शेष नारायण सिंह
दिल्ली में रहने वालों को महान नेताओं की समाधियों के बारे में खासी जानकारी रहती है. लगभग हर महीने ही सरकारी तौर पर समाधियों पर फूल माला चढ़ती रहती है . यह अलग बात है कि महात्मा गाँधी के अलावा और किसी समाधि पर आम आदमी शायद ही कभी जाता हो . अवाम की श्रद्धा के स्थान के रूप में महात्मा जी की समाधि तो स्थापित हो चुकी है लेकिन बाकी सब कुछ सरकारी स्तर पर ही है . करीब ३५ साल से दिल्ली में रह रहे अवध के एक गाँव से आये हुए इंसान के लिए यह सब उत्सुकता नहीं पैदा करता. बचपन में पढ़ा था कि शहीदों की मजारों पर हर बरस मेले लगने वाले थे लेकिन महत्मा गाँधी जैसे शहीद की मजार पर वैसा मेला कभी नहीं दिखा जैसा कि हमारे गाँव के आसपास के सालाना मेलों के अवसर पर लगता है .हाँ यह सच है कि गाँधी जी की समाधि पर दिल्ली आने वाले ज़्यादातर लोग जाते ज़रूर हैं ,वे चाहे आम जन हों या किसी देश के शासक .कई बार सोचता था कि शायद शहादत को बढ़ावा देने के लिए ऐसा कह दिया गया था, मेला वेला कहीं नहीं लगने वाला था . लेकिन इस सोच को इस बार ज़बरदस्त झटका लगा . इस साल बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर मुंबई में मौजूद रहने का मौक़ा मिला. बात बिलकुल समझ में आ गयी कि जिन लोगों ने भी कहा था कि शहीदों की मजारों पर लगेगें हर बरस मेले, वह सच कह रहा था. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की चैत्यभूमि पर इस साल छः दिसम्बर को मेला लगा था . मैंने अपनी आँखों से देखा . जिन लोगों से वहां मुलाक़ात हुई उन्होंने बताया कि यहाँ इसी तरह का मेला हर साल लगता है . लाखों लोग पूरे महाराष्ट्र से छः दिसंबर को मुंबई के दादर की चौपाटी पर आते हैं और बाबासाहेब की स्मृति में सिर झुकाते हैं .
इस साल भी दादर स्थित बाबासाहेब के स्मारक, चैत्यभूमि पर कई लाख लोग आये, एक दिन पहले से ही लाइन लगने लगी थी .दादर की चौपाटी की तरफ जाने वाली हर सड़क पर इंसानों का सैलाब उमड़ पड़ा था. २ किलोमीटर लम्बी लाइन लगी थी . जब मैं वरली पंहुचा तो लाइन में लगा हुआ आख़िरी व्यक्ति वहीं था . वरली की दूरी दादर के स्मारक से करीब २ किलोमीटर है . जानकारों ने बताया कि आम तौर पर छ से सात घंटे लाइन में लगकर ही बाबासाहेब की समाधि तक पंहुचा जा सकता है .५ दिसंबर से ही लाइन में लगे लोग ६ दिसंबर को शिवाजी पार्क में सार्वजनिक सभा में उतनी ही खुशी से शामिल होते हैं .. लोगों के चेहरों पर जो उत्साह दिखता है ,जिसने उसे नहीं देखा ,उसे मालूम ही नहीं कि उत्साह होती क्या चीज़ है . .बहुत ही पतली गलियों से होकर चैत्यभूमि का रास्ता गुज़रता है. पुलिस का बहुत ही ज़बरदस्त इंतज़ाम था . इसलिए ज़्यादातर लोगों को मालूम था कि वे वहां तक नहीं पंहुच पायेगें . लेकिन उन्हने चिंता नहीं थी .लोग दादर की चौपाटी पर गीली रेत से उत्साही लग बाबासाहेब का स्मारक बना लेते हैं और उसी स्मारक के सामने अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित कर देते हैं .रेत के बने इन स्मारकों पर भी बहुत सारे पुष्प चढ़ाए गए थे ,मोमबत्तियां लगी हुई थीं और अगरबत्तियां सुलग रही थीं .दादर से लेकर परेल तक सडकों पर बहुत सारे लोग ऐसे भी थे जो अंबेडकर साहित्य बेच रहे थे.अंबेडकर की तस्वीरें भी बिक रही थीं ,उनकी मूर्तियों का भी बहुत बड़ा ज़खीएर था और बहुत सारे लोग अपने हाथ पर अंबेडकर की तस्वीर का टैटू गुदवा रहे थे.
औरंगाबाद से आये एक परिवार से पता लगा कि वे हर साल छः दिसंबर को दादर आते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि चैत्यभूमि तक नहीं पंहुचते . फिर भी कोई परवाह नहीं . जब चलते हैं और वापस जाने के एक हफ्ते तक उनके घर का माहौल अंबेडकरमय रहता है .उत्तर प्रदेश के रहने वाले आदमी को लगता है कि डॉ अंबेडकर से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम दलितों के आकर्षण की ही चीज़ है लेकिन मुंबई की सडकों पर छः दिसंबर को घूमते हुए इस धारणा के परखचे उड़ गए. दादर के आसपास ऐसे बहुत सारे लोग मिले जो दलित नहीं थे. उनके पूर्वज दलितों के शोषक रह चुके थे लेकिन वे अब पूरी तरह से बाबासाहेब की सामाजिक न्याय की लड़ाई में शामिल हैं . ऐसा शायद इसलिए होता है कि महाराष्ट्र में सामाजिक बराबरी के संघर्ष का एक मज़बूत इतिहास है . डॉ अंबेडकर के पहले इसी महाराष्ट्र में महात्मा फुले ने भी सामाजिक बराबरी के संघर्ष को एक स्वरुप दिया था और अपने माता पिता के विरोध के बावजूद १८४८ में पूना में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोल दिया था . उन्हें अपने घरवालों की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी लेकिन आन्दोलन चलता रहा था.डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा समय से चल रहे बराबरी के आन्दोलन के नतीजे की ताक़त तब समझ में आई जब दादर की चैत्य भूमि में अंबेडकर के भक्तों का हुजूम देखा. और लगा कि जिसने भी कहा था कि शहीदों की याद में हर बरस मेले लगेगें , उसने गलत नहीं कहा था
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