Monday, January 25, 2010

गले पड़ी मंहगाई

शेष नारायण सिंह


मंहगाई अब केंद्र सरकार के गले पड़ गई है। पिछले कई महीने से खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की तरफ से गोलमोल बातें की जाती रहीं लेकिन जब मीडिया ने लगभग पूरी तरह से साबित कर दिया कि सरकारी नीतियां ही मंहगाई के लिए जिम्मेदार हैं तो अब केंद्र सरकार में सर्वोच्च स्तर पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है।

खाद्य और कृषि मंत्री ने अपने ताज़ा बयान में प्रधानमंत्री को ही मंहगाई के लिए जि़म्मेदार बताकर मंहगाई पर चल रही बहस को बहुत ही ज्य़ादा गरम कर दिया है। संसदीय लोकतंत्र की सरकार वाली पद्घति में अगर कोई मंत्री प्रधानमंत्री पर सरकार की विफलता का आरोप लगाए तो यह बहुत गंभीर बात है, लेकिन आरोप लगा है और उसकी विधिवत समीक्षा की जानी चाहिए।

जैसा कि सबको मालूम है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा तो कृषि और खाद्य मंत्री के वे बयान जि़म्मेदार हैं जिसमें वे चीनी, दूध और अन्य खाद्य सामग्री की किल्लत और संभावित मंहगाई के बारे में चेतावनी दिया करते थे। चीनी की कीमतें तो जमाखोरों ने केंद्रीय मंत्री के गैर जिम्मेदार बयानों की वजह से बढ़ाईं। लेकिन केंद्र सरकार की वे नीतियां भी कम जि़म्मेदार नहीं हैं जिनकी वजह से जमाखोरी को पिछले दरवाज़े से सरकारी मंज़ूरी दे दी गई है। पिछली यूपीए सरकार के दौरान जब कीमतें बढऩे लगीं तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने बार-बार यह साबित किया था कि अनाज और अन्य खाद्य सामग्री में वायदा कारोबार की नीति बनाकर सरकार ने व्यापारियों को एक तरह से जमाखोरी करने का लाइसेंस दे दिया है। वायदा कारोबार का मतलब होता है कि खरीदार और विक्रेता के बीच कुछ महीने बाद की खरीदारी का समझौता हो जाता है। वास्तव में कोई खरीद नहीं होती लेकिन माल गोदाम में मौजूद होना चाहिए। इस तरह किसानों की पैदावार का एक बड़ा हिस्सा जमाखोरी के हवाले हो जाता है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तव में जमाखोर हैं कौन? सबसे बड़ी जमाख़ोर तो कारगिल कंपनी को माना जाता है। यह अमरीका की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है। हज़ारों हज़ार अरब डॉलर की यह कंपनी बड़े से बड़े गोदामों में ज्य़ादा से ज्य़ादा अनाज बरसों तक जमा रखने की ताकत रखती है। पूरे देश में, बहुत सारे जिलों में जहां सरकारी खरीद हो रही है वहां इनका भी खरीद केंद्र है। यह किसानों से तो पैदावार खरीद रहे हैं, बाकी चीनी वग़ैरह बाज़ार से खरीद करके जमा कर रहे हैं। इसके अलावा देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने अब अनाज की खरीद फरोख्त के धंधे में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है कि उनकी वित्तीय ताकत इतनी ज्य़ादा है जिसकी पुराने स्टाइल वाले जमाखोर सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।

इसलिए सरकार के कृषिमंत्री के गैर जि़म्मेदार बयान के अलावा केंद्र सरकार की जमाखोरी समर्थक नीति भी मंहगाई के लिए जि़म्मेवार है। लगता है कि जब मंहगाई का ठीकरा शरद पवार की तरफ से प्रधानमंत्री के दरवाज़े फोडऩे की बात की गई तो विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप और वायदा कारोबार की नीतियां बनाने वाली सरकार के मुखिया को जि़म्मेदार ठहराने की कोशिश की जा रही है। लेकिन आम आदमी का इस बात से और सरकारी मंत्रियों के झगड़े से कोई मतलब नहीं है। अवाम को तो मंहगाई से मुक्ति चाहिए और अगर मौजूदा सरकार खाने पीने की चीजों के दाम कम न कर सकी तो वर्तमान यूपीए सरकार के लिए बहुत मुश्किल होगी।

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