Thursday, November 26, 2020

अलविदा राजीव

 

 


 

राजीव कटारा का जाना बहुत ही तकलीफदेह है. . मुझसे उम्र में करीब दस साल  छोटे थे. एक बार किसी दोस्त से मैंने उनका परिचय करवाया और कहा कि राजीव पढ़ते बहुत  हैं ,, लिखते बहुत अच्च्छा हैं, साहित्य , संगीत , स्पोर्ट्स,  विचारधारा ,राजनीतिक हलचल आदि के अच्छे जानकार  हैं . राजीव के  चेहरे पर उनका वही विनम्र स्मित हास्य वाला भाव बना रहा .   उन मित्र के जाने के बाद  मुझसे बोले ,भाई साहब यह कैसा परिचय आप दे रहे थे . पत्रकार हूं तो अधिक से अधिक विषयों की जानकारी होनी ही चाहिए और अगर पढूंगा नहीं तो पत्रकार काहे का . आपको मेरा  ऐसा परिचय नहीं देना चाहिए . मेरी शख्सियत में जो बात सबसे अलग हो वह बताते तो ठीक रहता  . उसके बाद मैंने सोचा और पाया कि राजीव कभी भी किसी पत्रकार या समकालीन के खिलाफ एक शब्द नहीं  बोलते थे. हर व्यक्ति के बारे में उसका पाजिटिव  पक्ष ढूंढ लेना राजीव के मिजाज का हिस्सा था. मैंने राजीव के खिलाफ  किसी को कभी भी कुछ बोलते नहीं सुना.

आज सुबह भाई वीरेन्द्र सेंगर की पोस्ट से पता चला कि  रात तीन बजे के आसपास राजीव की मृत्यु हो गयी थी.इस बात पर विश्वास नहीं हुआ. दिनेश तिवारी की मृत्यु का झटका अभी भारी था तब तक राजीव के जाने की खबर ने झकझोर दिया  है. किसी भी हाल में खुश रहना राजीव की फितरत थी. शानदार इंसान था .  कादम्बिनी  पत्रिका के बंद होने के बाद मेरी उनसे बात हुयी थी. आगे की बातें हुई थीं. किसी विदेशी विश्वविद्यालय में उनके लेक्चर की बात थी .कोरोना के बाद जाने की संभावना थी .कई विश्वविद्यालयों में भाषण देकर वापसी की बात थी . भारत की संस्कृति की जो नफासत है उसके जानकार राजीव के लिए मेधा से सम्बंधित कोई काम मुश्किल नहीं था.

1993 में जब  स्व. उदयन  शर्मा ने राष्ट्रीय सहारा अखबार  का ज़िम्मा लिया तो वहां उनके प्रति बहुत ही होस्टाइल माहौल था . वहां जमे हुए मठाधीश टाइप पत्रकार किसी को जमने नहीं देते थे .  जब सुब्रत रॉय ने उदयन शर्मा से बात की तो उन्होंने कहा कि अखबार को ढर्रे पर लाने का तरीका यह है कि  अच्छा लिखने वाले कुछ पत्रकारों को साथ लिया जाय. सुब्रत रॉय ने ओके कर दिया लेकिन जब पंडित जी ने अपनी पसंद के पत्रकारों को लाने की कोशिश शुरू की तो मठाधीशी वालों ने अडंगा लगा दिया .उसके बावजूद उदयन शर्मा ने राजीव कटारा और सुमिता को ज्वाइन करवा दिया . दिन भर दोनों कुछ न कुछ लिखते रहते थे . एडिट पेज  और ओप-एड पेज को भरने की ज़िम्मेदारी पंडित जी की टीम की थी. मुझे भी उसी में कुछ काम मिल जाता था.  पंडित जी के लिए  सबसे अच्छी बात यह हुई  कि  उन दिनों एडिट पेज पर जो सब एडिटरों की टीम थी वह बहुत ही काबिल थी.  नितिन प्रधान, मनीषा मिश्रा, सत्य प्रकाश और श्याम सारस्वत बहुत ही कुशल और विद्वान पत्रकार थे . उनके करियर का वह शुरुआती दौर था लेकिन  काम के मामले में सुपीरियर थे.   संजय श्रीवास्तव और गोविन्द दीक्षित भी पंडित जी के लिए लिखते थे .उस टीम के लोगों  ने कुछ ही दिनों बाद राजीव और  सुमिता  से दोस्ती कर ली. इन दोनों में किसी तरह का अहंकार था ही नहीं .

उसके बाद राजीव आजतक टीवी चैनल में भी गए . कमर वहीद नक़वी और राम कृपाल सिंह उनको बहुत पसंद  करते थे . लेकिन राजीव में फकीरी तत्व बहुत प्रबल था . कभी  किसी नौकरी से चिपकने की कोशिश नहीं की. आत्मविश्वास इतना था कि लिख पढ़कर आराम से ज़िंदगी गुज़ार लेने का   भरोसा  देखते ही बनता था . राजीव का जाना मुझे अन्दर तक विचलित कर गया है . कभी नहीं सोचता था कि राजीव की याद में कुछ लिखना पडेगा. राष्ट्रीय सहारा के दौरान 1994 में जब राजीव ने  संगीतकार राहुल देव  बर्मन का ओबिट लिखा तो मैंने कहा कि मेरे जाने पर भी ओबिट तुम्ही लिखना . वायदा किया और हँसते रहे. आज जब मैं यहाँ बैठ कर राजीव को  याद कर रहा हूँ तो मन में दुःख की  लहरें उठ रही हैं. अलिवदा  राजीव ,बहुत याद आओगे ..

