Wednesday, October 21, 2020

पाकिस्तान में गृहयुद्ध के हालात बन रहे हैं


 

शेष नारायण सिंह

 

पाकिस्तान की हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं . लगने लगा है कि वहां गृह युद्ध  जैसी स्थिति पैदा होने वाली है .18 अक्टूबर के दिन  सेना ने कराची पुलिस के आई जी, मुश्ताक महार  को अगवा करके जिस तरह से परेशान किया उसके बाद तो ऐसा लगा कि सेना और  पुलिस आमने सामने आ गए हैं .कराची पुलिस ने आरोप लगाया कि  पाकिस्तानी फौज के अफसरों ने उनके आई जी को गिरफ्तार किया और पता नहीं कहाँ ले गए . बाद में पता चला कि उनके ऊपर तरह तरह के दबाव डाले गए कि कराची शहर में प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ होने वाली रैली में शामिल हो रही नवाज़ शरीफ की पार्टी की उपधाक्ष मरियम नवाज़ को  गिरफ्तार कर लिया जाए.  पाकिस्तान में वहां की फौज का हुक्म न मानने वाला बहुत बड़ी मुसीबत में पड़ सकता  है . पुलिस के आला अफसर के साथ वही हुआ. नाराज़ होकर उन्होंने छुट्टी की दरखास्त  दे दी . उनके साथ ही पुलिस के कई बड़े  अफसरों ने छुट्टी की लिए अर्जी लगा दी . कराची  देश का सबसे बड़ा व्यापारिक शहर है  .वह सिंध की राजधानी भी है . सिंध में पिछले दस साल से इमरान खान की विरोधी पार्टी  पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पी पी पी ) की सरकार है .यह पार्टी पाकिस्तान के  पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली  भुट्टो के खानदान की राजनीतिक मिलकियत है . इसी पार्टी के बैनर  तले वे खुद प्रधानमंत्री बने थे . बाद में उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो भी प्रधानमंत्री बनीं . उनके पति भी कुछ समय तक  सत्ता के मालिक रहे . आजकल पार्टी पर बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल ज़रदारी का  क़ब्ज़ा है .

पी पी पी और नवाज़ शरीफ की खानदानी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) एक  दूसरे के राजनीतिक विरोधी हैं लेकिन इमरान खान जिस तरह से फौज के हुक्म के गुलाम बन गए हैं उससे पाकिस्तानी अवाम में बहुत नाराजगी है . उसी नाराज़गी को भुनाने की गरज से बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ की खानदानी पार्टियां एक मंच पर हैं . उनके साथ ही पाकिस्तानी मुल्ला तंत्र की कुछ पार्टियां भी शामिल हैं . इमरान खां सरकार ने मुल्क की जो आर्थिक हालत बना  रखी है ,उसके चलते देश में बहुत नाराज़गी है . अब पाकिस्तान को  किसी देश से क़र्ज़ मिलने की उम्मीद बहुत कम हो गयी है . चीन से  दोस्ती के चक्कर में अमरीका से भी रिश्ते खराब हो गये हैं . नतीजा यह हुआ है कि एकजुट विपक्ष ने पाकिस्तान की सडकों को आबाद कर दिया है लेकिन प्रधानमंत्री इमरान खान भी जमे हुए हैं क्योंकि उनको फौज का पूरा सहयोग मिल रहा है .  विपक्ष की पार्टियों ने इकट्ठा होकर पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट ( पी डी एम ) नाम का एक  फ्रंट बना लिया है जिसमे देश की दोनों बड़ी विपक्षी पार्टियों की मुख्य भूमिका है लेकिन उसका अध्यक्ष जमियत उलेमा ए  इस्लाम ( एफ ) के मुखिया मौलाना फ़ज़लुर्रहमान को बनाया  गया  है . पी डी एम का उद्देश्य इमरान खान की भ्रष्ट सरकार को  उखाड़ फेंकना  है . उसके बाद सभी पार्टियां चुनाव लड़ेंगी .कराची की विशाल सभा में पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) की उपाध्यक्ष मरियम नवाज़ ने ऐलान किया कि जब भी चुनाव  होगा तो पी डी एम में शामिल पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में होंगी.

पी डी एम ने पाकिस्तानी शहर गुजरांवाला और कराची में ज़बरदस्त सभाएं करके अपने उद्देश्य का ज़बरदस्त तरीके से ऐलान कर दिया है . 25 अक्टूबर को क्वेटा में उनकी अगली रैली है. खबरें आ रही हैं कि फौज का धीरज अब जवाब देने लगा  है . कराची में पुलिस के आई जी मुश्ताक महार को अगवा करके फौज ने साफ़ सन्देश दे दिया है कि वह किसी भी हद तक जा सकती है . खबरें आ रही हैं कि क्वेटा की रैली में पी डी एम की सबसे  प्रभावशाली नेता और  पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ पर जानलेवा हमला भी किया  जा सकता है . फौज को भरोसा  है कि जिस तरह उस दौर की विपक्षी नेता बेनजीर भुट्टों को मारकर उन्होंने अपने तत्कालीन चेले नवाज़ शरीफ के लिए रास्ता साफ़ कर लिया था , उसी तरह  विपक्ष की सबसे मज़बूत नेता  और नवाज़ शरीफ की बेटी , मरियम नवाज़ को मार कर अपने कठपुतली प्रधानमंत्री इमरान खान को बचा लेंगे . बेनजीर भुट्टो को मारकर  फौज ने उस वक़्त की विपक्ष की योजना को कमज़ोर कर दिया था . इस बार भी सूत्रों का दावा है कि मरियम नवाज़ की ह्त्या करके भारत को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की जायेगी .बलूचिस्तान में चल  रहे आज़ादी के आन्दोलन को भी लपेटने की योजना है .

