कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में जब राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया तो हर रंग के कांग्रेसी ने उनको प्रधान मंत्री बनाने की राग में बात करना शुरू कर दिया . हद तो तब हो गयी जब उसी मंच पर मौजूद प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की मौजूदगी की परवाह न करते हुए कांग्रेसियों ने राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाने की मांग करते हुए नारे लगाना शुरू कर दिया . ऐसा माहौल बन गया कि लगने लगा कि अब कांग्रेस का एक सूत्री कार्यक्रम राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना ही रह गया है . उपाध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली में राज्यों के कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों , विधान मंडल में कांग्रेस पार्टी के नेताओं और राज्य अध्यक्षों की बैठक में भी उत्तराखंड के मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा ने राग प्रधानमंत्री का आलाप लिया . संतोष की बात यह है कि राहुल गांधी ने उनको फटकार दिया और यह बात वहीं बंद हो गयी. एक हफ्ते से अधिक वक़्त हो गया है और किसी कांग्रेसी का किसी भी अखबार में राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाने वाला बयान नहीं छपा है . यह देश की राजनीति के लिए सुकून की बात है कि देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फ़िज़ूल की बातों में समय नहीं लगा रहे हैं . सच्ची बात यह है कि अगर २०१४ के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस इस स्थिति में रही कि वह अपने उम्मीदवार को प्रधानमंत्री बनवा सके तो वह राहुल गांधी समेत किसी को भी प्रधानमंत्री बनवा सकती है .वह उनका अपना मामला है .
लेकिन देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी वाले अभी भी प्रधान मंत्री बनवाने वाले खेल में पूरी तरह से तल्लीन हैं . मीडिया में मौजूद मोदी के मित्रों की मदद से नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनवाने का अभियान प्रतिदिन रफ़्तार पकड़ रहा है . टेलीविज़न में भी नरेंद्र मोदी के समर्थक दिन रात इसी कार्यक्रम में लगे हुए हैं . हालांकि इस बात की कोई संभावना नहीं है कि बीजेपी को देश के अगले प्रधान मंत्री के चुनाव में कोई प्रभावशाली भूमिका मिलने वाली है .जब एन डी ए के नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे तो उनको बीस से ज्यादा राजनीतिक पार्टियों का समर्थन हासिल था .बीजेपी के अलावा उनके समर्थन में जनता दल यूनाइटेड, अकली दल, असं गन परिषद ,नागालैंड पीपुल्स फ्रंट,उत्तराखंड क्रान्ति दल, जनता पार्टी आल झारखण्ड स्टूडेंट्स युनियन ,महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ,हरियाणा जनहित कांग्रेस , झारखण्ड मुक्ति मोर्चा , बहुजन समाज पार्टी ,जम्मू-कश्मीर नेशनल कान्फरेंस,लोक जनशक्ति पार्टी ,एम डी एम के,डी एम के ,पी एम के ,इन्डियन फेडरल डेमोक्रेटिक पार्टी, तृणमूल कांग्रेस , बीजू जनता दल ,इन्डियन नेशनल लोक दल , राष्ट्रीय लोक दल . तेलुगु देशम , शिव सेना आदि के सहयोग से बीजेपी सत्तधारी पार्टी बनने में सफल हुई थी. इसमें से बहुत सारी पार्टियां २००४ के चुनावों में शून्य पर पंहुच गयीं . उनके नेताओं से बात करने पर पता चला है कि वे इसलिए भी तबाह हो गयीं कि उनके समर्थकों में एक बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का था जो बीजेपी की राजनीति के विरोधी थे लेकिन जब केन्द्र में सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला तो वे पार्टियां बीजेपी के साथ शामिल हो गयीं . राजनीति के जानकार मानते हैं कि २०१४ के चुनाव में अब वे पार्टियां बीजेपी के साथ नहीं जाने वाली हैं . आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि केवल शिव सेना और अकाली दल आज बीजेपी के साथ पूरी तरह से हैं . एक अन्य मज़बूत सहयोगी नीतीश कुमार की जनता दल ( यू ) भविष्य में बीजेपी के साथ नही रहेगी . अगर एक प्रतिशत वे बीजेपी के साथ जाना चाहेगें भी तो नरेंद्र मोदी के साथ तो बिलकुल नहीं रहेगें . यह बात खुद नीतीश कुमार ने बार बार दोहराई है . ऐसी हालत में नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वालों को देश की भावी राजनीति की सच्चाई पर गौर करना ज़रूरी है .
