शेष नारायण सिंह
पुलवामा में सी आर पी एफ के काफिले पर हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच माहौल बहुत ही गरम हो गया है . भारतीय मीडिया ने भारत सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है कि सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई कार्रवाई की जाए या अगर सम्भव हो तो युद्ध ही कर लिया जाए. मौजूदा सरकार के सामने कठिन दुविधा की स्थिति है . सरकार को मालूम है कि जंग शुरू करना तो आसान है लेकिन उसको खत्म करना बहुत ही मुश्किल है . जंग किसी भी समस्या का हल नहीं है लेकिन जंग को बचाने में यह सन्देश भी नहीं जाना चाहिए कि भारत किसी से डरता है या किसी के दबाव में काम कर रहा है . पुलवामा के हमले के लिए पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन , जैशे-मुहम्मद ने ज़िम्मा ले लिया है . ज़ाहिर है कि पुलवामा का हमला पाकिस्तान की शह पर ही हुआ है . हालांकि पाकिस्तान में फौज की कृपा से सत्ता पर बैठे प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी शुरुआत भारत से दोस्ती की बात करके की थी लेकिन फौज की मनमानी के खिलाफ वे कुछ नहीं कर सकते .पाकिस्तान में सारी सत्ता फौज के ही हाथ में होती है , आज भी हालात वही हैं . जब भी कभी सिविलियन सत्ता फौज की बात को ऊपर रखने से इनकार करती है तो उसको रास्ते से हटा दिया जाता है . इसलिए पाकिस्तान से किसी समझदारी की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है .
खबर है कि केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में सी आर पी एफ , बी एस एफ , आई टी बी पी और सीमा सुरक्षा बल की एक सौ कंपनियों को तैनात कर दिया है . इसका मतलब यह हुआ कि भारत पाकिस्तान पर सैनिक हमला करने के पहले अपने अर्धसैनिक बलों की ताक़त का प्रयोग करके राज्य में शांति स्थापित करना चाहता है . कश्मीर के अन्दर सक्रिय पाकिस्तान परस्त गुटों को अगर शांत किया जा सके वह सबसे अच्छा होगा .
दो देशों के बीच दो ही तरह के सम्बन्ध होते हैं . कूटनीतिक सम्बन्ध शान्ति की स्थिति में रहते हैं . कूटनीति के सहारे ही शान्ति की स्थापना की जा सकती है . कूटनीति को कभी फेल नहीं होने देना चाहिए क्योंकि अगर कूटनीति फेल होती है तो युद्ध की स्थिति बन जाती है . युद्ध को टालना दुनिया के सारे सभ्य समाजों की प्राथमिकता होनी चाहिए . भारत की राजनीति का यह हमेशा से स्थाई भाव रहा है . जब कबायली हमले के बहाने जिन्नाह के दौर में , विभाजन के बाद ही पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया था तो भारत ने उसको खदेड़ा लेकिन युद्ध को आगे नहीं बढ़ाया . जब १९६५ में पाकिस्तानी शासक जनरल अय्यूब ने कश्मीर में बहुत बड़े पैमाने पर घुसपैठ कराई तो उनको मुगालता था कि कश्मीरी अवाम उनके साथ है . लेकिन जब उनके घुसपैठिये फौजियों को पकड़कर कश्मीरी जनता ने पुलिस के हवाले कर दिया तो उनकी समझ में बात आ गयी और पाकिस्तान को जो खामियाजा भुगतना पड़ा वह पूरी दुनिया को मालूम है . १९७१ की जंग भी एक फौजी जनरल, याह्या खान की बेवकूफी का नतीजा था .पाकिस्तानी कौमी असेम्बली के चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान को स्पष्ट बहुमत था लेकिन जनरल याहया खान ने उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया . नतीजा हुआ कि एक राष्ट्र के रूप में बंगलादेश का जन्म हो गया . मुराद यह है कि फौजी जनरल जब भी कंट्रोल में होते हैं तो वे भारत के साथ पंगा ज़रूर लेते हैं . जनरल जिया और जनरल मुशर्रफ की कारस्तानियाँ भी सबको मालूम हैं .
ऐसी ही बेवकूफी पाकिस्तान की तरफ से फिर हो रही है .पाकिस्तानी फौज ने एक मंदबुद्धि क्रिकेट खिलाड़ी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया है और उसके कंधे पर बन्दूक रख कर भारत को छेड़ने की कोशिश की जा रही है. पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . पाकिस्तानी फौज में टाप पर बैठे लोग १९७१ की हार को कभी नहीं भूल पाते .फौज़ को वह दंश हमेशा सालता रहता है . उसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .
जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . अब पाकिस्तान को अमरीका से वह मदद नहीं मिलेगी जो १९७१ में मिली थी. इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो १९६५ में जनरल अयूब ने की थी . जनरल अयूब को लगता था कि जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत डर जाएगा उर कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के टॉप अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . आजकल आई एस आई का नया खिलौना , जैशे-मुहम्मद है जिसका सरगना मसूद अजहर भारत को तबाह करने के सपने देख रहा है .इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले सत्तर साल के इतिहास से सबक न लें और भारत से युद्ध करने की मूर्खता कर बैठें . भारत को कूटनीतिक तरीके से यह समझा देना चाहिए कि अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .इस बार लड़ाई फाइनल होगी. १९६५ में भारत की सेना ने लाहौर के दरवाज़े पर दस्तक दे दी थी . रूस ने बीच बचाव करके सुलह करवाया तब इच्छोगिल तक बढ़ गयी भारतीय सेना वापस आई.
इधर भारत में भी युद्ध के खतरों से अनभिज्ञ सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेताओं को मुगालता है कि अगर पाकिस्तान से कारगिल जैसा कोई सीमित युद्ध हो जाए तो २०१९ के चुनावों में फ़ायदा होगा . लेकिन उनको पता होना चाहिए कि १९६५ की लड़ाई के बाद सत्ताधारी पार्टी पूरे उत्तर भारत में हार गयी थी . १९७१ की लडाई में निर्णायक जीत के बाद जो पहला लोकसभा चुनाव हुआ उसमें इंदिरा गांधी की पार्टी बुरी तरह से हार गयी थी और देश की जनता उनके खिलाफ १९७४ से ही लामबंद हो गयी थी.
इस बार भी जंग टलती रहे तो बेहतर है लेकिन अगर पाकिस्तान जंग थोप देता है तो उसको जवाब तो देना ही पडेगा .
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