मसूद अजहर और जैशे-मुहम्मद को तबाह करना दुनिया और भारत के लिए ज़रूरी काम है .


 

शेष नारायण सिंह

 

19 नवम्बर को जम्मू के पास नगरोटा में  भारत के सुरक्षाकर्मियों ने चार आतंकियों को मौत के घाट उतर दिया . वे चारों जम्मू-कश्मीर में चल रहे जिला  विकास परिषद के चुनाव में खलल पैदा करना चाहते थे . पता चला है कि वे  चारों हमलावर पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन जैशे मुहम्मद से ताल्लुक रखते थे . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इस बात की जानकारी दी और  विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने  दिल्ली में तैनात पाकिस्तानी उच्चायोग के एक बड़े अफसर को बुलाकर विरोध दर्ज  कराया और उसको सख्त भाषा में चेतावनी दी.  विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने खुद कमान संभल रखा है और दुनिया के बाकी देशों के राजदूतों को पाकिस्तान की इस करतूत की जानकारी दे रहे हैं . आतंकियों के पास से जो  हथियार,दवाएं और खाने पीने की चीज़ें बरामद हुई हैं वे सभी  पाकिस्तान की हैं .  दुनिया को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि उन्नीस नवम्बर की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है . पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों ,खासकर जैशे मुहम्मद ने इसी साल   जम्मू-कश्मीर में करीब दो सौ वारदातें की हैं . जैशे मुहम्मद का सरगना मसूद अजहर है  जो भारत को तबाह करने का संकल्प ले चुका है . उसके तालिबान और अल-कायदा से सम्बन्ध हैं और उसका संगठन संयुक्त राष्ट्र  द्वारा घोषित खतरनाक आतंकवादी संगठन है . हालाँकि  पाकिस्तान नहीं चाहता था कि उसको आतंकवादी घोषित किए जाए क्योंकि मसूद अजहर पाकिस्तानी विदेश के आतंकवादी   शाखा का बहुत ही महत्वपूर्ण सदस्य है . जब पूरी दुनिया के सभ्य  देश मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकवादी घोषित करना चाहते और संयुक्त राष्ट्र  सुरक्षा पारिषद में  एक प्रस्ताव लाया गया था तो  अमरीका , फ्रांस और ब्रिटेन ने इसकी पैरवी कर रहे थे लेकिन चीन ने पाकिस्तान के निवेदन के बाद प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया और मसूद अजहर एक बार फिर बच निकला था  . मसूद अजहर का संगठन जैशे-मुहम्मद  पहले  ही प्रतिबंधित संगठनों की लिस्ट में मौजूद है .

मसूद अजहर  बहुत ही खतरनाक आतंकवादी है .  वह मसूद अजहर ही है जिसने भारत की संसद  पर  आतंकवादी हमले की साज़िश रची थी . उरी ,पुलवामा और पठानकोट हमले  भी उसी ने करवाए थे . मसूद अजहर १९९४ में कश्मीर आया था जहां उसको गिरफ्तार कर लिया गया था .  उसको रिहा करवाने के लिए  अल फरान नाम के एक आतंकी  गिरोह ने कुछ सैलानियों का  अपहरण कर लिया था लेकिन नाकाम रहे. बाद में उसके भाई की अगुवाई  में आतंकवादियों ने नेपाल  से दिल्ली आ रहे   भारत की सरकारी विमान कंपनी इन्डियन  एयरलाइन्स के एक  विमान को हाइजैक करके कंदहार में उतारा और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को मजबूर कर दिया कि   उसको रिहा करें. उस दौर के विदेशमंत्री जसवंत सिंह मसूद अज़हर सहित कुछ और आतंकवादियों को लेकर कंदहार गए और विमान और यात्रियों को वापस लाये . और इस तरह मसूद अजहर जेल से छूटने में सफल रहा .

भारत की जेल से छूटने के बाद से ही मसूद अजहर भारत को  तबाह करने के  सपने पाले हुये है. जहां तक भारत को तबाह करने की बात  हैवह सपना तो कभी नहीं पूरा होगा लेकिन इस मुहिम में पाकिस्तान तबाही के कगार  पर  पंहुंच गया है .आज पाकिस्तान अपने ही पैदा किये हुए आतंकवाद का शिकार हो रहा  है.पाकिस्तान के शासकों ने उसको तबाही के रास्ते पर डाल दिया   है. आज बलोचिस्तान में पाकिस्तान के खिलाफ ज़बरदस्त आन्दोलन चल रहा है .सिंध  में भी पंजाबी आधिपत्य वाली केंद्रीय हुकूमत और फौज से बड़ी नाराजगी  है. इन  हालात में पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और  जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. हालांकि इन दिनों पाकिस्तान में जनतंत्र की पक्षधर जमातें बहुत कमज़ोर पड़ गयी हैं . प्रधानमंत्री इमरान खान तो पूरी तरह फौज के कंट्रोल में है लेकिन उनके विरोध में  सक्रिय लोग भी जब भी सत्ता में रहे फौज की गुलामी ही करते रहे थे .नवाज़ शरीफ की पार्टी की कमान आजकल उनकी बेटी  मरियम संभाल रही हैं और भुट्टो परिवार की पार्टी की लगाम बेनजीर भुट्टो के   बेटे  बिलावल के हाथ में है . आज  पाकिस्तान की छवि बाकी दुनिया में एक असफल राष्ट्र की बन चुकी है . पाकिस्तान में लोकतंत्र तो खैर ख़त्म ही है लेकिन एक देश के रूप में उसका बचे रहना बहुत ज़रूरी है लेकिन  गैरजिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है.

अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे पाकिस्तान में आतंकवादियों का इतना दबदबा कैसे हुआ ,यह समझना कोई मुश्किल नहीं है . पाकिस्तान की आज़ादी के कई साल बाद तक वहां संविधान नहीं तैयार किया जा सका.  पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की बहुत जल्दी मौत हो गयी और सहारनपुर से गए और नए देश प्रधानमंत्री लियाक़त अली को क़त्ल कर दिया गया . उसके बाद वहां धार्मिक और फौजी लोगों की  ताकत बढ़ने लगी .नतीजा यह हुआ कि आगे चलकर जब  संविधान बना  भी तो फौज देश की राजनीतिक सत्ता पर कंट्रोल कर चुकी थी. उसके साथ साथ धार्मिक जमातों का प्रभाव बहुत तेज़ी से बढ़ रहा था. पाकिस्तान के इतिहास में एक मुकाम यह भी आया कि सरकार के मुखिया को  नए देश  को इस्लामी राज्य घोषित करना  पड़ा. पाकिस्तान में अब तक चार फौजी तानाशाह हुकूमत कर चुके हैं लेकिन पाकिस्तानी समाज और राज्य का सबसे बड़ा  नुक्सान जनरल जिया-उल-हक  ने किया . उन्होंने पाकिस्तान में फौज और धार्मिक अतिवादी गठजोड़ कायम किया जिसका  खामियाजा पाकिस्तानी  समाज और राजनीति आजतक झेल रहा है . पाकिस्तान में सक्रिय सबसे बड़ा आतंकवादी हाफ़िज़ सईद जनरल जिया की ही पैदावार है . हाफ़िज़ सईद तो मिस्र के काहिरा विश्वविद्यालय में  दीनियात ( धार्मिक शिक्षा )  का   मास्टर था . उसको वहां से लाकर जिया ने अपना धार्मिक सलाहकार नियुक्त किया . धार्मिक जमातों और फौज के बीच उसी ने सारी जुगलबंदी करवाई और आज आलम यह है कि दुनिया में कहीं भी आतंकवादी हमला हो ,शक की सुई सबसे पहले पाकिस्तान पर ही  जाती है . आज पकिस्तान  एक दहशतगर्द और असफल देश  है और आने वाले वक़्त में उसके अस्तित्व पर सवाल बार बार उठेगा. आजकल  हाफ़िज़ सईद किसी पाकिस्तानी जेल में बंद है . ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि एफ ए टी एफ का दबाव  है कि आतंकवादी फंडिंग पर कंट्रोल करो वरना काली सूची में डाल दिए जाओगे. इसी सख्ती से बचने के लिए हाफ़िज़ सईद को जेल में डाला गया  है . लेकिन उसको जेल में भी ऐशो आराम की सारी सुविधा मिल रही है . मसूद अजहर बाहर  है और  उसने भारत के जम्मू-कशमीर में आतंक फैलाने के लिए अपनी और आई एस आई की सारी ताकत झोंक रखी है .काश भारत ने मसूद अजहर को रिहा न किया होता .

26/11 को दोहराने की पाकिस्तानी कोशिश का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए देश के मुसलमानों को साथ लेना बहुत ज़रूरी है .



शेष नारायण सिंह 

 

 

 इस बात में कोई दो राय नहीं है कि   पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र है . उसकी सारी संस्थाएं तबाह हो चुकी हैं ,नीति निर्धारण का सारा काम फ़ौज की एक शाखा ,आई एस आई के हवाले कर दिया गया  है .आई एस आई  के पास  इतना फ़ौजी साजो-सामान नहीं है कि वह सैनिक तरीके से किसी देश को अर्दब में ले सके . उस कमी को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी डीप स्टेट ने धार्मिक  तरीकों के  सहारे पड़ोसी देश की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश शुरू कर दिया है . आई एस आई ने धर्म के नाम पर आतंक फ़ैलाने वालों के कई गिरोह बना रखे  हैं . उनमें से जैशे मुहम्मद और लश्करे तय्यबा प्रमुख हैं . यह दोनों ही संगठन संयुक्त राष्ट्र और स्वयं पाकिस्तान सहित कई  देशों की उस सूची में दर्ज  हैं जहां वैश्विक आतंकवादी  संगठनों का नाम  है . लेकिन इन्हीं संगठनों के सहारे वह भारत में अक्सर आतंकवादी हमले करता रहता है . जैश-ए-मुहम्मद  का सरगना मसूद अज़हर और लश्करे तय्यबा का करता धरता हाफ़िज़ सईद है .. जब पाकिस्तान मजबूरी वश इनके संगठनों को कागजी तौर पर प्रतिबंधित कर देता  है तो अपने आतंक के  तामझाम का ए  लोग कोई और नाम रख लेते हैं लेकिन धंधा वही चलता रहता है . आतंक के इसी सरंजाम के  अगुवा हाफ़िज़ सईद ने २६ नवम्बर २००८ को मुंबई के कई ठिकानों पर आत्मघाती हमले करवाए थे .उसी तारीख को हर साल कुछ न कुछ करने की पाकिस्तानी फौज की कोशिश को भारतीय सुरक्षा तंत्र अच्छी तरह जानता है . इस बार भी ऐसी कोशिश होने वाली थी . उसके लिए उसी तैयारी के साथ आत्मघाती दस्ता भेजा गया था लेकिन चौकन्ना सुरक्षा तंत्र ने उन आत्मघाती आतंकियों को नगरोटा में मार गिराया . हो सकता है कि इस तरह के और भी मोड्यूल कहीं और  हों लेकिन यह सच है कि  पाकिस्तान के फ़ौजी तंत्र को यह आभास देना  होता है कि वह भारत को अपने दबाव में रख रहा  है जिसके बाद उसके भारत में सक्रिय लोगों का मनोबल बढ़ा रहे .

