अनुसूचित जातियों के बच्चों ने पढाई छोड़ दी थी. जबकि २००८-०९ में इस वर्ग के ६६.५६ प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था . अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़े और भी अधिक चिंताजनक हैं . २००६-०७ में अनुसूचित जनजातियों के ७८ प्रतिशत से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था जबकि २००८-०८ में यह ड्राप रेट २ प्रतिशत नीचे जाकर लगभग ७६ प्रतिशत रह गया था. यह आंकड़े बहुत ही निराशा पैदा करते हैं . अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का बीच में ही स्कूल छोड़ देना बहुत ही खराब बात है . ज़ाहिर है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के बे परवाह रवैय्ये के कारण ही यह हालात पैदा हुए हैं और इन पर फ़ौरन रोक लागने की ज़रुरत है .
केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की ओर से सरकारी तौर पर दिए गए इन आंकड़ों में कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कई नीतियों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि इन नीतियों के कारण दलितों के शैक्षिक विकास को रफ़्तार मिलेगी . सरकार ने दावा किया है कि सर्व शिक्षा अभियान नाम की जो योजना है वह समता मूलक समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी .लोकसभा को सरकार ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान ने समानता आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों तथा समाज के लाभवंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है ..समाज के लाभवंचित वर्गों की शिक्षा सम्बंधित सरोकार ,सर्व शिक्षा अभियान योजना में अन्तर्निहित है.. यह सरकारी भाषा है जिसमें बिना कोई भी पक्की बात बताये सच्चाई को कवर कर दिया जाता है . लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का जो मौजूदा स्वरुप है वह पूरी तरह से राज्यों में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आर्थिक लाभ पंहुचाने की योजना बन कर रह गया है . सरकार ने दावा किया है कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ ,सर्व शिक्षा आभियान , मध्याह्न भोजन योजना ,कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना ,राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का उद्देश्य स्कूलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों श्रेणियों के छात्रों सहित सभी वर्ग के छात्रों के नामांकन में वृद्धि करवाना है . सरकारी भाषा में कही गयी इस बात में लगभग घोषित कर दिया गया है कि दलित बच्चों का स्कूलों में नामांकन करवाना ही सरकार का उद्देश्य है .उनकी पढाई को पूरा करवाने के लिए सरकार कोई भी उपाय नहीं करना चाहती .ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के नाम पर जनता का धन तो बहुत बड़े पैमाने पर लग रहा है लेकिन बीच में निहित स्वार्थ वालों की ज़बरदस्त मौजूदगी के चलते यह योजनायें अपना मकसद हासिल करने से कोसों दूर हैं
दलितों को शिक्षित करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है .संविधान में व्यवस्था है कि दलित भारतीयों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये समता मूलक समाज की स्थापना की जायेगी. उसके लिए १९५० में संविधान के लागू होने के साथ ही यह सुनिश्व्चित कर दिया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व अगर दलितों के विकास के लिए कोई योजनायें बनाना चाहे तो उसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन न आये . लेकिन संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा के क्षेत्र में बाकी लोगों के बराबर करने के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया है . सबको मालूम है कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा ही है . जिन समाजों में भी बराबरी का माहौल बना है उसमें दलित और शोषित वर्गों को शिक्षित करना सबसे बड़ा हथियार रहा है लेकिन भारत सरकार और मुख्य रूप से केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर उठाने की दिशा में कोई राजनीतिक क़दम नहीं उठाया है . उनकी जो भी कोशिश रही है वह केवल खानापूर्ति की रही है . ऐसा लगता है कि १९५० से अब तक कांग्रेस ने दलितों को वोट देने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा . शायद इसीलिये दलितों के वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व के विकास की आवश्यकता समझी गयी और कुछ हद तक यह काम संभव भी हुआ. दक्षिण में तो यह राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के करीब २० साल बाद ही प्रभावी होने लगा था लेकिन उत्तर में अभी यह बहुत कमज़ोर है . उत्तर प्रदेश में एक विकल्प उभर रहा है लेकिन उसमें भी शासक वर्गों की सामंती सोच के आधार पर ही दलितों के विकास की राजनीति की जा रही है क्योंकि नौकरशाही पर अभी निहित स्वार्थ ही हावी हैं . कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियां जब भी दलितों के विकास के लिए कोई काम करती हैं तो यह उम्मीद करती हैं कि दलितों के हित के बारे में सोचने वाली जमातें उनका एहसान मानें . कारण जो भी हों दलितों को शक्तिशाली बनाने के लिए जो सबसे ज़रूरी हथियार शिक्षा का है उस तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पंहुच अभी सीमित है . पिछले हफ्ते लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि स्कूलों में पहली से दसवीं क्लास तक की पढाई करने जाने वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की कुल संख्या में से बहुत बड़ी तादाद में बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं . यह आंकड़े हैरतअंगेज़ हैं और हमारे राजनीतिक नेताओं की नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के पहले अनुसूचित जातियों के बच्चों का ड्राप रेट डरावना है . २००६-०७ में करीब ६९ प्रतिशत अनुसूचित जातियों के बच्चों ने पढाई छोड़ दी थी. जबकि २००८-०९ में इस वर्ग के ६६.५६ प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था . अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़े और भी अधिक चिंताजनक हैं . २००६-०७ में अनुसूचित जनजातियों के ७८ प्रतिशत से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था जबकि २००८-०८ में यह ड्राप रेट २ प्रतिशत नीचे जाकर लगभग ७६ प्रतिशत रह गया था. यह आंकड़े बहुत ही निराशा पैदा करते हैं . अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का बीच में ही स्कूल छोड़ देना बहुत ही खराब बात है . ज़ाहिर है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के बे परवाह रवैय्ये के कारण ही यह हालात पैदा हुए हैं और इन पर फ़ौरन रोक लागने की ज़रुरत है .
केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की ओर से सरकारी तौर पर दिए गए इन आंकड़ों में कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कई नीतियों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि इन नीतियों के कारण दलितों के शैक्षिक विकास को रफ़्तार मिलेगी . सरकार ने दावा किया है कि सर्व शिक्षा अभियान नाम की जो योजना है वह समता मूलक समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी .लोकसभा को सरकार ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान ने समानता आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों तथा समाज के लाभवंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है ..समाज के लाभवंचित वर्गों की शिक्षा सम्बंधित सरोकार ,सर्व शिक्षा अभियान योजना में अन्तर्निहित है.. यह सरकारी भाषा है जिसमें बिना कोई भी पक्की बात बताये सच्चाई को कवर कर दिया जाता है . लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का जो मौजूदा स्वरुप है वह पूरी तरह से राज्यों में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आर्थिक लाभ पंहुचाने की योजना बन कर रह गया है . सरकार ने दावा किया है कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ ,सर्व शिक्षा आभियान , मध्याह्न भोजन योजना ,कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना ,राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का उद्देश्य स्कूलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों श्रेणियों के छात्रों सहित सभी वर्ग के छात्रों के नामांकन में वृद्धि करवाना है . सरकारी भाषा में कही गयी इस बात में लगभग घोषित कर दिया गया है कि दलित बच्चों का स्कूलों में नामांकन करवाना ही सरकार का उद्देश्य है .उनकी पढाई को पूरा करवाने के लिए सरकार कोई भी उपाय नहीं करना चाहती .ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के नाम पर जनता का धन तो बहुत बड़े पैमाने पर लग रहा है लेकिन बीच में निहित स्वार्थ वालों की ज़बरदस्त मौजूदगी के चलते यह योजनायें अपना मकसद हासिल करने से कोसों दूर हैं
Sunday, March 13, 2011
जापान की परमाणु सुरक्षा पर उठे सवाल, भारत को सजग रहना पड़ेगा
शेष नारायण सिंह
जापान में कहर बरपा हुए २ दिन से ज्यादा हो गए हैं .कुदरत ने मुसीबत का इतना बड़ा तूफ़ान खड़ा कर दिया है कि पता नहीं कितने वर्षों में यह दर्द कम होगा . मुसीबत का पैमाना यह है कि अभी तक यह नहीं पता चल पा रहा है कि इस प्रलय में कितने लोगों की जानें गयी हैं . जापान में आये भूकंप और सुनामी ने वहां के लोगों की ज़िंदगी को नरक से भी बदतर बना दिया है . लेकिन इस मुसीबत का जो सबसे बड़ा ख़तरा है उसकी गंभीरता का अंदाज़ लगना अब शुरू हो रहा है . जापान सरकार के एक बड़े अधिकारी ने बताया है कि शुक्रवार को आये भयानक भूकंप में जिन परमाणु बिजली घरों को नुकसान पंहुचा है उनमें से एक में पिघलन शुरू हो गयी है . यह बहुत ही चिंता की बात है . सरकारी प्रवक्ता का यह स्वीकार करना अपने आप में बहुत बड़ी बात है . इसके पहले वाले बिजली घर में भी परमाणु ख़तरा बहुत ही खतरनाक स्तर तक पंहुच चुका है . जापान सरकार के एक प्रवक्ता ने इस बात को स्वीकार भी किया था लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के डर से वे बात को बदल रहे हैं . अब वे कह रहे हैं कि शुरू में तो ख़तरा बढ़ गया था लेकिन अब कानूनी रूप से स्वीकृत स्तर पर पंहुच गया है . जापान के मुख्य कैबिनेट सेक्रेटरी , युकिओ एडानो ने रविवार को बताया कि अब फुकुशीमा बिजली घर की समस्या का भी हल निकाल लिया गया है .इन परमाणु संयंत्रों की बीस किलोमीटर की सीमा में अब कोई भी आबादी नहीं है . करीब सत्रह लाख लोगों को इस इलाके से हटा लिया गया है . यह परमाणु संस्थान जापान की राजधानी टोक्यो से करीब २७० किलोमीटर दूर उत्तर की तरफ है . जापान की परेशानी पूरी इंसानियत की परेशानी है .करीब ५० मुल्कों ने जापान को हर तरह से मदद देने का प्रस्ताव भी किया है .अमरीका का सातवाँ बेडा उसी इलाके में ही है ,उसका इस्तेमाल भी बचाव और राहत के काम में किया जा रहा है . सच्ची बात यह है कि जापान को किसी तरह की आर्थिक सहायता की ज़रुरत नहीं है लेकिन इतनी बड़ी मुसीबत के बाद हर तरह की सहायता की ज़रुरत रहती है . ज़ाहिर है जापान इस मुसीबत से बाहर आ जाएगा.
लेकिन जापान की इस प्राकृतिक आपदा के बाद परमाणु सुरक्षा के सम्बन्ध में चर्चा के नए अवसर खुल गए हैं . .परमाणु निरस्त्रीकरण और शान्ति गठबंधन के संयोजक अनिल चौधरी ने दिल्ली में एक बयान जारी करके भूकंप और सुनामी से हुई तबाही पर शोक व्यक्त किया है. बयान में फुकुशीमा परमाणु संयंत्र में हुए विस्फोट और उसके बाद की दुर्घटना का ज़िक्र है . इस दुर्घटना के बाद बहुत सारा रेडियो एक्टिव पदार्थ समुद्र में चला गया है . अभी पता नहीं है कि उसकी मात्रा कितनी है . इस हादसे के बाद एक बात बिलकुल साफ़ हो गयी है कि तथाकथित शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल का कोई मतलब नहीं है . इस आपदा के बाद वैज्ञानिकों की वह बात बिलकुल सच साबित हो गयी है जिसमें कहा गया है कि किसी भी किस्म का परमाणु संयंत्र हो ,उस से इंसानियत के लिए भयानक खतरों की आशंका को कम नहीं किया जा सकता . अमरीका में १९७९ हुआ 'थ्री माइल द्वीप ' का परमाणु हादसा , और यूक्रेन में १९८६ में हुआ ' चेर्नोबिल परमाणु हादसा ' इस तरह के खतरों के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल होते रहे हैं . लेकिन फुकुशीमा परमाणु संयंत्र के हादसे ने यह बात बिलकुल साबित कर दी है कि इंसानी कोशिश से चाहे जितना सुरक्षित कर दिया जाए लेकिन अगर परमाणु बिजली के उत्पादन में इतने खतरनाक रेडियो एक्टिव सामान का इस्तेमाल किया जा रहा है तो प्राकृतिक आपदा से कैसे बचा जा सकता है .चेर्नोबिल के हादसे में एक लाख से ज्यादा लोगों की जानें गयी थी . आशंका जताई जा रही है कि फुकुशीमा में हुए नुकसान का जब सही आकलन कर लिया जाएगा तो यह उस से भी ज्यादा भयावह होगा .
इस आपदा के बाद एक बात बिलकुल साफ़ हो गयी है भारत को इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से सबक लेना चाहिए और भारत के सभी परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त किये जाने चाहिए .सबको मालूम है कि भारत में सुरक्षा के वे इंतज़ाम नहीं हैं जो जापानी संयंत्रों में मौजूद हैं , भारत सरकार को चाहिए कि अपने संयंत्रों की सुविधाओं को बहुत की उच्च कोटि का बनाए और दुर्घटना की स्थिति में आपातकालीन हालत को काबू करने का पारदर्शी तंत्र स्थापित करे. परमाणु निरस्त्रीकरण और शान्ति गठबंधन ने मांग की है कि देश के सभी सिविलियन परमाणु योजनाओं पर चल रहा निर्माण कार्य फ़ौरन रोक दे . सरकार को महाराष्ट्र के जैतापुर वाले परमाणु संयंत्र का काम भी तुरंत रोक देना चाहिए . यह काम दुबारा तब तक न शुरू किया जाए जब सरकार और अन्य सम्बंधित पक्ष भारत की परमाणु नीति की बाकायदा समीक्षा न कर लें . जापान जैसा टेक्नालोजी के क्षेत्र में विकसित देश अगर प्राकृतिक आपदा के सामने असहाय खड़ा नज़र आ रहा है तो अभी अपने देश में वैज्ञानिक रूप से बहुत पिछड़ापन है . जापान की आपदा में पूरी मदद करने के साथ साथ हमें अपने देश के परमाणु संयंत्रों को भी सुरक्षित बनाने की पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए .
जापान में कहर बरपा हुए २ दिन से ज्यादा हो गए हैं .कुदरत ने मुसीबत का इतना बड़ा तूफ़ान खड़ा कर दिया है कि पता नहीं कितने वर्षों में यह दर्द कम होगा . मुसीबत का पैमाना यह है कि अभी तक यह नहीं पता चल पा रहा है कि इस प्रलय में कितने लोगों की जानें गयी हैं . जापान में आये भूकंप और सुनामी ने वहां के लोगों की ज़िंदगी को नरक से भी बदतर बना दिया है . लेकिन इस मुसीबत का जो सबसे बड़ा ख़तरा है उसकी गंभीरता का अंदाज़ लगना अब शुरू हो रहा है . जापान सरकार के एक बड़े अधिकारी ने बताया है कि शुक्रवार को आये भयानक भूकंप में जिन परमाणु बिजली घरों को नुकसान पंहुचा है उनमें से एक में पिघलन शुरू हो गयी है . यह बहुत ही चिंता की बात है . सरकारी प्रवक्ता का यह स्वीकार करना अपने आप में बहुत बड़ी बात है . इसके पहले वाले बिजली घर में भी परमाणु ख़तरा बहुत ही खतरनाक स्तर तक पंहुच चुका है . जापान सरकार के एक प्रवक्ता ने इस बात को स्वीकार भी किया था लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के डर से वे बात को बदल रहे हैं . अब वे कह रहे हैं कि शुरू में तो ख़तरा बढ़ गया था लेकिन अब कानूनी रूप से स्वीकृत स्तर पर पंहुच गया है . जापान के मुख्य कैबिनेट सेक्रेटरी , युकिओ एडानो ने रविवार को बताया कि अब फुकुशीमा बिजली घर की समस्या का भी हल निकाल लिया गया है .इन परमाणु संयंत्रों की बीस किलोमीटर की सीमा में अब कोई भी आबादी नहीं है . करीब सत्रह लाख लोगों को इस इलाके से हटा लिया गया है . यह परमाणु संस्थान जापान की राजधानी टोक्यो से करीब २७० किलोमीटर दूर उत्तर की तरफ है . जापान की परेशानी पूरी इंसानियत की परेशानी है .करीब ५० मुल्कों ने जापान को हर तरह से मदद देने का प्रस्ताव भी किया है .अमरीका का सातवाँ बेडा उसी इलाके में ही है ,उसका इस्तेमाल भी बचाव और राहत के काम में किया जा रहा है . सच्ची बात यह है कि जापान को किसी तरह की आर्थिक सहायता की ज़रुरत नहीं है लेकिन इतनी बड़ी मुसीबत के बाद हर तरह की सहायता की ज़रुरत रहती है . ज़ाहिर है जापान इस मुसीबत से बाहर आ जाएगा.
