Saturday, April 13, 2019

जलियांवाला बाग़



शेष नारायण सिंह

जलियांवाला बाग़ का नाम हर उस चर्चा में लिया जायेगा जहां  सरकारी मनमानी के खिलाफ जनता के प्रतिरोध का ज़िक्र होगा. आज से  ठीक सौ साल पहले बैशाखी के दिन अमृतसर में  स्वर्ण मंदिर के क्षेत्र में स्थिति  इस बाग़ में पंजाब के हिन्दू, मुसलमान ,सिख और ईसाई इकठ्ठा हुए थे और ब्रिटिश सरकार के  तथाकथित  " अराजकता और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम १९१९ " का विरोध कर रहे थे. इस अधिनियम को आम बोलचाल की भाषा में रौलेट एक्ट या काला क़ानून कहा  जाता था . इस कानून के  लेखक एक अंग्रेज़ जज , सिडनी आर्थर रौलेट थे , उन्हीं के नाम पर इसको रौलेट एक्ट नाम दिया गया . यह कानून फरवरी में दिल्ली की काउन्सिल में पेश हुआ और भारी विरोध के बावजूद पास करवा लिया  गया . भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी की आमद तब तक हो चुकी थी और उन्होने अहिंसक तरीके से इसके विरोध  का आवाहन किया . ६ अप्रैल को दिल्ली में  इसके विरोध में सफल हड़ताल रही , कहीं कोई काम पर नहीं निकला, बंबई में महात्मा जी खुद भी विरोध में शामिल हए . पूरे देश में इस काले क़ानून का विरोध हुआ . लेकिन  विरोध का आन्दोलन अहिंसक नहीं रह सका ,  पंजाब में हिंसा शुरू हो  गयी तो महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस लेने की घोषणा की . पंजाब में सरकार ने फौज बुला लिया था .  अंग्रेजों ने नेताओं की धरपकड शुरू कर दिया था  . इसी काले क़ानून के तहत   पंजाब के स्वतंत्रता संगाम सेनानी और कांग्रेस के बड़े नेता, डॉ सत्यपाल और डॉ सैफुद्दीन किचलू को १० अप्रैल १९१९ को गिरफ्तार कर लिया गया था . पंजाब के इन लोकप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी से पूरे पंजाब में गमो-गुस्से का  माहौल था .  १३ अप्रैल को बैशाखी के पर्व के अवसर पर अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में आम लोग इकठ्ठा हुए . यह बड़ा सा बाग़ था लेकिन आम तौर पर खाली पड़ा रहता था .  तत्कालीन पंजाब सरकार ने हालात पर काबू रखने के लिए ब्रिटिश इन्डियन आर्मी के एक  कर्नल, रेजिनाल्ड   डायर की ड्यूटी लगाई लेकिन उस अपराधी ने वहां मौजूद लोगों पर गोलियां चलवा दीं . हज़ारों की संख्या में लोगों की मृत्यु हो गयी . उस   संगत में बच्चे भी थे  , औरतें भी थीं और बुज़ुर्ग भी थे. बाग़ से निकलने का एक ही दरवाज़ा था , उसी दरवाज़े पर फौज खड़ी थी और लगातार बंदूकें चल रही थीं.  गोलियों से बचने के लिए बहुत सारे लोग बाग़ में बने हुए एक कुएं में कूद गए थे .

