शेष नारायण सिंह
बुलंदशहर के स्याना थाना क्षेत्र की हिंसक घटना बहुत सारे सवाल के साथ हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर नाज़िल हो गयी है . एक भीड़ ने स्याना के थानेदार सुबोध कुमार सिंह को उस वक़्त मार दिया जब वे सड़क पर जाम लगाने से रोकने के लिए अपने इलाके के एक गाँव में गए हुए थे . वह भीड़ इस अफवाह के बाद इकठ्ठा हुई थी कि किसी खेत में मांस का एक टुकड़ा मिला था जो गाय का मांस था . आस पास के लोग इकठ्ठा हो गए और सड़क पर जाम कागा दिया , जब इंस्पेक्टर सुबोध कुमार मौक़ा-ए-वारदात पर पंहुचे तो भीड़ उग्र रूप ले चुकी थी लेकन उन्होंने शांत कराया . जब वे भीड़ को समझा बुझाकर वापस आने के लिए अपनी जीप में बैठे तो फिर हिंसा शुरू हो गयी और उसका एक नतीजा यह हुआ कि थानेदार साहब की मौत हो गयी. उसी घटना में शायद एक आवारा गोली से राह चलते एक नौजवान की भी मौत हो गयी .शुरुआती जांच में पता चला है कि इंस्पेक्टर सुबोध की ह्त्या ३२ बोर के असलहे से की गयी है . अभी और जांच होना बाकी है . पुलिस ने करीब सत्तर लोगों को जाँच की ज़द में लिया है और कुछ लोगों की गिरफ्तारियां भी हुयी हैं . अपराध में जिन लोगों के शामिल होने का शक है उनमें योगेश राज नाम का एक नौजवान है . उसके बारे में पुलिस को पता चला है कि वह बजरंग दल के जिला संयोजक है. उसके परिवार के लोगों ने भी इस बाद की पुष्टि की है कि वह बजरंग दल से सम्बंधित है .परिवार से यह भी पता चला है कि वह हिंसा की घटना वाले स्थान पर ही गया था . लेकिन उसके परिवार वालों का दावा है कि उसकी पुलिस अधिकारी की ह्त्या में कोई भूमिका नहीं है . इसी तरह से ज़्यादातर लोगों के बारे में मुकामी पुलिस को जानकारी है और ज्यादातर योगेश राज की मंडली के लोग ही बताये जाते हैं जो भीड़ का हिस्सा थे और मरने मारने पर उतारू थे .जिस एफ आई आर में इन लोगों को नामज़द किया गया है वह स्याना थाने के सब इंस्पेक्टर सुभाष चन्द्र ने लिखवाई है . एफ आई आर में शिखर अग्रवाल का भी नाम है जो बीजेपी के युवा मोर्चा के शहर अध्यक्ष हैं . वी एच पी के शहर अध्यक्ष उप्रेंद्र राघव का भी नाम है . पुलिस ने उनका नाम लिखा है लेकिन उनके संगठन और उनके पदों के बारे में कोई जानकारी एफ आई आर में नहीं है . योगेश राज ने वारदात के पहले कुछ मुसलमानों के खिलाफ गौहत्या करने की शिकायत भी थाने में लिखवाई थी. रिपोर्ट में लिखा गया है कि योगेश राज ने अपने कुछ दोस्तों के साथ महाव गाँव के जंगलों में कुछ मुसलमानों को गाय काटते देखा था. जो उसको देख कर भाग गए .
उधर लखनऊ में मौजूद पुलिस के आला अधिकारी मामले को संभालने में जुट गए हैं. कानून व्यवस्था के अतिरिक्त महानिदेशक ने बयान दिया है कि वारदात में किसी संगठन के शामिल होने के बारे में कोई जानकारी नहीं है .उन्होंने कहा कि योगेश राज पर तो मुक़दमा कायम किया गया है लेकिन उनके लिए यह कहना सही नहीं होगा कि वह किस संगठन से सम्बंधित है . घटना की निंदा सभी कर रहे हैं . लेकिन जो बात अभी आम तौर पर रेखांकित नहीं की जा रही है वह यह है कि उत्तर प्रदेश की शासन व्यवस्था पर एक ज़बरदस्त सवालिया निशान लग गया है . पुलिस का थानेदार हुकूमत के इक़बाल का प्रतिनिधि होता है . जब उसको भी कोई भीड़ घेर कर मार दे तो यह शासन को लाखों सवालों के घेरे में लपेट लेने के लिए काफी है . सरकार को अपनी पगड़ी संभालने के लिए अब बहुत ही अधिक यत्न करना पडेगा . मामले की जाँच को पुलिस ने नौकरशाही की अंगीठी पर चढ़ा दिया है. हस्बे मामूल एस आई टी वगैरह बना दी गयी हैं . ज़ाहिर है जांच होगी और नतीजे भी आयेंगें लेकिन तब तक प्रशासन की पगड़ी उछल चुकी होगी . एक बात हमेशा सवालों के घेरे में रहेगी कि मुकामी पुलिस की जांच कर पाने की क्षमता पर क्यों भरोसा नहीं किया और कानून द्वारा स्थापित सरकार पर हमला करने के जुर्म में मुक़दमा बुक करके स्याना थाने को काम करने से रोकने के लिए क्यों एस आई टी आदि का टालू कार्यक्रम क्यों शुरू कर दिया गया.