लेकिन जापान की इस प्राकृतिक आपदा के बाद परमाणु सुरक्षा के सम्बन्ध में चर्चा के नए अवसर खुल गए हैं . .परमाणु निरस्त्रीकरण और शान्ति गठबंधन के संयोजक अनिल चौधरी ने दिल्ली में एक बयान जारी करके भूकंप और सुनामी से हुई तबाही पर शोक व्यक्त किया है. बयान में फुकुशीमा परमाणु संयंत्र में हुए विस्फोट और उसके बाद की दुर्घटना का ज़िक्र है . इस दुर्घटना के बाद बहुत सारा रेडियो एक्टिव पदार्थ समुद्र में चला गया है . अभी पता नहीं है कि उसकी मात्रा कितनी है . इस हादसे के बाद एक बात बिलकुल साफ़ हो गयी है कि तथाकथित शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल का कोई मतलब नहीं है . इस आपदा के बाद वैज्ञानिकों की वह बात बिलकुल सच साबित हो गयी है जिसमें कहा गया है कि किसी भी किस्म का परमाणु संयंत्र हो ,उस से इंसानियत के लिए भयानक खतरों की आशंका को कम नहीं किया जा सकता . अमरीका में १९७९ हुआ 'थ्री माइल द्वीप ' का परमाणु हादसा , और यूक्रेन में १९८६ में हुआ ' चेर्नोबिल परमाणु हादसा ' इस तरह के खतरों के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल होते रहे हैं . लेकिन फुकुशीमा परमाणु संयंत्र के हादसे ने यह बात बिलकुल साबित कर दी है कि इंसानी कोशिश से चाहे जितना सुरक्षित कर दिया जाए लेकिन अगर परमाणु बिजली के उत्पादन में इतने खतरनाक रेडियो एक्टिव सामान का इस्तेमाल किया जा रहा है तो प्राकृतिक आपदा से कैसे बचा जा सकता है .चेर्नोबिल के हादसे में एक लाख से ज्यादा लोगों की जानें गयी थी . आशंका जताई जा रही है कि फुकुशीमा में हुए नुकसान का जब सही आकलन कर लिया जाएगा तो यह उस से भी ज्यादा भयावह होगा .
इस आपदा के बाद एक बात बिलकुल साफ़ हो गयी है भारत को इस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से सबक लेना चाहिए और भारत के सभी परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त किये जाने चाहिए .सबको मालूम है कि भारत में सुरक्षा के वे इंतज़ाम नहीं हैं जो जापानी संयंत्रों में मौजूद हैं , भारत सरकार को चाहिए कि अपने संयंत्रों की सुविधाओं को बहुत की उच्च कोटि का बनाए और दुर्घटना की स्थिति में आपातकालीन हालत को काबू करने का पारदर्शी तंत्र स्थापित करे. परमाणु निरस्त्रीकरण और शान्ति गठबंधन ने मांग की है कि देश के सभी सिविलियन परमाणु योजनाओं पर चल रहा निर्माण कार्य फ़ौरन रोक दे . सरकार को महाराष्ट्र के जैतापुर वाले परमाणु संयंत्र का काम भी तुरंत रोक देना चाहिए . यह काम दुबारा तब तक न शुरू किया जाए जब सरकार और अन्य सम्बंधित पक्ष भारत की परमाणु नीति की बाकायदा समीक्षा न कर लें . जापान जैसा टेक्नालोजी के क्षेत्र में विकसित देश अगर प्राकृतिक आपदा के सामने असहाय खड़ा नज़र आ रहा है तो अभी अपने देश में वैज्ञानिक रूप से बहुत पिछड़ापन है . जापान की आपदा में पूरी मदद करने के साथ साथ हमें अपने देश के परमाणु संयंत्रों को भी सुरक्षित बनाने की पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए .
Saturday, March 12, 2011
लोकतंत्र
(आदित्य राज शर्मा की कविता ,साभार उनसे पूछ कर यहाँ लगाई जा रही है )
लोकतंत्र जातियों की जंग में बदल दिया
मेहेंदियों का रंग ख़ूनी रंग में बदल दिया
जो घरों में ला रहे हैं जंगलों की आग को
और जो जगा रहे हैं जातियों के नाग को
जिनका है अतीत वैमनस्य के जूनून का
और सर पे पाप है पहाड़ियों के खून का
इस चमन में बुलबुलों के पंख नोचतें हैं जो
वे कोई बड़े खुदा हैं खुद ही सोचते हैं जो
जिनके यहाँ ख़ूनी दाग साफ़ किये जाते हैं
फाँसी वाले गुनाहगार माफ़ किये जाते हैं
जिसने गुण्डे हौंसलों को दी सदैव थपकियाँ
और हल्ला बोल-बोल दी कलम को धमकियाँ
जिसके राज में जली हैं प्रेस की भी होलियाँ
और भीड़ पर चली हैं बेशुमार गोलियाँ
जिसने टूट के कगार ला दिया समाज को
जो नहीं बचा सके हैं माँ बहन की लाज को
जिसके आस-पास गुण्डे तस्करों का जोर है
उनके हाथ में वतन की आज बागडोर है
मेरा वास्ता नहीं है कोई राजपाट से
इक सवाल पूछता हूँ रोज राजघाट से
मेरी नींद खो गयी हुजूर इस मलाल में
क्या वतन को मिलना था यही पचास साल में
कल जो घर से भागा किसी ज्ञान की तलाश में
करोड़ों की संपदा है आज उसके पास में
गोरैया के बच्चों को जला दिया है नीड़ ने
आस्थाएं तोड़ दी हैं साधुओं की भीड़ ने
पाखण्डी परम्परा है आन-बान-शान की
है करोड़ों की कमी मजहबी दुकान की
पूजा पाठ हो रहा है धन्ना सेठ के लिये
कोई यज्ञ होता नहीं भूखे पेट के लिये
भगवानों के चित्रों से भभूत झड़ी मिली है
साधुओं की देह हीरे मोती जड़ी मिली है
कोई स्वर्ग जाने हेतु दे रहा है सीढियाँ
कहीं भूत-प्रेतों से ही डर रही हैं पीढियाँ
कोई सुबह का उजाला रैन बना देता है
कोई चमत्कार स्वर्ण चैन बना देता है
कोई मन्त्र -सिद्धि की ही दे रहा है बूटियाँ
कोई हवा में ही बना देता है अंगूठियाँ
पर कोई गरीबों की लँगोटी न बना सका
कोई स्वामी संत बाबा रोटी न बना सका
लोकतंत्र जातियों की जंग में बदल दिया
मेहेंदियों का रंग ख़ूनी रंग में बदल दिया
जो घरों में ला रहे हैं जंगलों की आग को
और जो जगा रहे हैं जातियों के नाग को
जिनका है अतीत वैमनस्य के जूनून का
और सर पे पाप है पहाड़ियों के खून का
इस चमन में बुलबुलों के पंख नोचतें हैं जो
वे कोई बड़े खुदा हैं खुद ही सोचते हैं जो
जिनके यहाँ ख़ूनी दाग साफ़ किये जाते हैं
फाँसी वाले गुनाहगार माफ़ किये जाते हैं
जिसने गुण्डे हौंसलों को दी सदैव थपकियाँ
और हल्ला बोल-बोल दी कलम को धमकियाँ
जिसके राज में जली हैं प्रेस की भी होलियाँ
और भीड़ पर चली हैं बेशुमार गोलियाँ
जिसने टूट के कगार ला दिया समाज को
जो नहीं बचा सके हैं माँ बहन की लाज को
जिसके आस-पास गुण्डे तस्करों का जोर है
उनके हाथ में वतन की आज बागडोर है
मेरा वास्ता नहीं है कोई राजपाट से
इक सवाल पूछता हूँ रोज राजघाट से
मेरी नींद खो गयी हुजूर इस मलाल में
क्या वतन को मिलना था यही पचास साल में
कल जो घर से भागा किसी ज्ञान की तलाश में
करोड़ों की संपदा है आज उसके पास में
गोरैया के बच्चों को जला दिया है नीड़ ने
आस्थाएं तोड़ दी हैं साधुओं की भीड़ ने
पाखण्डी परम्परा है आन-बान-शान की
है करोड़ों की कमी मजहबी दुकान की
पूजा पाठ हो रहा है धन्ना सेठ के लिये
कोई यज्ञ होता नहीं भूखे पेट के लिये
भगवानों के चित्रों से भभूत झड़ी मिली है
साधुओं की देह हीरे मोती जड़ी मिली है
कोई स्वर्ग जाने हेतु दे रहा है सीढियाँ
कहीं भूत-प्रेतों से ही डर रही हैं पीढियाँ
कोई सुबह का उजाला रैन बना देता है
कोई चमत्कार स्वर्ण चैन बना देता है
कोई मन्त्र -सिद्धि की ही दे रहा है बूटियाँ
कोई हवा में ही बना देता है अंगूठियाँ
पर कोई गरीबों की लँगोटी न बना सका
कोई स्वामी संत बाबा रोटी न बना सका
ग्रामीण विकास की निगरानी पर कसी गयी बाबूतंत्र की लगाम
शेष नारायण सिंह
नौकरशाही ने जनाकांक्षाओं को काबू करने की एक और राजनीतिक कोशिश पर बाबूतंत्र की लगाम कस दी है . ग्रामीण विकास मंत्रालय की योजनाओं के ऊपर नज़र रखने की गरज से राजनीतिक स्तर पर तय किया गया था कि पूरे देश में ग्रामीण विकास की सभी योजनाओं की मानिटरिंग ऐसे लोगों से करवाई जायेगी जो सरकार का हिस्सा न हों . वे ग्रामीण इलाकों का दौरा करेगें और अगर कहीं कोई कमी पायी गयी तो उसकी जानकारी केंद्र सरकार को देगें जिसके बाद उसे दुरुस्त करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये जा सकें . इन लोगों को राष्ट्रीय स्तर का मानिटर ( एन एल एम ) का नाम दिया गया है .राजनीतिक इच्छा यह थी कि बाबूतंत्र के बाहर के लोगों के इनपुट की मदद से ग्रामीण विकास की योजनाओं को और बेहतर बनाया जाएगा . लेकिन नौकरशाही ने इस योजना को अवकाश प्राप्त मातहत अफसरों के पुनर्वास के लिए इस्तेमाल करने की चाल चल दी. सारी योजना को सरकारी तरीकों का इस्तेमाल करके राजनीतिक मंजूरी ले ली गयी और अब जो स्वरुप उभर कर सामने आया है ,उसके अनुसार ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर का मानिटर बनाया जाना है जो सरकारी नौकरी में मझोले दर्जे के पदों तक पंहुचे हों और वहीं से रिटायर हो गए हों . ज़ाहिर है यह लोग अपनी पूरी सर्विस में बिना ऊपर की हरी झंडी मिले कभी भी स्वतंत्र निर्णय न ले सके होंगें .आम तौर पर इया वर्ग के लोग आदतन बड़े अफसरों की हाँ में हाँ मिलाने की कला में दक्ष पाए जाते हैं .
ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक योजना है कि अपनी योजनाओं की मानिटरिंग के लिए ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाए तो सरकार का हिस्सा न हों , ग्रामीण विकास के प्रति उनके मन में बहुत उत्साह हो , गावों में जाकर योजनाओं पर नज़र रख सकें और सरकारी तंत्र को बेलगाम होने से रोक सकें . लेकिन नौकरशाही ने इस योजना को ऐसा रूप दे दिया कि अब यह केवल रिटायर्ड अफसरों को कुछ काम दे देने के अलावा कुछ भी नहीं है . नैशनल लेवल मानिटर बनाने के लिए अब एक पैनल बनाया जा रहा है . उसी पैनल में से जिसे सरकार चाहेगी ग्रामीण इलाकों में भेजेगी . यानी उसमें भी सरकारी मनमानी ही चलेगी . लेकिन इस आइडिया को क़त्ल करने का असली काम तो पैनल बनाने में किया जा रहा है . अखबारों में इश्तिहार देकर बाकायदा अप्लीकेशन माँगी गयी है . यानी पैनल में आने के लिए ही सिफारिश और जुगाड़ का इंतज़ाम किया जाएगा और जिसको भी पैनल में मंत्रालय के हाकिम लोग शामिल करेगें ,उसके ऊपर उनका अहसान पहले से की लद जाएगा. ज़ाहिर है कि अहसान के नीचे दबा हुआ आदमी इंसाफ़ नहीं कर सकता . लेकिन नौकरशाही का असली हमला तो इस आइडिया को लुंजपुंज करने के लिए निर्णायक रूप से हुआ है . इस पैनल में शामिल होने के लिए जिस योग्यता का वर्णन अखबारों में किया गया है वह बहुत ही दिलचस्प है . एन एल एम बनाने के लिए आठ वर्गों के लोगों को योग्य माना गया है . पहले वर्ग में वे लोग हैं जो सेना से अवकाश प्राप्त हों और कम से कम लेफ्टीनेंट कर्नल रैंक से रिटायर हुए हों . दूसरे वर्ग में पैरामिलटरी फोर्स के वे लोग हैं जो लेफ्टीनेंट कर्नल की बराबरी वाले किसे पद से रिटायर हुए हों. तीसरे वर्ग में केंद्र सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी रैंक के बराबर के पदों से रिटायर हुए केंद्र या राज्य के सरकारी कर्मचारी शामिल किये गए हैं ,.. चौथे वर्ग में केंद्र या राज्य सरकारों में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर रैंक या उसके ऊपर के पदों के अवकाश प्राप्त इंजीनियरों को शामिल किया गया है . पांचवे वर्ग में महालेखा परीक्षक या नियंत्रक महालेखा परीक्षक के कार्यालय से डिप्टी सेक्रेटरी रैंक के बराबर के पदों से रिटायर हुए लोगों को एडजस्ट किया गया है . छठवें वर्ग में पुलिस विभाग से पुलिस अधीक्षक पद से रिटायर हुए लोगों को अवसर देने की बात की गयी है . सातवाँ वर्ग मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों ,वैज्ञानिक संस्थाओं या शोध संस्थाओं से रिटायर प्रोफेसरों के लिए रखी गयी है . जबकि आठवीं श्रेणी में उन लोगों को अवसर दिया गया है जो सरकारी कंपनियों या सरकारी बैंकों से डिप्टी जनरल मैनेजर के पद से रिटायर हुए हों .
