शेष नारायण सिंह
लोकसभा २०१९ का चुनाव आभियान शुरू हो गया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब बाकायदा प्रचार में शामिल हो गए हैं . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले दौर के मतदान वाले क्षेत्रों में वे सघन प्रचार कर रहे हैं . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी को जो ज़बरदस्त बढ़त मिली थी ,वह आगे के हर दौर में और घनीभूत होती गयी थी . २०१४ का चुनाव मुज़फ्फरनगर के २०१३ के दंगों के तुरंत बाद हो रहा था. इलाके के असामाजिक तत्वों ने तरह तरह के वीडियो आदि जारी करके माहौल बहुत ही ज़हरीला बना दिया था . चुनाव में मुसलमानों के खिलाफ इलाके के हिन्दुओं को एकजुट कर दिया गया था . नतीजा दुनिया के सामने है . मुज़फ्फर नगर के दंगों में मुसलमान गुंडे और हिन्दू गुंडे एक दूसरे से लड़ रहे थे . राजनीतिक नेताओं ने माहौल को बहुत ही गरम कर दिया था . मुसलमान भी हर घटना पर प्रतिक्रिया दे रहे थे . जिसको मीडिया अपने मसाले के साथ पेश कर रहा था .नतीजा यह हुआ कि चुनाव के समय किसी को कुछ करना ही नहीं पड़ा . बहुसंख्यक लोग हिन्दू पार्टी को जिताने के लिए तैयार थे . बीजेपी की पहचान पिछले तीस साल में एक हिन्दू पार्टी की हो चुकी है लिहाज़ा जब चुनाव आया तो जनता ने अपना फैसला दे दिया .उम्मीदवार कोई हो हिन्दू जनता का वोट कमल पर लगा गया . उस वक़्त की सरकार की नाकामियों को बीजेपी के नेता और प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार , नरेंद्र मोदी ने बहुत ही करीने से हाईलाईट किया . उन्होंने गुजरात माडल के विकास और दो करोड़ नौकरियाँ प्रति वर्ष देने का वायदा करके चुनाव को बहुत ही ऊंची पिच पर ले जाकर खड़ा कर दिया .डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के भ्रष्टाचार को, उनके ऊपर रिमोट कंट्रोल की मौजूदगी और बेरोजगारी को मुद्दा बनाया और वायदा किया कि बेरोजगारी भी खतम कर देंगे, भ्रष्टाचार को नेस्तनाबूद कर देंगें और देश की आर्थिक प्रगति को ज़रूरी रफ़्तार देंगे. जनता ने विश्वास किया और बम्पर बहुमत नरेंद्र मोदी को थमा दिया . लेकिन इस बार बात अलग है . नरेंद्र मोदी को वायदा नहीं करना है . वह काम तो वे पांच साल पहले कर चुके हैं. उन्होंने कहा था कि पांच साल बाद जब दोबारा जनादेश लेने आऊंगा तो अपने काम का हिसाब दूंगा .इस हिसाब से अब लेखाजोखा देने का समय आया है लेकिन अब हालात बदल गए हैं . जनता सवाल तो पूछ रही है लेकिन मीडिया में उनपर चर्चा नहीं हो रही है.