नवाज़ शरीफ ने गुजरांवाला की  रैली को संबोधित किया था लेकिन कराची में उनका भाषण नहीं  कराया गया . वे लंदन में फरारी का जीवन काट रहे हैं  पाकिस्तान में उनकी गिरफ्तारी का  डर है इसलिए वे खुद पाकिस्तान नहीं आ सकते इसलिए उनका भाषण  वर्चुअल तरीके से कराया जाता है . इमकान है कि क्वेटा की रैली में भी नवाज़ शरीफ  की तक़रीर होगी और इमरान खान की पी टी आई सरकार को उखाड़ फेंकने की अपील कौम से की जायेगी .अजीब बात यह  है  विपक्ष को सरकार इमरान खान की हटानी है लेकिन नवाज़ शरीफ के वर्चुअल भाषण के हमले के निशाने पर पाकिस्तानी फ़ौज के मौजूदा प्रमुख कमर जावेद बाजवा थे . ऐसा पहली बार हो रहा है कि  पाकिस्तान में किसी सर्विंग आर्मी चीफ के खिलाफ राजनीतिक मोर्चा खोला गया  है . इसके पहले उन जनरलों को निशाना बनाया जाता था जो  सत्ता पर सिविलियन सरकार को बेदखल करके कब्ज़ा जमाये रहते थे .इसका कारण शायद यह है कि अब पाकिस्तान में बच्चे बच्चे को मालूम है कि सिविलियन प्रधानमंत्री तो जनरल बाजवा के हुक्म की तामील करने के लिए सत्ता पर काबिज़ है .सेना प्रमुख को सीधे निशाने पर लेने की कीमत भी ज़्यादा होगी . अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए  पाकिस्तानी फौज किसी भी नेता को कुर्बान कर सकती है .नवाज़ शरीफ के इस रवैये से  पी डी एम में शामिल अन्य  राजनीतिक पार्टियों को दिक्क़त हो सकती है क्योंकि  वहां सभी राजनीतिक पार्टियां फौज को खुश रखना चाहती हैं . नवाज़ शरीफ खुद भी फौज की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे . जनरल जियाउल हक ने ही उनको राजनीति में महत्व दिलवाया था . अभी  पाकिस्तान में फौज का विरोध करना बहुत ही आसान नहीं माना जाता . वैसे भी पी डी एम की  रैलियों में भीड़ तो खूब हो रही है लेकिन उसको अभी राजनीतिक रूप से इतना सक्षम नहीं माना जा सकता कि वे देश को फौज के खिलाफ खड़ा कर दे . इस बीच भारत वहां हर राजनीतिक विमर्श में शामिल हो चुका है . पाकिस्तान में भारत के खिलाफ ज़हर उगलकर सत्ता हासिल करने की पुरानी परम्परा है . प्रधानमंत्री इमरान खान ने मरियम नवाज़ पर आरोप लगा दिया है कि वे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ज़बान बोलती हैं . मरियम नवाज़ ने भी  उनको जवाब दे दिया है कि नरेंद्र मोदी के वे ज्यादा करीबी  हैं . उधर भारत विरोध को हवा देने का  माहौल सेना प्रमुख जनरल बाजवा भी बना रहे हैं. उन्होंने एल ओ सी का दौरा किया और लौटकर पाकिस्तानी अखबारों में छपवाया कि सेना पूरी तरह से तैयार है .पाकिस्तानी प्रधानमंत्री  इमरान खान एक हारे हुए सिपाही जैसे दिखने लगे  हैं . उनको सबसे बड़ा भरोसा  फौज पर था . उनको लगता था कि किसी तरह की राजनीतिक आंधी को वे फौज  की मदद से पार कर लेंगे .शायद इसीलिये वे अभी भी धमकी की भाषा का प्रयोग कर  रहे  हैं . जिस पंजाब को वे अपनी ज़मीन मानते हैं ,वहीं उनके खिलाफ माहौल बन गया है . पंजाब प्रांत में इमरान खान की पार्टी की सरकार है . पंजाब नवाज़ शरीफ का गढ़ भी माना जाता है लेकिन पंजाब में इमरान खान बहुत कमज़ोर पड़ गए हैं . एक नालायक नेता को उन्होंने मुख्यमंत्री बना रखा है . नौकरशाही पहले से ही नाराज़ है . कराची में सिविलियन  पुलिस के आई जी मुशताक के साथ जो हुआ उससे नाराजगी और बड़ी है . ऐसे माहौल में सिंध , बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वाँ में तो विरोध हो ही रहा है ,जब मरियम नवाज़ पंजाब में मोर्चा संभालेंगी तो फौज के लिए भी इमरान खान को संभाल पाना  मुश्किल होगा .सारी हालात को देखकर लगता है कि पाकिस्तान अराजकता और सिविल वार की तरफ बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है .

चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम तेजस्वी यादव होगा या अगड़ा बनाम पिछड़ा


शेष नारायण सिंह

 

