शेष नारायण सिंह
अखबार में खबर है कि राजस्थान हाई कोर्ट ने सुझाव दिया है कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर दिया जाय . माननीय हाई कोर्ट ने यह भी सुझाव दिया है कि गाय को जान से मारने वाले को आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान कानून में होना चाहिए . एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान कोर्ट का यह सुझाव आया है . यह बताना ज़रूरी है कि यह माननीय हाई कोर्ट का आर्डर नहीं है . अगर आर्डर होता तो सरकार को इस पर विचार करने की बाध्यता होती , क्योंकि कोर्ट का आर्डर सरकार को लागू करना होता है . इसी बीच मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने एक आर्डर दे दिया है . मंगलवार को हाई कोर्ट ने प्रिवेंशन आफ क्रुएल्टी टू एनिमल्स रूल्स २०१७ के नियम २२ ( बी ) और २२ (इ ) पर स्टे दे दिया है . केंद्र सरकार ने २३ मई को एक आदेश पास करके नए नियम बना दिए थे जिसके बाद पशु मेलों और बाज़ार में , वध के लिए पशुओं की बिक्री पर रोक लगा दी गयी थी. इस नए नियम को मद्रास हाई कोर्ट ने रोक दिया है , स्टे चार हफ्ते के लिए है . ज़ाहिर है पूरा आर्डर कोर्ट में विधिवत सुनवाई के बाद ही आयेगा .
मदुरै की एक वकील एस सेल्वगोमती ने एक जनहित याचिका दायर करके माननीय हाई कोर्ट से प्रार्थना की थी कि केंद्र सरकार का नया नियम संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन करता है . उन्होंने यह भी दावा किया था कि केंद्र सरकार को यह नियम नहीं बनाना चाहिए क्योंकि पशुओं से सम्बंधित सभी विषय राज्य सरकारों के कार्यक्षेत्र में आते हैं . संविधान की आत्मा मौलिक अधिकार और संघीय ढांचा हैं और यह नियम दोनों का ही उन्लंघन करता है .
याचिकाकर्ता का दावा है कि पी सी ए एक्ट के नए नियम संविधान में गारंटी किये गए मौलिक अधिकारों को अप्रभावी कर देते हैं क्योंकि संविधान के अनुच्छेद २५ में किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने के अधिकार की गारंटी दी गयी है .इसके अलावा मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद २९ में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने की गारंटी भी दी गयी है. कई धर्मों में पशु बलि का प्रावधान है और कुछ धर्मों के मतावलंबी पशुओं का वध भी करते हैं और उनके मांस का भोजन भी करते हैं . संविधान और कानून की बारीकियों के बीच सरकार का नया नियम चर्चा का विषय है . सरकार तो सरकार है , संसद में स्पष्ट बहुमत है, विपक्ष किसी भी मुद्दे पर चौकन्ना नहीं है, इसलिए जो भी प्रधानमंत्री और सरकार चाहेंगें पास कर लेंगें और उसी हिसाब से नियम कानून बना लेगें . लेकिन सरकार को यह ध्यान देना ज़रूरी है कि इस एक नियम से कहीं वह उन भावनाओं को हवा तो नहीं दे रही है जो देश के संघीय ढाँचे को ही नुक्सान पंहुचा दें .
मैं आजकल दक्षिण भारत में हूँ . दिल्ली में रह कर अंदाज़ नहीं लगता लेकिन यहाँ आकर एक अजीब सी तस्वीर नज़र आ रही है . ट्विटर पर #द्रविड़नाडु ट्रेंड कर रहा है जहां अजीबोगरीब बातें लिखी जा रही हैं . एक ट्वीट में लिखा है कि खाने पीने की रिवाज़ पर हमला और हिंदी थोपने की केंद्र सरकार की कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता . एक अन्य ट्वीट के अनुसार लोग मांग कर रहे हैं कि द्रविड़नाडू की राजधानी बैंगलोर, हैदराबाद, त्रिवेंद्रम और चेन्नई में से किसी एक शहर को बना देना चाहिए . इस तरह की मांग दक्षिण में पहले भी उठती रही है लेकिन उसको हमेशा करीने से सम्भाला जाता रहा है . करीब पचास साल पहले जब उत्तर भारत में हिंदी को देश की भाषा बनाने की बात बड़े जोर शोर से चली थी तो दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध में ज़बरदस्त आन्दोलन शुरू हो गया था. के करूणानिधि और अन्य कई नेता उसी आन्दोलन के बाद देश की राजनीति में नोटिस होना शुरू हो गए थे.