पांच साल पहले किये गए वायदों पर तो अब कोई बात ही नहीं हो रही है . नए मुद्दे बनाने की कोशिश सत्ताधारी पार्टी बड़े पैमाने पर कर रही है . पाकिस्तान को दुश्मन नंबर एक बनाकर चुनावी बिसात बिछाई जा रही है . इस्लाम और पाकिस्तान को केंद्र में रखकर चुनाव संचालित करने की कोशिश चल रही है . पुलवामा में सी आर पी एफ के सैनिको पर आतंकवादी हमला और बालाकोट में भारतीय वायुसेना की बमबारी ने देश में पाकिस्तान विरोध के नाम पर बीजेपी के पक्ष में ज़बरदस्त माहौल बनाया था लेकिन विपक्ष ने उस पर भी शंका के बादल घेर दिया . नतीजा यह हुआ कि मार्च के पहले हफ्ते में जो माहौल बना था अब वह नहीं है . जहां तक पांच साल में किए गए काम की बात है , उसमें मौजूदा सरकार के बहुत ही बड़े कामों में नोटबंदी और जी एस टी हैं लेकिन बीजेपी के नेता उसका ज़िक्र ही नहीं कर रहे हैं . ज़ाहिर है यह मुद्दे बीजेपी को नुक्सान पंहुचाने की ताक़त रखते हैं. दो करोड़ नौकरियाँ और किसानों की आमदनी दुगुनी करने वाले वायदों को भी भुलाने की कोशिश की जा रही है . अंतरिक्ष में मिसाइल दागे जाने को भी राष्ट्रप्रेम से जोड़ने की कोशिश चल रही है . अगले दो चार दिन में इसका भी असर स्पष्ट होने लगेगा . सौ बात की एक बात यह कि बीजेपी के पास २०१४ जैसे ज़बरदस्त असर वाले मुद्दे नहीं हैं . सरकार में होने की वजह से हमला करने का विकल्प भी जा चुका है . अब तो अपने काम का हिसाब देना है . बीजेपी के नेता गिनाते तो बहुत सारे काम हैं लेकिन मीडिया के साथ साथ उनकी विश्वसनीयता पर भी संकट है .
मुद्दों की कमी के संकट के वक़्त बीजेपी की चुनावी मशीनरी १९८९ से ही हिन्दू मुस्लिम झगड़ों को इस्तेमाल करती रही है लेकिन उसके लिए ज़रूरी है कि मुसलमानों के नेता भी बढ़ चढ़कर आक्रामक बयान दें .उन बयानों के जवाब में आक्रामक भाषा बहुत काम आती है .. लेकिन इस बार वैसा माहौल नहीं है. सबसे ताज़ा वाकये का ज़िक्र करके बात को समझा जा सकता है .दिल्ली के पास के हरियाणा के गुडगाँव जिले के एक गाँव में कुछ गुंडों ने एक मुस्लिम परिवार के घर में घुसकर लाठी डंडों से परिवार के लोगों को बेरहमी से मारा और उनको घायल कर दिया . उनका घर लूटा , बच्चों को मारा . इस गुंडागर्दी का शिकार एक चार साल का एक बच्चा भी हुआ, एक दुधमुंही बच्ची को भी उठाकर फेंक दिया गया .आस पड़ोस का कोई भी आदमी उनको बचाने नहीं आया . अभी तीस साल पहले तक अगर कहीं कोई गुंडा गाँव में किसी को मारता पीटता था तो पूरा गाँव साथ खड़ा हो जाता था. जहां यह वारदात हुई है वहां बहुत सारी कालोनियां हैं , जिनमें दिल्ली के लोग रहते हैं और बहुत सारे ऐसे लोग भी रहते हैं जो रोज़ दिल्ली काम करने के लिए जाते हैं . जिस मुहम्मद साजिद को गुंडों ने मारा पीटा वह किसी गेटेड सोसाइटी में नहीं , एक गाँव में रहता है . रोज़गार की तलाश में करीब पन्द्रह साल पहले उत्तर प्रदेश के बागपत जिले से वह यहाँ आया था . किसी मामूली विवाद पर पड़ोस के गाँव के दो लड़कों ने उनके भतीजे को झापड़ मार दिया और जब उसने विरोध किया तो दस मिनट बात कुछ गुंडे हथियारों के साथ आये और घर में घुसकर साजिद को मारा पीटा , बच्चों को मारा , औरतों को मारा और घर में तोड़फोड़ किया . इस सारे अपराध को करने के बाद वे लोग आराम से चले गए . घर के छत पर छुपे परिवार के लोगों ने अपने फोन के कैमरे से अपराध का वीडियो बना लिया. वारदात के बाद कहीं कोई कार्रवाई नहीं की गयी , पुलिस ने कोई एक्शन नहीं लिया . लेकिन जब हिंसा का वह वीडियो वायरल हो गया , पूरे देश में चर्चा शुरू हो गयी ,राहुल गांधी, अखिलेश यादव आदि नेताओं ने तो इस शर्मनाक घटना पर बयान दिया लेकिन किसी मुसलमान नेता ने कोई भी आक्रामक बयान नहीं दिया .नतीजा यह हुआ कि बात आगे नहीं बढ़ सकी . इस वारदात के बाद कहीं भी कोई दंगा नहीं हुआ. राजनीति चमकाने के लिए दंगों का आविष्कार तब शुरू हुआ जब १९२० के असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारत में हिन्दू और मुसलमान एक हैं . अंग्रेजों के खिलाफ पूरा देश एकजुट खड़ा हो गया तब अँगरेज़ ने दंगों की योजना पर काम शुरू किया . उसके बाद से ही दंगे राजनीतिक ध्रुवीकरण के हथियार के रूप में इस्तेमाल होते रहे हैं .चुनावों में इनका इस्तेमाल भी कोई नया नहीं है . लेकिन इस बार लगता है कि मुसलमान नेताओं ने तय कर लिया है कि चाहे जितनी उत्तेजना फैलाई जाए लेकिन वे चुप रहेंगे . अगर साम्प्रदायिक तनाव न फैला तो दंगे होना असंभव होगा .
