शेष नारायण सिंह
पहली बार किसी राजनीतिक चुनाव में अपने मातापिता और गाँव के अन्य लोगों को वोट डालते मैंने १९६२ के चुनाव में देखा था. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ साथ होते थे . बाद में पता चला कि वहां से विधायक कौन था लेकिन चुनाव के दौरान कांग्रेस के दो बैलों की जोड़ी की ही चौतरफा चर्चा थी. कांग्रेसी उमीदवार पखरौली के उमा दत्त थे ,वे ही जीते . जनसंघ के दीपक निशान से उम्मीदवार रामपुर के उदय प्रताप सिंह थे लेकिन ज्यादातर लोग बैलों की जोड़ी पर ही वोट डाल रहे थे . उसके पहले मैंने अपने गाँव में जिले के बड़े नामी वकील बाबू गनपत सहाय को ऊँट छाप से चुनाव लड़कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करते देखा था. 1961 में सुल्तानपुर लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ था . कांग्रेस के ताक़तवर नेता स्व गोविन्द वल्लभ पन्त के बेटे कृष्ण चन्द्र पन्त को कांग्रेस से टिकट मिला था जिसका कांग्रेसी दावेदार बाबू गनपत सहाय ने विरोध किया और बाग़ी उम्मेदवार के रूप में पर्चा भर दिया . ऊँट चुनाव निशान से उनका ज़बरदस्त प्रचार हुआ और कृष्ण चन्द्र पन्त चुनाव हार गए. उस समय के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता चंद्रभानु गुप्त ने पन्त जी के बेटे का समर्थन किया था लेकिन कांग्रेस चुनाव हार गयी. यह सब जानकारी मुझे बाद में मिली जब मैंने उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में रूचि लेना शुरू किया . चुनाव के दौरान तो एक लेफ्ट हैंड ड्राइव विल्लीज़ जीप पर बैठे सफ़ेद मूंछों वाले बाबू गणपत सहाय की याद भर है . उनकी जीत का फायदा यह हुआ कि कांगेस की समझ में आ गया कि गनपत सहाय को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता . नतीजतन १९६२ के आम चुनाव में सुल्तानपुर लोकसभा सीट से उनेक बेटे कुंवर कृष्ण वर्मा को टिकट मिला और वे ही लोकसभा के सदस्य हुए . लेकिन यह सब एक बच्चे के रूप में द्केही गयी यादें हैं.
जिस पहले राजनीतिक चुनाव और घटनाक्रम की मुझे स्पष्ट याद है वह १९६६ में हुए उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के चुनाव की है . उन दिनों सुल्तानपुर-प्रतापगढ़-बाराबंकी जिलों को मिलाकर विधानपरिषद का एक चुनाव क्षेत्र होता था . उस चुनाव में चंद्रभानु गुप्त की उम्मीदवार थीं ,बाराबंकी की मोहसिना किदवई . उनको चुनौती दिया प्रतागढ़ के पंडित मुनीश्वर दत्त उपाध्याय ने . उपाध्याय जी उस चुनाव में मेरे घर आये थे . पहली बार किसी साक्षात नेता का दर्शन मुझे मुनीश्वर दत्त उपाध्याय का ही हुआ . मैं हाई स्कूल में पढता था और मुझे विधिवत याद है कि हमारे ब्लाक प्रमुख स्व त्रिभुवन दत्त पाण्डेय उनको लेकर आये थे. विधानपरिषद के चुनावों में सभी वोट नहीं देते थे . मतदान का अधिकार केवल ग्राम प्रधानों को होता था. मेरे पिताजी गाँव के प्रधान थे. मुनीश्वर दत्त उपाध्याय मेरे घर आये . काफी देर तक बैठे और कुछ शरबत आदि भी ग्रहण किया . उन दिनों गाँवों में चाय पीने का उतना रिवाज़ नहीं था. चाय की पैकिंग भी पुडिया में होती थी. ‘ लिप्टन लाओजी टी ‘ की पुड़िया मैं ही कई बार राम नायक सेठ के यहाँ से लाया करता था. लेकिन किसी के आने पर चाय नहीं शरबत या शिखरन पिलाने की प्रथा थी. किसी नेता का साक्षात दर्शन मैंने पहली बार उसी चुनावों में किया था . मेरे पिताजी उनसे बहुत प्रभावित हुए और न केवल अपना बल्कि और कुछ लोगों के भी कुछ वोट दिलवाए थे . देवरी और नौगवां में हमारे खानदान के लोग ही गाँव प्रधान थे . मोहसिना किदवई वह चुनाव हार गईं थीं .मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को प्रदेश में मंत्री बनाया गया था .