अभी अलगाववाद की आवाज़ बहुत ही क्षीण है लेकिन इस आवाज़ के जड़ तक जाने की ज़रूरत है . १९२० में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बाद अंग्रेजों को भारतवासियों की एकता ने डरा दिया था . अँगरेज़ इस मुगालते में थे कि धर्मों और जातियों में बंटा भारत देश कभी एक नहीं हो सकता लेकिन जब १९२० में गांधी जी के नेतृत्व में हिन्दू-मुसलमान , उत्तर-दक्षिण , सब एक हो गए तो अंग्रेजों ने अपने भारतीय भक्तों को आगे करके कई संगठन बनवाए . मजदूरों में भेद पैदा करने की कोशिश की . हिन्दू और मुसलमान में भेद डालने की कोशिश उत्तर में हुयी तो दक्षिण में अंग्रेजों ने यह बताने की कोशिश की कि ऊंची जातियों के लोग कांग्रेस की राजनीति में हावी हैं इसलिए कांग्रेस में गैर ब्राह्मण जातियों की अनदेखी होगी. जिन्ना महात्मा गांधी से नाराज़ चल ही रहे थे, कांग्रेस से अलग होकर मुसलमानों की राजनीति का विकल्प तलाश रहे थे .उनकी राजनीति को भी अंग्रेजों से समर्थन देना शुरू कर दिया , वी डी सावरकर वफादारी का वचन देकर जेल से रिहा हुए थे उनको भी आगे करके गांधी और कांग्रेस के विरोध की राजनीति को गर्माया गया और कुछ संगठन बनवाये गए .इसी अभियान में अंग्रेजों ने अपने कुछ वफादार लोगों को आगे करके द्रविड़ लोगों को आर्यों से अलग देश बनवाने की बात को हवा दी और उनको आगे कर दिया .दक्षिण भारत में भी एक संगठन खडा कर दिया गया . दरअसल ब्राह्मण मान्यताओं के खिलाफ मद्रास में १९१६ में ही जस्टिस पार्टी बन गयी थी . नाममात्र की इस पार्टी को अंग्रेजों ने अपनी छत्रछाया में ले लिया और १९२१ में अंग्रेजों के कुछ वफादार , सर पी टी चेट्टी , टी एम नायर जैसे लोगों को आगे करके बाकायदा चुनाव जीतने लायक राजनीतिक पार्टी बना दिया गया .इस जस्टिस पार्टी ने मद्रास प्रेसीडेंसी की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमा लिया . और यह सत्ता गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट के बाद तक रही. जब १९३७ में चुनाव हुए तब यह पार्टी कामजोर पडी क्योंकि तब तक तो हर कोने में गांधी का नाम जीत का पर्याय बन चुका था. लेकिन अंग्रेजों की वफादारी से यह लोग बाज़ नहीं आ रहे थे . गौर करने की बात है कि जिन्ना ने अंग्रेजों के हुकुम से पाकिस्तान बनाये जाने का प्रस्ताव २३ मार्च १९४० को लाहौर में मुस्लिम लीग की वार्षिक बैठक में पास करवा लिया था . यह वह दौर था जब भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले सारे नेता महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों का ज़बरदस्त विरोध कर रहे थे और अंग्रेजों के भक्त लोग दो राष्ट्रों के सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहे थे . इसी सिलसिले में १९४० में ही जस्टिस पार्टी ने द्रविड़नाडु की मांग को लेकर प्रस्ताव पास किया। जिन्ना ने तो अपने समर्थकों को अंधेरे में रखा था और यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान कहाँ बनेगा लेकिन दक्षिण में बात अलग थी . वहां द्रविड़नाडु का नक्शा ई वी रामास्वामी नायकर यानी पेरियार ने जारी कर दिया था जिसमें तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषा बोलने वालों के लिए एक अलग देश यानी द्रविड़नाडू की मांग की गयी थी.