पाकिस्तान के सत्ता  प्रतिष्ठान के पास ऐसे बहुत सारे  तरीके हैं जिससे वह भारत में अशांति का माहौल बनाने की कोशिश करता है . भारत के बेरोजगार अशिक्षित और गरीब मुसलमानों के लड़कों को धार्मिक रूप से खूंखार बनाने की कोशिश भी एक  तरीका है . देवबंद और उसके सहयोगी धार्मिक संगठन तबलीगी जमात के लोग ग्रामीण क्षेत्रों में मुसलमानों के घर जाकर उनको याद दिलाते हैं कि मुसलमानों ने ११९२ की तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को तलवार के बल पर  हराया था और मुस्लिम सत्ता कायम कर दी थी . १८५७ तक इस देश में मुसलमानों का  राज रहा . वे बताते  हैं कि जब करीब साढ़े छः सौ साल बाद १८५७ में अंग्रेजों ने दिल्ली के  मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को गिरफ्तार करके  म्यांमार में क़ैद कर लिया  तब इस देश से मुस्लिम शासन हटा . वे यह भी बताते हैं कि १९४७ में अंग्रेजों को सत्ता मुसलमानों को ही वापस देनी चाहिए थी क्योंकि उन्होंने जिससे सत्ता छीनी थी उसी को वापस करना चाहिए लेकिन उन्होंने मुसलमानों के संगठन मुस्लिम लीग और उनके नेता जिन्नाह को भारत का पूरा भूभाग न देकर केवल पाकिस्तान देकर  टरका दिया . ग्रामीण क्षेत्रों में घूम रहे यह कठमुल्ले उन लड़कों को बताते हैं कि उनके बुजुर्गों ने पूरे भारत को इस्लामी देश बनाने का जो काम अधूरा छोड़ दिया था ,उसको पूरा करने का ज़िम्मा अपने उन बेकार नौजवानों के कन्धों पर है . इस बार की अपने गाँव की यात्रा के दौरान उत्तर प्रदेश में लखनऊ के पूरब के  तीन चार जिलों में जाने का अवसर मिला . वहां एक अजीब परिवर्तन देखने को मिला .वहां हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो परंपरागत बोलचाल की संस्कृति थी ,वह विलुप्त हो रही है . यह  बात मामूली तौर पर गौर करने पर भी दिख जाती है ,. साफ़ देखा जा सकता  है कि  गाँवों में मुस्लिम आइडेंटिटी को रेखांकित करने के बारे में बड़ा अभियान चल  रहा  है . गरीब से गरीब मुसलमान के घर पर भी एक झंडा लगा हुआ है जिसको वे लोग इस्लामी झंडा कहते हैं .इस झंडे में अरबी में कुछ लिखा हुआ है . साटन के कपडे पर बने यह  झंडे खासे महंगे हैं . जिन मुस्लिम परिवारों से मैंने बात की उनको उन झंडों की कीमत के बारे में कोई पता नहीं है . कुछ परिवारों में तो रोटी पानी का इंतजाम करने के लिए खासी जद्दो जहद करनी पड़ती  है लेकिन महँगा झंडा उनकी झोपडी पर लगा  हुआ है . कुछ झोपड़ियों  पर तो एक से अधिक झंडे लगे  हैं .भरोसे में लेने पर उनसे यह पता लगता  है कि  जान पहचान के  किसी आदमी के कहने पर वह झंडा लगा   हुआ है ,वह झंडा वही दे गया था . जब थोडा कुरेद कर बातचीत की जाए तो परतें खुलना शुरू हो जाती हैं . उनके  गिले शिकवे अजीब हैं . एक ने तो कहा कि इस देश में हमारी ही हुकूमत थी . अंग्रेजों को धोखा देकर गांधी जी ने हमारी  हुकूमत को  हिन्दुओं को दिलवा दिया . हिन्दुओं ने हिन्दू गरीबों के लिए  नौकरी में आरक्षण कर दिया और मुसलमानों को गरीबी में झोंक दिया  .इन्हीं भावानाओं की बुनियाद पर बहुत बड़े पैमाने पर मुसलमानों के  बीच भारत की सरकार और भारतीय नेताओं के प्रति नफरत के भाव पैदा किये जा रहे हैं.