मुनीश्वर दत्त उपाध्याय से मैं इतना प्रभावित हुआ कि उनके बारे में मैंने काफी जानकारी इकठ्ठा की . जब मैं उसी साल प्रतापगढ़ की तहसील पट्टी के पास अपनी बहिन के गाँव गया तो पता चला कि वहां का जो इंटर कालेज था उसको मुनीश्वर दत्त उपाध्याय ने ही खुलवाया था. बहुत बड़ी बिल्डिंग थी उस कालेज की . मेरे अपने इंटर कालेज से बहुत बड़ी . उनको बेल्हा ( प्रतापगढ़ ) का मदनमोहन मालवीय कहा जाता था क्योंकि उन्होंने जिले में बहुत सारे कालेज खोले. किसी भी कालेज में अपना नाम नहीं डालते थे . जैसे इंटर कालेज पट्टी या डिग्री कालेज प्रतापगढ़ ही नाम होता था. बाद में लोगों ने सभी कालेजों में लोगों के नाम जोड़ लिए . प्रतापगढ़ वाले डिग्री कालेज में तो उनका खुद का नाम दे दिया गया . जब उन्होंने पढाई की थी तो उनके जिले में स्कूल कालेजों की संख्या बहुत कम थी . उन्होंने खुद प्रतापगढ़ के सोमवंशी इंटर कालेज से पढाई की थी. इस कालेज को राजा प्रताप बहादुर ने शुरू किया था इसलिए बाद में उसका नाम पी बी इंटर कालेज कर दिया गया . उन दिनों जिले में और कोई भी इंटर कालेज नहीं था. . मुनीश्वर दत्त उपाध्याय ने तय किया कि शिक्षा से ही समाज में बदलाव आयेगा . उत्तर प्रदेश के मज़बूत राजनेता के रूप में उन्होंने भारत की आजादी के बाद अपने जिले प्रतापगढ़ में कालेज और स्कूल खोलने का सिलसिला जारी कर दिया .१९५२ में लोकसभा का सदस्य चुने जाने के बाद जिले के ग्रामीण अंचल में शिक्षा संस्थाओं की बड़े पैमाने पर स्थापना शुरू कर दी. पट्टी का इंटर कालेज और सैफाबाद का हाई स्कूल उनकी शुरुआती संस्थाएं थीं . बाद में उन्होंने करीब दो दर्ज़न स्कूल कॉलेज शुरू करवाए . वे जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के बहुत करीबी थे.. जब १९७७ में मैंने उनसे मिला तो बहुत बूढ़े हो चुके थे लेकिन आज़ादी की लडाई की बहुत सारी यादें उनके पास थीं . इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में ही वे आज़ादी की लडाई में शामिल हो गए थे. जवाहरलाल नेहरू ने जब प्रतापगढ़ और रायबरेली में किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया तो मुनीश्वर दत्त उपाध्याय उनके मुख्य संगठनकर्ता थे. उस दौर में वे जिले के किसान नेताओं बाबा रामचंदर और झिंगुरी सिंह के साथ आज़ादी का सन्देश किसानों तक पंहुचाने में जी जान से जुटे थे और काफी हद तक सफल रहे थे . आज़ादी के बाद मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। .उपाध्याय जी वर्ष 1952 व 1957 में प्रतापगढ़ से दो बार लोकसभा का चुनाव जीते लेकिन १९६२ में वहां से जनसंघ के टिकट पर प्रतापगढ़ के राजा ,अजीत प्रताप सिंह लोकसभा पंहुचे .
उत्तर प्रदेश में आज़ादी के बाद जो भूमि सुधार लागू हुए उनमें मुनीश्वर दत्त उपाध्याय का बड़ा योगदान है . ज़मींदारी उन्मूलन के लिए वे आज़ादी की लड़ाई के दौरान सक्रिय रहे . ज़मींदारी प्रथा पर उनकी किताब भी है . मेरी कोशिश है कि उनके किसी वंशज से मुलाक़ात हो जाए तो अपनी प्रस्तावित किताब में उनपर बाकायदा के अध्याय लिखूंगा क्योंकि आज़ादी की लडाई की जो मूल मान्यताएं हैं उनको उन्होंने ज़मीन पर लागू किया था . उनके असली मित्रों लाल बहादुर शास्त्री और जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद उनको चंद्रभानु गुप्त ने दरकिनार कर दिया क्योंकि उनको मालूम था कि मुनीश्वर दत्त उपाध्याय उनके लिए चुनौती बन सकते थे. उसके बाद राज्य की राजनीति में उनकी हैसियत कम हो गयी थी . ८५ साल की उम्र में १९८३ में उनकी मृत्यु हुई.
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