इस तरह नौकरशाही ने राजनैतिक इच्छाशक्ति को भोथरा करने के लिए एक ख़ास चाल चल दी है . ज़ाहिर है जो लोग पैंतीस-चालीस साल तक सरकारी नौकरी करते रहते हैं वे कन्वेंशनल सोच के बाहर जा ही नहीं सकते और ग्रामीण विकास की जो योजनायें अभी ग्राम प्रधानों और बी डी ओ की लूट का शिकार हो रही हैं उन्हें इन अवकाश प्राप्त बाबुओं की निगरानी में देकर नौकरशाही ने यह मुक़म्मल इंतज़ाम कर लिया है कि ग्राम प्रधान और बी डी ओ के अलावा एक और वर्ग बना दिया जाए जो ग्रामीण विकास के नाम पर सरकारी पैसा अपनी अंटी में डाल सके. अगर यही हाल रहा तो ग्रामीण विकास का सपना कभी पूरा नहीं नहीं हो सकेगा . सवाल उठता है कि मनरेगा जैसी स्कीम जिसमें जनता का लाखों करोड़ रूपया लग रहा है उसकी निगरानी के लिए कुछ ऐसे लोगों को क्यों नहीं तैनात किया जा रहा है जो ग्रामीण विकास को अपनी ज़िंदगी का मकसद मानते हों . इस तरह के लोगों की कमी नहीं है लेकिन वे बाबूतंत्र की जी हुजूरी नहीं करेगें .और सच को सच कहने में संकोच नहीं करेगें .
नौकरशाही ने जनाकांक्षाओं को काबू करने की एक और राजनीतिक कोशिश पर बाबूतंत्र की लगाम कस दी है . ग्रामीण विकास मंत्रालय की योजनाओं के ऊपर नज़र रखने की गरज से राजनीतिक स्तर पर तय किया गया था कि पूरे देश में ग्रामीण विकास की सभी योजनाओं की मानिटरिंग ऐसे लोगों से करवाई जायेगी जो सरकार का हिस्सा न हों . वे ग्रामीण इलाकों का दौरा करेगें और अगर कहीं कोई कमी पायी गयी तो उसकी जानकारी केंद्र सरकार को देगें जिसके बाद उसे दुरुस्त करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये जा सकें . इन लोगों को राष्ट्रीय स्तर का मानिटर ( एन एल एम ) का नाम दिया गया है .राजनीतिक इच्छा यह थी कि बाबूतंत्र के बाहर के लोगों के इनपुट की मदद से ग्रामीण विकास की योजनाओं को और बेहतर बनाया जाएगा . लेकिन नौकरशाही ने इस योजना को अवकाश प्राप्त मातहत अफसरों के पुनर्वास के लिए इस्तेमाल करने की चाल चल दी. सारी योजना को सरकारी तरीकों का इस्तेमाल करके राजनीतिक मंजूरी ले ली गयी और अब जो स्वरुप उभर कर सामने आया है ,उसके अनुसार ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर का मानिटर बनाया जाना है जो सरकारी नौकरी में मझोले दर्जे के पदों तक पंहुचे हों और वहीं से रिटायर हो गए हों . ज़ाहिर है यह लोग अपनी पूरी सर्विस में बिना ऊपर की हरी झंडी मिले कभी भी स्वतंत्र निर्णय न ले सके होंगें .आम तौर पर इया वर्ग के लोग आदतन बड़े अफसरों की हाँ में हाँ मिलाने की कला में दक्ष पाए जाते हैं .
ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक योजना है कि अपनी योजनाओं की मानिटरिंग के लिए ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाए तो सरकार का हिस्सा न हों , ग्रामीण विकास के प्रति उनके मन में बहुत उत्साह हो , गावों में जाकर योजनाओं पर नज़र रख सकें और सरकारी तंत्र को बेलगाम होने से रोक सकें . लेकिन नौकरशाही ने इस योजना को ऐसा रूप दे दिया कि अब यह केवल रिटायर्ड अफसरों को कुछ काम दे देने के अलावा कुछ भी नहीं है . नैशनल लेवल मानिटर बनाने के लिए अब एक पैनल बनाया जा रहा है . उसी पैनल में से जिसे सरकार चाहेगी ग्रामीण इलाकों में भेजेगी . यानी उसमें भी सरकारी मनमानी ही चलेगी . लेकिन इस आइडिया को क़त्ल करने का असली काम तो पैनल बनाने में किया जा रहा है . अखबारों में इश्तिहार देकर बाकायदा अप्लीकेशन माँगी गयी है . यानी पैनल में आने के लिए ही सिफारिश और जुगाड़ का इंतज़ाम किया जाएगा और जिसको भी पैनल में मंत्रालय के हाकिम लोग शामिल करेगें ,उसके ऊपर उनका अहसान पहले से की लद जाएगा. ज़ाहिर है कि अहसान के नीचे दबा हुआ आदमी इंसाफ़ नहीं कर सकता . लेकिन नौकरशाही का असली हमला तो इस आइडिया को लुंजपुंज करने के लिए निर्णायक रूप से हुआ है . इस पैनल में शामिल होने के लिए जिस योग्यता का वर्णन अखबारों में किया गया है वह बहुत ही दिलचस्प है . एन एल एम बनाने के लिए आठ वर्गों के लोगों को योग्य माना गया है . पहले वर्ग में वे लोग हैं जो सेना से अवकाश प्राप्त हों और कम से कम लेफ्टीनेंट कर्नल रैंक से रिटायर हुए हों . दूसरे वर्ग में पैरामिलटरी फोर्स के वे लोग हैं जो लेफ्टीनेंट कर्नल की बराबरी वाले किसे पद से रिटायर हुए हों. तीसरे वर्ग में केंद्र सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी रैंक के बराबर के पदों से रिटायर हुए केंद्र या राज्य के सरकारी कर्मचारी शामिल किये गए हैं ,.. चौथे वर्ग में केंद्र या राज्य सरकारों में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर रैंक या उसके ऊपर के पदों के अवकाश प्राप्त इंजीनियरों को शामिल किया गया है . पांचवे वर्ग में महालेखा परीक्षक या नियंत्रक महालेखा परीक्षक के कार्यालय से डिप्टी सेक्रेटरी रैंक के बराबर के पदों से रिटायर हुए लोगों को एडजस्ट किया गया है . छठवें वर्ग में पुलिस विभाग से पुलिस अधीक्षक पद से रिटायर हुए लोगों को अवसर देने की बात की गयी है . सातवाँ वर्ग मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों ,वैज्ञानिक संस्थाओं या शोध संस्थाओं से रिटायर प्रोफेसरों के लिए रखी गयी है . जबकि आठवीं श्रेणी में उन लोगों को अवसर दिया गया है जो सरकारी कंपनियों या सरकारी बैंकों से डिप्टी जनरल मैनेजर के पद से रिटायर हुए हों .
इस तरह नौकरशाही ने राजनैतिक इच्छाशक्ति को भोथरा करने के लिए एक ख़ास चाल चल दी है . ज़ाहिर है जो लोग पैंतीस-चालीस साल तक सरकारी नौकरी करते रहते हैं वे कन्वेंशनल सोच के बाहर जा ही नहीं सकते और ग्रामीण विकास की जो योजनायें अभी ग्राम प्रधानों और बी डी ओ की लूट का शिकार हो रही हैं उन्हें इन अवकाश प्राप्त बाबुओं की निगरानी में देकर नौकरशाही ने यह मुक़म्मल इंतज़ाम कर लिया है कि ग्राम प्रधान और बी डी ओ के अलावा एक और वर्ग बना दिया जाए जो ग्रामीण विकास के नाम पर सरकारी पैसा अपनी अंटी में डाल सके. अगर यही हाल रहा तो ग्रामीण विकास का सपना कभी पूरा नहीं नहीं हो सकेगा . सवाल उठता है कि मनरेगा जैसी स्कीम जिसमें जनता का लाखों करोड़ रूपया लग रहा है उसकी निगरानी के लिए कुछ ऐसे लोगों को क्यों नहीं तैनात किया जा रहा है जो ग्रामीण विकास को अपनी ज़िंदगी का मकसद मानते हों . इस तरह के लोगों की कमी नहीं है लेकिन वे बाबूतंत्र की जी हुजूरी नहीं करेगें .और सच को सच कहने में संकोच नहीं करेगें .
Friday, March 11, 2011
बीजेपी की कद्दावर नेता,सुषमा स्वराज को कमज़ोर करने की साज़िश
शेष नारायण सिंह
बीजेपी में शीर्ष स्तर पर गडबडी के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं . मुख्य सतर्कता आयुक्त के मसले पर लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने जो कुछ भी किया उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्ववास रखने वालों को संतोष ही होगा . सुषमा स्वराज ने सी वी सी की नियुक्ति के मामले में जो भी काम किया है वह शुरू से अंत तक मर्यादा की मिसाल है . जानकार बताते हैं कि अगर उनका आचरण ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले वक़्त में वे एक स्टेट्समैन राजनेता के रूप में स्थापित हो जायेगीं . संविधान में दी गयी व्यवस्था के तहत लोकसभा में विपक्ष की नेता ,सुषमा स्वराज उस सेलेक्शन कमेटी की सदस्य हैं जो सी वी सी का चुनाव करती है . जब चुनाव करने के लिए बैठक हुई तो तो सुषमा स्वराज ने विरोध किया और कहा कि एक भ्रष्ट आदमी को भ्रष्टाचार पर काबू करने वाले पद पर नहीं तैनात किया जाना चाहिए . उनके अलावा उस कमेटी में प्रधान मंत्री और गृह मंत्री भी सदस्य थे. उनके विरोध को दरकिनार करके सरकारी पक्ष ने पी जे टामस को नियुक्त कर दिया . लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने टामस की नियुक्ति को रद कर दिया तो सरकार की भारी किरकिरी हुई और प्रधानमंत्री को संसद में अपनी गलती माननी पड़ी .ज़ाहिर है कि अब एक नया सी वी सी तैनात किया जाएगा और सरकारी काम अपने ढर्रे से चलेगा . सुषमा स्वराज ने लोकतांत्रिक और उदारता की परम्पराओं को ध्यान में रख कर अपने ट्विटर पर बयान दे दिया कि ' मैं समझती हूँ कि इतना काफी है और अब बात यहीं ख़त्म कर डी जानी चाहिए और अब आगे बढ़ जाना चाहिए '. सुषमा स्वराज का यह बयान ऐसा है जिस पर किसी भी लोकतांत्रिक मूल्यों के कद्रदान को गर्व होगा . लेकिन उनके इस बयान के बाद बीजेपी का असली चेहरा सामने आ गया . नागपुर शहर के बीजेपी नेता और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपनी हनक स्थापित करने का मौक़ा देखा और ऐलान कर दिया कि सुषमा जो कह रही हैं वह बीजेपी की पार्टी लाइन नहीं है . बीजेपी वाले इस चक्कर में हैं कि प्रधानमंत्री को एक गलत काम करते पकड़ लिया है तो उस से अधिकतम राजनीतिक लाभ लिया जाना चाहिए . राज्यसभा में आज का अरुण केतली का बयान भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. उन्होंने राज्य सभा में आज एक तरह से सुषमा स्वराज की लाइन को रद्द करते हुए कहा कि सी वी सी की नियुक्ति और उस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनज़र, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को राष्ट्र को पूरी तरह से जवाब देना चाहिए. इसका मतलब यह हुआ कि एक बहुत ही साधारण से मामले को लेकर बीजेपी के आपसी मतभेद पूरी तरह से सामने आ गए हैं . यह मतभेद कोई एक स्तर पर नहीं हैं . इसकी कई परते हैं . सबसे बड़ी बात तो यही है कि बीजेपी में नागपुर लाइन वाले कभी भी किसी ऐसे नेता को राष्ट्रीय स्तर पर मह्त्व नहीं लेने देगें जो आर एस एस का "तपा तपाया "कार्यकर्ता न हो . यह भेद बहुत शुरू से चला आ रहा है .ताज़ा मिसाल यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा की है . बीजेपी के गैर आर एस एस नेता लोग अक्सर मौक़ा चूक जाते हैं . क्योंकि बीजेपी में जो लोग भी ऊपर पंहुचे हैं और संघी ट्रेनिंग लिए बिना पार्टी में आये हैं ,उन्हें 'तपे तपाये ' भाजपाइयों से नीची श्रेणी में रखा जाता है . इस पैमाने पर सुषमा स्वराज बिलकुल फेल हो जाती हैं . जहां तक यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह का सवाल है , वे तो सरकारी नौकर थे . उनके खिलाफ कुछ भी नही है लेकिन सुषमा स्वराज तो समाजवादी रही हैं. वे एस वाई एस की सदस्य भी रह चुकी हैं , इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ लाठी भी भांज चुकी हैं और समाजवादी कोटे से जनता पार्टी में १९७७ में शामिल हुई थीं . बडौदा डायनामाईट केस में जब वे जार्ज फर्नांडीज़ की वकील बनीं तो दुनिया ने उनकी हिम्मत का लोहा माना था .जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद वे मंत्री भी बनीं , हरियाणा में सबसे कम उम्र की मंत्री रहने का सौभाग्य भी उन्हें मिल चुका है . वे मूल रूप से समाजवादी सोच की नेता हैं और शायद इसीलिये वे लोकत्रांत्रिक मूल्यों के प्रति ज्यादा सजग हैं . लेकिन यह बात संघ के "तपे तपाये " लोगों के गले नहीं उतरती है . इस बात में दो राय नहीं है कि बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के बाद सुषमा सबसे कद्दावर नेता हैं . बीजे पी का मौजूदा झगडा शायद इसी वैचारिक मतभेद के कारण ही एक मामूली से मुद्दे पर उबल पड़ा और आर एस एस की ओर से आये लगभग सभी नेता सुषमा स्वराज के खिलाफ जुट पड़े हैं . बीजेपी जैसी पुरुषप्रधान मानसिकता वाली पार्टी में किसी महिला के लिए सबसे ऊंचे पद पर पंहुचना वैसे भी बहुत मुश्किल माना जाता है . ऊपर से सुषमा स्वराज 'तपे तपाये' कटेगरी की नहीं हैं ,वे समाजवादी बैकग्राउंड से आई हैं . उनके लिए और भी मुश्किल होगा .
