शेष नारायण
सिंह
उत्तर दिशा
में स्थित देवतात्मा हिमालय नाम के नगाधिराज पर प्रकृति का एक और आक्रोश फूटा है. ल यह इंसान की गलत नीतियों का खामियाजा हिमालय को
भोगना पड़ता है .नतीजतन हिमालय पर प्रकृति
का एक और कहर बरपा हो गया . उत्तराखंड के चमोली जिले में एक ग्लेशियर फटने से ऋषि
गंगा क्षेत्र में तबाही आयी है . वहां के
एक बिजली उत्पादन केंद्र पर मुख्य रूप से असर पड़ा है . अपने देश में बिजली
के उत्पादन को विकास से जोड़ा जाता है .अपने देश में नेताओं ने और पूंजी के
बल पर राज करने वाले लोगों के एक वर्ग ने विकास की अजीब परिभाषा प्रचलित कर दी है
. ग्रामीण इलाकों को शहर जैसा बना देना विकास माना जाता है . इकनामिक फ्रीडम के बड़े चिन्तक डॉ मनमोहन सिंह और बीजेपी, कांग्रेस और शासक वर्गों की अन्य
पार्टियों में मौजूद उनके ताक़तवर चेले पूंजीपति वर्ग की आर्थिक तरक्की के
लिए कुछ भी तबाह कर देने पर आमादा हैं . इसी चक्कर में अब उत्तराखंड के पहाड़ तबाही की ज़द में हैं .इस बार की चमोली की घटना में लगातार गर्म होते जा रहे पर्यावरण का भी योगदान है . विश्व के नेता क्लाइमेट चेंज को गंभीरता से नहीं ले
रहे हैं. पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति ,डोनाल्ड ट्रंप जैसे गैरजिम्मेदार नेता तो पेरिस
समझौते से अमरीका को बाहर ले गए थे . यह तो गनीमत है कि नए राष्ट्रपति जो बाइडेन
ने फिर से अमरीका को पेरिस वार्ता से जोड़ दिया है. क्लाइमेट चेंज का खामियाजा दुनिया
भर को झेलना पड़ेगा .भारत ने चमोली में झेल लिया . सफलता के लिए इस दिशा में दुनिया
भर के देशों के साथ मिलकर चलना पडेगा . भारत अकेले कुछ नहीं कर सकता . लेकिन अकेले
यह तो किया ही जा सकता है कि अपने हिमालय को बचाने के लिए जो ज़रूरी उपाय हों और
अपने बस में हिन्, वे किये जाएँ.अब हिमालय को निजी और पूंजीपति वर्ग के स्वार्थों और
मैदानी तर्ज के विकास की सोच के कारण इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि वह बारिश को भी
संभाल नहीं पाता, ग्लेशियर फटने की बात तो अलग है . आज उत्तराखंड ,खासकर गढ़वाल
क्षेत्र में हिमालय नकली तरीके के विकास की साज़िश का शिकार हो चुका है और वह
प्रकृति के मामूली गुस्से को भी नहीं झेल पा रहा है .
हिमालय के
प्रति अपमान का आलम यह है कि गंगा नदी को उसके उद्गम के पास ही बांध दिया गया है .
बड़े बाँध बन गए हैं और भारत की संस्कृति से जुडी यह नदी कई जगह पर अपने रास्ते से हटाकर सुरंगों के ज़रिये बहने को मजबूर कर दी
गयी है .. पहाडों को खोखला करने का सिलसिला टिहरी बाँध की परिकल्पना के साथ शुरू
हुआ था. 1974 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे ,हेमवती
नंदन बहुगुणा ने सपना देखा था कि प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई के बाद जो जीत
मिलेगी वह पहाड़ों को भी उतना ही संपन्न बना देगी जितना मैदानी इलाकों के शहर हैं
.उनका कहना था कि पहाड़ों पर बाँध बनाकर देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा
की जायेगी .इसी सोच के चलते गंगा को घेरने की योजना
बनाई गयी थी . ऐसा लगता है कि हिमालय के पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा को यह बिलकुल
अंदाज़ नहीं रहा होगा कि वे किस तरह की तबाही को अपने हिमालय में न्योता दे रहे
हैं .पहाड़ों से बिजली पैदा करके संपन्न
होने की दीवानगी के चलते ही उत्तरकाशी और गंगोत्री के 125 किलोमीटर इलाके में पांच बड़ी बिजली परियोजनायें है. जिसके कारण
गंगा को अपना रास्ता छोड़ना पड़ा .इस इलाके में बिजली
की परियोजनाएं एक दूसरे से लगी हुई हैं .. एक परियोजना जहां खत्म होती है
वहां से दूसरी शुरू हो जाती है. यानी नदी
एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि जब
ये सारी परियोजनाएं पूरी हों जाएंगी तो इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा
अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही होगी. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ
फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में
रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 प्रजातियों को आश्रय देती है. इसमें पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें मिलने वाले
पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. जानकार कहते हैं
कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की
किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को
सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी.. इसके
बावजूद सरकारें बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी
देने पर आमादा रहती हैं ..
.
भागीरथी को
सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग तभी से कर रहे हैं
जब इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी. लेकिन वहीं पर रहने वाले बहुत से नामी
साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस अनुचित विकास की बात भी करने लगे हैं . उसमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल थे
जिन्होंने पहले बड़े बांधों के नुक्सान से लोगों को आगाह भी किया था लेकिन
बाद में पता नहीं किस लालच में वे सत्ता के पक्षधर बन गए.
