Monday, March 18, 2019

एयर स्ट्राइक नहीं ,जातीय वफादारी बड़े पैमाने पर काम कर रही है .

शेष नारायण सिंह 

छुट्टा घूम रहे जानवरों से खेती को हुए नुक्सान पर एयरस्ट्राइक ने पर्दा डाल दिया है . जो लोग खेती के नुक्सान के कारण बीजेपी से नाराज़ थे ,वे अब प्रधानमंत्री के पुलवामा के जवाब से संतुष्ट हैं . इन लोगों ने २०१४ में भी मोदी लहर में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट दिया था. कई बड़े किसान यह भी साबित करने की कोशिश करते हैं कि सांडों से खेती का कोई नुक्सान हुआ ही नहीं .लिहाज़ा यह वर्ग भी अब मजबूती से नरेंद्र मोदी के समर्थक खेमे में वापस पंहुच चुका है .मोदी के पक्ष में वे दो हज़ार रूपये भी काम कर रहे हैं जो किसानों के लिए दिए गए थे . शौचालय भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में हैं लेकिन शौचालय से दलितों में मोदी को लाभ नहीं हो रहा है . .कुछ लोग नरेंद्र मोदी के समर्थक में बहुत ही मुखर हैं . कुछ तो उन प्रवक्ताओं से भी ज़्यादा उत्साहित रहते हैं जिनका काम ही टीवी पर प्रधानमन्त्री की सकारात्मक छवि बनाना है . प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का मामला भी कहीं नहीं सुनाई पड़ रहा है . ऊपरी तौर पर साफ़ लग जाता है कि माहौल नरेंद्र मोदी के पक्ष में है. यह सारा माहौल ठाकुर, ब्राहमण . लाला, बनिया और कुर्मी बिरादरी के लोगों से बात करके समझ में आता है . इनकी राय बनाने में टीवी चैनलों और दैनिक जागरण अखबार का है बहुत ही अधिक है . यही लोग चौराहों पर भी देखे जाते हैं . ठाकुर ब्राहमणों के बेरोजगार लड़के चौराहों पर लगभग दिन भर जमे रहते हैं और नरेंद्र मोदी की तारीफ करते रहते हैं . इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि चुनाव मोदीमय हो गया है .नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोगों की संख्या वहां मिलती है जहाँ दलित जातियों के लोग रहते हैं . वहां मायावती-अखिलेश यादव के प्रति वफादारी दलितों के अलावा यादव और मल्लाह जातियों के लोगों में है . यह बड़ी संख्या वाली जातियां हैं . अन्य ओबीसी में गडरिया,कुम्हार, मौर्या,लोहार ,कहार आदि आते हैं . इनकी संख्या ज्यादा नहीं है . इनकी जातियों के घोषित नेता भी नहीं हैं . ऐसा लगता है कि इन जातियों के लोग किसी भी तरफ चले जायेंगें . प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर का उदाहरण दिया जाए तो इन दो जिलों में ठाकुर और ब्राह्मण बड़ी संख्या में हैं और अक्सर निर्णायक साबित होते हैं . लेकिन यादव और दलित एकता इनको बैलेंस कर देती है . बनिया और कायस्थ बड़ी संख्या में नहीं है लेकिन कुर्मी बड़ी संख्या में हैं और वे आम तौर पर बीजेपी के साथ हैं .
लुब्बो लुबाब यह है कि पुलवामा के बाद की एयर स्ट्राइक के बाद बीजेपी से नाराज़ हुए उनके समर्थक वापस उनकी शरण में जा चुके हैं लेकिन दलितों , यादवों , मल्लाहों और मुसलमानों की एकता भी अपना काम कर रही है . लहर कोई नहीं है ,खेल जातीय हिसाब किताब के आस पास ही मंडराता दिख रहा है .सुलतानपुर में तो बहुजन समाज पार्टी का ठाकुर प्रभारी दो दिन पहले ही घोषित हुआ है और ठाकुरों के लड़के उनकी तरफ मुड़ रहे हैं .एक यादव कर्मचारी की कुछ वर्ष पहले हत्या हो गयी थी . लोकसभा के वर्तमान बसपा उम्मीदवार के खिलाफ उन कर्मचारी की पत्नी अभियान चला रही हैं. बीजेपी के समर्थकों को उम्मीद है कि वे यादवों को बसपा-सपा के संयुक्त उम्मीदवार से अलग कर देंगीं लेकिन कई यादव नेताओं से बात के बाद पता चला कि ऐसी बात नहीं है.
