Wednesday, October 21, 2020

चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम तेजस्वी यादव होगा या अगड़ा बनाम पिछड़ा


शेष नारायण सिंह

 

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अभियान ज़ोरों पर है . तरह तरह की  संभावनाओं पर बात की जा रही है लेकिन तस्वीर धुंधली है. हालाँकि कुछ बातें बिलकुल साफ़ हैं. एक तो यह कि सत्ताधारी गठबन्धन ,एन डी ए का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जा रहा है . एन डी ए के एक सहयोगी दल , लोकजनशक्ति पार्टी का  एजेंडा ही नीतीश कुमार को सत्ता से बाहर करना है.  वह बीजेपी के समर्थन में है और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के खिलाफ है . बिहार में मौजूद ज़्यादातर राजनीतिक लोग मानते हैं कि चिराग पासवान को बीजेपी का आशीर्वाद प्राप्त है . उनकी सभाओं में नरेंद्र मोदी जिंदाबाद के  नारे लग रहे  हैं. उन्होंने अधिकतर उन्हीं सीटों से अपने   उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है जो नीतीश कुमार की पार्टी जे डी ( यू ) के हिस्से में आई हैं . उनके उम्मीदवारों की लिस्ट में भी बीजेपी छोडकर आये लोगों की बहुतायत है . इन उम्मीदवारों के  कार्यकर्ताओं से बात करके पता चलता है कि उनकी नाराजगी  केंद्रीय नेतृत्व से नहीं है . वे मुकामी बीजेपी नेताओंसुशील मोदी मंगल पाण्डेय राधा मोहन सिंह आदि से नाराज़ हैं. और चिराग पासवान के साथ हैं. चिराग पासवान के लोग  बीजेपी के  हिस्से वाली सीटों पर खुले आम बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि बिहार में इस चुनाव के बाद जे डी यू को बीजेपी से छोटी पार्टी की  भूमिका निभाने के लिए बाध्य होना पडेगा . नीतीश कुमार को मालूम है कि इस बार राज्य में उनसे नाराज़गी बहुत ज्यादा है लेकिन उन्होंने बीजेपी आलाकमान को समझाने में सफलता पा ली है कि नाम  के लिए ही सही उनकी पार्टी को बंटवारे में ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए . नतीजतन बीजेपी ने उनको अपने से एक सीट ज़्यादा दे दिया .इसके बावजूद भी चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ जो स्थिति बन रही है उसमें साफ़ समझ में आ रहा है कि बिहार का चुनाव बीजेपी बनाम  आर जे डी हो चुका है . कांग्रेस ,जे डी यू चिराग पासवान की पार्टी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी उपेन्द्र  कुशवाहा की पार्टीजीतनराम मांझी की पार्टी इन्हीं दो पार्टियों में किसी न किसी को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे रहे हैं .