ऐसी हालात में लगता है कि लोकसभा चुनाव २०१९ असली मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा . जनता की तरफ से भी सवाल पूछे जा रहे हैं . कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को महत्वपूर्ण राजनीतिक ज़िम्मेदारी दे दी है . प्रियंका गांधी को मीडिया भी कवर कर रहा है और वे असली सवालों को बार बार पूछ रही हैं.कांग्रेस के बडबोले प्रवक्ताओं और लुटियन की दिल्ली में रहकर का पिछले तीस-चालीस साल से कांग्रेसी राजनीति का मालपुआ काट रहे नेताओं से बिलकुल अलग हटकर उन्होने दो करोड़ नौकरियों , किसानों की मुसीबतों , अर्थव्यवस्था की बदहाली को राजनीतिक विमर्श में लाने में आंशिक ही सही ,सफलता पायी है . विपक्ष के कुछ और नेताओं से बात करने से अनुमान लगना शुरू हो गया है कि वे अब बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से तय किए गए एजेंडे पर बहस नहीं करेंगे. वे नरेंद्र मोदी से उन्हीं मुद्दों को फोकस में रहने के लिए कह रहे हैं जो २०१४ में बीजेपी के चुनाव अभियान के केंद्र में थे .अभी पिछले हफ्ते जिस तरह से पुलवामा और बालाकोट के मुद्दे को चुनावी बहस से बाहर लाने का काम राम गोपाल यादव, सैम पित्रोदा और ममता बनर्जी ने किया है,उससे जानकारों को यह उम्मीद हो गयी है कि देशहित के असली मुद्दों पर चुनाव फिर लौट सकता है .हालांकि बीजेपी के नेता तो यही कोशिश करते रहेंगे कि चुनाव , देशप्रेम , भारतमाता, पाकिस्तान और हिंदुत्व के इर्दगिर्द ही केन्द्रित रखा जाए लेकिन संचार क्रान्ति के कारण अब सूचना पर प्रीमियम नहीं है . वह आसानी से आमजन के लिए भी उपलब्ध है . एक बात और हुयी है . टेलिविज़न और अखबारों में बहुत सारे ऐसे लोग काम करने आ गए हैं जिनकी प्रतिबद्धता किसी न किसी विचारधारा से रहती है. नतीजतन मीडिया की विश्वनीयता बहुत ही कम हो गयी है . टेलिविज़न और अखबार चलाने में बहुत ज़्यादा पूंजी की ज़रूरत होती है जिसके चलते खबरों के रुझान मालिकों के हित को ध्यान में रखकर किया जाता है .विश्वास के इस संकट के वक़्त खबरों के लिए लोग सीधे इंटरनेट पर भरोसा कर रहे हैं . यह बात शहरी इलाकों में तो है ही ,गाँवों में भी इंटरनेट की सघनता है . नतीजा सामने है . सरकार और मीडिया घरानों की कोशिश के बावजूद भी सचाई आसानी से पब्लिक डोमेन में है. जिसके चलते लोकसभा २०१९ का चुनाव असली मुद्दों पर तय होने की सम्भावना बढ़ गयी है.
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