गौहर रज़ा की ग़ज़ल
यूं कुफ्र के फतवे तो बहुत आये हैं हम पर,
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है
दुश्नाम ही सजते हैं तेरे मुंह पे मेरे दोस्त
मुंह पर तेरे कुरान मुझे कुफ्र लगे है
वाइज़ पे यक़ीं है तुझे, मुझ को है बहुत शक़
तुझ मुझ से करे बात, मुझे कुफ्र लगे है
दिल है के धड़कने पे अभी तक यह मुसिर है
कमबख्त की हर चाल मुझे कुफ्र लगे है
वह अर्श पे पहुंचेंगी जो उठेंगी ज़मीं से
खामोश हो फ़रियाद, मुझे कुफ्र लगे है
क्यूं कुफ्र में डूबो जो कहो और को काफ़िर
खुद को कहो सआदात, मुझे कुफ्र लगे है
शब जाएके मंज़र पे तो शुकराना अदा हो
ज़ुल्मत पे थे ‘दमसाध’, मुझे कुफ्र लगे है
नासेह तुझे किस तौर मैं समझाऊं, न समझा
समझूं जो तेरी बात, मुझे कुफ्र लगे है
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
ReplyDeleteलेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.