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अभियान ज़ोरों पर है . तरह तरह की  संभावनाओं पर बात की जा रही है लेकिन तस्वीर धुंधली है. हालाँकि कुछ बातें बिलकुल साफ़ हैं. एक तो यह कि सत्ताधारी गठबन्धन ,एन डी ए का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जा रहा है . एन डी ए के एक सहयोगी दल , लोकजनशक्ति पार्टी का  एजेंडा ही नीतीश कुमार को सत्ता से बाहर करना है.  वह बीजेपी के समर्थन में है और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के खिलाफ है . बिहार में मौजूद ज़्यादातर राजनीतिक लोग मानते हैं कि चिराग पासवान को बीजेपी का आशीर्वाद प्राप्त है . उनकी सभाओं में नरेंद्र मोदी जिंदाबाद के  नारे लग रहे  हैं. उन्होंने अधिकतर उन्हीं सीटों से अपने   उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है जो नीतीश कुमार की पार्टी जे डी ( यू ) के हिस्से में आई हैं . उनके उम्मीदवारों की लिस्ट में भी बीजेपी छोडकर आये लोगों की बहुतायत है . इन उम्मीदवारों के  कार्यकर्ताओं से बात करके पता चलता है कि उनकी नाराजगी  केंद्रीय नेतृत्व से नहीं है . वे मुकामी बीजेपी नेताओंसुशील मोदी मंगल पाण्डेय राधा मोहन सिंह आदि से नाराज़ हैं. और चिराग पासवान के साथ हैं. चिराग पासवान के लोग  बीजेपी के  हिस्से वाली सीटों पर खुले आम बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि बिहार में इस चुनाव के बाद जे डी यू को बीजेपी से छोटी पार्टी की  भूमिका निभाने के लिए बाध्य होना पडेगा . नीतीश कुमार को मालूम है कि इस बार राज्य में उनसे नाराज़गी बहुत ज्यादा है लेकिन उन्होंने बीजेपी आलाकमान को समझाने में सफलता पा ली है कि नाम  के लिए ही सही उनकी पार्टी को बंटवारे में ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए . नतीजतन बीजेपी ने उनको अपने से एक सीट ज़्यादा दे दिया .इसके बावजूद भी चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ जो स्थिति बन रही है उसमें साफ़ समझ में आ रहा है कि बिहार का चुनाव बीजेपी बनाम  आर जे डी हो चुका है . कांग्रेस ,जे डी यू चिराग पासवान की पार्टी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी उपेन्द्र  कुशवाहा की पार्टीजीतनराम मांझी की पार्टी इन्हीं दो पार्टियों में किसी न किसी को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे रहे हैं .

बिहार में २०१५ के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जोर आजमाया था. उन दिनों भी चर्चा थी कि ओवैसी साहब चुनाव मैदान में बीजीपी की मदद करने के उद्देश्य से आये  हैं. बीजेपी में उनके  शुभचिंतकों ने उनको 36 सीटों से चुनाव लडवाना चाहा था लेकिन वे उतने  उम्मीदवार नहीं जुटा पाए . करीब छः सीटों पर ही चुनाव लड़ पाए .  2015 के बाद कई चुनावों में ओवैसी की पार्टी ने बीजेपी को परोक्ष रूप से मदद पंहुचाया है . उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में उनकी भूमिका का ख़ास तौर से ज़िक्र किया जा सकता है . इस बार उन्होंने बिहार में कोइरी  जाति के बड़े नेता उपेन्द्र कुशवाहा के साथ गठबंधन कर लिया है .उपेन्द्र कुशवाहा २०१८ तक नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री थे२०१४ में उनको एन डी ए में शामिल किया गया था और लोकसभा की तीन सीटें मिली थीं. तीनों जीत  गए थे और दावा किया था कि उनकी बिरादरी के सभी वोट उनके कारण ही एन डी ए उम्मीदवारों को मिले थे .अपने इस आत्मविश्वास के कारण ही   २०१९ के लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने यह आरोप लगाकर कि मोदी सरकार सामाजिक न्याय की शक्तियों को कम महत्व दे रही है एन डी ए से अपने को अलग कर लिया था . २०१९ में उनको एक भी सीट नहीं मिली . अभी कुछ दिन पहले तक उपेन्द्र  कुशवाहा तेजस्वी यादव के साथ थे लेकिन वहां से अलग हो गए . चर्चा तो यह भी थी कि वे वापस एन डी  ए में जाना चाहते हैं लेकिन बात नहीं बनी. अनुमान के मुताबिक उनकी जाति के मतदाताओं की संख्या बिहार में करीब आठ  प्रतिशत है . २०१९ के चुनावों के पहले माना जाता था कि अपनी जाति के वोटरों पर उनका खासा प्रभाव है लेकिन तेजस्वी यादव का मानना है कि ऐसा कुछ नहीं है. शायद इसीलिए तेजस्वी यादव  ने उनको अपने गठबंधन से बाहर जाने के लिए प्रेरित किया .  वे महागठबंधन में बड़ी संख्या में सीटों की मांग कर रहे थे . आर जे डी का  मानना है की उपेन्द्र कुशवाहा को ज़्यादा सीटें देने के कोई फायदा नहीं है क्योंकि वे अपनी जाति के वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाते . अब वे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं .

 