फिर वही बात ठीक लगती है कि जातीय वफादारी बड़े पैमाने पर काम कर रही है .

Thursday, March 7, 2019

मारु जुझारु बजै बजना , केहु दूसर राग सुनावत नाहीं .


शेष नारायण सिंह
बालाकोट में हवाई हमला करके के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया है . ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव २०१९ में महंगाई, बेरोज़गारी,किसानों की दुर्दशा , लुंजपुंज अर्थव्यवस्था ,राफेल का कथित भ्रष्टाचार के मुद्दे बैकबर्नर पर चले गए हैं . देशप्रेम, राष्ट्रवाद , पाकिस्तान का विरोध और पाकिस्तान को औकात बता देने वाले मुद्दे ही चुनावी मौसम में हर तरफ सुने जायेंगें . असली युद्ध का ख़तरा तो नहीं है लेकिन युद्ध का राग हर राजनीतिक चर्चा में अब स्थाई भाव हो गया है .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक रणनीति के चलते युद्ध या युद्ध की आशंका अब राजनीतिक आकाश का स्थाई चरित्र बन गया है . इस सब के चलते लोकसभा चुनाव २०१९ बहुत ही दिलचस्प दौर में पंहुच गया है जिस चुनाव को पिछले पांच साल के काम काज पर लड़ा जाना था , वह एकाएक फिर भविष्य की योजनाओं के मुद्दे को केंद्र रख कर लड़ा जाने वाला है . प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को भरोसा दिला दिया है कि वे अब देश को आतंकवाद की राजनीति से मुक्ति दिला देंगें . उसके लिए उन्होंने राजनीति की पिच को बहुत ही ऊंचाई पर लाकर छोड़ दिया है और विपक्षी पार्टियां उनके भाषणों पर प्रतिक्रिया देने की ड्यूटी निभा रही हैं . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाली विपक्ष की पार्टियां उन मुद्दों को उठाना भूल गयी हैं जिनको केंद्र में रखकर विपक्ष ने सरकार और बीजेपी को घेरने का मंसूबा बनाया था. प्रधानमंत्री ने २०१४ के लोकसभा चुनाव के पहले जो वायदे किये थे उनका लेखा जोखा इस चुनाव की स्थाई धारा होनी चाहिए थी. प्रधानमंत्री ने पद संभालने के बाद कहा था कि उनको देश की जनता ने जो पांच साल दिए हैं , २०१९ के चुनाव के पहले उसका हिसाब देंगें . शुरू में तो मुख्य विपक्षी पार्टी की समझ में ही कुछ नहीं आ रहा था लेकिन करीब दो साल बाद सरकार की कमियों को रेखांकित करने का काम शुरू किया . राहुल गांधी ने विपक्ष का धर्म निभाया और तीन राज्यों से बीजेपी की सरकार को बेदखल करने में सफलता पाई . वे प्रधानमंत्री द्वारा २०१४ के चुनाव के पहले किये गए वायदों पर ख़ास ध्यान दे रहे थे. चुनाव के पहले प्रधानमंत्री ने प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का वायदा किया था, किसान की आमदनी दुगुनी करने और विदेशों से काला धन लाने का वायदा किया था .इसके अलावा और भी बहुत सारे संकल्प नरेंद्र मोदी ने किया था. कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों ने उन मुद्दों को उठाया और बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा कीं . जिस कांग्रेस से भारत को मुक्त करने की बाद नरेंद्र मोदी ने की थी उसी कांग्रेस ने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में सरकार बना कर साबित कर दिया था कि कांग्रेसमुक्त भारत एक असंभव संभावना है . २०१४ में नरेद्र मोदी की जीत और उनकी सरकार के बनने में यू पी ए के राज के भ्रष्टाचार का भारी योगदान था. संकल्प