सरकार को और समाज को समझना चाहिए कि पाकिस्तानी आई एस आई और वहां का कठमुल्ला तंत्र इन्हीं निराश , फटेहाल और गरीब नौजवानों में अपने बन्दे फिट कर रहा होता  है . किसी भी सामाजिक संगठन या सरकारी संगठन के राडार पर असंतोष के इस अंडर करेंट को समझने की कोशिश होती नहीं दिख रही है . मुसलमान नौजवानों को भारत के खिलाफ करने का जो धार्मिक प्रोजेक्ट चल  रहा है उसमें  ही नए जेहादी तलाशे जा रहे हैं लेकिन सरकारें बिलकुल बेखबर हैं . लव जेहाद के नाम पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे आर एस एस के संगठन भी इस समस्या से अनजान दिखते हैं. सही बात यह  है कि अगर समाज के इस बड़े वर्ग की  चिंताओं को सरकारी तौर पर ध्यान दिया जाय तो भारत के सभी मुसलमानों को भारत के खिलाफ करने की पाकिस्तान की  कोशिश को रोका जा सकता है . अगर इस प्रवृत्ति को न रोका गया तो  पाकिस्तानी आई एस आई और उनके आतंक की खेती करने वाले गिरोहों के सरगना मसूद अज़हर और  हाफ़िज़ सईद जैसे लोगों को हिन्दुस्तान में वारदात करने के लिए पाकिस्तान से आतंकवादी भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. भारत में जिन वर्गों को वे भारत के खिलाफ भड़काने की कोशिश कर   रहे हैं ,वे ही भारत के खिलाफ खड़े हो जायेंगें . यह स्थिति कश्मीर में धीरे धीरे विकसित हुयी  है . जिन कश्मीरियों ने भारत में विलय को   कश्मीर की आजादी  माना था ,उन्हीं कश्मीरियों की तीसरी पीढी के लोग आज भारत से अलग होने की बात कर रहे हैं.  भारत के कश्मीरी नौजवान आज पाकिस्तानी आतंकियों मसूद अज़हर और हाफ़िज़ सईद के संगठनों के कमांडर बन  रहे हैं . इसलिए सरकार को  चाहिए कि उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में भारतीय राष्ट्र और समाज से अलग थलग पड़े रहे मुस्लिम  परिवारों की समस्याओं को समझें और पाकिस्तानी आतंकवादियों के मंसूबों को नाकाम करें .क्योंकि एक देश के रूप में 26/11 के गुनाहगार को हमें कभी नहीं  भूलना चाहिए 

पत्रकारिता: अधिकार और कर्तव्य के सवाल से नज़र हटेगी तो दुर्घटना हो जाएगी

 


 

शेष नारायण सिंह

 

 

एक बड़े टीवी चैनल के मालिक और मुख्य संपादक अरनब  गोस्वामी जेल से  बाहर आ गए . उनको किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था . अपने नए स्टूडियो को बनवाने के लिए उन्होंने किसी कंपनी को ठेका दिया था .  आरोप है कि उसका भुगतान नहीं कर रहे थे . उस व्यक्ति और उसकी मां ने आत्महत्या कर ली . मरने के पहले उन्होंने के सुसाइड नोट लिखा जिसमें  अरनब सहित तीन लोगों का नाम लिखा और यह लिखा कि इन लोगों ने उसका पैसा नहीं दिया था  इसलिए वह परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हैं . मौक़ा ए वारदात से पुलिस को  सुसाइड नोट मिला और केस दर्ज कर लिया गया .  लेकिन कुछ दिन बाद ही केस में रायगढ़ पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट लगा दिया और क्लोज़र के लिए दरखास्त दे दी . केस बंद हो गया . जिस  व्यक्ति ने आत्महत्या की थी उसकी पत्नी और बेटी कोशिश करते रहे लेकिन केस खुला नहीं . उनका आरोप है कि राज्य के तत्कालीन  मुख्यमंत्री के आदेश से केस बंद किया गया था . उन्होंने बार बार केस की दोबारा जांच की अर्जी दी लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. पिछले कुछ महीनों से अरनब गोस्वामी के चैनल पर महाराष्ट्र सरकार के मौजूदा मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के अधिकारियों के खिलाफ चुनौती  भरे समाचार प्रसारित किये जा रहे हैं . अरनब के  शुभचिंतकों का कहना है कि उनके चैनल के आचरण से सरकार नाराज़ हो गयी और उनके किलाफ़ कई मामलों में  मुक़दमे दर्ज कर लिए और एक पुराने केस पर नए सिरे से जांच के आदेश दे दिए . और गिरफ्तार कर लिया . हाई कोर्ट से ज़मानत नहीं मिली .मामला  सुप्रीम कोर्ट गया . सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि अरनब गोस्वामी को रिहा किया जाए .  भारतीय दंड संहिता की दफा 306 में की गयी उनकी गिरफ्तारी ऐसी नहीं है कि उनको ज़मानत न दी जा सके . उनको ज़मानत देकर भी आपराधिक मामले की  जांच  की जा सकती है . कोर्ट ने कहा कि कोर्ट इस बात से नाराज़ हैं कि संवैधानिक अदालतें लोगों की निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने में अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही हैं . संविधान के अनुच्छेद 21 में व्यवस्था है  कि, किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। . संविधान के इसी प्रावधान के हवाले से माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अरनब गोस्वामी की रिहाई का आदेश दिया है . शुरू में उनके वकीलों और उनके समर्थक राजनीतिक पार्टियों ने प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार का ज़िक्र भी किया लेकिन जब यह बार बार साफ़ हो गया कि अरनब गोस्वामी की गिरफ्तारी पत्रकारिता के  किसी कार्य के कारण  नहीं की गयी थी तो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ( a  ) का हवाला देना बंद किया गया .भारत के  संविधान के मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . लेकिन इस आज़ादी का दुरुपयोग संविधान लागू होने के साथ साथ  शुरू हो गया . कुछ अखबारों ने दंगों के दौरान माहौल को  बिगाड़ना शुरू कर दिया . जब उनसे अधिकारियों ने जवाब  तलब किया तो उन्होंने कह दिया कि उनको  संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत कुछ भी बोलने या लिखने की आज़ादी है .  यह वह दौर है जबकि संविधान सभा के बहुत सारे सदस्य जीवित थे . उनको चिंता हुयी और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ही संविधान में संशोधन का प्रस्ताव रखा और संविधान लागू होने के कुछ महीने बाद ही संविधान में पहला संशोधन कर  दिया गया . उसी संशोधन के बाद अनुच्छेद  19 ( 1) और अनुच्छेद 19 ( 2   ) अस्तित्व में आये .   प्रेस या मीडिया की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्यूट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  अनुच्छेद (19 ) में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि पत्रकार को कुछ भी करके उसको पत्रकारिता बता देना अभिव्यक्ति की आज़ादी के संविधानिक अधिकारों की गारंटी से  बाहर है. किसी भी पत्रकार को व्यापार आदि में पत्रकारिता का कवर लेने की कोशिश नहीं करनी चाहिए या किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति पक्षपात का काम  नहीं करना चाहिए . संविधान में दी गयी किसी की निजी  आज़ादी के परखचे नहीं उड़ाने  चाहिए लेकिन अरनब गोस्वामी ने यह काम धड़ल्ले से  किया.  अपने चैनल पर किसी की गिरफ्तारी तो किसी की जयजयकार का सिलसिला शुरू कर दिया था . एक ख़ास राजनीतिक पार्टी को अपना आका बना लिया और उसके हर  गलत सही काम के समर्थन का अभियान चलाते थे . फिल्म अभिनेता  सुशांत सिंह की मौत के मामले में उन्होंने जिस तरह से अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी की मांग की वह  किसी भी तरह से पत्रकारिता  नहीं थी . रिया चक्रवर्ती और उसके परिवार वालों कुछ  चैनलों ने सूली पर चढाने का पूरा बंदोबस्त कर रखा था . इस काम में अरनब गोस्वामी सबसे आगे थे . रिया और उसके परिवार को भी तो देश के संविधान के अनुच्छेद 21 में वही अधिकार प्राप्त  है जिसको आधार बनाकर अरनब  को जेल से रिहा करने का आदेश दिया गया है . आज रिया चक्रवर्ती ज़मानत पर रिहा हो चुकी हैं लेकिन अरनब  गोस्वामी सहित कुछ पत्रकारों ने जिस तरह से उसके खिलाफ अभियान चलाया था उसके चलते देश का एक बड़ा वर्ग उसको अपराधी मानता  है . अरनब गोस्वामी ने रिया को बिना  जांच हुए ही दोषी सिद्ध कर दिया था .  ताजीरात हिन्द की दफा 306 में वर्णित आत्महत्या के लिए उकसाने के जिस मामले में वे जेल गए थे ,रिया पर उसी तरह का मामला बनाकर उन्होंने हफ़्तों उसकी गिरफ्तारी का अभियान  चलाया था  उम्मीद की जानी चाहिए कि अपनी रिहाई के बाद अरनब गोस्वामी और उनका चैनल ज़िम्मेदार पत्रकारिता करेंगें और उनके कारण कोई भी  निर्दोष व्यक्ति को सूली पर नहीं चढ़ाया जाएगा.