बिहार चुनाव में राजनीतिक बारीकियों की परतें इतनी ज्यादा हैं कि किसी के लिए साफ़ भविष्यवाणी कर पाना असंभव है . कुछ चुनाव पूर्व सर्वे आये  हैं जो अपने हिसाब से सीटों की संख्या आदि बता रही हैं लेकिन टीवी चैनलों द्वारा कराये  गए सर्वेक्षणों की विश्वनीयता बहुत कम हो गयी है इसलिए उनके आधार पर कुछ भी कह पाना ठीक नहीं होगा  . देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग मानता है कि यह चुनाव पूर्व सर्वे पार्टियों के प्रचार का साधन मात्र होते हैं ,उनका चुनाव की गहाराई से कोई मतलब नहीं होता .कुछ आंकडे साफ़ संकेत देते हैं . एक सर्वे के मुताबिक करीब 84 प्रतिशत मतदाता नीतीश कुमार की सरकार से नाराज़ हैं .इनमे से करीब 54 चाहते  हैं कि इस बार नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए करीब 30 प्रतिशत नाराज़ होने के बावजूद नीतीश कुमार को हटाने की बात नहीं कर रहे  हैं , नीतीश कुमार से केवल 15 प्रतिशत मतदाता  संतुष्ट हैं . यह आंकड़ा बिहार चुनाव की मौजूदा  समझ को एक दिशा देता है .चिराग पासवान की पार्टी के रुख को इस आंकड़े की  रोशनी में समझने से बात  आसान हो जायगी . माना यह जा रहा है कि 84 प्रतिशत नाराज़ लोगों में ज़्यादातर बीजेपी , चिराग पासवान की एल जे पी के अधिकतर मतदाता हैं . मुख्यमंत्री के इतने बड़े विरोध के बाद तो तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले गठबंधन को अवसर का लाभ ले लेना चाहिए था लेकिन उस गठबन्धन में भी तस्वीर कतई साफ़ नहीं है . 2015 में आर जे  डी की सफलता में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व का बड़ा योगदान था. लोगों को साथ लेकर चलने की लालू प्रसाद की योग्यता उनके बेटे में नहीं है .महागठबंधन की दूसरी पार्टी कांग्रेस है . कांग्रेस में भी नेतृत्व को लेकर जो विवाद है उसके कारण चारों तरफ दुविधा का माहौल है . मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी , उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी पहले ही गठबंधन छोड़ चुके हैं . उनके वोटों में पप्पू यादव की पार्टी भी कुछ वोट ले  जायेगी . ऐसी हालत में बातें जलेबी की तरह घुमावदार ही बनी हुयी हैं . बीजेपी के प्रति सहानुभूति रखने वाले  सर्वे में भी जनता ने जिन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण बताया है , वे मुद्दे  वास्तव में  सच हैं लेकिन महागठबंधन के नेता उन मुद्दों पर जनता को लामबंद करने में सफल  नहीं  हो पा  रहे हैं . बेरोजगारी जनता के मन में सबसे भारी मुद्दा है .करीब पचास प्रतिशत मतदाता नौकरियों को सबसे बड़ा मुद्दा बताते हैं . लॉकडाउन के दौरान देश के बड़े नगरों से भागकर आये मजदूरों की दुर्दशा भी बड़ा मुद्दा है . बिहार सरकार ने कोविड की महामारी को जिस तरह से सम्भाला था उसकी भी खूब आलोचना हुयी थी . बिहार में बाढ़ तो हर साल आती है .  लेकिन  नीतीश कुमार के वर्तमान कार्यकाल में बाढ़ के प्रति उनके रवैये की  चौतरफा आलोचना हुई थी .पटना शहर जिस तरह से बाढ़ के पानी से  परेशान हुआ था , वह सब कुछ लोगों के दिमाग में ताज़ा है लेकिन  महागठबंधन की पार्टियां इन ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को घेरने में अब तक नाकामयाब रही हैं .

एन डी ए को भी यह सच्चाई पता है इसलिए वे लोग चुनाव अभियान में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के नाम को ही आगे रख रहे हैं . उनको विश्वास है कि नरेंद्र मोदी का नाम ही नैया पार लगायेगा. अप्रैल में एक सर्वे हुआ था जिसमें बताया गया था कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 70 प्रतिशत थी . ताज़ा सर्वे में यह 44 प्रतिशत बताई जा रही है लेकिन विपक्ष इस गिरते ग्राफ पर फोकस नहीं कर पा रहा है .नीतीश कुमार ने चिराग पासवान को गंभीरता से लेने से साफ़ मना कर दिया था लेकिन इस बीच उनके पिता राम विलास पासवान की मृत्यु के कारण उनके पक्ष में सहानुभूति का माहौल भी है . बिहार की राजनीति में कोई भी पार्टी  या गठबंधन 45 से ज़्यादा वोट नहीं पाता.

1952  से लेकर अब तक रिकार्ड देखने से एक बात साफ़ समझ में आ जाती है.  201 0 के चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार की आंधी थी . 243 में से 206 सीटें उनके गठबंधन को मिली थीं. उसी  आत्मविश्वास के चलते उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर  नामित करने के बीजेपी के फैसले को चुनौती दी थी लेकिन उस चुनाव में भी  बीजेपी के साथ हुए उनके गठबंधन को केवल 39 प्रतिशत वोट ही मिले थे . 2015 में नीतीश कुमार ,लालू प्रसाद यादव  और कांग्रेस एक साथ थे . उस बार  महागठबंधन को 44 प्रतिशत वोट मिले  थे. इस बार कई सर्वे एन डी ए को ज्यादा प्रतिशत वोट बता रहे  हैं . अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष की एकदम से धुलाई हो जायेगी लेकिन बिहार में  हमेशा एक और एक मिलाकर दो ही नहीं होते , कई बार जोड़ बदल भी जाता है.

एक बात तय है कि बिहार के चुनाव में विपक्ष में लालू यादव के जेल में होने के कारण उन जैसा कोई मज़बूत नेता नहीं है और नीतीश कुमार अपनी सरकार की असफलताओं के चलते रक्षात्मक मुद्रा में हैं .उनको नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सहारा है . महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव हैं .  चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम तेजस्वी यादव हो सकता है . अगर ऐसा हुआ तो सबको मालूम है कि नतीजा नरेंद्र मोदी के पक्ष में जायेगा लेकिन अगर चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा हो गया तो एन डी ए में शामिल कई बड़े पिछड़े नेताओं की मौजूदगी के बावजूद भी  एन डी ए को  अगड़ों के प्रभुत्व वाली पार्टी ही  माना जाता है ,उस स्थिति में नीतीश कुमार की सरकार बनने की संभावना के  लिए खासी मुश्किल पेश आ सकती है

Wednesday, October 7, 2020

अमरीकी उपराष्ट्रपति पद के दावेदारों में ज़बरदस्त बहस , डोनाल्ड ट्रंप के झूठ पूरी बहस में छाए रहे

 


