Friday, June 9, 2017

विकास के शोषण के रास्ते को नकार कर गांधी के रास्ते चलना होगा.



शेष नारायण सिंह


मध्य प्रदेश में  किसानों के लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन पर सरकार ने गोलियां चलाकर कम से कम पांच किसानों को मार डाला है , अभी घायल लोग अपनी ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं .राज्य के  मुख्यमंत्री ने बताया है कि जिन लोगों को मारा गया है वे कांग्रेसी कार्यकर्ता थे. जिन को मारा गया है उनके परिवार वालों  को एक एक कारोड़ रूपये की सरकारी सहायता भी देने की घोषणा की गयी है .  सत्ताधारी पार्टी के नेता लोग दावा कर रहे हैं कि मरने वाले गुंडे थे . सरकार की तरफ से इस दिशाभ्रम पर बहुत सारे सवाल पैदा होते हैं और वे पूछे जाने चाहिए . विपक्ष की कहीं कोई खबर नहीं आ रही है . कांग्रेस के ऊपर तोड़ फोड़ का आरोप बीजेपी वाले ऐलानियाँ लगा रहे हैं लेकिन कांग्रेस की तरफ से कोई राजनीतिक बयान नहीं आया है . आमतौर पर जो कुछ भी कांग्रेसी नेता लोग कह रहे हैं उसको प्रतिक्रिया  की  श्रेणी में  रखा जा सकता है . मध्य प्रदेश की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव बादल सरोज का बयान आया है और उन्होंने राज्य में  किसानों समेत अन्य राजनीतिक पार्टियों को लामबंद करना शुरू कर दिया है . सी पी एम के बयान में कहा गया है कि "  पीपल्या मंडी जिला मंदसौर में जैन मंदिर के सामनेबही पार्श्वनाथ फंटा (तिराहा) पर आंदोलनरत किसानों पर भीषण गोलीचालन की खबर विचलित कर देने वाला समाचार  है।  पुलिस द्वारा की गयी इस गोलीबारी  में अपुष्ट समाचारों के अनुसार तीन किसान मारे गए हैं तथा कोई दर्जन भर घायल हुए हैं। 
सीपीएम बेहद शर्मनाक मानती है कि जिस सरकार के मुख्यमंत्री ने इतने दिनों से शांतिपूर्ण तरीके से अपनी जायज मांगों को लेकर आंदोलनरत किसानों से कोई संवाद तक करना जरूरी नहीं समझा उलटे उन्हें अपमानित और लांछित करने वाली बयानबाजी करते रहे - उसी सरकार के गृह मंत्री द्वारा इस गोलीबारी पर कथित रूप से बयान दिया है कि किसानों ने खुद ही गोली मार ली होगी।  यह संवेदनहीनता और अशिष्टता की पराकाष्ठा है। ऐसे गृहमंत्री को बर्खास्त किया जाना चाहिए। 
किसान का बेटा होने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री में  ज़रा भी नैतिकता है तो उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। " इसके बाद शिवराज सरकार का राजनीतिक विरोध शुरू हो गया  है . खबर है कि कांग्रेस वाले भी कुछ कर रहे  हैं .

मध्यप्रदेश में तो  गोली चल गयी तो बड़ी खबर बन गयी लेकिन देश के कई  राज्यों में सरकारों के खिलाफ किसानों का आन्दोलन चल रहा है . महाराष्ट्र में तो एक दिन खबर आई कि आन्दोलन में समझौता हो गया है और किसानों ने अपना संघर्ष वापस ले लिया है . बाद में पता चला कि वह खबर गलत थी. हुआ यों था कि बीजेपी के सहयोगी एक किसान संगठन के लोग भी आन्दोलन में शामिल हो गए थे और जब  संघर्ष जोर पकड़ने लगा तो उन  लोगों ने सरकार से समझौता कर लिया . जब असली आन्दोलन के नेताओं को पता चला तो समझौता करने वाले नेताओं को अलग करके फिर से संघर्ष  शुरू हुआ.  संघर्ष जारी है .इसके पहले महाराष्ट्र के किसान आन्दोलन में सत्ताधारी पार्टी के प्रिय , अन्ना  हजारे भी शामिल होने के  फ़िराक में थे लेकिन उनको भी भगाया गया क्योंकि  किसानों को मालूम है  अन्ना हजारे  बीजेपी के बहुत करीबी माने जाते हैं .उनको यह भी पता है कि जो भी मिलेगा,  संघर्ष से ही मिलेगा क्योंकि १९९१ के बाद से डॉ मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी विकास के पक्ष में खड़ा कर दिया है और उसके बाद से देश की सरकारें कल्याणकारी राज्य की  सीमा से  बाहर हो गयी हैं और बड़ी पूंजी की  पोषक सरकारें बन गयी हैं .  हर   सरकार का घोषित उद्देश्य बड़े औद्योगिक विकास को बढ़ावा देना है क्योंकि उनकी समझ  में औद्योगीकरण को विकास की मुख्य    धारा में रखने से ही देश और अर्थव्यवस्था ढर्रे पर चलेगी. पूंजीवादी विकास में गरीब आदमी या ग्रामीण आदमी की भूमिका केवल उपभोक्ता की होती है .किसान  खेती से जो भी उत्पादन करता है उसपर पूंजी का पूरी तरह नियंत्रण होता है और ग्रामीण इंसान औद्योगिक विकास का कच्चा माल भर होता है .  यहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि कोई भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री इस सांचे के बाहर नहीं जा सकता .  हां यह ज़रूर है कि किसान और गरीब का  नाम लोकसभा या  विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए किया जाता है क्योंकि १२५ करोड़ लोगों  में उनका बहुत है और वे सरकार बनाने लायक बहुमत दे  सकते हैं . इसीलिये  किसानों की मुख्य समस्याएं चुनाव  अभियान के दौरान विमर्श का मुख्य विषय होती हैं और  चुनाव के बाद उनको टाल दिया जाता है . शिवराज सिंह  या नरेंद्र मोदी की  सरकार के लिए वे प्राथमिकता सूची से  बाहर रहती हैं क्योंकि किसानों  के कल्याण की योजनायें केवल  जुमला होती हैं , मनमोहन सिंह के आर्थिक दर्शन की अनुयाई कोई भी पार्टी  किसानों के भले के लिए कोई आर्थिक नीति बना ही नहीं सकती. चुनावी शिकंजे में किसान की बहुसंख्यक  वोट शक्ति को  फंसाने के लिए किसान की भलाई के नारे लगाए जाते हैं .