बीजेपी में शीर्ष स्तर पर गडबडी के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं . मुख्य सतर्कता आयुक्त के मसले पर लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने जो कुछ भी किया उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्ववास रखने वालों को संतोष ही होगा . सुषमा स्वराज ने सी वी सी की नियुक्ति के मामले में जो भी काम किया है वह शुरू से अंत तक मर्यादा की मिसाल है . जानकार बताते हैं कि अगर उनका आचरण ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले वक़्त में वे एक स्टेट्समैन राजनेता के रूप में स्थापित हो जायेगीं . संविधान में दी गयी व्यवस्था के तहत लोकसभा में विपक्ष की नेता ,सुषमा स्वराज उस सेलेक्शन कमेटी की सदस्य हैं जो सी वी सी का चुनाव करती है . जब चुनाव करने के लिए बैठक हुई तो तो सुषमा स्वराज ने विरोध किया और कहा कि एक भ्रष्ट आदमी को भ्रष्टाचार पर काबू करने वाले पद पर नहीं तैनात किया जाना चाहिए . उनके अलावा उस कमेटी में प्रधान मंत्री और गृह मंत्री भी सदस्य थे. उनके विरोध को दरकिनार करके सरकारी पक्ष ने पी जे टामस को नियुक्त कर दिया . लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने टामस की नियुक्ति को रद कर दिया तो सरकार की भारी किरकिरी हुई और प्रधानमंत्री को संसद में अपनी गलती माननी पड़ी .ज़ाहिर है कि अब एक नया सी वी सी तैनात किया जाएगा और सरकारी काम अपने ढर्रे से चलेगा . सुषमा स्वराज ने लोकतांत्रिक और उदारता की परम्पराओं को ध्यान में रख कर अपने ट्विटर पर बयान दे दिया कि ' मैं समझती हूँ कि इतना काफी है और अब बात यहीं ख़त्म कर डी जानी चाहिए और अब आगे बढ़ जाना चाहिए '. सुषमा स्वराज का यह बयान ऐसा है जिस पर किसी भी लोकतांत्रिक मूल्यों के कद्रदान को गर्व होगा . लेकिन उनके इस बयान के बाद बीजेपी का असली चेहरा सामने आ गया . नागपुर शहर के बीजेपी नेता और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपनी हनक स्थापित करने का मौक़ा देखा और ऐलान कर दिया कि सुषमा जो कह रही हैं वह बीजेपी की पार्टी लाइन नहीं है . बीजेपी वाले इस चक्कर में हैं कि प्रधानमंत्री को एक गलत काम करते पकड़ लिया है तो उस से अधिकतम राजनीतिक लाभ लिया जाना चाहिए . राज्यसभा में आज का अरुण केतली का बयान भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. उन्होंने राज्य सभा में आज एक तरह से सुषमा स्वराज की लाइन को रद्द करते हुए कहा कि सी वी सी की नियुक्ति और उस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनज़र, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को राष्ट्र को पूरी तरह से जवाब देना चाहिए. इसका मतलब यह हुआ कि एक बहुत ही साधारण से मामले को लेकर बीजेपी के आपसी मतभेद पूरी तरह से सामने आ गए हैं . यह मतभेद कोई एक स्तर पर नहीं हैं . इसकी कई परते हैं . सबसे बड़ी बात तो यही है कि बीजेपी में नागपुर लाइन वाले कभी भी किसी ऐसे नेता को राष्ट्रीय स्तर पर मह्त्व नहीं लेने देगें जो आर एस एस का "तपा तपाया "कार्यकर्ता न हो . यह भेद बहुत शुरू से चला आ रहा है .ताज़ा मिसाल यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा की है . बीजेपी के गैर आर एस एस नेता लोग अक्सर मौक़ा चूक जाते हैं . क्योंकि बीजेपी में जो लोग भी ऊपर पंहुचे हैं और संघी ट्रेनिंग लिए बिना पार्टी में आये हैं ,उन्हें 'तपे तपाये ' भाजपाइयों से नीची श्रेणी में रखा जाता है . इस पैमाने पर सुषमा स्वराज बिलकुल फेल हो जाती हैं . जहां तक यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह का सवाल है , वे तो सरकारी नौकर थे . उनके खिलाफ कुछ भी नही है लेकिन सुषमा स्वराज तो समाजवादी रही हैं. वे एस वाई एस की सदस्य भी रह चुकी हैं , इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ लाठी भी भांज चुकी हैं और समाजवादी कोटे से जनता पार्टी में १९७७ में शामिल हुई थीं . बडौदा डायनामाईट केस में जब वे जार्ज फर्नांडीज़ की वकील बनीं तो दुनिया ने उनकी हिम्मत का लोहा माना था .जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद वे मंत्री भी बनीं , हरियाणा में सबसे कम उम्र की मंत्री रहने का सौभाग्य भी उन्हें मिल चुका है . वे मूल रूप से समाजवादी सोच की नेता हैं और शायद इसीलिये वे लोकत्रांत्रिक मूल्यों के प्रति ज्यादा सजग हैं . लेकिन यह बात संघ के "तपे तपाये " लोगों के गले नहीं उतरती है . इस बात में दो राय नहीं है कि बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के बाद सुषमा सबसे कद्दावर नेता हैं . बीजे पी का मौजूदा झगडा शायद इसी वैचारिक मतभेद के कारण ही एक मामूली से मुद्दे पर उबल पड़ा और आर एस एस की ओर से आये लगभग सभी नेता सुषमा स्वराज के खिलाफ जुट पड़े हैं . बीजेपी जैसी पुरुषप्रधान मानसिकता वाली पार्टी में किसी महिला के लिए सबसे ऊंचे पद पर पंहुचना वैसे भी बहुत मुश्किल माना जाता है . ऊपर से सुषमा स्वराज 'तपे तपाये' कटेगरी की नहीं हैं ,वे समाजवादी बैकग्राउंड से आई हैं . उनके लिए और भी मुश्किल होगा .
Thursday, March 10, 2011
वे शिक्षकों को मारते क्यों हैं ?
शेष नारायण सिंह
मध्यप्रदेश में खंडवा के गवर्नमेंट कालेज के एक प्रोफेसर को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सदस्यों ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा. उसका चेहरा काला किया और उसे लात घूंसों और जूतों से मारा . जान बचाने के लिए जब वह अध्यापक भाग कर प्रिंसिपल के आफिस में छुप गया तो वहां से भी घसीट कर बाहर लाये और उसको अधमरा कर दिया . संतोष की बात यह है कि वह अभी जिंदा है वरना इसी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् यानी ए बी वी पी के सदस्यों ने कुछ वर्ष पहले इंदौर में एक प्रोफ़ेसर को पीट पीट कर मार डाला था. इस में कुछ भी नया नहीं है . ए बी वी पी की मालिक संस्था आर एस एस है और वहां मतवैभिन्य के लिए कोई स्पेस नहीं होता . उज्जैन के एक कालेज में २००६ में छात्रसंघ चुनावों के विवाद में ए बी वी पी वालों ने अपने ही कालेज के शिक्षकों को घेर कर मारा जिसमें राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर , सभरवाल की मृत्यु हो गयी.उज्जैन में उस वक़्त तैनात जिलाधिकारी, नीरज मंगलोई ने कहा था कि पुलिस और प्रशासन उस मामले की छानबीन कर रहा है . बाद में पुलिस ने अदालत में इतना कमज़ोर केस प्रस्तुत किया कि सभी अभियुक्त बरी हो गए . मौजूदा केस में भी खंडवा के पुलिस अधीक्षक , आर के शिवहरे ने कहा है कि बुधवार को प्रो. चौधरी ने एक शिकायत की जिसमें उन्होंने कहा कि ए बी वी पी के सदस्यों ने उन्हें मारा पीटा . उन्होंने कहा कि मामला दर्ज हो गया है और जांच के बाद ज्यादा जानकारी दी जा सकेगी. इस पुलिस वाले के बयान और २००६ में उज्जैन के कलेक्टर के बयान में भारी समानता है . इसी तरह के बयान गुजरात में भी लगभग हर जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान ने फरवरी २००२ में दिया था जहां मोदी के गिरोह के लोगों ने मुसलमानों को घेर घेर कर मारा था .मध्य प्रदेश से लगातार इस तरह की शिकायतें मिल रही हैं . ज़्यादातर मामले तो पुलिस तक पंहुचते ही नहीं लेकिन जो थोड़े बहुत पंहुचते हैं उन्हें देखकर लगता है वहां भी हालात गुजरात जैसे ही हो गए हैं . गुजरात में तो नरेंद्र मोदी के गैंग के लोग दावा करने लगे हैं कि राज्य का मुसलमान मोदी जी को अपना असली नेता मानने लगा है . ज़ाहिर है कि वहां इतनी दहशत है कि किसी की हिम्मत नहीं है कि वह मुख्यमंत्री के खिलाफ अपने लोकतांत्रिक विरोध को व्यक्त कर सके . गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश में भी में ए बी वी पी के लोग बहुत ही मनबढ़ हो गए हैं . उनका अपना बंदा राज्य का मुख्यमंत्री है , ज़ाहिर है वह भी ए बी वी पी वालों के साथ वैसा ही आचरण करता है जैसा गुजरात में आर एस एस के प्रमुख संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ नरेंद्र मोदी करते हैं . खंडवा की घटना में भी ए बी वी पी के छात्रों ने लगभग वैसा ही आचरण किया जैसा गुजरात में वी एच पी और बजरंग दल वालों ने फरवरी २००२ में किया था जब गोधरा के ट्रेन हादसे के बाद उन लोगों ने पूरे राज्य में मुसलमानों को अपमानित किया था और उनकी सामूहिक हत्या की थी.
मध्य प्रदेश की यह घटना भी किसी योजना का हिस्सा लगती है .पिछले कुछ वर्षों में मध्य प्रदेश में कई प्रोफेसरों पर हमले किये गए. शिक्षा संस्थाओं पर भी खूब हमले हो रहे हैं .उजैन के प्रोफ़ेसर सभरवाल की हत्या का मामला बहुत ज्यादा चर्चा में आ गया था . यहाँ तक कि ऊपरी अदालतों के आदेश के बाद मामला मध्य प्रदेश के बाहर नागपुर ले जाया गया था लेकिन शुरुआत इंदौर में ही राज्य सरकार के दबाव में पुलिस ने केस को इतना कमज़ोर कर दिया था कि सभी अभियुक्त बरी हो गए थे.. जुलाई २००९ में ए बी वी पी वालों ने जबलपुर के एक निजी संस्थान पर हमला किया और जान माल को नुकसान पंहुचाया . आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे ए बी वी पी के भाई लोग इस संस्थान में पंहुच गए और अपना गुस्सा उतारा. मतभेद को मारपीट से हल करने का जो तरीका है उसको ही राजनीतिशास्त्र में तानाशाही कहते हैं . दुनिया जानती है कि आर एस एस की राजनीति मूल रूप से तानाशाही की राजनीति है जो नीत्शे और माज़िनी के दर्शनशास्त्र पर आधारित है . हिटलर ने इसी सिद्धांत को अपनाया था . आर एस एस ने हमेशा ही हिटलर को सम्मान की नज़र से देखा है . आर एस एस के तत्कालीन सर संघचालक , माधव सदाशिव गोलवलकर की नागपुर के भारत पब्लिकेशन्स से प्रकाशित किताब, " वी ,आर अवर नेशनहुड डिफाइंड " के 1939 संस्करण के पृष्ठ 37 पर श्री गोलवलकर ने लिखा है कि हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुछ सीखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए . दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में हिटलर को अपना पूर्वज बताकर कोई भी गर्व नहीं कर सकता . लेकिन आर एस एस के लिए हिटलर आदर्श पुरुष हैं . इसलिए मध्य प्रदेश में छात्रों की असहिष्णुता आर एस एस की मूल राजनीतिक सोच पर ही आधारित मानी जायेगी. इसी विचार धारा को १९३० के दशक में मुसोलिनी ने इटली में लागू किया था. माज़िनी ने वी डी सावरकर बहुत प्रभावित हुए थे और उसकी किताब न्यू इटली को ही उन्होंने अपनी किताब " हिन्दुत्व " का आदर्श बनाया . उनकी किताब हिंदुत्व को लागू करने के लिए जिन पांच लोगों ने १९२५ में नागपुर में आर एस एस की स्थापना की वे सभी सावरकर से बहुत प्रभावित थे और उनके विचारों को लागू करने के लिए ही आर एस एस की स्थापना की गयी. ऐसी तानाशाही बुनियाद वाले संगठनों से और कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . इनका केवल एक ही इलाज है कि संघी विचारधारा का वैचारिक स्तर पर हर जगह विरोध किया जाए . अगर इस काम को फ़ौरन शुरू न कर दिया गया तो देश धीरे धीरे हिटलरशाही सत्ता की तरफ बढ़ जाये़या .सभी जानते हैं कि एक बार हिटलरशाही के कायम हो जाने के बाद उसे हटा पाना बहुत मुश्किल होता है
मध्यप्रदेश में खंडवा के गवर्नमेंट कालेज के एक प्रोफेसर को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सदस्यों ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा. उसका चेहरा काला किया और उसे लात घूंसों और जूतों से मारा . जान बचाने के लिए जब वह अध्यापक भाग कर प्रिंसिपल के आफिस में छुप गया तो वहां से भी घसीट कर बाहर लाये और उसको अधमरा कर दिया . संतोष की बात यह है कि वह अभी जिंदा है वरना इसी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् यानी ए बी वी पी के सदस्यों ने कुछ वर्ष पहले इंदौर में एक प्रोफ़ेसर को पीट पीट कर मार डाला था. इस में कुछ भी नया नहीं है . ए बी वी पी की मालिक संस्था आर एस एस है और वहां मतवैभिन्य के लिए कोई स्पेस नहीं होता . उज्जैन के एक कालेज में २००६ में छात्रसंघ चुनावों के विवाद में ए बी वी पी वालों ने अपने ही कालेज के शिक्षकों को घेर कर मारा जिसमें राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर , सभरवाल की मृत्यु हो गयी.उज्जैन में उस वक़्त तैनात जिलाधिकारी, नीरज मंगलोई ने कहा था कि पुलिस और प्रशासन उस मामले की छानबीन कर रहा है . बाद में पुलिस ने अदालत में इतना कमज़ोर केस प्रस्तुत किया कि सभी अभियुक्त बरी हो गए . मौजूदा केस में भी खंडवा के पुलिस अधीक्षक , आर के शिवहरे ने कहा है कि बुधवार को प्रो. चौधरी ने एक शिकायत की जिसमें उन्होंने कहा कि ए बी वी पी के सदस्यों ने उन्हें मारा पीटा . उन्होंने कहा कि मामला दर्ज हो गया है और जांच के बाद ज्यादा जानकारी दी जा सकेगी. इस पुलिस वाले के बयान और २००६ में उज्जैन के कलेक्टर के बयान में भारी समानता है . इसी तरह के बयान गुजरात में भी लगभग हर जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान ने फरवरी २००२ में दिया था जहां मोदी के गिरोह के लोगों ने मुसलमानों को घेर घेर कर मारा था .मध्य प्रदेश से लगातार इस तरह की शिकायतें मिल रही हैं . ज़्यादातर मामले तो पुलिस तक पंहुचते ही नहीं लेकिन जो थोड़े बहुत पंहुचते हैं उन्हें देखकर लगता है वहां भी हालात गुजरात जैसे ही हो गए हैं . गुजरात में तो नरेंद्र मोदी के गैंग के लोग दावा करने लगे हैं कि राज्य का मुसलमान मोदी जी को अपना असली नेता मानने लगा है . ज़ाहिर है कि वहां इतनी दहशत है कि किसी की हिम्मत नहीं है कि वह मुख्यमंत्री के खिलाफ अपने लोकतांत्रिक विरोध को व्यक्त कर सके . गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश में भी में ए बी वी पी के लोग बहुत ही मनबढ़ हो गए हैं . उनका अपना बंदा राज्य का मुख्यमंत्री है , ज़ाहिर है वह भी ए बी वी पी वालों के साथ वैसा ही आचरण करता है जैसा गुजरात में आर एस एस के प्रमुख संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ नरेंद्र मोदी करते हैं . खंडवा की घटना में भी ए बी वी पी के छात्रों ने लगभग वैसा ही आचरण किया जैसा गुजरात में वी एच पी और बजरंग दल वालों ने फरवरी २००२ में किया था जब गोधरा के ट्रेन हादसे के बाद उन लोगों ने पूरे राज्य में मुसलमानों को अपमानित किया था और उनकी सामूहिक हत्या की थी.