शेष नारायण सिंह

अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में राष्ट्रपति के डिबेट का बड़ा महत्व होता है .  उपराष्ट्रपति पद के डिबेट का उतना महत्व नहीं माना जाता लेकिन इस बार पूरे देश का ध्यान  उपराष्ट्रपति के डिबेट पर भी था . शायद इसका कारण यह  है कि राष्ट्रपति के पद के दोनों ही उम्मीदवारों की उम्र बहुत ज़्यादा  है . जो बाइडेन तो 77 साल के  हैं जबकि डोनाल्ड ट्रंप 74 साल के हैं .  राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों का पहला डिबेट राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के  बीच बीच में बोलते रहने के काण काफी निराशाजनक  रहा था. उसके बाद वे कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए. पूरे प्रचार अभियान में उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों  का डिबेट केवल एक बार होता है . आज साल्ट लेक सिटी में हुए डिबेट में मौजूदा उपराष्ट्रपति माइक पेंस और डेमोक्रेटिक  उम्मीदवार  कमला हैरिस के बीच खासी दिलचस्प बहस हुई. बहस के केंद्र में कोरोना वायरस और उसके प्रबंधन को ही  रहा . उपराष्ट्रपति माइक पेंस इस बार भी डोनाल्ड ट्रंप के साथ उम्मीदवार हैं .

बहस की शुरुआत में  ही कमला हैरिस ने  ट्रंप  प्रशासन के कोरोनावायरस महामारी से निपटने के तरीकों को आड़े हाथों लिया . उन्होंने कहा कि  दो लाख दस हज़ार से अधिक अमरीकी लोग इस बीमाई से मर चुके हैं  और करीब 75 लाख लोग कोरोनावायरस  से पीड़ित हैं . अमरीकी अवाम ने देख लिया है कि मौजूदा प्रशासन इतनी भयानक बीमारी से लड़ने में नाकाम रहा है .इस बीमारी से मुकाबला करने वाली जमातों के अगले  दस्ते के लोगों को इस सरकार ने मरने के लिए छोड़ दिया था उनकी रक्षा का कोई भी इंतजाम नहीं किया  गया था ..ट्रंप ने कोरोनावायरस की महामारी को कम करके आंका और लोगों को मास्क पहनने के मामले में निरुत्साहित किया ..उन्होंने आरोप लगाया कि इतनी भयानक बीमारी   से मुकाबला करने में ट्रंप बुरी तरह से नाकाम रहे हैं और  कोरोनावायरस को लेकर लगातार झूठ बोला है .उन्होंने आरोप लगाया कि उनके गैरजिम्मेदार रवैये के कारण ही कोरोना की बीमारी व्हाइट हाउस में भी फैल गयी . डोनाल्ड ट्रंप खुद संक्रमित जो गए .ट्रंप के बार बार  बोले गए झूठ का बचाव कर पाना उपराष्ट्रपति माइक पेंस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा था क्योंकि वे खुद ही व्हाइट हाउस के कोरोनावायरस टास्क फ़ोर्स के प्रमुख हैं .  ऐसे माहौल में कोरोनावायरस अमरीकी चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गया है . कमला हैरिस ने यह बात बार  बार दोहराई और रिपब्लिकन उम्मीदवार माइक पेंस को मुश्किल में डालती रहीं .

अब अमरीकी राष्ट्रपति पद के लिए मतदान के लिए एक महीने से कम का समय  है . कोरोनावायरस मुख्य चुनावी मुद्दा है , ट्रंप के लाख कोशिश करने के बाद भी इस बीमारी से हो रहे नुक्सान के लिए उनको ही ज़िम्मेदार माना जा रहा है . डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले के राष्ट्रपति ओबामा के स्वास्थ्य कार्यक्रम ओबामाकेयर का  मजाक उड़ाया था और उसको खतम कर दिया था वह भी अमरीकी लोगों के दिमाग में हैं . अपने  कार्यकाल के अंतिम साल में ओबामा ने देश को  आगाह किया था कि अगर कहीं 1918 के स्पैनिश फ़्लू जैसी किसी  बीमारी  का  प्रकोप हो जाए तो उसके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं और मेडिकल शोध के क्षेत्र में देश को तैयार रहना पडेगा .उसके लिए उन्होंने काम भी शुरू कर दिया था लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने उसको बंद कर दिया .  आज के उपराष्ट्रपति पद की बहस में कमला हैरिस ने इस मुद्दे को समझाया .बीमारी के प्रबंधन में डोनाल्ड ट्रंप की नाकाबिलियत को भी कमला हैरिस ने रेखांकित  किया . माइक पेंस ने उनको  यह कहकर घेरने की  कोशिश की कि कोरोना की वैक्सीन के विकास में  जो बाइडेन अडंगा लगा रहे हैं लेकिन अमरीकी अवाम को मालूम है कि यह सच  नहीं है .बीमारी के फैलने को  को लेकर माइक पेंस ने जब यह बताने की कोशिश की कि जब केवल पांच लोग कोरोनावायरस से बीमार  थे तभी  राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन से अमरीका की यात्रा पर रोक लगा  दी थी लेकिन सच्चाई इससे अलग है . सी एन एन की टीम ने बहस खतम होने  के तुरंत बाद बता दिया कि ट्रंप ओर माइकेल पेंस झूठ बोल रहे  हैं . आंकड़े कोई और कहानी कह रहे हैं .