वास्तव में आज किसान जिस दुर्दशा  को झेल रहा है , महात्मा गांधी को उसका अनुमान शुरू से था. उन्होंने  देखा था कि किस तरह से ब्रिटिश साम्राज्य ग्रामीण क्षेत्रों और वहां रहने वालों का शोषण कर रहा था. सारी सरकारी स्कीमें बड़े और आद्योगिक शहरों या अंग्रेजों की सैरगाहों के लिए होती थीं. ऐसा इसलिए होता था कि औद्योगिक उत्पादन अंग्रेजों की शोषण की बुनियादी अवधारणा थी. इसीलिये गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने अपनी किताब ग्राम स्वराज्य में लिखा है कि   " आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्मनिर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . " उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ....

लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी.यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट बनाने  का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन बन गयी जो आज तक जारी है . नेहरू के बाद की सरकारें भी उसी रास्ते चलती रहीं लेकिन नेहरू की आर्थिक विकास की सोच में बड़े उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण को प्रमुखता दी गयी थी. जिससे मुकामी पूंजीवादी उद्योगपति देश के आर्थिक विकास का लाभ तो ले सकते थे लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को कंट्रोल नहीं कर सकते थे.
डॉ मनमोहन सिंह ने जिस आर्थिक विकास की बुनियाद रखी उसके बाद बड़ी पूंजी के मालिकों  को अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने के बहुत   अधिक अवसर मिल गए. आज जब लोग कुछ उद्योगपतियों द्वारा लाखों करोड़ रूपया डकार जाने की बात करते हैं तो उनको पता होना चाहिए कि पूंजीवादी आर्थिक विकास में  धन का मालिक औद्योगिक विकास पर तो नियंत्रण रखता है ,वह यह भी सुनिश्चित करता  है कि जो भी सरकारें जहां भी हों वे केवल और केवल उसके  हित में काम करें. मध्यप्रदेश , तमिलनाडु ,महाराष्ट्र, कर्नाटक,  राजस्थान, छतीसगढ़ आदि के सरकारें पूंजीपति वर्ग के हित में काम  कर रही हैं और वह अपनी तथाकथित विकास की नीतियों को लागू कर रही हैं . और जब उस मार्ग में कोई भी वर्ग बाधा डालने की कोशिश  करेगा तो उसको दण्डित किया जाएगा. मध्य प्रदेश के पीपल्या में सरकारी गोली  से हुयी किसानों की हत्या उसी पूंजीवादी अर्थशास्त्र को लागू करने की कोशिश है . जब तक लोगों की समझ में यह नहीं आयेगा कि सरकारें पूंजीवादी ताक़तों के हित में काम करती हैं तब तक किसी बदलाव की उम्मीद करना बहुत मतलब नहीं रखता.
जिस तरह की सरकारों  की स्थापना १९९२ के बाद इस देश में होना शुरू हुयी है ,उनका उद्देश्य ही पूंजी पर आधारित विकास को बढ़ावा देना  है, औद्योगीकरण के विकास के लिए धन  और अवसर उपलब्ध कराना है . और  हर सरकार वही कर रही है . अगर इस   रास्ते से देश को बचाना होगा तो वैकल्पिक आर्थिक विकास  की बात करनी होगी जिसमें किसान और खेती को विकास की बुनियाद माना जाए, विकास का कच्चा माल नहीं . इसके लिए फिर से गांधी के  रास्ते पर लौटना होगा. ज़ाहिर है न्यस्त स्वार्थ ऐसा होने नहीं देगें लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद भी तो गांधी को वह नहीं करने देना चाहता था . लेकिन  गांधी  की बात मानी गयी और अंग्रेजों को जाना पड़ा . ऐसा इसलिए संभव हुआ कि महात्मा गांधी के साथ आम आदमी की ताकत थी . गांधी के   रास्ते पर दुबारा आर्थिक विकास को लाने के लिए गांधी का रास्ता ही अपनाना पडेगा .

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