Friday, October 2, 2020

‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे

शेष नारायण सिंह
नरसी मेहता गुजरात के शिखर संत कवि हैं . पंद्रहवीं शताब्दी में उन्होंने गुजरात के लोगों का दुःख दर्द साझा किया था . उनका एक भजन महात्मा गांधी को बहुत प्रिय था। यह भजन महात्माजी की दैनिक प्रार्थना का एक हिस्सा हुआ करता था. भजन गुजराती में है लेकिन मुझे लगता है कि इसे पूरे भारत में इतनी बार लोगों ने पढ़ा और गाया है कि यह भाषा की सीमा पार कर गया है .. इसका शुरू का छंद ही इंसान को जीने की एक निश्चित दिशा दे सकता है . भजन का पहला पद है :
‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।’
‘पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे॥
‘सकल लोक मां सहुने वन्दे, निंदा न करे केनी रे।’
‘वाच काछ मन निश्छल राखे, धन धन जननी तेनी रे॥
नरसी मेहता कहते हैं कि असली वैष्णव जन वही है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो ,उसकी तकलीफ को का करने के लिए उपाय करे ,उसपर उपकार करे लेकिन शर्त यह है कि अपने मन में भी कोई अभिमान ना आने दे. सच्चा वैष्णव सभी का सम्मान करता है और किसी की निंदा नहीं करता .वह अपनी बोली,करम और मन में कोई छल नहीं रखता . ऐसे व्यक्ति की मां उसको जन्म देकर धन्य हो जाती है . इसके अर्थ में वैष्णव जन की जगह अगर भला आदमी लिख दिया जाय तो हम जैसे लोगों के लिए यह बहुत ही उपयोगी हो जाता है . महात्मा गांधी की जन्मशती के दौरान सन 1969 में मेरे कालेज में बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया था. साल भर चले आयोजन में कई गांधीवादी विद्वानों के दर्शन हुए ,उनके सत्संग का लाभ भी मिला. मैंने देखा कि उस कालेज में दो शिक्षक ऐसे थे जो वास्तव में नरसी मेहता के इस भजन को अपने जीवन में उतारे हुए थे. सैन्य विज्ञान के अध्यक्ष , प्रो, एस सी श्रीवास्तव और दर्शनशास्त्र के प्रो. अरुण कुमार सिंह किसी पर उपकार करते थे तो उसक ज़िक्र तक नहीं करते थे . बी ए के छात्र के रूप में मैंने इन संत पुरुषों को करीब से देखा . तब से ही कोशिश शुरू कर दी कि इनकी सोच को जीवन में उतारना है. आज पचास साल बाद अपने आप को देखता हूँ तो लगता है कि इनकी जीवनशैली को पूरा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक जीवन में उतारने में सफल रहा हूं.
शायद इसीलिये मैं उन लोगों को बिलकुल नहीं पसंद करता जो किसी के ऊपर ज़रा सा उपकार करने के बाद पूरी दुनिया में उसका प्रचार करते हैं. महात्मा गांधी और संत नरसी मेहता का कौल है कि भले आदमी को दूसरे की तकलीफ को जान लेना चाहिए , उसकी मदद करनी चाहिए लेकिन अपने मन भी भी अभिमान नहीं आने देना चाहिए . यह कठिन काम है लेकिन कोशिश करने से आंशिक सफलता की गारंटी है . अगर पूरी सफलता नहीं मिलती तो भी कोशिश करने का जो सुख है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता . हर बात में मैं मैं करते रहने वालों को महात्मा गांधी भला आदमी की श्रेणी में नहीं रखते थे

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