आज की बहस के पहले हुए चुनाव पूर्व  सर्वेक्षणों में राष्ट्रपति ट्रंप  करीब  १६ अंक पीछे थे . जो बाइडेन ५७ प्रतिशत का समर्थन पा रहे थे जबकि डोनाल्ड ट्रंप केवल ४१ प्रतिशत पर थे . ज़ाहिर  है आज के डिबेट में उनके उपराष्ट्रपति की निरुत्तरता उनकी लोकप्रियता को और कम करेगी . आज हालांकि कोरोनावायरस का मुद्दा  छाया रहा  लेकिन अमरीकी जनता की निगाह में सबसे बड़ी मुसीबत बेरोजगारी है .अमरीकी अर्थव्यवस्था की  तबाही के लिए ट्रंप के लगातार  बोले जा रहे झूठ सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने सच्चाई को  देश और उद्योग के सामने नहीं रखा जिसका नतीजा  यह है कि कोरोनावायरस के हमले से बचने के लिए सही तैयारी नहीं हो सकी . व्यापार के समझौतों को लेकर भी  माइक पेंस को बहुत कठिन सवालों के जवाब देने पड़े . उन जवाबों को सुनकर तो  ऐसा  लगा जैसे वे खुद भी अपने जवाब से संतुष्ट नहीं  हैं . चीन के साथ व्यापार के संतुलन पर भी कमला  हैरिस ने अपने  प्रतिद्वंदी को तबीयत से घेरा . अमरीका में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं और यह पूरे देश में  चिंता का विषय है . माइक पेंस इस विषय पर बात से बचना चाहते थे लेकिन  डेमोक्रेटिक उम्मीदवार उनको बार बार घेरकर  वहीं ला रही थीं . उन्होंने  डोनाल्ड ट्रंप के टैक्स वाले कारनामे  को भी उठाया . डोनाल्ड ट्रंप अमरीका में एक बड़े उद्योगपति हैं लेकिन  पिछले कई वर्षों से केवल 750 डालर का इनकम टैक्स दे रहे हैं . यह बात अमरीका में अब सभी जानते हैं . इस विषय पर भी कमला हैरिस ने उनको जवाब देने के लिए मजबूर कर दिया लेकिन जब कोई जवाब है  ही नहीं तो  क्या जवाब देंगे . उपराष्ट्रपति माइक पेंस बगले झांकते देखे गए .

माइकेल पेंस के लिए भी कुछ ऐसे मौके मिले जब वे   डेमोक्रेटिक पार्टी को घेरने में सफल हुए . जब कमला हैरिस ने कहा कि ट्रंप का प्रशासन चीन से व्यापार युद्ध हार गया है . आपकी नीतियों के चलते तीन लाख कारखाना मजदूरों की नौकरियाँ खतम हुई हैं और किसानों को भारी नुकसान हुआ है और वे दिवालिया होने को बाध्य हो गए हैं .इस बात का  माइक पेंस ने  ऐसा जवाब दिया कि कमला हैरिस की बोलती बंद हो गयी . पेंस ने कहा कि डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन ने उस बिल के पक्ष में वोट दिया था जिसके बाद चीन का अमरीका से परमानेंट व्यापारिक सम्बन्ध कायम हो गया था .उसी  कानून के कारण ही चीन विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने में कामयाब रहा और उसकी अर्थव्यवस्था इतनी मज़बूत  हो गयी कि वह आज अमरीका से मुकाबला कर रहा है . पेंस ने आरोप लगाया कि चीन की व्यापारिक सफलता में बाइडेन की  भूमिका एक चीयरलीडर की रही है और चीन की व्यापारिक सफलता में जो बाइडेन का बड़ा योगदान है .लेकिन यहीं वे एक लूज़ बाल दे  बैठे . उन्होंने कहा कि मैं अमरीकी अवाम की तरफ से बोल रहा हूँ क्योंकि उनका सम्मान करता हूँ  .अब कठिन  जवाब लेने की उनकी बारी थी . कमला हैरिस ने कहा  कि आप लोगों  का सम्मान तब कर रहे होते हैं जब आप सच बोलते हैं. डोनाल्ड ट्रंप के झूठ का बचाव करने के चक्कर में माइक पेंस  को भी कई बार झूठ बोलना पड़ा. सबसे बड़ा झूठ उन्होंने तब बोला जब उन्होंने दावा किया कि कोरोनावायरस के बारे  में राष्ट्रपति ट्रंप हमेशा ही सच बोलते रहे हैं . सी एन एन के डैनियल डेल का  दावा  है कि यह तो झूठ का पहाड़ है क्योंकि कोरोनावायरस महामारी के दौरान ट्रंप ने सैकड़ों बार झूठे दावे किये  हैं . उन्होंने यात्रा पर रोक के बारे में , बीमारी की जाँच के बारे में हाइड्रोक्लोरोक्विन के असर के बारे में , देश में  उपलब्ध वेंटिलेटर के बारे में उन्होंने झूठ बोला .  एक बार तो उन्होंने खुद ही कहा था कि मैं इसको कम करके पेश कर्ता रहा था क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि अवाम में घबडाहट पैदा हो जाय.

  आनन फानन में  सुप्रीम कोर्ट की एक जज की तैनाती को भी कमला हैरिस ने मुद्दा बनाया . देश की सबसे बड़ी अदालत की एक जज जस्टिस रुथ  गिन्सबर्ग की बीते 18 सितम्बर को मृत्यु हो गयी थी . अमरीकी  सुप्रीम कोर्ट में जजों के नियुक्ति जीवनभर के  लिए होती है वे रिटायर नहीं होतीं . रुथ की जगह पर उन्होंने अपनी एक समर्थक एमी  बारेट को जज बना दिया .आम तौर पर माना जाता है कि अगर चुनाव आसन्न  हों तो राष्ट्रपति को इस तरह की हडबडी नहीं करनी चाहिए लेकिन ट्रंप के बारे में अमरीकी जनमानस में यह चर्चा है कि  वे चुनाव के बाद भी सत्ता से चिपकने की कोशिश करेंगे. अगर बहुत बड़े  अंतर से हार गए तब तो शायद नहीं लेकिन अगर उनकी हार का अंतर कम रहा तो वे आसानी से हार नहीं मानेंगे .  इमकान है कि वे सुप्रीम कोर्ट जायेंगे और वहां अगर अपनी भक्त कोई जज हो तो उनके पक्ष में फैसला होने की संभावना ज़्यादा रहेगी .   जब जज की जल्दबाजी में की गयी  नियुक्ति पर कमला हैरिस ने सवाल उठाया तो माइक  पेंस ने कहा कि इतना ज़रूरी पद खाली रखना ठीक नहीं होगा. हैरिस ने उनको याद दिलाया कि आज डोनाल्ड ट्रंप की  सरकार अपने अंतिम दौर में है . जस व्यक्ति को  जीवन भर के लिए जज बनाया जा रहा है उसके लिए इतनी जल्दबाजी की कोई ज़रूरत नहीं थी . माइक पेंस  अपनी ट्रंप लाइन पर चलते रहे तो उनको  डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ने याद दिलाया कि  इतिहास में  कई बार  हुआ है , उनको याद दिलाया गया कि अमरीका के सोलहवें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन  सन 1864 में जब दुबारा राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे  थे तो चुनाव के 27 दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के एक जज की मृत्यु हो गयी . जब उनसे नई नियुक्ति के बारे में बात की गयी तो उन्होंने बताया कि अमरीकी अवाम  27 दिन बाद अपना नया  राष्ट्रपति चुनने वाली है . अगर मैं चुना गया तो मैं इस बात पर विचार करुंगा . अमरीका  जनता की इच्छा का सम्मान होना ज़रूरी है,” इस जवाब के बाद माइक पेंस की हालत देखने लायक थी .