यह भी उम्मीद की जानी  चाहिए कि अब अरनब गोस्वामी  चारण पत्रकारिता या कंगारू कोर्ट  टाइप पत्रकारिता नहीं करेंगे और अपने  पेशे के प्रति ईमानदार रहेंगें . पत्रकारिता के क्षेत्र में  हमारे पूर्वजों ने जो मानदंड स्थापित किये हैं उनका सम्मान करेंगें क्योंकि उनकी  गिरफ्तारी के बाद उनकी संरक्षक पार्टी के वफादार कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी    पत्रकार उनके समर्थन में नहीं आया .मैं अरनब को पिछले 23 साल से जानता हूं उनकी गिरफ्तारी के बाद मैंने फेसबुक पर लिख दिया कि ,” अरनब गोस्वामी और हम एन डी टी वी की नौकरी के दौरान एक ही न्यूज़रूम में काम करते थे। हमारे अच्छे संबंध थे । जब वे टाइम्स नाउ शुरू करने गए तो हम भी एन डी टी वी से अलग हो गए थे। टाइम्स नाउ में अरनब ने मुझे एक पैनलिस्ट के रूप में सम्मान दिया और 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान मुझे अपने विश्वस्तरीय पैनल का हिस्सा बनाया। अरनब से मेरा परिचय 23 साल का है। अभी टीवी पर उनकी गिरफ्तारी की क्लिप देखी। बताया जा रहा है कि उनके ऊपर महाराष्ट्र में कोई पुलिस केस है जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी की गई। अगर अरनब के खिलाफ कोई केस है तो उनके साथ मारपीट किए बिना भी कानूनी कार्रवाई की जा सकती थी। अरनब के साथ हुए अमानवीय व्यवहार से मुझे बहुत तकलीफ हुई है।“ इसमें मैंने कहीं  नहीं कहा कि मैं उनकी पत्रकारिता का समर्थन करता हूं . मैंने तो केवल निजी संबंधों का उल्लेख भर किया था लेकिन उनके खिलाफ देश के प्रबुद्ध वर्ग में इतनी नाराजगी है कि  देश के बहुत सारे आदरणीय पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने  मुझे फोन करके सलाह दी कि आपको अरनब का समर्थन नहीं करना चाहिए . इसका मतलब यह है कि पत्रकार के काम की भी सीमाएं तय हैं . वे सीमाएं हमारे आदर्श बुजुर्गों ने  ही हमारे सम्मान के लिए तय कर रखी  हैं . उन सीमाओं के अंदर  रहकर हमें अपना काम  करना चाहिए ,किसी का ढिंढोरची बनकर  नहीं  .