मध्य प्रदेश की यह घटना भी किसी योजना का हिस्सा लगती है .पिछले कुछ वर्षों में मध्य प्रदेश में कई प्रोफेसरों पर हमले किये गए. शिक्षा संस्थाओं पर भी खूब हमले हो रहे हैं .उजैन के प्रोफ़ेसर सभरवाल की हत्या का मामला बहुत ज्यादा चर्चा में आ गया था . यहाँ तक कि ऊपरी अदालतों के आदेश के बाद मामला मध्य प्रदेश के बाहर नागपुर ले जाया गया था लेकिन शुरुआत इंदौर में ही राज्य सरकार के दबाव में पुलिस ने केस को इतना कमज़ोर कर दिया था कि सभी अभियुक्त बरी हो गए थे.. जुलाई २००९ में ए बी वी पी वालों ने जबलपुर के एक निजी संस्थान पर हमला किया और जान माल को नुकसान पंहुचाया . आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे ए बी वी पी के भाई लोग इस संस्थान में पंहुच गए और अपना गुस्सा उतारा. मतभेद को मारपीट से हल करने का जो तरीका है उसको ही राजनीतिशास्त्र में तानाशाही कहते हैं . दुनिया जानती है कि आर एस एस की राजनीति मूल रूप से तानाशाही की राजनीति है जो नीत्शे और माज़िनी के दर्शनशास्त्र पर आधारित है . हिटलर ने इसी सिद्धांत को अपनाया था . आर एस एस ने हमेशा ही हिटलर को सम्मान की नज़र से देखा है . आर एस एस के तत्कालीन सर संघचालक , माधव सदाशिव गोलवलकर की नागपुर के भारत पब्लिकेशन्स से प्रकाशित किताब, " वी ,आर अवर नेशनहुड डिफाइंड " के 1939 संस्करण के पृष्ठ 37 पर श्री गोलवलकर ने लिखा है कि हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुछ सीखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए . दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में हिटलर को अपना पूर्वज बताकर कोई भी गर्व नहीं कर सकता . लेकिन आर एस एस के लिए हिटलर आदर्श पुरुष हैं . इसलिए मध्य प्रदेश में छात्रों की असहिष्णुता आर एस एस की मूल राजनीतिक सोच पर ही आधारित मानी जायेगी. इसी विचार धारा को १९३० के दशक में मुसोलिनी ने इटली में लागू किया था. माज़िनी ने वी डी सावरकर बहुत प्रभावित हुए थे और उसकी किताब न्यू इटली को ही उन्होंने अपनी किताब " हिन्दुत्व " का आदर्श बनाया . उनकी किताब हिंदुत्व को लागू करने के लिए जिन पांच लोगों ने १९२५ में नागपुर में आर एस एस की स्थापना की वे सभी सावरकर से बहुत प्रभावित थे और उनके विचारों को लागू करने के लिए ही आर एस एस की स्थापना की गयी. ऐसी तानाशाही बुनियाद वाले संगठनों से और कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . इनका केवल एक ही इलाज है कि संघी विचारधारा का वैचारिक स्तर पर हर जगह विरोध किया जाए . अगर इस काम को फ़ौरन शुरू न कर दिया गया तो देश धीरे धीरे हिटलरशाही सत्ता की तरफ बढ़ जाये़या .सभी जानते हैं कि एक बार हिटलरशाही के कायम हो जाने के बाद उसे हटा पाना बहुत मुश्किल होता है
Wednesday, March 9, 2011
कांग्रेस ने बनाया दिल्ली को अपराध की राजधानी
शेष नारायण सिंह
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा की उसके कालेज के सामने ही सरे आम गोली मार कर हत्या कर दी गयी .इस घटना ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित कर दिया है कि दिल्ली भारत की राजनीतिक राजधानी होने के साथ साथ आपराधिक राजधानी भी है . दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इस मामले में पीड़ित परिवार के घर जाकर राजनीतिक पेशबंदी शुरू कर दी है . आज उन्होंने मारी गयी लड़की के परिवार को दिलासा दिलाई और भरोसा दिया कि वे परिवार को न्याय दिलायेगीं . इसके पहले, कल उन्होंने इस घटना पर बहुत दुख व्यक्त किया था और बताया था कि दिल्ली में महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है. . शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं और उनका मौक़े पर पंहुचना बिलकुल सही है . लेकिन पिछले दो दिन से इस विषय पर चल रहे उनके बयान बहुत अजीब लगते हैं . सवाल पैदा होता है कि जब वे खुद दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं और उनकी पार्टी की ही केंद्र में सरकार है तो एक राजनेता के रूप में क्या उनके पास इस बात का नैतिक अधिकार है कि वे पीड़ित के परिवार वालों के घर जाएँ और वहां राजनीतिक स्कोर बढायें. सच्ची बात यह है कि उनको अपनी पार्टी की बड़ी नेता सोनिया गाँधी के पास जाना चाहिए था और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए थी कि जिस दिल्ली की वे मुख्यमंत्री हैं , उसे सुरक्षित करवाने में उनका साथ दें . केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के पास दिल्ली पुलिस का ज़िम्मा है . राज्य में कानून व्यवस्था का सारा काम दिल्ली पुलिस के पास ही है . शीला दीक्षित को चाहिए कि वे सोनिया गांधी से कहें वे कांग्रेस नेता और देश के गृहमंत्री, पी चिदंबरम को सुझाव दें कि दिल्ली वालों की ज़िंदगी से दहशत की मात्रा थोडा कम कर दें . यह काम केंद्र सरकार का है जो उसे चलाने वाली कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक ज़िम्मा है . मारी गई लडकी के घर जाकर शीला दीक्षित इस बुनियादी ज़िम्मेदारी को टाल नहीं सकतीं . शीला दीक्षित ने कल ही कहा था कि दिल्ली में महिलायें सुरक्षित नहीं है . यह कह देने से उनकी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं होती. दिल्ली शहर में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है . आज हेही खबर आई है कि एक प्रसिद्द वकील की माँ को बदमाशों ने मार डाला . आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में लगभग रोज़ ही किसी न किसी महिला का क़त्ल होता है , आये दिन बच्चियों के रेप की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं . सरकारी तंत्र के बाबू लोग हर हालात से बेखबर अपनी ज़िंदगी जीते रहते हैं . दिल्ली में लगभग रोज़ ही सडकों पर मार पीट और क़त्ल की खबरें आती रहती हैं . दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता इस समस्या को हल करने की दिशा में कोई कारगर क़दम नहीं उठाते.
जिस बच्ची की हत्या के बारे में उसके मातापिता से मिलने शीला दीक्षित गयी थीं , उसकी हत्या के मामले को आज लोक सभा में बीजेपी के नेता शाहनवाज़ हुसैन ने भी उठाया .उन्होंने कहा कि दिल्ली अपराध की राजधानी बन गयी है और उनकी पार्टी के नेताओं ने शेम शेम के नारे लगाए . सवाल उठता है कि क्या दिल्ली में चारों तरफ फैले हुए अपराध को इस तरह से संभाला जा सकता है . क्या अपराध पर राजनीतिक बयान बाज़ी का सहारा लेकर काबू किया जा सकता है .ज़ाहिर है राजनीतिक स्कोर कार्ड में नंबर बढाने की नेताओं की आदत से दिल्ली का कुछ भी नहीं बनने वाला है . इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए और वह राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों ही मुख्य पार्टियों की ओर से आनी चाहिए . यह समस्या वास्तव में अब राजनीतिक समस्या नहीं रही . दिल्ली के अपराध अब बाकायदा सामाजिक मुद्दा बन चुका है . आजकल पूरे देश में अपराध करना फैशन हो गया है . इसका कारण शायद यह है कि भारी बेकारी का शिकार नौजवान जब देखता है कि उसके साथ ही काम करने वाला कोई आदमी राजनीति में प्रवेश करके बहुत संपन्न बन गया तो वह भी राजनीति की तरफ आगे बढ़ता है . दिल्ली में संगठित राजनीतिक अपराध १९८४ के सिख विरोधी दंगों के दौरान शुरू हुआ . सिखों के नरसंहार में दिल्ली की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेता शामिल थे . एच के एल भगत, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर, धर्म दास शास्त्री , अर्जुन दास, ललित माकन आदि ने अपने अपने इलाकोंमें सिखों की हत्या की योजना को सुपरवाईज़ किया था और बाद में सभी लोग कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता बने रहे . कुछ तो संसद सदस्य या विधायक बने , कुछ मंत्री बने और जब तक कांग्रेस सत्ता में रही इन लोगों के खिलाफ कोई जांच नहीं हुई . दिल्ली में रहने वाले वे लड़के जिन्होंने १९८४ में इन नेताओं को लोगों को मारते और ह्त्या के लिए अपने कार्यकर्ताओं को उकसाते देखा है , उन्हें शायद लगा हो कि अपराध करने से फायदा होता है. १९८५ से १९८९ तक जब तक कांग्रेस का राज रहा यह सारे अपराधी नेता ताक़तवर बने रहे . .लगता है कि दिल्ली में अपराधी मानसिकता को बढ़ावा देने में इस दौर का सबसे बड़ा योगदान है . १९८४ के बाद दिल्ली में ज़्यादातर अपराधी कांग्रेस में भर्ती हो गए थे . बाद में जब बीजेपी सत्ता में आई तो यह सभी लोग बीजेपी की तरफ चले गए थे और अपने आपराधिक इतिहास की कमाई की रोटी खाने लगे थे . हालांकि आजकल १९८४ के अपराधियों के खिलाफ कुछ कार्रवाई होती दिख रही है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है . ज़्यादातर लोग या तो मर गए हैं या पूरे पचीस साल तक सत्ता का सुख भोग चुके हैं . इसलिए अगर दिल्ली को पूरी तरह से अपराधमुक्त करना है तो शीला दीक्षित को चाहिए कि दिल्ली विश्वविद्यालय की उस बच्ची की मौत से राजनीतिक लाभ लेने की इच्छा को दफ़न कर दें और दिल्ली राज्य को अपराधियों से मुक्त करने की कोई कारगर योजना बनाएं और अपनी पार्टी के लोगों से कहें वे उसमें उनका सहयोग करें जिस से दिल्ली में अपराधहीन राजनीतिक तंत्र की स्थापना के लिए पहल की जा सके.
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा की उसके कालेज के सामने ही सरे आम गोली मार कर हत्या कर दी गयी .इस घटना ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित कर दिया है कि दिल्ली भारत की राजनीतिक राजधानी होने के साथ साथ आपराधिक राजधानी भी है . दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इस मामले में पीड़ित परिवार के घर जाकर राजनीतिक पेशबंदी शुरू कर दी है . आज उन्होंने मारी गयी लड़की के परिवार को दिलासा दिलाई और भरोसा दिया कि वे परिवार को न्याय दिलायेगीं . इसके पहले, कल उन्होंने इस घटना पर बहुत दुख व्यक्त किया था और बताया था कि दिल्ली में महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है. . शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं और उनका मौक़े पर पंहुचना बिलकुल सही है . लेकिन पिछले दो दिन से इस विषय पर चल रहे उनके बयान बहुत अजीब लगते हैं . सवाल पैदा होता है कि जब वे खुद दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं और उनकी पार्टी की ही केंद्र में सरकार है तो एक राजनेता के रूप में क्या उनके पास इस बात का नैतिक अधिकार है कि वे पीड़ित के परिवार वालों के घर जाएँ और वहां राजनीतिक स्कोर बढायें. सच्ची बात यह है कि उनको अपनी पार्टी की बड़ी नेता सोनिया गाँधी के पास जाना चाहिए था और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए थी कि जिस दिल्ली की वे मुख्यमंत्री हैं , उसे सुरक्षित करवाने में उनका साथ दें . केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के पास दिल्ली पुलिस का ज़िम्मा है . राज्य में कानून व्यवस्था का सारा काम दिल्ली पुलिस के पास ही है . शीला दीक्षित को चाहिए कि वे सोनिया गांधी से कहें वे कांग्रेस नेता और देश के गृहमंत्री, पी चिदंबरम को सुझाव दें कि दिल्ली वालों की ज़िंदगी से दहशत की मात्रा थोडा कम कर दें . यह काम केंद्र सरकार का है जो उसे चलाने वाली कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक ज़िम्मा है . मारी गई लडकी के घर जाकर शीला दीक्षित इस बुनियादी ज़िम्मेदारी को टाल नहीं सकतीं . शीला दीक्षित ने कल ही कहा था कि दिल्ली में महिलायें सुरक्षित नहीं है . यह कह देने से उनकी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं होती. दिल्ली शहर में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है . आज हेही खबर आई है कि एक प्रसिद्द वकील की माँ को बदमाशों ने मार डाला . आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में लगभग रोज़ ही किसी न किसी महिला का क़त्ल होता है , आये दिन बच्चियों के रेप की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं . सरकारी तंत्र के बाबू लोग हर हालात से बेखबर अपनी ज़िंदगी जीते रहते हैं . दिल्ली में लगभग रोज़ ही सडकों पर मार पीट और क़त्ल की खबरें आती रहती हैं . दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता इस समस्या को हल करने की दिशा में कोई कारगर क़दम नहीं उठाते.
जिस बच्ची की हत्या के बारे में उसके मातापिता से मिलने शीला दीक्षित गयी थीं , उसकी हत्या के मामले को आज लोक सभा में बीजेपी के नेता शाहनवाज़ हुसैन ने भी उठाया .उन्होंने कहा कि दिल्ली अपराध की राजधानी बन गयी है और उनकी पार्टी के नेताओं ने शेम शेम के नारे लगाए . सवाल उठता है कि क्या दिल्ली में चारों तरफ फैले हुए अपराध को इस तरह से संभाला जा सकता है . क्या अपराध पर राजनीतिक बयान बाज़ी का सहारा लेकर काबू किया जा सकता है .ज़ाहिर है राजनीतिक स्कोर कार्ड में नंबर बढाने की नेताओं की आदत से दिल्ली का कुछ भी नहीं बनने वाला है . इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए और वह राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों ही मुख्य पार्टियों की ओर से आनी चाहिए . यह समस्या वास्तव में अब राजनीतिक समस्या नहीं रही . दिल्ली के अपराध अब बाकायदा सामाजिक मुद्दा बन चुका है . आजकल पूरे देश में अपराध करना फैशन हो गया है . इसका कारण शायद यह है कि भारी बेकारी का शिकार नौजवान जब देखता है कि उसके साथ ही काम करने वाला कोई आदमी राजनीति में प्रवेश करके बहुत संपन्न बन गया तो वह भी राजनीति की तरफ आगे बढ़ता है . दिल्ली में संगठित राजनीतिक अपराध १९८४ के सिख विरोधी दंगों के दौरान शुरू हुआ . सिखों के नरसंहार में दिल्ली की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेता शामिल थे . एच के एल भगत, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर, धर्म दास शास्त्री , अर्जुन दास, ललित माकन आदि ने अपने अपने इलाकोंमें सिखों की हत्या की योजना को सुपरवाईज़ किया था और बाद में सभी लोग कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता बने रहे . कुछ तो संसद सदस्य या विधायक बने , कुछ मंत्री बने और जब तक कांग्रेस सत्ता में रही इन लोगों के खिलाफ कोई जांच नहीं हुई . दिल्ली में रहने वाले वे लड़के जिन्होंने १९८४ में इन नेताओं को लोगों को मारते और ह्त्या के लिए अपने कार्यकर्ताओं को उकसाते देखा है , उन्हें शायद लगा हो कि अपराध करने से फायदा होता है. १९८५ से १९८९ तक जब तक कांग्रेस का राज रहा यह सारे अपराधी नेता ताक़तवर बने रहे . .लगता है कि दिल्ली में अपराधी मानसिकता को बढ़ावा देने में इस दौर का सबसे बड़ा योगदान है . १९८४ के बाद दिल्ली में ज़्यादातर अपराधी कांग्रेस में भर्ती हो गए थे . बाद में जब बीजेपी सत्ता में आई तो यह सभी लोग बीजेपी की तरफ चले गए थे और अपने आपराधिक इतिहास की कमाई की रोटी खाने लगे थे . हालांकि आजकल १९८४ के अपराधियों के खिलाफ कुछ कार्रवाई होती दिख रही है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है . ज़्यादातर लोग या तो मर गए हैं या पूरे पचीस साल तक सत्ता का सुख भोग चुके हैं . इसलिए अगर दिल्ली को पूरी तरह से अपराधमुक्त करना है तो शीला दीक्षित को चाहिए कि दिल्ली विश्वविद्यालय की उस बच्ची की मौत से राजनीतिक लाभ लेने की इच्छा को दफ़न कर दें और दिल्ली राज्य को अपराधियों से मुक्त करने की कोई कारगर योजना बनाएं और अपनी पार्टी के लोगों से कहें वे उसमें उनका सहयोग करें जिस से दिल्ली में अपराधहीन राजनीतिक तंत्र की स्थापना के लिए पहल की जा सके.