ई वी रामस्वामी नायकर बाद में इस पार्टी के सर्वेसर्वा हो गए . उन्होंने ही इस पार्टी का नाम बदल कर द्रविड़ कषगम दिया और इस तरह से 'द्रविड़ कड़गम' नाम की संस्था का जन्म हुआ. शुरू में पेरियार ने दावा किया था कि यह गैरराजनीतिक संगठन है . द्रविड़नाडू का आन्दोलन जोर पकड़ रहा था. उस वक्त मद्रास प्रेसिडेंसी के अन्दर आने वाले सारे दक्षिण भारत को द्रविडनाडु बनाने की बात की जा रही थी. आज उसी मांग को नये सिरे से उभारने की कोशिश की जा रही है और यहाँ की गैर ब्राह्मण आबादी को यह बताने की कोशिश चल रही है कि पशुओं के वध पर जो रोक लगाई जा रही है ,वह वास्तव में ब्राह्मण आधिपत्य को स्थापित करने की कोशिश है .ऐसा इसलिए संभव हो रहा है कि आज दक्षिण में एक भावना घर कर गयी है कि ब्राहमणों की खाने पीने की परंपरा को द्रविड़ों पर लादा जा रहा है और केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेताओं का हिंदी प्रेम भी दक्षिण में चर्चा का विषय है . ऐसी ही हालत आजादी के बाद के दशक में भी पैदा हो गयी थी.
जब आज़ादी के बाद दक्षिण भारत से भाषा और ब्राह्मण आधिपत्य की बोगी चलाने की कोशिश की गयी तो जवाहरलाल नेहरू का नेतृत्व देश को उपलब्ध था .आज उनको सत्ताधारी पार्टी के समर्थक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करने की कोशिश करते हैं लेकिन जवाहरलाल सही अर्थों में राष्ट्र के नेता थे. उन्होंने दक्षिण से उठ रही विभाजन की आवाज़ को दबा दिया और दक्षिण से आने वाले अपने नेताओं के ज़रिये विभाजन की आवाज़ को देश की एकता के पक्ष में ढाल दिया था. उन्होंने भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करके मद्रास प्रेसीडेंसी के इलाके को चार राज्यों में बाँट दिया और हर राज्य में अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित होने का माहौल बनाया . दक्षिण भारत के मज़बूत नेताओं को समर्थन दिया और वे राष्ट्रीय मंच पर पहचाने गए . हिंदी के विरोध को एकदम से शांत कर दिया . अंग्रेज़ी को काम काज की भाषा बना दिया और हर इलाकाई भाषा को उस राज्य की भाषा बना दिया . चीन से युद्ध के बाद आम तौर पर जवाहरलाल का आत्म विश्वास डिगा हुआ था लेकिन उन्होंने संविधान में सोलहवां संशोधन करके कर सांसद या विधायक को भारत की अखण्डता की शपथ लेने की पाबंदी लगा दी. इस तरह से विभाजनकारी ताक़तों की राजनीति को बहुत कमज़ोर कर दिया . आज भी ज़रूरत इस बात की है कि मामूली राजनीतिक स्वार्थों के लिए सत्ताधारी पार्टी देश की एकता को किसी तरह के ख़तरे में न पड़ने दे. हालांकि यह भी सच है कि सत्ताधारी पार्टी हिन्दू धर्म की मान्यताओं को प्राथमिकता देती है , उनकी राजनीति में हिन्दू धर्म का माहात्म्य बहुत है लेकिन देश में एक बड़ी आबादी ऐसे लोगों की भी है जो हिन्दू नहीं हैं . वैष्णव हिन्दू व्यवस्था में मांस खाने पर भी पाबंदी है लेकिन देश में गैर वैष्णव हिन्दुओं की बड़ी संख्या है . सरकार को सब की भावनाओं को ध्यान में रखना होगा क्योकि देश की एकता और अखंडता सर्वोच्च है और उसकी हर हाल में हिफ़ाज़त होनी चाहिए .
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