ऐसा भी नहीं है कि हिमालय और गंगा के साथ हो रहे अन्याय से लोगों ने आगाह नहीं
किया था. पर्यावरणविद, आज के बीस साल पहले सुनीता नारायण,
मेधा पाटकर , आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर
जी डी अग्रवाल और बहुत सारे हिमालय प्रेमियों ने इसका विरोध किया . बहुत सारी पत्रिकाओं ने बाकायदा अभियान चलाया लेकिन सरकारी
तंत्र ने कुछ नहीं सुना. सरकार ने जो सबसे बड़ी कृपा की थी वह यह कि प्रोफ़ेसर
अग्रवाल का अनशन तुडवाने के लिए उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन
चंद्र खंडूड़ी दो परियोजनाओं को अस्थाई रूप से रोकने पर सहमत जता दी थी लेकिन बाद
में फिर उन परियोजनाओं पर उसी अंधी गति से काम शुरू हो गया. सबसे तकलीफ की बात यह
है कि भारत में बड़े बांधों की योजनाओं को आगे बढ़ाया जा रहा है जब दुनिया भर में
बड़े बांधों को हटाया जा रहा है. अकेले अमेरिका में ही करीब 700 बांधों
को हटाया जा चुका है
सेंटर फार
साइंस एंड इन्वायरमेंट ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा
था कि २५ मेगावाट से कम की जिन छोटी
पनबिजली परियोजनाओं को सरकार बढ़ावा दे रही है उनसे भी पर्यावरण को बहुत नुक्सान
हो रहा है . इस तरह की देश में हज़ारों परियोजनाएं हैं
.उत्तराखंड में भी इस तरह की थोक में परियोजनाएं हैं
जिनके कारण भी बर्बादी आयी है. उत्तराखंड में करीब 1700 छोटी पनबिजली परियोजनाएं हैं . भागीरथी और
अलकनंदा के बेसिन में करीब 70 छोटी पनबिजली स्कीमों को लगाया गया है . जो
हिमालय को अंदर से कमज़ोर कर रही हैं.
इन योजनाओं के चक्कर में नदियों के सत्तर
फीसदी हिस्से को नुक्सान पंहुचा है .इन योजनाओं को बनाने में जंगलों की भारी
क्षति हुई है . सड़क, बिजली के खंभे आदि बनाने
के लिए हिमालय में भारी तोड़फोड़ की गयी है और अभी भी जारी है.मौजूदा कहर इसी
गैरजिम्मेदार सोच का नतीजा है .
अगर राजनेता तय कर ले तो उनकी मर्जी के खिलाफ जाने
की किसी भी माफिया की हिम्मत नहीं पड़ती है .
लेकिन नेताओं ने सही सलाह न
सुनने का निश्चय कर लिया है . तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत के कार्यकाल में
हिमालय को कई बार नुक्सान हुआ है . उसके बाद से अब तक यह
सिलसिला चला आ रहा है. अब तो पानी सर के
ऊपर जा रहा है . सत्ता और राजनीतिक पार्टी तो आती जाती रहेगी लेकिन अगर हिमालय को
नुक्सान पंहुचाने का सिलसिला जारी रहा तो आने वाली इन लोगों को पीढ़ियां माफ़
नहीं करेंगी. सरकार को चाहिए कि हिमालय के विकास की अपनी मैदानी कल्पनाओं से दूर
रहे. सरकारी अदूरदृष्टि का एक नमूना यह है
कि सत्तर के दशक में जब बहुगुणा जी उत्तर
प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उनकी चापलूसी करने के चक्कर में गढ़वाल और कुमाऊं के
लिए लखनऊ में बैठे आला अफसरों ने जुताई के लिए ट्रैक्टरों पर भारी सब्सिडी की
स्कीम शुरू कर दी थी. जब कुछ लोगों ने
बहुगुणा जी को बताया तो उन्होंने इस योजना को तुरंत रोकने का आदेश दिया . उन्होंने
अफसरों को समझाया कि पहाड़ में खेती वाली ज़मीन नाली या सीढीनुमा होती है इसलिए वहां
ट्रैक्टर का कोई इस्तेमाल नहीं है . पहाड़
पर बिजली उत्पादन और ऋषिकेश से रूद्र प्रयाग तक बने दिल्ली और मुंबई के रईसों के आलीशान बंगले भी
जलेबीनुमा दिमागी सोच का नतीजा है .उन
बंगलों से भी हिमालय का भारी नुक्सान हो रहा है .
आज जो
चमोली में हुआ है वही 2013 में
केदारनाथ में हुआ था . उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय
बहुगुणा को हिमालय की इकोलाजी से खिलवाड़ करने वाली नीतियों को रोकने की सलाह दी गयी थी .वे उन दिनों कांग्रेस
में थे . जून 2013 की बाढ़ को ठीक से संभाल नहीं पाए थे
. उनकी चौतरफा आलोचना हुयी थी . उसी सिलसिले में उनको मुख्यमंत्री पद भी गंवाना
पड़ा था .वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ
करते थे और केदारनाथ में फंसे हुए गुजरातियों को बचाने के लिए उन्होंने गुजरात
सरकार को सक्रिय कर दिया था . नरेंद्र मोदी ने विजय
बहुगुणा और मनमोहन सिंह सरकार की केदारनाथ की बाढ़ के कुप्रबंध को लेकर सख्त आलोचना
की थी. आज उनकी सरकार केंद्र में भी है और राज्य में भी . उम्मीद की जानी चाहिए कि विजय बहुगुणा वाली गलतियां आने वाले समय में कोई
भी सरकार न करने पाए .केंद्र सरकार को विकास के
लिए अन्य जगहों से अलग तरह की नीतियों को हिमालय में लागू करना चाहिए .
हिमालय के क्षेत्र में आने वाले सभी राज्यों की सरकारों को शामिल करके केंद्र सरकार
एक ज़रूरी नीति की घोषणा कर सकती है .
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