Tuesday, March 8, 2011
करूणानिधि को धमकाने के लिए कांग्रेस ने 2जी घोटाले की तलवार का इस्तेमाल किया
शेष नारायण सिंह
तमिलनाडु की पार्टी ,द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम से पिंड छुडाने की कांग्रेस पार्टी की कोशिश ने दिल्ली में राजनीतिक उथल पुथल पैदा कर दी है . शुरू में तो डी एम के वालों को लगा कि मामला आसानी से धमकी वगैरह देकर संभाला जा सकता है लेकिन बात गंभीर थी और कांग्रेस ने डी एम के को अपनी शतरें मानने के लिए मजबूर कर दिया . कांग्रेस को अब तमिलनाडु विधान सभा में ६३ सीटों पर लड़ने का मौक़ा मिलेगा लेकिन कांग्रेस का रुख देख कर लगता है कि वह आगे भी डी एम के को दौन्दियाती रहेगी. यू पी ए २ के गठन के साथ ही कांग्रेस ने डी एम के को औकात बताना शुरू कर दिया था लेकिन बात गठबंधन की थी इसलिए खींच खांच कर संभाला गया और किसी तरह सरकार चल निकली . लेकिन यू पी ए के बाकी घटकों और कांग्रेसी मंत्रियों की तरह ही डी एम के वालों ने भी लूट खसोट शुरू कर दिया बाकी लोग तो बच निकले लेकिन डी एम के के नेता और संचार मंत्री ,ए राजा पकडे गए . उनके चक्कर में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों ने डॉ मनमोहन सिंह को ही घेरना शूरू कर दिया . कुल मिलाकर डी एम के ने ऐसी मुसीबत खडी कर दी कि कांग्रेस भ्रष्टाचार की राजनीति की लड़ाई में हारती नज़र आने लगी. राजा को हटाया गया लेकिन राजा बेचारा तो एक मोहरा था. भ्रष्टाचार के असली इंचार्ज तो करुणानिधि ही थे. उनकी दूसरी पत्नी और बेटी भी सी बी आई की पूछ ताछ के घेरे में आने लगे. तमिलनाडु में डी एम के की हालत बहुत खराब है लेकिन करूणानिधि को मुगालता है कि वे अभी राजनीतिक रूप से कमज़ोर नहीं हैं . लिहाजा उन्होंने कांग्रेस को विधान सभा चुनावो के नाम पर धमकाने की राजनीति खेल दी .कांग्रेस ने मौक़ा लपक लिया . कांग्रेस को मालूम है कि डी एम के के साथ मिलकर इस बार तमिलनाडु में कोई चुनावी लाभ नहीं होने वाला है . इसलिए उसने सीट के बँटवारे को मुद्दा बना कर डी एम के को रास्ता दिखाने का फैसला कर लिया लेकिन डी एम के को गलती का अहसास हो गया और अब फिर से सुलह की बात शुरू हो गयी . डी एम के के नेता अभी सोच रहे है कि कुछ विधान सभा की अतिरिक्त सीटें देकर कांग्रेस से करूणानिधि के परिवार के लोगों के खिलाफ सी बी आई का शिकंजा ढीला करवाया जा सकता है . लेकिन खेल इतना आसान नहीं है . कांग्रेस ने बहुत ही प्रभावी तरीके से करूणानिधि एंड कंपनी को औकात बोध करा दिया है . उत्तर प्रदेश के २२ संसद सदस्यों वाले दल के नेता मुलायम सिंह यादव ने ऐलान कर दिया है कि वे कांग्रेस को अंदर से समर्थन करने को तैयार हैं . यह अलग बात है कि कांग्रेस को उनके समर्थन की न तो ज़रुरत है और न ही उसने मुलायम सिंह यादव से समर्थन माँगा है . लेकिन मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी एकजुट रखने के लिए कहीं भी सत्ता के करीब नज़र आना है . सो उन्होंने वक़्त का सही इस्तेमाल करने का फैसला किया . कांग्रेस की अगुवायी वाली सरकार को २१ सदस्यों वाली बहुजन समाज पार्टी का समर्थन भी बाहर से मिल रहा है जयललिता भी करूणानिधि को बेघर करने के लिए यू पी ए को समर्थन देने को तैयार है . ऐसी हालत में कांग्रेस और डी एम के सम्बन्ध निश्चित रूप से राजनीति की चर्चा की सीमा पर कर गए हैं और प्रहसन के मुकाम पर पंहुच गए हैं .
तमिलनाडु की पार्टी ,द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम से पिंड छुडाने की कांग्रेस पार्टी की कोशिश ने दिल्ली में राजनीतिक उथल पुथल पैदा कर दी है . शुरू में तो डी एम के वालों को लगा कि मामला आसानी से धमकी वगैरह देकर संभाला जा सकता है लेकिन बात गंभीर थी और कांग्रेस ने डी एम के को अपनी शतरें मानने के लिए मजबूर कर दिया . कांग्रेस को अब तमिलनाडु विधान सभा में ६३ सीटों पर लड़ने का मौक़ा मिलेगा लेकिन कांग्रेस का रुख देख कर लगता है कि वह आगे भी डी एम के को दौन्दियाती रहेगी. यू पी ए २ के गठन के साथ ही कांग्रेस ने डी एम के को औकात बताना शुरू कर दिया था लेकिन बात गठबंधन की थी इसलिए खींच खांच कर संभाला गया और किसी तरह सरकार चल निकली . लेकिन यू पी ए के बाकी घटकों और कांग्रेसी मंत्रियों की तरह ही डी एम के वालों ने भी लूट खसोट शुरू कर दिया बाकी लोग तो बच निकले लेकिन डी एम के के नेता और संचार मंत्री ,ए राजा पकडे गए . उनके चक्कर में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों ने डॉ मनमोहन सिंह को ही घेरना शूरू कर दिया . कुल मिलाकर डी एम के ने ऐसी मुसीबत खडी कर दी कि कांग्रेस भ्रष्टाचार की राजनीति की लड़ाई में हारती नज़र आने लगी. राजा को हटाया गया लेकिन राजा बेचारा तो एक मोहरा था. भ्रष्टाचार के असली इंचार्ज तो करुणानिधि ही थे. उनकी दूसरी पत्नी और बेटी भी सी बी आई की पूछ ताछ के घेरे में आने लगे. तमिलनाडु में डी एम के की हालत बहुत खराब है लेकिन करूणानिधि को मुगालता है कि वे अभी राजनीतिक रूप से कमज़ोर नहीं हैं . लिहाजा उन्होंने कांग्रेस को विधान सभा चुनावो के नाम पर धमकाने की राजनीति खेल दी .कांग्रेस ने मौक़ा लपक लिया . कांग्रेस को मालूम है कि डी एम के के साथ मिलकर इस बार तमिलनाडु में कोई चुनावी लाभ नहीं होने वाला है . इसलिए उसने सीट के बँटवारे को मुद्दा बना कर डी एम के को रास्ता दिखाने का फैसला कर लिया लेकिन डी एम के को गलती का अहसास हो गया और अब फिर से सुलह की बात शुरू हो गयी . डी एम के के नेता अभी सोच रहे है कि कुछ विधान सभा की अतिरिक्त सीटें देकर कांग्रेस से करूणानिधि के परिवार के लोगों के खिलाफ सी बी आई का शिकंजा ढीला करवाया जा सकता है . लेकिन खेल इतना आसान नहीं है . कांग्रेस ने बहुत ही प्रभावी तरीके से करूणानिधि एंड कंपनी को औकात बोध करा दिया है . उत्तर प्रदेश के २२ संसद सदस्यों वाले दल के नेता मुलायम सिंह यादव ने ऐलान कर दिया है कि वे कांग्रेस को अंदर से समर्थन करने को तैयार हैं . यह अलग बात है कि कांग्रेस को उनके समर्थन की न तो ज़रुरत है और न ही उसने मुलायम सिंह यादव से समर्थन माँगा है . लेकिन मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी एकजुट रखने के लिए कहीं भी सत्ता के करीब नज़र आना है . सो उन्होंने वक़्त का सही इस्तेमाल करने का फैसला किया . कांग्रेस की अगुवायी वाली सरकार को २१ सदस्यों वाली बहुजन समाज पार्टी का समर्थन भी बाहर से मिल रहा है जयललिता भी करूणानिधि को बेघर करने के लिए यू पी ए को समर्थन देने को तैयार है . ऐसी हालत में कांग्रेस और डी एम के सम्बन्ध निश्चित रूप से राजनीति की चर्चा की सीमा पर कर गए हैं और प्रहसन के मुकाम पर पंहुच गए हैं .
Thursday, March 3, 2011
दिल्ली उर्दू अकादमी की ओर से एक औरत के अज़्म को सम्मान
शेष नारायण सिंह
दिल्ली सरकार की उर्दू अकादमी की ओर से आज एक ऐसी महिला का सम्मान किया जा रहा है,जिन्होंने मुसीबतों को हर मोड़ पर चुनौती दी है. दिल्ली के समाज के निर्माण में उनका खुद का और उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान है .कमर आज़ाद हाशमी का जन्म ४ मार्च १९२६ को झांसी में हुआ था.उनके पिता अज़हर अली आज़ाद उर्दू और फारसी के विद्वान थे.उनकी माँ जुबैदा खातून, दहेज़ के खिलाफ सक्रिय थीं कई भाषाओं की जानकार थीं, घुड़सवारी करती थीं और राइफल चलाना जानती थीं. उनकी ससुराल के लोग दिल्ली की राजनीति में सक्रिय थे. उनके पति की माँ , बेगम हाशमी नैशनल फेडरेशन आफ इन्डियन वीमेन की संस्थापक अध्यक्ष थीं. मुल्क के बँटवारे के वक़्त ऐसे हालात बने के कमर आज़ाद हाशमी को अपने माता पिता के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा. वहां वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव , सज्जाद ज़हीर से मिलीं. सज्जाद ज़हीर को कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान भेजा था जहां उन्हें पार्टी का गठन करना था . उन्हने मालूम था कि कमर की शादी हनीफ हाशमी से होने वाली थी. उन्होंने कमर को कहा कि वापस जाओ और हनीफ से शादी करके उसे भी पाकिस्तान लाओ जिस से वहां वामपंथी आन्दोलन को ताक़त दी जा सके. कमर आज़ाद हाशमी जब दिल्ली आयीं तो शादी तो उन्होंने हनीफ हाशमी से कर ली लेकिन वापस जाने की बात ख़त्म कर दी. बाद में स्व सज्जाद ज़हीर भी वापस हिन्दुस्तान आ गये.
कमर आज़ाद हाशमी ने अपनी पहली किताब ६९ साल की उम्र में लिखी . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनकी पढाई पर ब्रेक लग गयी थी क्योंकि १९४७ के तकसीम ए मुल्क ने सब कुछ बदल दिया था .उन्होंने सत्तर साल की उम्र में एम ए करने का फैसला किया और किया भी. मजदूरों के हक के लिए लड़ते हुए उनके ३४ साल के बेटे को दिल्ली के पास साहिबाबाद में गुंडों ने मार डाला लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी . उस दिन उन्होंने दुःख में डूबे उसके साथियों का हौसला बढ़ाया था और कहा कि साथियो उठ खड़े हो और रोशनी फैलाने का काम जारी रखो क्योंकि अँधेरे के परदे को रोशनी से ही खत्म किया जा सकता है .उनके बेटे का नाम सफ़दर हाशमी था और आज उसे पूरी दुनिया में लोग जानते हैं . कमर आज़ाद हाशमी के सफ़दर के अलावा चार और बच्चे हैं. इन्होने अपने सभी बच्चों के अंदर पता नहीं क्या भर दिया है कि उनमें से कोई भी अन्याय के खिलाफ मोर्चा संभालने में एक मिनट नहीं लगाता . इनकी सबसे छोटी औलाद शबनम हाशमी हैं जिन्होंने गुजरात नरसंहार २००२ के बाद दर्द की तूफ़ान को झेल रहे हर गुजराती मुसलमान को ढाढस बंधाया और उसके साथ खडी रहीं.शबनम ने बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद संघी ताक़तों का मुकाबला किया और देश में सेकुलर जमातों को एकजुट किया. इनके बड़े बेटे सुहेल हाशमी हैं जो दिल्ली की विरासत के सबसे बड़े जानकारों में गिने जाते हैं . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक रूप को स्थापित करने में सुहेल का बड़ा योगदान है .इनकी दो और बेटियाँ हैं जिन्होंने स्कूल टीचर के रूप में दिल्ली के दो नामी स्कूलों में काम किया और अपने विषय को बहुत ही लोकप्रिय बनाया . अपने बच्चों को कमर आज़ाद हाशमी ने बेहतर इंसान बनने की ट्रेनिंग अच्छी तरह से दे रखी है .दिल्ली में नर्सरी शिक्षा को एक सम्मानजनक मुकाम तक पंहुचाने में कमर आज़ाद हाशमी का ख़ास योगदान है .
मुल्क के बँटवारे के बाद से दिल्ली और अलीगढ के बीच उन्होंने वक़्त की हर मार को झेला और अपने बच्चों को मज़बूत इंसान बनाया. उनके छोटे बेटे सफ़दर को १९८९ में मार डाला गया . उसकी याद में ही सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक हस्तक्षेप का मंच ,सहमत बनाया गया . शुरू में सहमत का संचालन उनकी छोटी बेटी शबनम हाशमी ने किया . बाद में शबनम ने अनहद का गठन किया जो शोषित पीड़ित जनता की लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा है . सहमत और अनहद से जुड़े ज़्यादातर लोग कमर आज़ाद हाशमी को अम्माजी कहते हैं .सफ़दर को विषय बनाकर अम्माजी ने एक किताब भी लिखी जिसका नाम है "पांचवां चिराग़ " . यह किताब कई भाषाओं में छप चुकी है . घोषित रूप से तो यह सफ़दर की जीवनी है लेकिन वास्तव में यह बीसवीं सदी में हो रहे बदलाव का एक आइना है . यह किताब उस औरत के अज़्म की कहानी है जिसका जवान बेटा राजनीतिक कारणों से शहीद कर दिया गया था,. इस किताब में चारों तरफ बिखरे हुए सपने पड़े हैं ,उम्मीदें हैं और हौसले हैं . इस किताब को पढने के बाद लगता है कि एक औरत अगर तय कर ले तो मुसीबतें कहीं नहीं ठहरेगीं. अम्माजी को बहुत सारे सम्मान मिले हैं और आज भी काम करने का ज़ज्बा ऐसा है कि अगले बीस साल तक के लिए प्लान बना चुकी हैं .