अमरीकी  चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप का झूठ केंद्रीय भाव है . मीडिया से लेकर राजनेता तह , सभी उसी विषय पर बात कर रहे हैं . अगले चार  हफ़्तों में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा . फिलहाल तो जो बाइडेन और  कमला हैरिस का पलड़ा भारी दिख रहा है .

 

 

Friday, October 2, 2020

‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे

शेष नारायण सिंह
नरसी मेहता गुजरात के शिखर संत कवि हैं . पंद्रहवीं शताब्दी में उन्होंने गुजरात के लोगों का दुःख दर्द साझा किया था . उनका एक भजन महात्मा गांधी को बहुत प्रिय था। यह भजन महात्माजी की दैनिक प्रार्थना का एक हिस्सा हुआ करता था. भजन गुजराती में है लेकिन मुझे लगता है कि इसे पूरे भारत में इतनी बार लोगों ने पढ़ा और गाया है कि यह भाषा की सीमा पार कर गया है .. इसका शुरू का छंद ही इंसान को जीने की एक निश्चित दिशा दे सकता है . भजन का पहला पद है :
‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।’
‘पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे॥
‘सकल लोक मां सहुने वन्दे, निंदा न करे केनी रे।’
‘वाच काछ मन निश्छल राखे, धन धन जननी तेनी रे॥
नरसी मेहता कहते हैं कि असली वैष्णव जन वही है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो ,उसकी तकलीफ को का करने के लिए उपाय करे ,उसपर उपकार करे लेकिन शर्त यह है कि अपने मन में भी कोई अभिमान ना आने दे. सच्चा वैष्णव सभी का सम्मान करता है और किसी की निंदा नहीं करता .वह अपनी बोली,करम और मन में कोई छल नहीं रखता . ऐसे व्यक्ति की मां उसको जन्म देकर धन्य हो जाती है . इसके अर्थ में वैष्णव जन की जगह अगर भला आदमी लिख दिया जाय तो हम जैसे लोगों के लिए यह बहुत ही उपयोगी हो जाता है . महात्मा गांधी की जन्मशती के दौरान सन 1969 में मेरे कालेज में बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया था. साल भर चले आयोजन में कई गांधीवादी विद्वानों के दर्शन हुए ,उनके सत्संग का लाभ भी मिला. मैंने देखा कि उस कालेज में दो शिक्षक ऐसे थे जो वास्तव में नरसी मेहता के इस भजन को अपने जीवन में उतारे हुए थे. सैन्य विज्ञान के अध्यक्ष , प्रो, एस सी श्रीवास्तव और दर्शनशास्त्र के प्रो. अरुण कुमार सिंह किसी पर उपकार करते थे तो उसक ज़िक्र तक नहीं करते थे . बी ए के छात्र के रूप में मैंने इन संत पुरुषों को करीब से देखा . तब से ही कोशिश शुरू कर दी कि इनकी सोच को जीवन में उतारना है. आज पचास साल बाद अपने आप को देखता हूँ तो लगता है कि इनकी जीवनशैली को पूरा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक जीवन में उतारने में सफल रहा हूं.
शायद इसीलिये मैं उन लोगों को बिलकुल नहीं पसंद करता जो किसी के ऊपर ज़रा सा उपकार करने के बाद पूरी दुनिया में उसका प्रचार करते हैं. महात्मा गांधी और संत नरसी मेहता का कौल है कि भले आदमी को दूसरे की तकलीफ को जान लेना चाहिए , उसकी मदद करनी चाहिए लेकिन अपने मन भी भी अभिमान नहीं आने देना चाहिए . यह कठिन काम है लेकिन कोशिश करने से आंशिक सफलता की गारंटी है . अगर पूरी सफलता नहीं मिलती तो भी कोशिश करने का जो सुख है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता . हर बात में मैं मैं करते रहने वालों को महात्मा गांधी भला आदमी की श्रेणी में नहीं रखते थे

Thursday, October 1, 2020

महात्मा गांधी की राजनीतिक और सामाजिक सोच का आइना है उनकी किताब ‘ हिंद स्वराज ‘


शेष नारायण सिंह

 

बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों ने राजनीति और समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है उनमें  महात्मा गांधी की किताब ‘ हिंद स्वराज ‘ का नाम  सरे-फेहरिस्त  है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैंभीमराव अंबेडकर की ‘ जाति का विनाश ‘  मार्क्‍स और एंगेल्स की ‘ कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो,’  ज्योतिराव फुले की ‘ गुलामगिरी ‘और वीडी सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व ‘। अंबेडकरमार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी कासावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। हालांकि सच्चाई यह  है कि डॉ आंबेडकर भी ज्योतिराव गोविंदराव फुले की क्रांतिकारी सोच से प्रभावित थे . ज्योतिबा फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। 