बिहार में २०१५ के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जोर आजमाया था. उन दिनों भी चर्चा थी कि ओवैसी साहब चुनाव मैदान में बीजीपी की मदद करने के उद्देश्य से आये  हैं. बीजेपी में उनके  शुभचिंतकों ने उनको 36 सीटों से चुनाव लडवाना चाहा था लेकिन वे उतने  उम्मीदवार नहीं जुटा पाए . करीब छः सीटों पर ही चुनाव लड़ पाए .  2015 के बाद कई चुनावों में ओवैसी की पार्टी ने बीजेपी को परोक्ष रूप से मदद पंहुचाया है . उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में उनकी भूमिका का ख़ास तौर से ज़िक्र किया जा सकता है . इस बार उन्होंने बिहार में कोइरी  जाति के बड़े नेता उपेन्द्र कुशवाहा के साथ गठबंधन कर लिया है .उपेन्द्र कुशवाहा २०१८ तक नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री थे२०१४ में उनको एन डी ए में शामिल किया गया था और लोकसभा की तीन सीटें मिली थीं. तीनों जीत  गए थे और दावा किया था कि उनकी बिरादरी के सभी वोट उनके कारण ही एन डी ए उम्मीदवारों को मिले थे .अपने इस आत्मविश्वास के कारण ही   २०१९ के लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने यह आरोप लगाकर कि मोदी सरकार सामाजिक न्याय की शक्तियों को कम महत्व दे रही है एन डी ए से अपने को अलग कर लिया था . २०१९ में उनको एक भी सीट नहीं मिली . अभी कुछ दिन पहले तक उपेन्द्र  कुशवाहा तेजस्वी यादव के साथ थे लेकिन वहां से अलग हो गए . चर्चा तो यह भी थी कि वे वापस एन डी  ए में जाना चाहते हैं लेकिन बात नहीं बनी. अनुमान के मुताबिक उनकी जाति के मतदाताओं की संख्या बिहार में करीब आठ  प्रतिशत है . २०१९ के चुनावों के पहले माना जाता था कि अपनी जाति के वोटरों पर उनका खासा प्रभाव है लेकिन तेजस्वी यादव का मानना है कि ऐसा कुछ नहीं है. शायद इसीलिए तेजस्वी यादव  ने उनको अपने गठबंधन से बाहर जाने के लिए प्रेरित किया .  वे महागठबंधन में बड़ी संख्या में सीटों की मांग कर रहे थे . आर जे डी का  मानना है की उपेन्द्र कुशवाहा को ज़्यादा सीटें देने के कोई फायदा नहीं है क्योंकि वे अपनी जाति के वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाते . अब वे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं .

 

बिहार चुनाव में राजनीतिक बारीकियों की परतें इतनी ज्यादा हैं कि किसी के लिए साफ़ भविष्यवाणी कर पाना असंभव है . कुछ चुनाव पूर्व सर्वे आये  हैं जो अपने हिसाब से सीटों की संख्या आदि बता रही हैं लेकिन टीवी चैनलों द्वारा कराये  गए सर्वेक्षणों की विश्वनीयता बहुत कम हो गयी है इसलिए उनके आधार पर कुछ भी कह पाना ठीक नहीं होगा  . देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग मानता है कि यह चुनाव पूर्व सर्वे पार्टियों के प्रचार का साधन मात्र होते हैं ,उनका चुनाव की गहाराई से कोई मतलब नहीं होता .कुछ आंकडे साफ़ संकेत देते हैं . एक सर्वे के मुताबिक करीब 84 प्रतिशत मतदाता नीतीश कुमार की सरकार से नाराज़ हैं .इनमे से करीब 54 चाहते  हैं कि इस बार नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए करीब 30 प्रतिशत नाराज़ होने के बावजूद नीतीश कुमार को हटाने की बात नहीं कर रहे  हैं , नीतीश कुमार से केवल 15 प्रतिशत मतदाता  संतुष्ट हैं . यह आंकड़ा बिहार चुनाव की मौजूदा  समझ को एक दिशा देता है .चिराग पासवान की पार्टी के रुख को इस आंकड़े की  रोशनी में समझने से बात  आसान हो जायगी . माना यह जा रहा है कि 84 प्रतिशत नाराज़ लोगों में ज़्यादातर बीजेपी , चिराग पासवान की एल जे पी के अधिकतर मतदाता हैं . मुख्यमंत्री के इतने बड़े विरोध के बाद तो तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले गठबंधन को अवसर का लाभ ले लेना चाहिए था लेकिन उस गठबन्धन में भी तस्वीर कतई साफ़ नहीं है . 2015 में आर जे  डी की सफलता में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व का बड़ा योगदान था. लोगों को साथ लेकर चलने की लालू प्रसाद की योग्यता उनके बेटे में नहीं है .महागठबंधन की दूसरी पार्टी कांग्रेस है . कांग्रेस में भी नेतृत्व को लेकर जो विवाद है उसके कारण चारों तरफ दुविधा का माहौल है . मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी , उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी पहले ही गठबंधन छोड़ चुके हैं . उनके वोटों में पप्पू यादव की पार्टी भी कुछ वोट ले  जायेगी . ऐसी हालत में बातें जलेबी की तरह घुमावदार ही बनी हुयी हैं . बीजेपी के प्रति सहानुभूति रखने वाले  सर्वे में भी जनता ने जिन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण बताया है , वे मुद्दे  वास्तव में  सच हैं लेकिन महागठबंधन के नेता उन मुद्दों पर जनता को लामबंद करने में सफल  नहीं  हो पा  रहे हैं . बेरोजगारी जनता के मन में सबसे भारी मुद्दा है .करीब पचास प्रतिशत मतदाता नौकरियों को सबसे बड़ा मुद्दा बताते हैं . लॉकडाउन के दौरान देश के बड़े नगरों से भागकर आये मजदूरों की दुर्दशा भी बड़ा मुद्दा है . बिहार सरकार ने कोविड की महामारी को जिस तरह से सम्भाला था उसकी भी खूब आलोचना हुयी थी . बिहार में बाढ़ तो हर साल आती है .  लेकिन  नीतीश कुमार के वर्तमान कार्यकाल में बाढ़ के प्रति उनके रवैये की  चौतरफा आलोचना हुई थी .पटना शहर जिस तरह से बाढ़ के पानी से  परेशान हुआ था , वह सब कुछ लोगों के दिमाग में ताज़ा है लेकिन  महागठबंधन की पार्टियां इन ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को घेरने में अब तक नाकामयाब रही हैं .

