राजीव कटारा का जाना बहुत ही तकलीफदेह है.
. मुझसे उम्र में करीब दस साल छोटे थे. एक
बार किसी दोस्त से मैंने उनका परिचय करवाया और कहा कि राजीव पढ़ते बहुत हैं ,, लिखते बहुत अच्च्छा हैं, साहित्य , संगीत
, स्पोर्ट्स, विचारधारा ,राजनीतिक हलचल
आदि के अच्छे जानकार हैं . राजीव के चेहरे पर उनका वही विनम्र स्मित हास्य वाला भाव
बना रहा . उन मित्र के जाने के बाद मुझसे बोले ,भाई साहब यह कैसा परिचय आप दे रहे
थे . पत्रकार हूं तो अधिक से अधिक विषयों की जानकारी होनी ही चाहिए और अगर पढूंगा
नहीं तो पत्रकार काहे का . आपको मेरा ऐसा
परिचय नहीं देना चाहिए . मेरी शख्सियत में जो बात सबसे अलग हो वह बताते तो ठीक
रहता . उसके बाद मैंने सोचा और पाया कि
राजीव कभी भी किसी पत्रकार या समकालीन के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते थे. हर व्यक्ति के बारे में उसका पाजिटिव पक्ष ढूंढ लेना राजीव के मिजाज का हिस्सा था.
मैंने राजीव के खिलाफ किसी को कभी भी कुछ
बोलते नहीं सुना.
आज सुबह भाई वीरेन्द्र सेंगर की पोस्ट से
पता चला कि रात तीन बजे के आसपास राजीव की
मृत्यु हो गयी थी.इस बात पर विश्वास नहीं हुआ. दिनेश तिवारी की मृत्यु का झटका अभी
भारी था तब तक राजीव के जाने की खबर ने झकझोर दिया है. किसी भी हाल में खुश रहना राजीव की फितरत
थी. शानदार इंसान था . कादम्बिनी पत्रिका के बंद होने के बाद मेरी उनसे बात हुयी
थी. आगे की बातें हुई थीं. किसी विदेशी विश्वविद्यालय में उनके लेक्चर की बात थी .कोरोना
के बाद जाने की संभावना थी .कई विश्वविद्यालयों में भाषण देकर वापसी की बात थी .
भारत की संस्कृति की जो नफासत है उसके जानकार राजीव के लिए मेधा से सम्बंधित कोई
काम मुश्किल नहीं था.
1993 में जब स्व. उदयन
शर्मा ने राष्ट्रीय सहारा अखबार का
ज़िम्मा लिया तो वहां उनके प्रति बहुत ही होस्टाइल माहौल था . वहां जमे हुए मठाधीश टाइप
पत्रकार किसी को जमने नहीं देते थे . जब
सुब्रत रॉय ने उदयन शर्मा से बात की तो उन्होंने कहा कि अखबार को ढर्रे पर लाने का
तरीका यह है कि अच्छा लिखने वाले कुछ
पत्रकारों को साथ लिया जाय. सुब्रत रॉय ने ओके कर दिया लेकिन जब पंडित जी ने अपनी
पसंद के पत्रकारों को लाने की कोशिश शुरू की तो मठाधीशी वालों ने अडंगा लगा दिया .उसके
बावजूद उदयन शर्मा ने राजीव कटारा और सुमिता को ज्वाइन करवा दिया . दिन भर दोनों कुछ
न कुछ लिखते रहते थे . एडिट पेज और ओप-एड
पेज को भरने की ज़िम्मेदारी पंडित जी की टीम की थी. मुझे भी उसी में कुछ काम मिल
जाता था. पंडित जी के लिए सबसे अच्छी बात यह हुई कि उन
दिनों एडिट पेज पर जो सब एडिटरों की टीम थी वह बहुत ही काबिल थी. नितिन प्रधान, मनीषा मिश्रा, सत्य प्रकाश और
श्याम सारस्वत बहुत ही कुशल और विद्वान पत्रकार थे . उनके करियर का वह शुरुआती दौर
था लेकिन काम के मामले में सुपीरियर थे. संजय श्रीवास्तव और गोविन्द दीक्षित भी पंडित
जी के लिए लिखते थे .उस टीम के लोगों ने कुछ
ही दिनों बाद राजीव और सुमिता से दोस्ती कर ली. इन दोनों में किसी तरह का
अहंकार था ही नहीं .
उसके बाद राजीव आजतक टीवी चैनल में भी गए
. कमर वहीद नक़वी और राम कृपाल सिंह उनको बहुत पसंद करते थे . लेकिन राजीव में फकीरी तत्व बहुत
प्रबल था . कभी किसी नौकरी से चिपकने की
कोशिश नहीं की. आत्मविश्वास इतना था कि लिख पढ़कर आराम से ज़िंदगी गुज़ार लेने का भरोसा
देखते ही बनता था . राजीव का जाना मुझे अन्दर तक विचलित कर गया है . कभी
नहीं सोचता था कि राजीव की याद में कुछ लिखना पडेगा. राष्ट्रीय सहारा के दौरान 1994
में जब राजीव ने संगीतकार राहुल देव बर्मन का ओबिट लिखा तो मैंने कहा कि मेरे जाने
पर भी ओबिट तुम्ही लिखना . वायदा किया और हँसते रहे. आज जब मैं यहाँ बैठ कर राजीव
को याद कर रहा हूँ तो मन में दुःख की लहरें उठ रही हैं. अलिवदा राजीव ,बहुत याद आओगे ..
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