शेष नारायण सिंह
सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ( सहमत ) के तीस साल पूरे हो गए . इन तीस वर्षों में सहमत ने संस्कृति के मोर्चे पर फासिस्ट ताक़तों के खिलाफ एक बहुत बड़े वर्ग को मंच दिया है . इस साल भी १ जनवरी २०१९ को सहमत की तरफ से एक सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन किया गया है . सहमत एक सांस्कृतिक संगठन है और वामपंथी राजनीतिक सांस्कृतिक सोच के अलमबरदार के रूप में सहमत ने हमेशा ही देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया है . सहमत के कर्ता धर्ता ,राजेन्द्र प्रसाद ने बताया कि जब देश की राजनीति में कुछ वर्गों ने बहुमतवाद की अधिनायकवादी रूढ़िवादी सोच को सांस्कृतिक आचरण का पैमाना बनाने का अभियान छेड़ रखा है और समाज और संस्कृति को एक साम्प्रदायिक व्याकरण में लपेटने की कोशिश चल रही है,सहमत ने तय किया है कि इस बार ऐसा हस्तक्षेप किया जाए जैसा नब्बे के दशक में अपने जन्म के समय से होता रहा है . सांस्कृतिक राष्ट्र्रवाद को देश की मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रही राजनीतिक ताक़तों को लगाम देने के इरादे से सहमत अपने तीस साल पूरे होने पर जनपक्षधर सांस्कृतिक अभियान चलाने की योजना पर काम कर रहा है .
तीस साल पहले सफ़दर हाशमी को दिल्ली के पास एक औद्योगिक इलाके में मार डाला गया था .वे बाएं बाजू के संगठन, जन नाट्य मंच के संयोजक थे ,मार्क्सवादी कमुनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे और चौंतीस साल की उम्र में ही दिल्ली की सांस्कृतिक दुनिया के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे . उनको मारने वाला एक मुकामी गुंडा था और किसी लोकल चुनाव में उम्मीदवार था. अपने गिरोह के साथ मिलकर उसने सफ़दर के साथियों पर हमला किया था .अपनी मौत के समय सफ़दर एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . सफ़दर हाशमी ने इस हमले के कुछ साल पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक आन्दोलन बनाने की कोशिश करना शुरू किया था. कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे नामवर लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे . सफ़दर की मौत के बाद पूरे देश में ग़म और गुस्से की एक लहर देखी गयी थी . जो काम सफ़दर करना चाहते थे ,उसे पूरा करने में कई साल लगते लेकिन उनकी मौत के बाद वह स्वतः स्फूर्त तरीके से बहुत जल्दी हो गया. देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और सफ़दर की याद में बना संगठन, सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ,'सहमत' एक ऐसे मंच के रूप में विकसित हो गया जिसके झंडे के नीचे खड़े हो कर हिन्दू पुनरुत्थानवाद को संस्कृति का नाम दे कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आर एस एस के मातहत संगठनों को चुनौती देने के लिए सारे देश के प्रगतिशील संस्कृतिकर्मी लामबंद हो गए. जो मुहिम सफ़दर हाशमी की मौत के बाद शुरू हुई थी ,वह आज पूरी दुनिया में विस्तार पा चुकी है. सहमत आज एक ऐसे माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है कि दक्षिणपंथी राजनीति और संस्कृति के संगठन उसकी परछाईं बचा कर भाग लेते हैं ..उसका कारण शायद यह है कि सहमत के गठन के पहले बहुमत के अधिनायकत्व की सोच की बुनियाद पर चल रहे आर एस एस के अभियान से लोग ऊब चुके थे और जो भी सहमत ने कहा उसे दक्षिणपंथी दादागीरी से मुक्ति के रूप में अपनाने को उत्सुक थे . शयद यही वजह है कि हर रंग के लिबरल सोच वाले लोग १ जनवरी के सहमत के दिन भर चलने वाले कार्यक्रमों में देखे जाते हैं . सहमत के वार्षिक कार्यक्रमों में ही , ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पक्षधर रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को अवामी प्रतिरोध का हाथियार बनाया गया और उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत की पहचान के रूप में पेश किया गया. जो अब तक जारी है या यूं भी कहा जा सकता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व करना सहमत के आयोजनों का स्थाई भाव है .