एन डी ए को भी यह सच्चाई पता है इसलिए वे लोग चुनाव अभियान में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के नाम को ही आगे रख रहे हैं . उनको विश्वास है कि नरेंद्र मोदी का नाम ही नैया पार लगायेगा. अप्रैल में एक सर्वे हुआ था जिसमें बताया गया था कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 70 प्रतिशत थी . ताज़ा सर्वे में यह 44 प्रतिशत बताई जा रही है लेकिन विपक्ष इस गिरते ग्राफ पर फोकस नहीं कर पा रहा है .नीतीश कुमार ने चिराग पासवान को गंभीरता से लेने से साफ़ मना कर दिया था लेकिन इस बीच उनके पिता राम विलास पासवान की मृत्यु के कारण उनके पक्ष में सहानुभूति का माहौल भी है . बिहार की राजनीति में कोई भी पार्टी  या गठबंधन 45 से ज़्यादा वोट नहीं पाता.

1952  से लेकर अब तक रिकार्ड देखने से एक बात साफ़ समझ में आ जाती है.  201 0 के चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार की आंधी थी . 243 में से 206 सीटें उनके गठबंधन को मिली थीं. उसी  आत्मविश्वास के चलते उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर  नामित करने के बीजेपी के फैसले को चुनौती दी थी लेकिन उस चुनाव में भी  बीजेपी के साथ हुए उनके गठबंधन को केवल 39 प्रतिशत वोट ही मिले थे . 2015 में नीतीश कुमार ,लालू प्रसाद यादव  और कांग्रेस एक साथ थे . उस बार  महागठबंधन को 44 प्रतिशत वोट मिले  थे. इस बार कई सर्वे एन डी ए को ज्यादा प्रतिशत वोट बता रहे  हैं . अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष की एकदम से धुलाई हो जायेगी लेकिन बिहार में  हमेशा एक और एक मिलाकर दो ही नहीं होते , कई बार जोड़ बदल भी जाता है.

एक बात तय है कि बिहार के चुनाव में विपक्ष में लालू यादव के जेल में होने के कारण उन जैसा कोई मज़बूत नेता नहीं है और नीतीश कुमार अपनी सरकार की असफलताओं के चलते रक्षात्मक मुद्रा में हैं .उनको नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सहारा है . महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव हैं .  चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम तेजस्वी यादव हो सकता है . अगर ऐसा हुआ तो सबको मालूम है कि नतीजा नरेंद्र मोदी के पक्ष में जायेगा लेकिन अगर चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा हो गया तो एन डी ए में शामिल कई बड़े पिछड़े नेताओं की मौजूदगी के बावजूद भी  एन डी ए को  अगड़ों के प्रभुत्व वाली पार्टी ही  माना जाता है ,उस स्थिति में नीतीश कुमार की सरकार बनने की संभावना के  लिए खासी मुश्किल पेश आ सकती है

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