 आज से डेढ़ सौर साल से अधिक समय पहले महात्मा गांधी का जन्म को  सौराष्ट्र में हुआ था. परिवार की महत्वाकांक्षाएं वही थीं जो तत्कालीन गुजरात के संपन्न परिवारों में होती थीं। गांधी जी वकालत पढने  इंगलैंड गए और जब लौटकर आए तो अच्छे पैसे की उम्मीद में घर वालों ने दक्षिण अफ्रीका में बसे गुजराती व्यापारियों का मुकदमा लडऩे के लिए भेज दिया। दक्षिण अफ्रीका में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिसकी वजह से सब कुछ बदल गया। एटार्नी एम.के. गांधी की अजेय यात्रा की शुरूआत वहीं हुई और उनका पाथेय था सत्याग्रह। सत्याग्रह के इस महान योद्धा ने अकेले ही अपनी यात्रा शुरू की। लोग साथ  जुड़ते गए और परिवर्तन के व्याकरण की रचना उनके हर काम से होती रही .इस यात्रा में उनके जीवन में बहुत सारे मुकाम आए। गांधीजी का हर पड़ाव भावी इतिहास को दिशा देने की क्षमता रखता है।
चालीस साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ने 'हिंद स्वराजकी रचना की। 1909 में लिखे गए इस बीजक में भारत के भविष्य को संवारने के सारे मंत्र निहित हैं। आज एक शताब्दी से अधिक वर्ष बाद  भी यह किताब उतनी ही उपयोगी है जितना आजादी की लड़ाई के दौरान थी  इसी किताब में महात्मा गांधी ने अपनी बाकी जिंदगी की योजना को सूत्र रूप में लिख दिया था। उनका उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का था। उन्होंने भूमिका में ही लिख दिया था कि अगर उनके विचार गलत साबित होंतो उन्हें पकड़ कर रखना जरूरी नहीं है। लेकिन अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक आचरण करें। उनकी भावना थी कि ऐसा करना देश के भले के लिए होगा।
अपने प्रकाशन के समय से ही हिंद स्वराज की देश निर्माण और सामाजिक उत्थान के कार्यकर्ताओं के लिए एक बीजक की तरह इस्तेमाल हो रही है। इसमें बताए गए सिद्धांतों को विकसित करके ही 1920 और 1930 के महात्मा गांधी के  आंदोलनों का संचालन किया गया था । 1921 में यह सिद्धांत सफल नहीं हुए थे लेकिन 1930 में पूरी तरह सफल रहे। ‘ हिंद स्वराज ‘के आलोचक भी बहुत सारे थे। उनमें सबसे बड़ा नाम तो  गोपाल कृष्ण गोखले का ही है। गोखले जी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने मूल गुजराती किताब का अंग्रेजी अनुवाद देखा था। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा कि उन्होंने भविष्यवाणी कर दी  कि गांधी जी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक को नकार देंगे। महादेव भाई देसाई ने लिखा है कि गोखले जी की वह भविष्यवाणी सही नहीं निकली। 1921 में किताब फिर छपी और महात्मा गांधी ने पुस्तक के बारे में लिखा कि "वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती हैहिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती हैपशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक शब्द रद्द किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। यह किताब 1909 में लिखी गई थी। इसमें जो मैंने मान्यता प्रकट की हैवह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।"महादेव भाई देसाई ने किताब की 1938 की भूमिका में लिखा है कि '1938 में भी गांधी जी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगा ‘। हिंद स्वराज एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति की शुरुआती रचना है जिसे आगे चलकर भारत की आजादी को सुनिश्चित करना था और सत्य और अहिंसा जैसे दो औजार मानवता को देना था जो भविष्य की सभ्यताओं को संभाल सकेंगे। किताब की 1921 की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने साफ लिख दिया था कि 'ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की हैवैसा स्वराज्य कायम करने के लिए मेरी कोशिशें चल रही हैंमैं जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।..... लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पालियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"
इसका मतलब यह हुआ कि 1921 तक महात्मा गांधी इस बात के लिए मन बना चुके थे कि भारत को संसदीय ढंग का स्वराज्य हासिल करना है . इसमें दो राय नहीं कि 1909 वाली किताब में महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट की बांझ और बेसवा कहा था (हिंद स्वराज पृष्ठ 13)। लेकिन यह संदर्भ ब्रिटेन की पार्लियामेंट के उस वक्त के नकारापन के हवाले से कहा गया था। बाद के पृष्ठों में पार्लियामेंट के असली कर्तव्य के बारे में बात करके महात्मा जी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रख दिया था और 1921 में तो साफ कह दिया था कि उनका प्रयास संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर आजादी हासिल करने का है। यहां महात्मा गांधी के 30 अप्रैल 1933 के हरिजन बंधु के अंक में लिखे गए लेख का उल्लेख करना जरूरी है। लिखा है, ''सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें सीखा भी हूं। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूंलेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है।.... इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगेतब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।" इसका मतलब यह हुआ कि महात्मा जी ने अपने विचार में किसी सांचाबद्ध सोच को स्थान देने की सारी संभावनाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया था।उन्होंने सुनिश्चित कर लिया था कि उनका दर्शन एक सतत विकासमान विचार है और उसे हमेशा मानवता के हित में संदर्भ के साथ विकसित किया जाता रहेगा।

 

महात्मा गांधी के पूरे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थें। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगावह सही नहीं है। महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यहां हिंद स्वराज का स्थाई भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में हैउतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खड्ग बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए।.... मुझे झगड़ा न करना होतो मुसलमान क्या करेगाऔर मुसलमान को झगड़ा न करना होतो मैं क्या कर सकता हूंहवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने देंतो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा। (हिंद स्वराजपृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते है कि आज से ठीक सौ वर्ष पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो मंत्र  महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा थावह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।