शेष नारायण सिंह
लोकसभा की अध्यक्ष , मीरा कुमार को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी की लिस्ट में जिस तरह से संबोधित किया गया है , वह कांग्रेसी नेताओं की सामंती सोच का एक प्रतिनिधि नमूना है. जिन लोगों ने यह काम किया उनके ऊपर दलित एक्ट में मुक़दमा भी शुरू कर दिया गया है लेकिन इस से समस्या हल होने वाली नहीं . है . इस घटना के ज़रिये एक बार फिर जाति के विनाश की ज़रुरत रेखांकित हो गयी है . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि मीरा कुमार कोई आम दलित नहीं है . वे बहुत सारे तथाकथित उच्च वर्गों के लोगों को अपने घर में बतौर नौकर देख चुकी हैं . उनके पिता स्वर्गीय जगजीवन राम और दादा स्वर्गीय शोभीराम जी आज़ादी की लड़ाई में शामिल रह चुके हैं . शोभीराम जी तो १८८५ में मुंबई में हुए कांग्रेस के स्थापना सम्मलेन में बिहार के डेलीगेट के रूप में शामिल हुए थे . जब शासक वर्गों की एक प्रतिनिधि को यह सामंती सोच वाला मध्यवर्ग उनके जाति सूचक शब्दों से संबोधित करता है तो गरीब , खस्ताहाल दलितों का क्या हाल होगा. इस लिए इस घटना के बहाने एक बार फिर याद दिलाने की ज़रुरत है कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी की बात के बारे मे सोचना भी बेमतलब है.अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा समाज का जाति के सांचे में बँटा होना ही है . जब से वर्ण व्यवस्था ने जाति का रूप लिया है और जाति को जन्मना माना जाने लगा है तब से ही समाज के विकास को घुन लग गया है. उसके बाद से शूद्र का काबिल से काबिल लड़का उपेक्षित होने लगा और ब्राह्मण का मूर्खातिमूर्ख बच्चा सम्मान का दावेदार बनने लगा .इतिहास का सबसे बड़ा धनुर्धर एकलव्य, अपने अंगूठे को ब्राह्मणवाद की वेदी पर कुर्बान करने पर मजबूर कर दिया जाता है .. अर्जुन और कर्ण की गाथा से पूरा महाभारत भरा पड़ा है. सच्ची बात यह है कि वे दोनों एकलव्य से दोयम दर्जे के धनुर्धर थे .शायद इसी लिए द्रोणाचार्य ने इमोशनल ब्लैकमेल करके उसका अंगूठा कटवा लिया था ऐतिहासिक युग में भी इस तरह के बहुत सारे सन्दर्भ आते हैं... इन घटनाओं का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है कि इस बात से बहुत दुखी होने की ज़रुरत नहीं है कि किसी टाईटलर या किसी शर्मा ने मीरा जी को चमार कह दिया है . इनसे उम्मीद ही क्या की जाती है . जहा तक शर्मा का सवाल है , उसे कोई नहीं जानता लेकिन टाईटलर तो उन्हीं संजय गाँधी के चेले हैं जिन्होंने १९७५ से १९८० के बीच में कांग्रेस में सामंतों की बड़े पैमाने पर भर्ती की थी . उत्तर प्रदेश, ख़ास कर अवध के छोटे से छोटे ताल्लुकेदारों के खाली बैठे बच्चे कांग्रेस में भर्ती हो गए थे . फिर उन्होंने विधायक और मंत्री बनकर पार्टी में एक बार फिर ज़मींदारी प्रथा की स्थापना करने की कोशिश की थी. यह वह दौर है जब उत्तर प्रदेश में दलित एकमुश्त कांग्रेस का साथ दता था लेकिन संजय गाँधी के इस सामंती , ताल्लुकेदारी खेल के चलते दलित कांग्रेस से दूर गया . उसके बाद स्वर्गीय कांशीराम ने राज्य की दलित जनता को अपना साथ खींचा और वह आज एक बड़ा आन्दोलन बन चुका है . इस बात को मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में दलित आन्दोलन को मज़बूती इसलिए मिली कि स्वर्गीय संजय गाँधी के सामंती दोस्तों ने दलितों के लिये वहां कोई जगह ही नहीं छोडी थी . और कांग्रेस का सबसे मज़बूत वोट बैंक नए ठिकाने की तलाश के लिए मजबूर हो गया था . इसलिए इन टाईटलरों को उसी नज़र से देखा जाना चाहिए जिस से जागरूक जनता स्व. संजय गाँधी को देखती है .
लेकिन मीरा कुमार के बहाने दलितों को एक खांचे में फिट करने की शासकवर्गों की सोच को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी यह है कि देश का प्रबुद्ध वर्ग जाति के विनाश के लिए एक बार मैदान में कूद जाए क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो जाति का शैतान सबकुछ निगल जाएगा. . जाति के विनाश की लड़ाई लड़ने के लिए दार्शनिक आधार की कमी नहीं है . बस नौजवान पीढी को केवल अपनी इच्छाशक्ति को मज़बूत करना है . दार्शनिक आधार और महात्मा फुले, बाबासाहेब अंबेडकर और महात्मा गाँधी ने दे रखा है . हालांकि महात्मा गाँधी ने जाति के आधार पर छुआछूत को गलत माना था लेकिन बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा फुले ने तो साफ़ तौर पर जाति की तबाही की बात की थी..
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी।बाबा साहेब अंबेडकर ने जाति प्रथा को ही सारी बुराइयों की जड़ माना था . उनका कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ....ब्राहमणों के आधिपत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी. इसलिए इन महापुरुषों की विरासत के सहारे एक बार फिर जाति की लड़ाई को धार देने का मौक़ा मिला है , उसे छोड़ना नहीं चाहिए.मीरा कुमार के बारे में की गयी टिप्पणी इस सन्दर्भ में एक अवसर है
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