मीडिया में मौजूद नरेंद्र मोदी समर्थकों की उतावली का आलम यह है कि किसी के बयान को भी नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वाला बयान साबित करने में किसी तरह का संकोच नहीं करते. पिछले दिनों देवबंद के किसी मौलाना ने कुछ कह दिया जिसे मोदी समर्थकों ने मोदी के समर्थन में दिया गया बयान बता दिया . टी वी चैनलों पर उन मौलाना साहेब की बातें छाई रहीं .जोर शोर से यह प्रचार किया गया कि देवबंद जैसी जगह से आने वाले इतने बड़े मौलाना ने ऐलान कर दिया है कि मुसलमान अब नरेंद्र मोदी से नफरत नहीं करते , वे मोदी को प्रधान मंत्री के रूप में स्वीकार करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं .लेकिन जब उन्हीं मौलाना साहेब ने अपनी सफाई देने की कोशिश की तो उनकी बात को आगे बढाने वाले पता नहीं कहाँ गायब हो गए . वे बेचारे छोटे मोटे टी वी चैनलों के ज़रिये अपनी बात कहने की कोशिश करते पाए जा रहे हैं .
मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वालों को बहुत जल्दी है और वे बहुत गुस्से में भी हैं . इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर कहीं मोदी के खिलाफ कोई भी बात लिख दी जाती है तो उसके खिलाफ तो टिप्पणियां आती हैं वह गाली गलौज की भाषा अख्तियार कर लेती हैं . आज ही देश के एक बड़े अखबार में नरेंद्र मोदी की तुलना १९३३ के बाद के जर्मनी के नेता से करने की कोशिश करने वाला एक लेख छपा है . उसके खिलाफ मोदी समर्थकों का जो अभियान चल रहा है उस से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वाली ब्रिगेड कितनी असहिष्णु है . अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू ने नरेंद्र मोदी के बारे में एक विश्लेषणात्मक लेख लिख दिया था . बीजेपी आलाकमान के एक नेता ने पार्टी के अधिकृत प्रकाशन में काटजू के खिलाफ अभियान की शुरुआत कर दी .नतीजा यह हुआ कि बीजेपी का हर छुटभैया नेता इस विवाद में टूट पड़ा और संघ समर्थक मीडिया की मदद से तूफ़ान खडा कर दिया . इस वक़्त अगर भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग पर नज़र डाली जाए तो समझ में आ जाएगा कि बीजेपी के मोदी गुट वालों का कितना प्रभाव है . दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी या आर एस एस ने अभी हर स्तर पर यह बात बार बार दोहराया है कि नरेंद्र मोदी आधिकारिक रूप से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश नहीं किये गए हैं. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष , राजनाथ सिंह ने कई बार मीडिया के ज़रिये स्पष्ट कर दिया है कि नरेंद्र मोदी को पार्टी ने प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश नहीं किया है .पार्टी के सही मंचों पर फैसला लिया जाएगा लेकिन मोदी समर्थकों के पास यह सब सुनने का समय नहीं है . उन्हें तो प्रधानमंत्री के पद पर मोदी की तैनाती चाहिए .