लिया गया था कि मोदी जी के राज में भ्रष्टाचार नहीं होगा . लेकिन लोकपाल की नियुक्ति न करके और राफेल सौदे में कुछ नियमों की अनदेखी करके बीजेपी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ऐसा अवसर दे दिया जिस के सहारे उन्होंने नरेंद्र मोदी की ईमानदारी वाली छवि पर हथौड़े मारने शुरू कर दिए . उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के बाद राज्य में जितने भी उपचुनाव हुए सब में बीजेपी के उम्मीदवार हार गए . दोनों पार्टियों ने लोकसभा के लिए भी चुनावी गठबंधन कर लिया . बीजेपी के आशीर्वाद से सपा अध्यक्ष के चाचा शिवपाल यादव ने नई पार्टी भी बना ली लेकिन उनका कोई ख़ास राजनीतिक असर नहीं दिख रहा था. सपा-बसपा गठबंधन के रूप में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को ज़बरदस्त प्रतिद्वंदी मिल गया है. सपा-बसपा गठबंधन के बाद बीजेपी को अंदाजा लग गया था कि उत्तर प्रदेश की राह आसान नहीं हैं . कांग्रेस भी २०१४ की दुर्दशा से बाहर आ चुकी है . उसकी मध्यप्रदेश ,राजस्थान और छतीसगढ़ विधानसभा चुनाव में हुई जीत के बाद बीजेपी की कमजोरी रेखांकित हो चुकी है . २०१४ में नरेंद्र मोदी सरकार की स्थापना में इन चार राज्यों में मिली बहुत बड़ी संख्या में सीटों का भारी योगदान था. इन राज्यों में कमज़ोर होने का मतलब यह था कि केंद्र में बीजेपी सरकार बनना नामुमकिन नहीं तो कठिन ज़रूर हो जाता . नरेंद्र मोदी के २०१४ के वायदे विपक्ष की पार्टियां सभी मोर्चों पर उठा रही थीं और सरकार के लिए जवाब देना मुश्किल हो रहा था.
बीजेपी और केंद्र सरकार का सौभाग्य है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनको सही मानता है और उनकी तारीफ़ करता है . लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो कठिन सवालों को भी उठा रहा है . सोशल मीडिया में सरकार की नाकामियों को लिखने बोलने वाले भी बहुत बड़ी संख्या में हैं . जो हालत थे उसमें चुनाव जीतने के उपलब्ध तरीकों से चुनाव जीतना संभव नहीं था. कुछ नया करने की ज़रूरत थी . मौजूदा बीजेपी उसी तरह की स्थिति में पंहुच गयी थी जिसमें १९९० में मंडल कमीशन की सिफारिश लगने के बाद लाल कृष्ण आडवानी की बीजेपी फंस गई थी . १९८६ से बीजेपी के सभी नेता अयोध्या के रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के सहारे जनमानस में लोकप्रियता अर्जित कर रहे थे .कट्टर हिन्दुओं का एक वर्ग बीजेपी की तरफ आकर्षित भी हो रहा था. मुसलमानों के खिलाफ कुछ सुनने को उत्सुक हिन्दू समाज के लोग बीजेपी के साथ होने लगे थे लेकिन वक़्त तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं और देश की ५४ प्रतिशत आबादी को अपनी तरफ खींचने की रणनीति का दांव चल दिया . पिछड़ी जातियों के लोगों को सरकारी नौकरियों में २७ % आरक्षण दे दिया गया . बेरोजगारों के बहुत बड़ी आबादी वाले देश में यह बात ऐसी थी जिसके बाद एक अलग तरह की लामबंदी की शुरुआत हो गयी .लाल कृष्ण आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद का सभी हिन्दुओं को साथ लेने का प्रोजेक्ट गड़बड़ा गया .पिछड़ी जातियों के लोगों की वफादारी अपनी जाति के लोगों को मिलने वाली नौकरियों की संभावना पर केन्द्रित हो गयी . लालू यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार ,राम विलास पासवान नए नेता के रूप में तेज़ी से उभरने लगे . बीजेपी के नेता सकते में थे .