इस बीच इस घटना पर राजनीति शुरू हो गयी है . उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री ,ओम प्रकाश राजभर ने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर दी है . उन्होंने कहा है कि यह घटना बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश है . राजभर ने कहा है कि ," यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वी एच पी, बजरंग दल और बीजेपी के कुछ लोग वहां हिन्दू-मुस्लिम के बीच दंगा कराने के लिए गए और पुलिस का एक इन्स्पेक्टर मार दिया गया " . यह राजभर के निजी विचार हो सकते हैं . हम अभी जांच की प्रतीक्षा करेंगें और जांच के नतीजे आने के पहले बीजेपी या उसके सहयोगी संगठनों के शामिल होने के पर्याप्त संकेत होने के बावजूद भी बीजेपी या किसी भी अन्य संगठन के बारे में कोई बात नहीं करेंगें .
एक बात और भी दिलचस्प है . जब भी हिन्दू मुसलमान के बीच विवाद होता है तो राजनीतिक लाभ हिन्दू आधिपत्यवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहे संगठनों का ही होता है . दंगा फैलाने में पिछ्ले दो ढाई सौ वर्षों में गाय के बारे में शुरू हुए झगड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती रही है . भारत पाक बंटवारे के दौरान हुए दंगों में भी गाय की रक्षा की बात केन्द्रीय थी. गाय का ऐतिहासिक महत्व है . महाभारत काल में ज़मीन पहली बार संपत्ति की पहचान की रूप में देखी जाती है. उसके पहले ज़मीन खूब थी और उसपर आश्रित रहने वाले जानवर , गोधन ,गजधन और बाजिधन संपत्ति की पहचान और यूनिट थे. महाभारत में पहली जब ज़मीन के बंटवारे की बात हुई तो दुर्योधन ने कहा कि ," सूच्यग्रम न दास्यामि" यानी सुई की नोक के बराबर भी पांडवों को नहीं दूंगा .महाभारत के पहले तो गाय, हाथी और घोड़े की संपत्ति की यूनिट हुआ करते थे . विषय बहुत विषद है लेकिन जब मुसलमान इस देश के शासक हुए तो उनके लिए गाय खाद्य पदार्थ था और देश की स्थानीय आबादी शासकों की तरफ से गाय की ह्त्या का हमेशा विरोध करती रही. उसका विधिवत रिकार्ड नहीं मिलता लेकिन १८५७ के बाद गौवध के कारण हुए संघर्षों का मामूली ही सही , रिकार्ड है .हिन्दू , बौद्ध, जैन और सिख गौहत्या का विरोध हमेशा से करते रहे .हैं. आर्यसमाज के जन्म के बाद उत्तर भारत के कई इलाकों में गौहत्या के विरोध के बाद संघर्ष की बातें इतिहास को मालूम हैं . उसी दौरान गाय की ह्त्या के कारण पंजाब , और संयुक्त प्रांत ( यू पी ) में दंगे हुए .
गौरक्षा के नाम पर स्वतंत्र भारत में राजनीतिक लाभ की परिपाटी शुरू हुयी . आजादी के बाद अपनी राजनीतिक ज़मीन खो चुकी पार्टियों ने १९४८ और १९५१ के बीच आजमगढ़, अकोला, पीलीभीत, कटनी, नागपुर अलीगढ़, धुबरी, दिल्ली और कलकत्ता में दंगे करवाए . सभी दंगों के मूल में गौकशी ही थी. लेकिन इन दंगों का चुनावी फ़ायदा किसी को नहीं हुआ क्योंकि आजादी की लड़ाई के ज्यादातर हीरो जिंदा थे और देश की राजनीति के भाग्य विधाता भी थे. वोटों का लाभ १९६६ के गौरक्षा आन्दोलन और उसके बाद हुए दंगों के बाद जनसंघ को हुआ. उत्तर प्रदेश में जनसंघ के मामूली पार्टी थे लेकिन १९६७ के चुनावों में वह ९८ सीटों के साथ कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनी .दिल्ली प्रशासन में उसकी सरकार बनी . संसद भवन पर हुए गौरक्षा आन्दोलन में हुए झगड़े में लाठी गोली चली , बहुत लोग मारे गए और गौरक्षा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार के रूप में विकसित हो गया. स्वामी करपात्री जी ने फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू को संसद की सीट से बेदखल करने की कोशिश की थी और नाकाम रहे थे लेकिन १९६६ के आन्दोलन का नेतृत्व करके उनकी बेटी को कमज़ोर कर दिया . इंदिरा गांधी की पार्टी १९६७ के चुनाव में उत्तर भारत के सभी राज्यों में चुनाव हार गयीं .
१९९८ में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के आने के बाद तो गौरक्षा के नाम पर नौजवानों के समूह दलितों और मुसलमानों को निशाने पर लेते ही रहे हैं . आजकल तो गौरक्षा के नाम पर पुलिस और सरकार की इज्ज़त को भी घेर लिया जाता है . बुलंदशहर उसी का नमूना है . हो सकता है कि इससे राजनीतिक लाभ देने लायक ध्रुवीकरण भी हो जाए लेकिन सरकार की अथारिटी को जो चुनौती मिलेगी उसको संभाल पाना मुश्किल होगा .
No comments:
Post a Comment