आजकल दिल्ली में अपनी छोटी बेटी शबनम हाशमी के साथ रहती हैं और अनहद के काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं . अपने वालिद की फारसी ग़ज़लों और नज्मों का एक संकलन प्रकाशित कर चुकी है और दूसरे संकलन के बारे में काम चल रहा है.आज भी उनके पास बैठने पर लगता है कि काम करने का अगर हौसला हो तो बाकी चीज़ें अपने आप दुरुस्त हो जायेगीं.
दिल्ली सरकार की उर्दू अकादमी की ओर से आज एक ऐसी महिला का सम्मान किया जा रहा है,जिन्होंने मुसीबतों को हर मोड़ पर चुनौती दी है. दिल्ली के समाज के निर्माण में उनका खुद का और उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान है .कमर आज़ाद हाशमी का जन्म ४ मार्च १९२६ को झांसी में हुआ था.उनके पिता अज़हर अली आज़ाद उर्दू और फारसी के विद्वान थे.उनकी माँ जुबैदा खातून, दहेज़ के खिलाफ सक्रिय थीं कई भाषाओं की जानकार थीं, घुड़सवारी करती थीं और राइफल चलाना जानती थीं. उनकी ससुराल के लोग दिल्ली की राजनीति में सक्रिय थे. उनके पति की माँ , बेगम हाशमी नैशनल फेडरेशन आफ इन्डियन वीमेन की संस्थापक अध्यक्ष थीं. मुल्क के बँटवारे के वक़्त ऐसे हालात बने के कमर आज़ाद हाशमी को अपने माता पिता के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा. वहां वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव , सज्जाद ज़हीर से मिलीं. सज्जाद ज़हीर को कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान भेजा था जहां उन्हें पार्टी का गठन करना था . उन्हने मालूम था कि कमर की शादी हनीफ हाशमी से होने वाली थी. उन्होंने कमर को कहा कि वापस जाओ और हनीफ से शादी करके उसे भी पाकिस्तान लाओ जिस से वहां वामपंथी आन्दोलन को ताक़त दी जा सके. कमर आज़ाद हाशमी जब दिल्ली आयीं तो शादी तो उन्होंने हनीफ हाशमी से कर ली लेकिन वापस जाने की बात ख़त्म कर दी. बाद में स्व सज्जाद ज़हीर भी वापस हिन्दुस्तान आ गये.
कमर आज़ाद हाशमी ने अपनी पहली किताब ६९ साल की उम्र में लिखी . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनकी पढाई पर ब्रेक लग गयी थी क्योंकि १९४७ के तकसीम ए मुल्क ने सब कुछ बदल दिया था .उन्होंने सत्तर साल की उम्र में एम ए करने का फैसला किया और किया भी. मजदूरों के हक के लिए लड़ते हुए उनके ३४ साल के बेटे को दिल्ली के पास साहिबाबाद में गुंडों ने मार डाला लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी . उस दिन उन्होंने दुःख में डूबे उसके साथियों का हौसला बढ़ाया था और कहा कि साथियो उठ खड़े हो और रोशनी फैलाने का काम जारी रखो क्योंकि अँधेरे के परदे को रोशनी से ही खत्म किया जा सकता है .उनके बेटे का नाम सफ़दर हाशमी था और आज उसे पूरी दुनिया में लोग जानते हैं . कमर आज़ाद हाशमी के सफ़दर के अलावा चार और बच्चे हैं. इन्होने अपने सभी बच्चों के अंदर पता नहीं क्या भर दिया है कि उनमें से कोई भी अन्याय के खिलाफ मोर्चा संभालने में एक मिनट नहीं लगाता . इनकी सबसे छोटी औलाद शबनम हाशमी हैं जिन्होंने गुजरात नरसंहार २००२ के बाद दर्द की तूफ़ान को झेल रहे हर गुजराती मुसलमान को ढाढस बंधाया और उसके साथ खडी रहीं.शबनम ने बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद संघी ताक़तों का मुकाबला किया और देश में सेकुलर जमातों को एकजुट किया. इनके बड़े बेटे सुहेल हाशमी हैं जो दिल्ली की विरासत के सबसे बड़े जानकारों में गिने जाते हैं . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक रूप को स्थापित करने में सुहेल का बड़ा योगदान है .इनकी दो और बेटियाँ हैं जिन्होंने स्कूल टीचर के रूप में दिल्ली के दो नामी स्कूलों में काम किया और अपने विषय को बहुत ही लोकप्रिय बनाया . अपने बच्चों को कमर आज़ाद हाशमी ने बेहतर इंसान बनने की ट्रेनिंग अच्छी तरह से दे रखी है .दिल्ली में नर्सरी शिक्षा को एक सम्मानजनक मुकाम तक पंहुचाने में कमर आज़ाद हाशमी का ख़ास योगदान है .
मुल्क के बँटवारे के बाद से दिल्ली और अलीगढ के बीच उन्होंने वक़्त की हर मार को झेला और अपने बच्चों को मज़बूत इंसान बनाया. उनके छोटे बेटे सफ़दर को १९८९ में मार डाला गया . उसकी याद में ही सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक हस्तक्षेप का मंच ,सहमत बनाया गया . शुरू में सहमत का संचालन उनकी छोटी बेटी शबनम हाशमी ने किया . बाद में शबनम ने अनहद का गठन किया जो शोषित पीड़ित जनता की लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा है . सहमत और अनहद से जुड़े ज़्यादातर लोग कमर आज़ाद हाशमी को अम्माजी कहते हैं .सफ़दर को विषय बनाकर अम्माजी ने एक किताब भी लिखी जिसका नाम है "पांचवां चिराग़ " . यह किताब कई भाषाओं में छप चुकी है . घोषित रूप से तो यह सफ़दर की जीवनी है लेकिन वास्तव में यह बीसवीं सदी में हो रहे बदलाव का एक आइना है . यह किताब उस औरत के अज़्म की कहानी है जिसका जवान बेटा राजनीतिक कारणों से शहीद कर दिया गया था,. इस किताब में चारों तरफ बिखरे हुए सपने पड़े हैं ,उम्मीदें हैं और हौसले हैं . इस किताब को पढने के बाद लगता है कि एक औरत अगर तय कर ले तो मुसीबतें कहीं नहीं ठहरेगीं. अम्माजी को बहुत सारे सम्मान मिले हैं और आज भी काम करने का ज़ज्बा ऐसा है कि अगले बीस साल तक के लिए प्लान बना चुकी हैं .
आजकल दिल्ली में अपनी छोटी बेटी शबनम हाशमी के साथ रहती हैं और अनहद के काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं . अपने वालिद की फारसी ग़ज़लों और नज्मों का एक संकलन प्रकाशित कर चुकी है और दूसरे संकलन के बारे में काम चल रहा है.आज भी उनके पास बैठने पर लगता है कि काम करने का अगर हौसला हो तो बाकी चीज़ें अपने आप दुरुस्त हो जायेगीं.
Wednesday, March 2, 2011
नरेंद्र मोदी और भागवत ने फिर किया महात्मा गाँधी की विरासत पर दावा
शेष नारायण सिंह
नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर महात्मा गाँधी का नाम लिया और उन्हें दूरदर्शी और मौलिक चिन्तक बताया .उन्होंने दावा किया कि मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने महात्मा गाँधी के कुछ सपनों को पूरा कर दिया है . गोधरा की बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में आर एस एस के मुखिया मोहन भागवत की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि अगर गाँधी जी होते तो इस बात से बहुत खुश होते कि गुजरात के हर गाँव में बिजली पंहुच चुकी है .मोदी ने लोगों से आग्रह किया कि महात्मा गाँधी की मूल किताबों को पढने की ज़रुरत है.संक्षिप्त संस्करण पढने से पूरा ज्ञान नहीं मिलता. हालांकि महात्मा गाँधी का जीवन और काम ऐसा है जिसकी कसौटी पर कसने पर नरेंद्र मोदी का हर आचरण फेल हो जाएगा लेकिन आर एस एस और बीजेपी के इतिहास में किसी भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के के न होने के दर्द को झेल रहे संघी संगठनों को महात्मा गाँधी को अपना लेने की जल्दी पड़ी रहती है . महात्मा गाँधी की पार्टी , कांग्रेस के लोग आजकल एक अन्य गाँधी को महान बनाने के अभियान में लगे रहते हैं इसलिए भी आर एस एस को महात्मा गाँधी की विरासत को अपना लेने में आसानी होती नज़र आने लगी है . यह शायद इसलिए होता है कि हर संगठन को अपने इतिहास में ऐसे लोगों की ज़रुरत पड़ती है जिनके काम पर गर्व किया जा सके. आर एस एस के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके ऊपर आज़ादी की लड़ाई के हवाले से गर्व किया जा सके. उनकी स्थापना 1925 में हुई थी. इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि आर एस एस की स्थापना अंग्रेजों के आशीर्वाद से हुई थी और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1920 के आन्दोलन में जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम हुई थी ,उसी को तोड़ने के लिए इस संगठन की स्थापना करवाई गयी थी. आर एस एस की विचारधारा वी डी सावरकर की किताब, " हिंदुत्व " को आधार मानती है . यह किताब भी सावरकर ने आर एस एस की स्थापना के एक साल पहले लिखी थी . आर एस एस के संस्थापक डॉ हेडगेवार ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व वाले 1920 के आन्दोलन में में हिस्सा लिया था और जेल भी गए थे .कलकत्ता में अपनी डाक्टरी की पढाई के दौरान उन्होंने कांग्रेस के आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया था लेकिन जब वे वी डी सावरकर के संपर्क में आये तो उनकी हिन्दुत्व की विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए और राजनीतिक हिंदुत्व के ज़रिये सत्ता हासिल करने की सावरकर की कोशिश के साथ चल पड़े. . इटली के फासिस्ट राजनीतिक चिन्तक ,माज़िनी की किताब " न्यू इटली "के बहुत सारे तर्क सावरकर की किताब 'हिंदुत्व " में मौजूद . जानकार कहते हैं कि जब 1920 में अंग्रेजों ने सावरकर को माफी दी थी तो उनसे एक अंडरटेकिंग लिखवा ली थी कि वे माफी मिलने के बाद ब्रिटिश इम्पायर के हित में ही काम करेगें . भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता को खंडित करना ऐसा ही एक काम था . लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध तक बात बदल चुकी थी . आर एस एस के लोग देश में चल रही आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे . हाँ अंग्रेजों का कोई विरोध भी नहीं कर रहे थे. जबकि महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरा देश आज़ादी की बात कर रहा था. जिन्ना के साथी और आर एस एस वाले गाँधी के आन्दोलन के खिलाफ थे. 1930 और 1940 के दशक भारत की आज़ादी के लिहाज़ से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. इस दौर में आज़ादी के पक्षधर सभी नेता जेलों में थे लेकिन मुस्लिम लीग के जिन्ना के सभी साथी और आर एस एस के एम एस गोलवलकर और उनके सभी साथी एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए. ज़ाहिर है कि आर एस एस और उसकी राजनीति के आधार पर राजनीति करने वालों के लिए आज़ादी के लड़ाई में अपने हीरो तलाशना बहुत ही मुश्किल काम है . महात्मा गाँधी की विरासत को अपनाने की कोशिश इसी समस्या के हल के रूप में की जाती है . लेकिन बात बनती नहीं क्योंकि जैसे ही आर एस एस वाले महात्मा गाँधी को अपनाने की कोशिश करते हैं, कहीं से कोई आदमी आर एस एस के तत्कालीन सर संघचालक , माधव सदाशिव गोलवलकर की नागपुर के भारत पब्लिकेशन्स से प्रकाशित किताब, " वी ,आर अवर नेशनहुड डिफाइंड " के 1939 संस्करण के पृष्ठ 37 का अनुवाद छाप देता है जिसमें श्री गोलवलकर ने लिखा है कि हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुछ सीखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए . ज़ाहिर है कि दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में हिटलर के प्रशंसकों को अपना पूर्वज बताकर कोई भी गर्व नहीं कर सकता . महात्मा गाँधी को अपनाने की नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की कोशिश को इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. आर एस एस ने इसके पहले भी इस तरह की कोशिश की है . एक बार तो सरदार भगत सिंह को ही अपना बनाने की कोशिश की गयी लेकिन जब पता लगा कि सरदार भगत सिंह तो कम्युनिस्ट थे तो वह कार्यक्रम बंद किया गया . वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई, जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल की गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है.सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी . इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने का वचन दिया था . जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई. वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा .सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था . जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ देना चाहिए था लेकिन सरदार ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें. आर एस एस ने एक बार गुजराती होने के हवाले से महात्मा गाँधी को अपनाने की कोशिश शुरू कर दी है . महात्मा गाँधी आज दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं , उन्हें गुजरात की सीमा में सीमित करना बहुत ही संकीर्णता होगी
नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर महात्मा गाँधी का नाम लिया और उन्हें दूरदर्शी और मौलिक चिन्तक बताया .उन्होंने दावा किया कि मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने महात्मा गाँधी के कुछ सपनों को पूरा कर दिया है . गोधरा की बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में आर एस एस के मुखिया मोहन भागवत की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि अगर गाँधी जी होते तो इस बात से बहुत खुश होते कि गुजरात के हर गाँव में बिजली पंहुच चुकी है .मोदी ने लोगों से आग्रह किया कि महात्मा गाँधी की मूल किताबों को पढने की ज़रुरत है.संक्षिप्त संस्करण पढने से पूरा ज्ञान नहीं मिलता. हालांकि महात्मा गाँधी का जीवन और काम ऐसा है जिसकी कसौटी पर कसने पर नरेंद्र मोदी का हर आचरण फेल हो जाएगा लेकिन आर एस एस और बीजेपी के इतिहास में किसी भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के के न होने के दर्द को झेल रहे संघी संगठनों को महात्मा गाँधी को अपना लेने की जल्दी पड़ी रहती है . महात्मा गाँधी की पार्टी , कांग्रेस के लोग आजकल एक अन्य गाँधी को महान बनाने के अभियान में लगे रहते हैं इसलिए भी आर एस एस को महात्मा गाँधी की विरासत को अपना लेने में आसानी होती नज़र आने लगी है . यह शायद इसलिए होता है कि हर संगठन को अपने इतिहास में ऐसे लोगों की ज़रुरत पड़ती है जिनके काम पर गर्व किया जा सके. आर एस एस के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके ऊपर आज़ादी की लड़ाई के हवाले से गर्व किया जा सके. उनकी स्थापना 1925 में हुई थी. इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि आर एस एस की स्थापना अंग्रेजों के आशीर्वाद से हुई थी और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1920 के आन्दोलन में जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम हुई थी ,उसी को तोड़ने के लिए इस संगठन की स्थापना करवाई गयी थी. आर एस एस की विचारधारा वी डी सावरकर की किताब, " हिंदुत्व " को आधार मानती है . यह किताब भी सावरकर ने आर एस एस की स्थापना के एक साल पहले लिखी थी . आर एस एस के संस्थापक डॉ हेडगेवार ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व वाले 1920 के आन्दोलन में में हिस्सा लिया था और जेल भी गए थे .