सारे किये कराये पर पानी पड़ने वाला था. लेकिन लाल कृष्ण आडवानी की सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा ने बीजेपी को एक मौक़ा दे दिया कि जाति और धर्म के ऊपर भगवान राम के मन्दिर की बात शुरू हो गयी .जहां जहां से रथयात्रा गुज़री , वहां बहुत बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ और समाज फिलहाल हिन्दू बहुमत के साथ एकजुट हो गया . यह आडवानी की राजनीति का जलवा था कि उन्होंने चुनावी राजनीति के पैमाने बदल दिए और जब उनको लगा कि हिन्दू मन भाजपामय हो रहा है तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और उनको झटका देकर पैदल कर दिया . कांग्रेस के सहयोग से चन्द्रशेखर ने सरकार चलाने की कोशिश की लेकिन कांग्रेस ने हस्बे मामूल उनकी सरकार को ठीक उसी तरह गिरा दिया जैसे इंदिरा गांधी ने चुनाव करवाने के लिए १९७९ में चरण सिंह की सरकार गिराई थी. मुद्दा यह है कि १९९० में रथयात्रा के ज़रिये लाल कृष्ण आडवानी ने मंडल कमीशान के असर को ख़त्म कर दिया . चुनाव में ओबीसी जातियां अपनी जाति की सीमा से बाहर आकर हिन्दू बन गयीं और बीजेपी को बड़ी संख्या में सीटें उपलब्ध करवा दीं. नैरेटिव बदल गया था और बीजेपी एक ताक़तवर जमात बन चुकी थी .
चुनाव का नैरेटिव बदलने का काम बीजेपी ने २०१४ में भी किया . उस वक़्त के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ऐसे वायदे किये जिनके पूरा होने पर देश के नौजवानों और किसानों के अच्छे दिन आ जाते . उन्होंने पूरे देश को भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर , दो करोड़ प्रतिवर्ष की नौकरियों की बुनियाद पर किसानों की खुशहाली के सपने पर और मज़बूत सरकार के वायदे के साथ एकजुट कर दिया . जातीय पहचान के ऊपर आर्थिक खुशहाली और रोज़गार के वायदे ने देश को नरेंद्र मोदी के पक्ष में खडा कर दिया .नतीजा सब के सामने है .
अपने इन वायदों को नरेंद्र मोदी पिछले पांच साल में पूरा नहीं कर पाए थे. लेकिन उन्होंने लोकलुभावन बहुत सारी योजनायें चलाईं . उज्ज्वला, गरीबों के लिए घर , ग्रामीण परिवारों के लिए शौचालय , किसानों के बैंक खातों में २००० रूपये आदि ऐसे सरकारी कार्यक्रम हैं जिसका फायदा प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी को चुनावी लाभ के रूप में मिल सकता था लेकिन बेरोजगारी, खेती की दुर्दशा और महंगाई जैसे मुद्दे उनके लिए भारी पड़ रहे थे. इसी के चलते १४ फरवरी के पहले के जो भी विमर्श थे उसमें नरेंद्र मोदी सरकार रक्षात्मक मुद्रा में थी,बैकफुट पर थी लेकिन पुलवामा में सी आर पी एफ के काफिले पर आतंकवादी हमले के बाद सब कुछ बदल गया .पुलवामा के आतंकवादी हमले के बाद कुछ दिन टीवी चैनलों के ज़रिये बदला लेने का माहौल बनाया गया और नरेंद्र मोदी ने वायु सेना को अधिकृत किया .नतीजतन पकिस्तान में घुसकर वायुसेना ने बमबारी की और नतीजा समाने है .