राजनीतिक सच्चाई यह है कि अगर बीजेपी वाले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश कर देते हैं तो देश में चुनाव की राजनीति के बहुत सारे समीकरण बदल जायेगें .बीजेपी के साथ रहकर जिन राजनीतिक पार्टियों ने अपना सब कुछ गँवा दिया है वे किसी भी हालत में बीजेपी के पास नहीं जायेगीं . मुसलमानों के समर्थन से चुनाव जीतने वाली पार्टियां भी बीजेपी के साथ नहीं जायेगीं . १९९९ से २००४ के बीच में बीजेपी के साथ रहकर कई पार्टियों ने अपनी राजनीतिक हैसियत को चौपट किया है . इस लिस्ट में राम विलास पासवान, चंद्र बाबू नायडू जैसे नेता सरे फेहरिस्त हैं. अगर नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने आगे कर दिया तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस की मजबूती की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जायेगी . २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को कोई महत्व नहीं दिया लेकिन इन दो चुनावों के बीच जब २००९ का लोक सभा चुनाव हुआ तो कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिल गयीं. जानकार बताते हैं कि जनता ने केन्द्र में आर एस एस की संभावित सत्ता को रोकने के लिए ऐसा किया था. यह बात इस बार भी हो सकती है . वैसे यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के मौजूदा गणित में भी ऐसा कुछ नहीं है जिस से बीजेपी को सत्ता के करीब जाने में मदद मिलेगी. वहाँ चाहे कांग्रेस जीते या मायावती और मुलायम सिंह यादव , कोई भी बीजेपी की सरकार नहीं बनवाने वाला है. इसी तरह से ममता बनर्जी ने भी बीजेपी से दूरी बनाकर मुसलमानों का वोट हासिल किया है और आज कल मुख्यमंत्री बनी हुई हैं . उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद मुसलमानों को खुश करने के लिए उनको बहुत सारी सुविधाएँ दी हैं ,उर्दू अखबार वालों को बहुत महत्व दिया है और अपने आपको मुसलमानों का बहुत बड़ा हित चिन्तक साबित करने का अभियान चलाया है . ऐसी हालत में ऐसा नहीं लगता कि वे भविष्य में बीजेपी के साथ जायेगीं क्योंकि अगर उन्होने ऐसा किया तो उनको राजनीतिक रूप से घाटा होने की पूरी आशंका है . आन्ध्र प्रदेश की पार्टियां तेलुगु देशम और तेलंगाना राष्ट्र समिति वाले भी बीजेपी के साथी बनकर चुनावी मैदान में हार का सामना कर चुके हैं . दोनों ही पार्टियों के बड़े नेता कई बार कह चुके हैं कि वे किसी भी हालत में बीजेपी के साथ नहीं जायेगें . बड़े राज्यों में बिहार को भी शामिल किया जा सकता है जहां नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और राम विलास पासवान नरेंद्र मोदी का समर्थन किसी भी हालत में नहीं करेगें. महारष्ट्र में शिव सेना तो बीजेपी की मुख्य समर्थक है लेकिन बाकी कोई भी पार्टी उसके साथ नहीं जाने वाली है . पिछले दिनों शरद पवार की कुछ मुलाकातों के हवाले से माहौल बनाने की कोशिश की गयी कि उनकी पार्टी बीजेपी के साथ जा सकती है लेकिन जब पार्टी के अंदर की राजनीति के जानकारों से बात हुई तो समझ में आ गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है .ऐसी हालत में बीजेपी की राजनीति का समर्थन मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, गुजरात , राजस्थान . तमिल नाडू और दिल्ली के अलावा कहीं से आने की संभावना नहीं है . कर्णाटक में बीजेपी का अर्थ पूरी तरह से येदुरप्पा हुआ करता था . येदुरप्पा की राजनीति के जानकार जानते हैं कि येदुरप्पा के मन में दिल्ली वाले बीजेपी नेताओं के बारे में इतनी तल्खी है कि वे किसी भी हाल में इन लोगों को समर्थन नहीं देगे.
कुल मिलाकर जो राजनीतिक हालात विकसित हो रहे हैं उन से साफ़ संकेत मिल रहे हैं कि देश में परिपक्वता की राजनीति का युग आने वाला है . कांग्रेस में भी अब चापलूसी करने वालों का महत्व घटने के संकेत साफ़ नज़र आ रहे हैं . प्रधान मंत्री बनाने वालों की मंडली को फटकार बता कर राहुल गांधी ने संगठन को महत्व देने की बात करके अपनी पार्टी की राजनीति को गरिमा देने की कोशिश की है. बीजेपी में भी नितिन गडकरी को हटाकर राजनाथ सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाना इस बात का संकेत है कि वे नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों की ओर से मीडिया के ज़रिये चलने वाले अभियानों को उतना महत्व नहीं देने वाले हैं .ज़ाहिर है कि देश में परिपक्व राजनीति का युग आने ही वाला है .
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