इस साल के कार्यक्रमों में जलियांवाला बाग़ के सौ साल पूरे होने पर एक कैलेण्डर जारी किया जाएगा , सफ़दर के साथी कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे, महात्मा गांधी के जन्म के १५० साल पूरे होने के उपलक्ष में कला प्रदर्शनी लगाई जायेगी . बड़े कलाकारों के काम के एक सौ पोस्ट कार्ड जारी किये जायेंगे. अपनी स्थापना के समय से ही सहमत ने देश की सांस्कृतिक धरोहर को दिल्ली में १ जनवरी को स्थापित करने का काम नियमित तरीके से किया है . कार्यक्रम सफ़दर हाशमी की याद में आयोजित किये जाते हैं , इन कार्यक्रमों में देश का बड़े से बड़ा कलाकार समय समय पर शामिल हो चुका है . यह काम पिछले तीस साल से लगातार जारी है . सफदर हाशमी पर जब हमला हुआ तो वे अपना एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . हमले में जब वे बुरी तरह से घायल हो गए तो उनको दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में इलाज के लिए लाया गया ,जहां १ जनवरी १९८९ को उनकी मृत्यु हो गयी . उसी दिन उनके साथियों ने तय किया कि सफ़दर के मिशन को छोड़ा नहीं जाएगा , वह जारी रहेगा . जिस जगह पर सफ़दर पर हमला हुआ था , १ जनवरी १९८९ को उनके साथियों ने वहीं जाकर नाटक का मंचन किया ,दहशत फैलाने वाली जमातों को बिलकुल सामने से चुनौती दी और इस तरह से सहमत की स्थापना की बुनियाद पडी. तब से अब तक हर साल सहमत के कार्यक्रम ऐतिहासिक रहे हैं . उसके सारे आयोजन संस्कृति की दुनिया में बहुत ही सम्मान से देखे जाते रहे हैं . साम्प्रादायिक सद्भाव में लोकप्रिय हस्तक्षेप. सूफी संगीत, अनहद गरजै , दांडी मार्च, महात्मा गांधी, १८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम ,हबीब तनवीर, बलराज साहनी और मंटो , फैज़, भीषम साहनी, जवाहरलाल नेहरू ,आज़ादी के सत्तर साल जैसे विषयों पर कार्यक्रम आयोजित करके सहमत ने देश की सांस्कृतिक जमातोंन को लामबंद भी किया अहै और उनको एकजुट होने का अवसर भी दिया है . आजकल सहमत के तत्वावधान में महात्मा गांधी के जन्म के १५० साल के अवसर पर भाषणों की एक श्रृंखला चलाई जा रही है .
संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा का हमेशा से सक्रिय योगदान रहा है . अपने देश में वामपंथी राजनीतिक सोच के लोगों ने संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए पहली बार १९३६ में कोशिश की . प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ और उसके पहले अध्यक्ष ,हिन्दी और उर्दू के बड़े लेखक , प्रेमचंद को बनाया गया.इसी दौर में रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और नाटक के क्षेत्र में वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों की भागीदारी शुरू हुई. इप्टा का गठन करके थियेटर के क्षेत्र में इन लोगों ने बहुत काम किया . लेकिन यह जागरूकता १९४७ में कमज़ोर पड़ गयी क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आज़ादी मिली थी उसकी वजह से आम आदमी की सोच प्रभावित हुई. वैसे भी राष्ट्रीय चेतना के निगहबान के रूप में कांग्रेस का उदय हो चुका था.. जनचेतना में एक मुकम्मल बदलाव आ चुका था लेकिन वामपंथी उसे समझ नहीं पाए और इसमें बिखराव हुआ.उधर गाँधी की हत्या में आर एस एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को हिरासत में ले लिया गया . हालांकि वे तफ्तीश के स्तर पर ही छोड़ दिए गए लेकिन अपने मुखिया का नाम हत्या के केस में आ जाने की वजह से आर एस एस वाले भी ढीले पड़ गए थे . १९६४ में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना करके आ एस एस ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दू पुनरुत्थानवाद की राजनीति के स्पेस में काम करना शुरू कर दिया था लेकिन उनके पास कोई अपनी बात को एक आन्दोलन बनाने के लिए कोई विषय नहीं था .किसी तरह खीच खांच कर काम चलता रहा . बात करीब बीस साल बाद बदली . १९८४ के चुनावों में बी जे पी की हार के बाद आर एस एस ने भगवान राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति को सांस्कृतिक आन्दोलन का केंद्र बनाकर आगे करने का फैसला किया . भगवान् राम का हिन्दू समाज में बहुत सम्मान है,उनकी पूजा होती है .उसी के बल पर आर एस एस ने बी जे पी को राजनीति में सम्मानित मुकाम दिलाने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर हाशमी और उनकी पार्टी को आर एस एस की इस योजना का शायद अंदाज़ लग गया था. लगभग उसी दौर में सफ़दर ने कलाकारों को लामबंद करने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर की मौत ऐसे वक़्त पर हुई जब आर एस एस ने राम के नाम पर हिन्दू जनमानस के एक बड़े हिस्से को अपने साथ कर रखा था . सहमत के गठन के बाद संस्कृति के स्पेस में संघ को बाकायदा चुनौती दी जाने लगी . सहमत की उस दौर की करता धर्ता , सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं . जिन्होंने अयोध्या के मोर्चे पर ही, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को रोका और उनकी बढ़त को रोकने में काफी हद तक सफलता पायी. बीजेपी की सरकार बन जाने के बाद अब आर एस एस के मातहत संगठनों ने संस्कृति के हर क्षेत्र में भारी दखल देना शुरू कर दिया है . आज़ादी की लडाई के नायकों को दरकिनार करने की कोशिशें हो रही हैं . जवाहरलाल नेहरू की विरासत को बेकार बताने की कोशिश की जा रही है , नेहरू का चरित्र हनन करने का अभियान भी चलाया जा रहा है . सरदार पटेल और महात्मा गांधी को आज के शासक वर्ग इस तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे वे आर एस एस के ही सदस्य रहे हों.इन हालात में सहमत की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है . सहमत के ट्रस्टी ,राजेन्द्र प्रसाद से बात करके ऐसा लगा कि वे आज देश और समाज के सामने मौजूद चुनौतियों से विधिवत वाकिफ हैं और उस दिशा में कम चल रहा है . सहमत के तीस साल के आयोजनो में इस बात को देखने की कोशिश की जायेगी .