इस घटना ने चुनाव को देशप्रेम की पिच पर ला दिया . पूरा देश आज देशप्रेम की बात कर रहा है . कोई भी मंहगाई , किसानों की दुर्दशा ,राम मंदिर और राबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार की बात नहीं कर रहा है . नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक बहस के दायरे को ऐसे मुकाम पर लाका छोड़ दिया है जहां विपक्ष के लोग उनके आरोपों के जवाब ही दे रहे हैं . अब चर्चा यह है देश की रक्षा ,आतंकवाद से मुकाबला और पाकिस्तान को औकात दिखाना ज़रूरी काम हैं .प्रधानमंत्री की कोशिश है कि वे मुद्दे चुनावी विमर्श में न आयें जिनमें उनकी कमजोरी दिखती है . वे भाग्यशाली हैं क्योंकि ममता बनर्जी को छोड़कर पूरा विपक्ष उनके भाषणों पर प्रतिक्रिया दे रहा है .राजनीतिक घेरेबंदी में नई नई बातें हो रही हैं . नरेंद्र मोदी एजेंडा सेट कर रहे हैं और विपक्ष उसी के घेरे में फंसता जा रहा है . ऐसा लगता है कि खुद पहल न करके विपक्ष ने पहल का अधिकार पूरी तरह से नरेंद्र मोदी को सौंप दिया है. हालांकि देश की सुरक्षा और आतंकवाद से देश को बचाना किसी भी सरकार का बुनियादी धर्म है . उसके साथ साथ देश के लोगों को जो चुनावी वायदे किये गए थे उनको भी पूरा किया जाना ज़रूरी है .लेकिन नरेंद्र मोदी ने एजेंडा फिक्स कर दिया है . नया नैरेटिव शुरू कर दिया है . यह देखना दिलचस्प होता है कि उनके एजेंडे को ही विरोधी दल लागू करने में जुटे रहते हैं कि देशप्रेम के अलावा वाले मुद्दे भी उठाने की हिम्मत जुटा पाते हैं .

जंग टलती रहे तो बेहतर है


शेष नारायण सिंह
पुलवामा में  सी आर पी एफ के काफिले पर हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच माहौल बहुत ही गरम हो गया  है . भारतीय मीडिया ने भारत सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है कि सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई कार्रवाई की जाए या अगर सम्भव हो तो युद्ध ही कर लिया जाए. मौजूदा सरकार के सामने कठिन दुविधा की स्थिति  है . सरकार को मालूम है कि जंग शुरू करना तो आसान है लेकिन उसको खत्म करना बहुत ही मुश्किल है . जंग किसी  भी समस्या का हल नहीं  है  लेकिन जंग को बचाने में यह सन्देश भी नहीं  जाना चाहिए कि भारत किसी से डरता है या किसी के दबाव में काम कर रहा है . पुलवामा के हमले के लिए पाकिस्तान के आतंकवादी  संगठन जैशे-मुहम्मद ने ज़िम्मा ले लिया है .  ज़ाहिर है कि पुलवामा का हमला पाकिस्तान की शह पर ही हुआ है . हालांकि पाकिस्तान में  फौज की कृपा से सत्ता पर बैठे प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी शुरुआत भारत से दोस्ती की बात करके की थी लेकिन फौज की मनमानी के खिलाफ वे कुछ नहीं कर सकते .पाकिस्तान में सारी सत्ता फौज के ही हाथ में होती है आज भी हालात वही हैं . जब भी कभी सिविलियन सत्ता फौज की बात को ऊपर  रखने से इनकार करती है तो उसको रास्ते से हटा दिया  जाता  है . इसलिए पाकिस्तान से किसी समझदारी  की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं  है .
खबर है कि केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में सी आर पी एफ बी एस एफ आई टी बी पी और सीमा सुरक्षा बल की  एक सौ  कंपनियों को तैनात कर दिया  है . इसका मतलब यह हुआ कि भारत पाकिस्तान  पर सैनिक हमला करने के पहले अपने अर्धसैनिक बलों की ताक़त का प्रयोग करके राज्य में शांति स्थापित करना चाहता है . कश्मीर के अन्दर सक्रिय पाकिस्तान परस्त गुटों को अगर शांत किया जा  सके वह सबसे अच्छा  होगा .