नरेंद्र मोदी की बहुआयामी शख्सियत भाजपा की सफलता में बड़ी वजह बनी


शेष नारायण सिंह

 

बिहार विधानसभा चुनाव  एक ऐसा चुनाव है जिसने बहुत कुछ बदलकर रख दिया  . विश्वविख्यात अमरीकी अखबार वाल स्ट्रीट जर्नल ने  लिखा है कि कोरोना की बीमारी का आतंक  पूरी दुनिया की तरह अमरीका  में भी है . कोरोना का कुप्रबंध अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को ले डूबा लेकिन भारत के बिहार राज्य के  विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के चलते उनकी पार्टी को सफलता मिली है . ‘  तेलंगाना जैसे राज्य में जहां बीजेपी का कोई मज़बूत जनाधार नहीं है ,वहां भी पार्टी को उपचुनावों में सफलता मिली है . कोरोना की परेशानी भी  नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सामने कमज़ोर पड़ गयी और उनकी पार्टी को उन राज्यों में भी सफलता मिली जहां उनकी पार्टी मज़बूत नहीं थी .  मध्य प्रदेश में 28 सीटों के लिए हुए उपचुनाव भी राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण थे .  जिसन सीटों पर चुनाव हुए वे सभी सीटें परम्परागत रूप से कांग्रेस के प्रभाव वाली सीटें थीं . पिछले विधानसभा चुनावों में उन सीटों से जीते कांग्रेस उम्मीदवारों ने पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था. उनमें से  आठ सीटों को छोड़ कर  बाकी सभी पर  बीजेपी के उमीदवार चुनाव जीत  गए.  विधानसभा के आमचुनाव में मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में चल रही  बीजेपी की सरकार को कांग्रेस ने बेदखल कर दिया था . लेकिन दो साल से भी कम समय के अन्दर वहां फिर से बीजेपी की सरकार को स्थिरता मिल गयी . तो अब नरेंद्र मोदी की शख्सियत में बहुत सारे काग्रेस नेताओं को भी अपना भविष्य दिखने लगा  है . शायद इसीलिये कांग्रेस के कद्दावर नेता और कांग्रेस के प्रथम परिवार के बेहद करीबी ,राहुल गांधी के बचपन के दोस्त ,ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस से इस्तीफा देकर बीजेपी में प्राथमिक सदस्य के रूप में शामिल हो  गए हैं .उनके  साथ कांग्रेस छोड़ने वालों को  भी बीजेपी ने स्वीकार कर लिया है .गुजरात में  हुए विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी के सभी उम्मीदवार जीत गए हैं .  जिन सीटों पर बीजेपी ने चुनाव जीता है ,वे सभी कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे . उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों में भी एक को छोड़कर बीजेपी ने सभी चुनावों में जीत  दर्ज की है .

 नरेंद्र मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के  बाद गरीबों के लिए ऐसी बहुत सारी योजनाओं  को लागू किया था जिनका स्थाई भाव  अन्त्योदय  था. महात्मा गांधी  ने बहुत पहले कह दिया था कि सरकार को कोई भी निर्णय समाज के सबसे कमज़ोर आदमी को राहत देने के लेना चाहिए . पूंजीवादी तरीके से देश के औद्योगिक विकास में यह एक बाधा  मानी जाती थी . जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ मनमोहन  सिंह तक की सरकारों ने यह माना के देश में बड़े  उद्योगों को विकास हो जाएगा और औद्योगीकरण हो  जाएगा तो समाज का सबसे गरीब आदमी भी लाभान्वित होगा . उद्योगपतियों और उनके शुभचिंतकों का दबाव भी यही संकेत देता था . उद्योगपतियों के लाभ के लिए लॉबी करने वाले  संगठन भी ऐसा ही दबाव बनाते थे .  राजनीति और नौकरशाही में  उनके प्रभाव के चलते उनके हित की नीतियाँ बन जाती थीं . इस तरह के लोग 2014 के बाद भी सक्रिय थे . नरेंद्र मोदी ने उनकी बातें सुनीं और उनकी बात पर भरोसा भी किया कि उद्योग व्यापार की सफलता के बाद समाज के सबसे गरीब आदमी को लाभ मिलेगा . उस दिशा में निर्णय भी लिए गए लेकिन उन्होंने अपनी नज़र गांधी जी के अन्त्योदय वाले सिद्धांत पर रखी. उन्होंने देश में आर्थिक खुशहाली के लिए  बहुत सारे फैसले किये जिसका  नतीजा है कि आज दुनिया भर की  बड़ी कंपनियों ने चीन से हटाकर अपने कारखाने भारत में लगाने का काम शुरू कर दिया है . देश में नए तरीके से औद्योगिक विकास की इबारत लिखी जा रही है .

इसके साथ ही पचास साल की उम्र तक भयानक गरीबी और अभाव की ज़िंदगी जीने वाले नरेंद्र मोदी ने बहुत सारी ऐसी योजनायें  चलाईं जिससे  समाज के सबसे गरीब इंसान को तुरंत राहत मिले . देश के  औद्योगिक विकास से जो सम्पन्नता आयेगी वह तो बाद में आयेगी लेकिन गरीब को रहने खाने के लिए बुनियादी चीज़ों की ज़रूरत का इंतज़ाम तुरंत करना उनकी  प्राथमिकता थी . उसी सोच का नतीजा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में समाज के सबसे गरीब लोगों के लिए ऐसी योजनायें लागू करना शुरू कर दिया . उसी सोच का नतीजा है कि उज्ज्वलाघर घर  बिजली ,गरीबों के लिए घर ग्रामीण परिवारों के लिए शौचालय किसानों के बैंक खातों में डीबीटी के माध्यम से नक़द  रूपये , छोटे कारोबारियों के लिए आसान ऋण, मुफ्त इलाज जैसे बहुत सारे सरकारी कार्यक्रम लागू किये गए . उत्तर भारत के गाँवों में जब इस रिपोर्टर ने यह सारी सुविधाओं से संतुष्ट जनता को देखा तो 2019 के  लोकसभा चुनावों के पहले ही लिख दिया था इन योजनाओं का लाभ प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी को चुनावी अभियान में मिलेगा .

