शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां मुसलमान किसी भी सीट पर पक्की जीत तो नहीं दिलवा सकते हैं लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनकी संख्या हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर मुज़फ्फर नगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उन्हें मालूम है कि उन्हने मुसलामानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं इसलिए उनकी तरफ से केवल सांकेतिक कोशिश ही की जा रही है . उत्तर प्रदेश से आने वाले इकलौते राष्ट्रीय मुस्लिम नेता तक रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल सीट से चुनाव हार गए थे. लेकिन बाकी तीनों पार्टियां मुसलमानों के वोट की चाहत रखती हैं . कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान ओबीसी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात करके मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी . वह सफल नहीं रहा .कांग्रेस के खाते में मुसलमानों का पक्षधर बनाने के बहुत सारे अवसर नहीं हैं . बड़े ताम झाम के साथ यू पी ए सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाया था .उस वक़्त कहा गया था कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करवाने का ज़िम्मा इस मंत्रालय के पास था. लेकिन शुरू में यह मंत्रालय ऐसे मंत्रियों के हवाले किया गया था जो इस काम को पार्ट टाइम मानकर चल रहे थे. अब जो नए मंत्री आये हैं वे काम को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन अब समय बहुत कम बचा है . ज़ाहिर है मुसलमानों का पक्षधर बनाने की कांग्रेस की कोशिश हमेशा की तरह डावांडोल है .पिछले मंत्रियों के कार्यकाल के काम काज की जांच करने वाली संसद की एक कमेटी ने सरकार के कामकाज की सख्त नुक्ताचीनी की थी .
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया था . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े. कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म वापस कर दी गयी. यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है ., प्री मैट्रिक वजीफों के मद में मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयी रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना है कि उनके पास अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास मुसलमानों का नेतृत्व करने वालों की भी भारी कमी है . अपने एक राष्ट्रीय नेता को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देख लिया कि बड़े नेता को चार्ज देने से भी उनका कोई लाभ नहीं हुआ.
बहुजन समाज पार्टी भी मुस्लिम बी वोटों की दावेदार के रूप में जानी जाती है . यह अलग बात है कि मायावती ने राज्य और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारों का समर्थन किया है लेकिन वे अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताती हैं . उनकी तरकीब यह है कि वे बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देती हैं . उनके साथ कुछ मुसलमान मंत्री भी रहते हैं लेकिन किसी को भी नेता के रूप में उभरने का मौक़ा नहीं मिलता,सभी मायावती जी की छत्रछाया में ही नेता बने रहते हैं .
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की खैरख्वाह के रूप में समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही एक पहचान मिली हुयी है . बीच में कुछ महीनों के लिए पार्टी के अध्यक्ष के कल्याण प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी को मुसलमानों ने शक की नज़र से देखा लेकिन बाद में जब कल्याण सिंह को पार्टी से हटा दिया गया तो मुसलमान बड़ी संख्या में उनके साथ आये और सत्ता अखिलेश यादव को सौंप दी .लेकिन जब सत्ता आयी तो दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मुसलमानों ने दावा करना शुरू कर दिया की उनके कारण ही सारा मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ जुडा था. मुलायम सिंह की पार्टी को सत्ता दिलवाने का दावा करने वालों में ऐसे मुसलमान भी शामिल थे जो अपने मुहल्ले का चुनाव नहीं जीत सकते . ऐसे बहुत सारे मुसलमान भी मुलायम सिंह की तकदीर बनाने का दावा करने लगे जिनकी रोटी पानी भी समाजवादी पार्टी की वजह से चलती थी . मुलायम सिंह यादव ने इस जमात के लोगों को खूब लाभ पंहुचाया और जनता में ऐसा माहौल बनना शुरू हो गया कि वे लोग वास्तव में समाजवादी पार्टी के सही खैरख्वाह हैं . आजकल पूरे राज्य में यही माहौल है . हालांकि सच्चाई यह है उत्तर प्रदेश का आम मुसलमान इन लोगों में से किसी को नेता नहीं मानता . वह केवल मुलायम सिंह यादव को अपना शुभचिन्तक और नेता मानता है. समाजवादी पार्टी के अन्दर की खबर रखने वाले पार्टी के एक नेता ने बताया कि उनकी पार्टी का आलाकमान अब पार्टी में ऐसे मुसलमानों को महत्व देना चाहता है जो वक़्त के साथ आर्थिक लाभ के लिए हर सत्ताधारी पार्टी के चक्कर नहीं काटने लगते .अब ऐसे नेताओं को आगे बढाने की योजना पर काम चल रहा है जो नौजवान हों और समाजवादी पार्टी के साथ ही शुरू से जुड़े रहे हों . जिनको विकसित किया जाए और जो बाद में पार्टी का मुस्लिम फेस बन सकें . पार्टी की स्थापना के बाद मुलायम सिंह यादव ने यह प्रयास किया था जब उन्होंने एक आन्दोलन से आये आज़म खान को समाजवादी पार्टी का प्रमुख मुस्लिम चेहरा बनाया था लेकिन बाद में जब अमर सिंह का प्रादुर्भाव हुआ तो आज़म खान का महत्व कम हो गया . पता चला है की इस बार भी सत्ता के दलालों के मकड़जाल से निकल कर समाजवादी पार्टी का आलाकमान किसी मुसलमान को गंभीर नेता के रूप में आगे बढाने की सोच रहा है . पता चला है की अमरोहा के विधायक और मंत्री, कमाल अख्तर को समाजवादी पार्टी आगे बढाने की सोच रही है . कमाल अख्तर छात्र नेता रहे हैं , जामिया मिलिया के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे, समाजवादी पार्टी के युवा संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे और राज्य सभा के सदस्य रहे . समाजवादी पार्टी के नेताओं के आस पास घूमने वाले अन्य नेताओं से अलग उनकी छवि भी है. पार्टी के शीर्ष नेता उन्हें पसंद करते हैं और वे चुनाव भी जीत जाते हैं . आजकल मंत्री हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों के जानकारों का कहना है की बहुत खुशमिजाज़ भी है।यह देखना दिलचस्प होगा कि समाजवादी पार्टी की यह कोशिश कितना प्रभावकारी साबित होते है . बहरहाल आने वाला चुनाव राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक अवसर है . वक़्त ही बताएगा कि वह इस अवसर का कैसा इस्तेमाल करती है .
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