  दो देशों के बीच दो ही तरह के सम्बन्ध होते हैं . कूटनीतिक सम्बन्ध शान्ति की स्थिति में रहते हैं . कूटनीति के सहारे ही शान्ति की स्थापना की जा सकती है . कूटनीति को कभी फेल नहीं होने देना चाहिए  क्योंकि अगर कूटनीति फेल होती है तो युद्ध की स्थिति बन जाती है . युद्ध को टालना दुनिया के सारे सभ्य समाजों की प्राथमिकता होनी चाहिए . भारत  की राजनीति का यह हमेशा से स्थाई भाव रहा है . जब कबायली हमले के बहाने जिन्नाह के दौर में विभाजन के बाद ही पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया था तो भारत ने उसको खदेड़ा लेकिन युद्ध को आगे नहीं बढ़ाया . जब १९६५ में पाकिस्तानी शासक जनरल अय्यूब ने कश्मीर में बहुत बड़े पैमाने पर घुसपैठ कराई तो उनको मुगालता था  कि कश्मीरी अवाम उनके साथ है . लेकिन जब उनके घुसपैठिये  फौजियों को पकड़कर कश्मीरी जनता ने पुलिस के हवाले  कर दिया तो उनकी समझ में बात आ गयी  और पाकिस्तान को जो खामियाजा भुगतना पड़ा वह पूरी दुनिया को मालूम है . १९७१ की जंग भी एक फौजी जनरलयाह्या खान की बेवकूफी का  नतीजा था .पाकिस्तानी  कौमी असेम्बली के चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान को स्पष्ट बहुमत था लेकिन जनरल याहया खान ने उन्हें  प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया . नतीजा हुआ कि एक राष्ट्र के रूप में बंगलादेश का जन्म हो गया .  मुराद यह  है कि  फौजी जनरल जब भी कंट्रोल में होते हैं तो वे भारत के साथ पंगा ज़रूर  लेते हैं . जनरल जिया और जनरल मुशर्रफ की कारस्तानियाँ भी सबको मालूम हैं .
ऐसी ही बेवकूफी पाकिस्तान की तरफ से फिर हो रही है .पाकिस्तानी फौज ने एक मंदबुद्धि क्रिकेट खिलाड़ी को देश  का प्रधानमंत्री बना दिया है और उसके कंधे पर बन्दूक रख कर भारत को छेड़ने की कोशिश की जा रही है.   पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . पाकिस्तानी फौज में टाप पर बैठे लोग १९७१ की हार को कभी नहीं भूल पाते .फौज़ को वह दंश हमेशा सालता रहता है . उसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .

जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . अब पाकिस्तान को अमरीका से वह मदद नहीं मिलेगी जो १९७१ में मिली थी. इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो १९६५ में जनरल अयूब ने की थी . जनरल अयूब को लगता था कि जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत डर जाएगा उर कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन  सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के टॉप  अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . आजकल आई एस आई का नया खिलौना जैशे-मुहम्मद है  जिसका सरगना मसूद अजहर भारत को तबाह करने के सपने देख रहा है .इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले सत्तर साल के इतिहास से सबक न लें और भारत से युद्ध करने की मूर्खता कर बैठें .  भारत को कूटनीतिक तरीके से यह समझा देना चाहिए कि  अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .इस बार लड़ाई फाइनल होगी. १९६५ में भारत की सेना ने लाहौर के दरवाज़े पर दस्तक दे दी थी . रूस ने बीच बचाव करके सुलह करवाया तब इच्छोगिल तक  बढ़ गयी भारतीय सेना  वापस आई.
इधर भारत में भी  युद्ध के खतरों से अनभिज्ञ  सत्ताधारी पार्टी के  कुछ नेताओं को मुगालता है कि अगर  पाकिस्तान से कारगिल जैसा कोई सीमित युद्ध हो जाए तो २०१९ के चुनावों में फ़ायदा होगा . लेकिन उनको पता होना चाहिए कि १९६५ की लड़ाई के बाद  सत्ताधारी पार्टी पूरे उत्तर भारत में हार गयी थी . १९७१ की लडाई में निर्णायक जीत के बाद जो पहला लोकसभा चुनाव हुआ उसमें  इंदिरा गांधी की पार्टी बुरी तरह से हार गयी थी और देश की जनता उनके खिलाफ १९७४ से ही लामबंद हो गयी थी.
इस बार भी जंग टलती रहे तो बेहतर है लेकिन अगर पाकिस्तान जंग थोप देता है तो उसको जवाब तो देना ही पडेगा .