गरीबों के लिए चलाई गयी इन योजनाओं के कारण प्रधानमंत्री की छवि एक ऐसे राजनेता की बन  गयी  है कि वे गरीब के हित में हमेशा खड़े रहते हैं . इसके अलावा देश की सुरक्षा  के लिए उनकी चिंताएं  और चीन को उसकी औकात में लाने के लिए उनकी कोशिशें आज भारत समेत पूरी दुनिया में चर्चा का विषय  है . बिहार चुनाव में उसका भी उनके गठबंधन को फायदा हुआ. बिहार चुनाव में एक दिलचस्प बात देखने को मिली . एन डी ए गठबंधन में शामिल चारों पार्टियों के नेता , अपने मुख्यमंत्री के काम की तारीफ़ करते कहीं नहीं दिखे . वे भी नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगते नज़र आये .  दूर दराज़ के गावों में  गैस के चूल्हे. किसानों के बैंक खातों में पंहुच रहे रूपये, गावों में  शौचालय आदि ऐसी बातें होती थी जो विपक्ष के ज़बानी वायदों पर भारी पडीं .आतंकवाद से मुकाबला और पाकिस्तान को औकात दिखाना भी प्रधानमंत्री की छवि को अजेय बनाते हैं .  दस लाख नौकरियाँ देने की बात करके  राष्ट्रीय जनता दल के  अध्यक्ष तेजस्वी यादव ने नौजवानों को लुभाने की कोशिश की लेकिन ज़मीन पर  पंहुच चुके गरीबों और महिलाओं के लिए किये नरेंद्र मोदी के काम ने उनको बेअसर कर दिया .बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं ने बीजेपी उम्मीदवारों को  वोट दिया .बारह सभाएं  करके बिहार चुनाव का नरेंद्र मोदी ने एजेंडा सेट कर दिया . चुनाव प्रधामंत्री के नाम पर केन्द्रित हो गया . सबको मालूम है कि जब चुनाव प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व पर केन्द्रित हो जाता है तो उनको मात देना किसी के लिए असंभव हो जाता है . 2001 में हुए  गुजरात में हुए विधानसभा की एक सीट के लिए उनके अपने उपचुनाव से आजतक यह देखा गया है . वही  बिहार में हुआ . नतीजा सामने है . जो नीतीश कुमार 2010  के बिहार विधानसभा चुनाव में उनको अपने राज्य में प्रचार नहीं करने देना चाहते थे हालांकि वे नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनवाने के लिए अपनी पार्टी , बीजेपी का चुनाव प्रचार करने जाना चाहते थे. जिन  नीतीश कुमार ने उनको खाने की दावत देकर कैंसिल कर दिया था , आज वही  नीतीश कुमार उनके नाम पर चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बन रहे हैं . यह अलग बात है कि बीजेपी को  नीतीश कुमार के पार्टी बीजेपी से बहुत ज़्यादा सीटें मिली हैं लेकिन नरेंद्र मोदी ने उनको वचन दिया है और वह वचन उनकी  पार्टी पूरी तरह से निभाएगी .

2016 में  प्रकाशित , पत्रकार धर्मेन्द्र कुमार सिंह की किताब, “  ब्रांड मोदी का तिलिस्म “ के प्राक्कथन में राजनीति शास्त्र के विद्वान ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष  वार्ष्णेय लिखते  हैं कि ,” आखिर मोदी के पक्ष में  पिछड़ी जातियों दलित और आदिवासियों में इस क़दर आकर्षण क्यों पैदा हुआ ? “ 2014 में नरेंद्र मोदी की भारी सफलता के बाद इस तरह के सवाल हवा में  थे लेकिन अब  तय हो गया है कि नरेंद्र मोदी आज इन जातियों सहित अन्य गरीबों में भी यह विश्वास  जता चुके हैं कि वे ही इनके सबसे बड़े शुभचिंतक हैं .उसी किताब में राजनीति विज्ञानी क्रिस्टाफ जैफरले लिखते हैं कि.” इतिहास रचने वाली शख्सियतें अमूमन अपने दौर की उपज होती हैं .वे  कमोबेश समाज की दबी –छुपी आकांक्षाओं की अभियक्ति होती हैं . बेशक नरेंद्र मोदी की बहुआयामी शख्सियत भाजपा की (2014 में ) सफलता में बड़ी  वजह बनी .”  यह दोनों ही  विद्वान आमतौर पर नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं लिखते लेकिन इनकी यह बात यह सिद्ध करती है कि  नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की चुनाव जीतने की शक्ति का उनके विरोधी भी सम्मान करते हैं . और उनके साथी उसका लाभ उठाते हैं .यही कारण है कि बिहार के विधानसभा चुनाव में विपरीत परिस्थियों के बावजूद आज  नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन  रहे हैं , शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश में अपनी गद्दी बचाने में सफल  रहे और तेलंगाना में बीजेपी को उम्मीद की किरण नज़र आ रही है.