Thursday, March 11, 2010

सज्जन और मोदी के दरवाज़े न्याय की दस्तक

शेष नारायण सिंह


लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .


सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .


सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये

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