कलकत्ता में अपनी डाक्टरी की पढाई के दौरान उन्होंने कांग्रेस के आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया था लेकिन जब वे वी डी सावरकर के संपर्क में आये तो उनकी हिन्दुत्व की विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए और राजनीतिक हिंदुत्व के ज़रिये सत्ता हासिल करने की सावरकर की कोशिश के साथ चल पड़े. . इटली के फासिस्ट राजनीतिक चिन्तक ,माज़िनी की किताब " न्यू इटली "के बहुत सारे तर्क सावरकर की किताब 'हिंदुत्व " में मौजूद . जानकार कहते हैं कि जब 1920 में अंग्रेजों ने सावरकर को माफी दी थी तो उनसे एक अंडरटेकिंग लिखवा ली थी कि वे माफी मिलने के बाद ब्रिटिश इम्पायर के हित में ही काम करेगें . भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता को खंडित करना ऐसा ही एक काम था . लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध तक बात बदल चुकी थी . आर एस एस के लोग देश में चल रही आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे . हाँ अंग्रेजों का कोई विरोध भी नहीं कर रहे थे. जबकि महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरा देश आज़ादी की बात कर रहा था. जिन्ना के साथी और आर एस एस वाले गाँधी के आन्दोलन के खिलाफ थे. 1930 और 1940 के दशक भारत की आज़ादी के लिहाज़ से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. इस दौर में आज़ादी के पक्षधर सभी नेता जेलों में थे लेकिन मुस्लिम लीग के जिन्ना के सभी साथी और आर एस एस के एम एस गोलवलकर और उनके सभी साथी एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए. ज़ाहिर है कि आर एस एस और उसकी राजनीति के आधार पर राजनीति करने वालों के लिए आज़ादी के लड़ाई में अपने हीरो तलाशना बहुत ही मुश्किल काम है . महात्मा गाँधी की विरासत को अपनाने की कोशिश इसी समस्या के हल के रूप में की जाती है . लेकिन बात बनती नहीं क्योंकि जैसे ही आर एस एस वाले महात्मा गाँधी को अपनाने की कोशिश करते हैं, कहीं से कोई आदमी आर एस एस के तत्कालीन सर संघचालक , माधव सदाशिव गोलवलकर की नागपुर के भारत पब्लिकेशन्स से प्रकाशित किताब, " वी ,आर अवर नेशनहुड डिफाइंड " के 1939 संस्करण के पृष्ठ 37 का अनुवाद छाप देता है जिसमें श्री गोलवलकर ने लिखा है कि हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुछ सीखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए . ज़ाहिर है कि दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में हिटलर के प्रशंसकों को अपना पूर्वज बताकर कोई भी गर्व नहीं कर सकता . महात्मा गाँधी को अपनाने की नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की कोशिश को इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. आर एस एस ने इसके पहले भी इस तरह की कोशिश की है . एक बार तो सरदार भगत सिंह को ही अपना बनाने की कोशिश की गयी लेकिन जब पता लगा कि सरदार भगत सिंह तो कम्युनिस्ट थे तो वह कार्यक्रम बंद किया गया . वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई, जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल की गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है.सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी . इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने का वचन दिया था . जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई. वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा .सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था . जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ देना चाहिए था लेकिन सरदार ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें. आर एस एस ने एक बार गुजराती होने के हवाले से महात्मा गाँधी को अपनाने की कोशिश शुरू कर दी है . महात्मा गाँधी आज दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं , उन्हें गुजरात की सीमा में सीमित करना बहुत ही संकीर्णता होगी
गोधरा ट्रेन हादसे की सी बी आई जांच की मांग , फैसले के खिलाफ माहौल बनना शुरू
शेष नारायण सिंह
गोधरा में एक ट्रेन के डिब्बे में लगी आग के बारे में जो फैसला आया है उससे सिविल सोसाइटी के लोग बहुत नाराज़ हैं मुंबई के विद्वान् और धर्मनिरपेक्ष चिन्तक, असगर अली इंजीनियर ने कहा है कि केस की जांच सही तरीके से नहीं हुई है लिहाज़ा इसकी जांच सी बी आई से करवाई जाए . अनहद की संयोजक और गुजरात में मुसलमानों को न्याय दिलवाने के लिए बड़े पैमाने पर सक्रिय ,शबनम हाशमी ने कहा है कि कि गुजरात पुलिस और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की ओर से तैनात सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघवन की अगुवाई में एस आई टी ने जो जांच की है वह गड़बड़ है ,मामले की जांच सी बी आई से करवाई जानी चाहिए क्योंकि इस मामले में राघवन कमेटी ने भी एक तरह से गुजरात पुलिस की बात को ही सही ठहराकर सुप्रीम कोर्ट के हुक्म को पूरा कर दिया है . उनका आरोप है कि राघवन ने इस मामले की निष्पक्ष जांच नहीं की है . उनका कहना है कि निष्पक्ष जांच के बाद हो सकता है इस मामले की साज़िश में प्रवीण तोगड़िया ही शामिल पाए जाँए.
फरवरी २००२ में अयोध्या से वापस अहमदाबाद जाती हुई साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ कोच में आग लग गयी थी और उसमें सवार सभी लोग मारे गए थे.गुजरात के पंचमहल जिले के गोधरा जंक्शन के पास यह हादसा हुआ था. एक ख़ास राजनीतिक बिरादरी के लोगों ने गोधरा कस्बे के मुसलमानों पर तुरंत आरोप लगाना शुरू कर दिया और भारत के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार गुजरात के मुसलमानों ने झेला . ट्रेन के डिब्बे में लगी आग के बाद गुजरात के मुसलमानों पर भारी कहर बरपा हुआ . अब नौ साल बाद गोधरा का फैसला आया है .एक डिब्बे में आग लगाने के आरोप में पुलिस ने ९० से ज्यादा लोगों को अभियुक्त बनाया था जिसमें से अदालत ने ६३ लोगों को बरी कर दिया . ३१ लोगों को दोषी पाया गया था. अब सज़ा का फैसला आया है कि अभियुक्तों में से ११ लोगों को फांसी होगी और २० लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी है ..जानकार बताते हैं कि किसी भी मामले में ११ लोगों को फांसी की सज़ा देने का यह फैसला अपने आप में एक ख़ास घटना है . आम तौर पर इतने ज्यादा लोगों को फांसी की सज़ा नहीं होती. बहरहाल मामला अब अपील में जाएगा . विश्व हिन्दू परिषद् के नेता प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि ट्रायल कोर्ट ने जिन ६३ लोगों को बरी किया है , वह गलत है . उसके खिलाफ अपील की जायेगी.जिन लोगों को फांसी दी गयी है वह तो ठीक है लेकिन जिन्हें आजीवन कारावास की सज़ा मिली है,उसके खिलाफ भी अपील की जायेगी.और सब को फांसी दिलाई जाईए . प्रवीण तोगड़िया की बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत है.वह गुजरात की वर्तमान सरकार की विचारधारा के बहुत करीबी हैं और गुजरात के ज़्यादातर मामलों में उनकी राय का मह्त्व रहता है .
साबरमती एक्सप्रेस के एस -६ कोच में लगी आग एक दुखद घटना थी . अगर उसमें किसी साज़िश का पता लगता है तो वह और भी दुखद है . लेकिन गोधरा के अपराध के लिए किसी एक समुदाय को ज़िम्मेदार मानकर ,उसके लोगों को घेर घेर कर मारना और भी दुखद है . आने वाली नस्लें इस सारे काम के लिए उन लोगों को माफ़ नहीं करेगीं , जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. इसलिए गोधरा और उसके बाद हुए नरसंहार के हर मामले की बहुत ही गंभीरता से जांच होनी चाहिए थी . लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि गोधरा में ट्रेन में लगी आग की जांच शुरू से ही शक़ के दायरे में रही है. गुजरात पुलिस की जांच पर पीड़ितों को और अभियुक्तों को भरोसा नहीं था . न्याय की उम्मीद में सुप्रीम कोर्ट में फ़रियाद की गयी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मार्च २००८ में विशेष जांच टीम बना दी गयी जिसका मुखिया सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघवन को बनाया गया . राघवन ने शुरू में ही एक ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से बहुत ज्यादा हो हल्ला मच गया .उन्होंने नोएल परमार नाम के उस पुलिस अधिकारी को मुख्य जांच अधिकारी बना दिया कथित रूप से जिसके पक्षपात पूर्ण रवैय्ये की वजह से लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार की थी . बाद में उसे हटा दिया गया लेकिन उसकी जगह पर उसी परमार के एक ख़ास आदमी को रख लिया . मोटे तौर पर राघवन कमेटी ने गुजरात पुलिस की जांच को ही आगे बढ़ाया . सच्चाई यह है कि वे महीने में तीन बार गुजरात जाते थे और गुजरात पुलिस के अधिकारियों को ही जांच में इस्तेमाल करते थे . मुसलमानों और सामाजिक संगठनों ने कई बार मांग की कि गुजरात पुलिस के बाहर के लोगों को जांच के काम में लगाया जाय लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब गोधरा में ट्रेन में लगी आग के मामले में साज़िश की बात करन एवालों के खिलाफ माहौल बन रहा है और उम्मीद है कि बहुत सारे और मामलों की तरह इस मामले की भी दोबारा जांच होगी और फिर उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी पक्ष जांच और उसके बाद मिलने वाले न्याय से संतुष्ट हो जायेगें.
गोधरा में एक ट्रेन के डिब्बे में लगी आग के बारे में जो फैसला आया है उससे सिविल सोसाइटी के लोग बहुत नाराज़ हैं मुंबई के विद्वान् और धर्मनिरपेक्ष चिन्तक, असगर अली इंजीनियर ने कहा है कि केस की जांच सही तरीके से नहीं हुई है लिहाज़ा इसकी जांच सी बी आई से करवाई जाए . अनहद की संयोजक और गुजरात में मुसलमानों को न्याय दिलवाने के लिए बड़े पैमाने पर सक्रिय ,शबनम हाशमी ने कहा है कि कि गुजरात पुलिस और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की ओर से तैनात सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघवन की अगुवाई में एस आई टी ने जो जांच की है वह गड़बड़ है ,मामले की जांच सी बी आई से करवाई जानी चाहिए क्योंकि इस मामले में राघवन कमेटी ने भी एक तरह से गुजरात पुलिस की बात को ही सही ठहराकर सुप्रीम कोर्ट के हुक्म को पूरा कर दिया है . उनका आरोप है कि राघवन ने इस मामले की निष्पक्ष जांच नहीं की है . उनका कहना है कि निष्पक्ष जांच के बाद हो सकता है इस मामले की साज़िश में प्रवीण तोगड़िया ही शामिल पाए जाँए.
फरवरी २००२ में अयोध्या से वापस अहमदाबाद जाती हुई साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ कोच में आग लग गयी थी और उसमें सवार सभी लोग मारे गए थे.गुजरात के पंचमहल जिले के गोधरा जंक्शन के पास यह हादसा हुआ था. एक ख़ास राजनीतिक बिरादरी के लोगों ने गोधरा कस्बे के मुसलमानों पर तुरंत आरोप लगाना शुरू कर दिया और भारत के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार गुजरात के मुसलमानों ने झेला . ट्रेन के डिब्बे में लगी आग के बाद गुजरात के मुसलमानों पर भारी कहर बरपा हुआ . अब नौ साल बाद गोधरा का फैसला आया है .एक डिब्बे में आग लगाने के आरोप में पुलिस ने ९० से ज्यादा लोगों को अभियुक्त बनाया था जिसमें से अदालत ने ६३ लोगों को बरी कर दिया . ३१ लोगों को दोषी पाया गया था. अब सज़ा का फैसला आया है कि अभियुक्तों में से ११ लोगों को फांसी होगी और २० लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी है ..जानकार बताते हैं कि किसी भी मामले में ११ लोगों को फांसी की सज़ा देने का यह फैसला अपने आप में एक ख़ास घटना है . आम तौर पर इतने ज्यादा लोगों को फांसी की सज़ा नहीं होती. बहरहाल मामला अब अपील में जाएगा . विश्व हिन्दू परिषद् के नेता प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि ट्रायल कोर्ट ने जिन ६३ लोगों को बरी किया है , वह गलत है . उसके खिलाफ अपील की जायेगी.जिन लोगों को फांसी दी गयी है वह तो ठीक है लेकिन जिन्हें आजीवन कारावास की सज़ा मिली है,उसके खिलाफ भी अपील की जायेगी.और सब को फांसी दिलाई जाईए . प्रवीण तोगड़िया की बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत है.वह गुजरात की वर्तमान सरकार की विचारधारा के बहुत करीबी हैं और गुजरात के ज़्यादातर मामलों में उनकी राय का मह्त्व रहता है .
साबरमती एक्सप्रेस के एस -६ कोच में लगी आग एक दुखद घटना थी . अगर उसमें किसी साज़िश का पता लगता है तो वह और भी दुखद है . लेकिन गोधरा के अपराध के लिए किसी एक समुदाय को ज़िम्मेदार मानकर ,उसके लोगों को घेर घेर कर मारना और भी दुखद है . आने वाली नस्लें इस सारे काम के लिए उन लोगों को माफ़ नहीं करेगीं , जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. इसलिए गोधरा और उसके बाद हुए नरसंहार के हर मामले की बहुत ही गंभीरता से जांच होनी चाहिए थी . लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि गोधरा में ट्रेन में लगी आग की जांच शुरू से ही शक़ के दायरे में रही है. गुजरात पुलिस की जांच पर पीड़ितों को और अभियुक्तों को भरोसा नहीं था . न्याय की उम्मीद में सुप्रीम कोर्ट में फ़रियाद की गयी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मार्च २००८ में विशेष जांच टीम बना दी गयी जिसका मुखिया सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघवन को बनाया गया . राघवन ने शुरू में ही एक ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से बहुत ज्यादा हो हल्ला मच गया .उन्होंने नोएल परमार नाम के उस पुलिस अधिकारी को मुख्य जांच अधिकारी बना दिया कथित रूप से जिसके पक्षपात पूर्ण रवैय्ये की वजह से लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार की थी . बाद में उसे हटा दिया गया लेकिन उसकी जगह पर उसी परमार के एक ख़ास आदमी को रख लिया . मोटे तौर पर राघवन कमेटी ने गुजरात पुलिस की जांच को ही आगे बढ़ाया . सच्चाई यह है कि वे महीने में तीन बार गुजरात जाते थे और गुजरात पुलिस के अधिकारियों को ही जांच में इस्तेमाल करते थे . मुसलमानों और सामाजिक संगठनों ने कई बार मांग की कि गुजरात पुलिस के बाहर के लोगों को जांच के काम में लगाया जाय लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब गोधरा में ट्रेन में लगी आग के मामले में साज़िश की बात करन एवालों के खिलाफ माहौल बन रहा है और उम्मीद है कि बहुत सारे और मामलों की तरह इस मामले की भी दोबारा जांच होगी और फिर उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी पक्ष जांच और उसके बाद मिलने वाले न्याय से संतुष्ट हो जायेगें.
Subscribe to:
Posts (Atom)