 रौलेट एक्ट  इसलिए लाया गया था कि प्रेस को कंट्रोल किया जा सके, किसी को भी बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सके , बिना कोई मुक़दमा चलाये अनंत काल तक जेलों में बंद रखा  जा सके और बिना  किसी वकील और दलील के मनमाने तरीके से मुक़दमा चलाया  जा सके . जलियांवाला बाग़ के नरसंहार के बाद इस एक्ट का पूरे देश में  ज़बरदस्त विरोध  शुरू हो गया . कांग्रेस कमेटी ने  जलियांवाला बाग़ के नरसंहार के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने के लिए एक समिति बनाई . मोतीलाल  नेहरू उसके अध्यक्ष थे और मोहनदास करमचंद गांधी उस समिति के सचिव थे. समिति के सचिव के रूप में महात्मा गांधी ने रिपोर्ट लिखी  . उसने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया .  अंग्रेज़ी सीखने वालों को पहले के ज़माने में शिक्षक यह बात ज़रूर बताते थे कि अच्छी अंग्रेज़ी लिखने के लिए कांग्रेस की जलियांवाला बाग़ की रिपोर्ट ज़रूर पढ़ लो. अंग्रेज़ी गद्य के लेखकों में महात्मा गांधी का नाम बहुत ही  सम्मन से लिया जाता है और यह रिपोर्ट गांधी जी के गद्य लेखन का प्रतिनिधि नमूना है . उनकी रिपोर्ट के बाद अंग्रेजों ने एक कमेटी बनाई जिसका नाम , " रिप्रेसिव लॉज़ कमेटी " था. मार्च  १९२२ में इस कमेटी की रिपोर्ट को  भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया और रौलेट एक्ट वापस ले लिया  गया .
लेकिन रौलेट एक्ट की आत्मा जिंदा रही . ५३ साल बाद जून १९७५  में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो उसमें भी वही प्रावधान थे जो रौलट एक्ट में थे . तीन साल तक रौलेट एक्ट जिंदा रहा था और  दो साल के अंदर ही रौलेट एक्ट की स्थाई भावना को ध्यान में रखकर लगाई गयी इमरजेंसी को दफन कर दिया गया था . इसके साथ ही  एक बार फिर साबित  हो गया था कि आतताई  चाहे जितना ताक़तवर हो ,जनता के खाली हाथ से किये गए विरोध के सामने उसको झुकना ही पड़ता है .
रौलेट एक्ट का विरोध और जलियांवालाबाग़ के नरसंहार की कोई बात तब तक पूरी नहीं मानी जायेगी जब तक उस नरसंहार को अंजाम देने वाले नरपिशाच , कर्नल रेजिनाल्ड  डायर की बात न कर ली जाए . इसी  राक्षस ने निहत्थे नागरिकों पर गोलियां चलवाई थीं .  वह गोरखा राइफल्स, सिख रेजिमेंट और सिंध रेजिमेंट से चुनकर पचास सिपाही लेकर आया था . इन लोगों के पास  ' ली इनफील्ड की थ्री नॉट थ्री ' राइफलें थीं जिससे निहत्थे लोगों पर निशाना लगाकर मारा गया था . सरकारी तौर पर तो बताया गया था कि चार सौ से कम लोग मरे थे लेकिन महात्मा गांधी की रिपोर्ट और अमृतसर के सिविल सर्जन के अनुसार करीब  १५ सौ लोगों को गोलियां मारी गयी थीं.  कुएं में कूदकर मरने वालों की कोई गिनती नहीं की गयी . बाद में कर्नल डायर ( अप्रैल १९१९  में उसके पास अस्थाई तौर पर  ब्रिगेडियर का चार्ज  था  ) लेकिन रिटायर वह कर्नल ही हुआ . वह अविभाजित पंजाब के हिल स्टेशन मरी में पैदा हुआ था और लारेंस स्कूल और शिमला के बिशप काटन स्कूल का छात्र भी रहा था. उसके पिताजी की बियर की ब्रुअरी थी . डायर-मीकिन ब्रुअरी शिमला के पास सोलन में अभी भी है लेकिन अब उसका नाम मोहन मीकिन ब्रुअरी हो गया  है .एक शिक्षित पृष्ठभूमि से आने वाला यह फौजी बहुत ही  बड़ा अत्याचारी थी. जब जलियांवाला बैग में नरसंहार हुआ तो विरोध में सारे शहर की दुकाने बंद हो गयीं . उसके बाद कर्नल डायर ने एक धमकी भरा पर्चा बंटवाया जिसमें लिखा  था कि ,'  मेरा हुकुम मानना ज़रूरी है . सब लोग मेरा हुकुम मानें और अपनी अपनी दुकाने खोलें वरना दुकानें राइफलों के जोर से खोल ली जायेंगी. अगर कोई दूकान बंद करने को कहे  तो उस बदमाश के बारे में मुझे बताओ . मैं  उसको शूट कर दूंगा "
 डायर के काम की  भारत में तो निंदा हुयी ही ब्रिटेन में भी उसका विरोध हुआ .  वह १९२० में रिटायर हो गया लेकिन उसके आतंक के बाद  सारे भारतवासी एक हो गए और महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन में जुट गए . इस तरह से  जलियांवाला बाग़ में जो लोग शहीद हुए उन्होंने ही भारत की आजादी के लिए शुरू हुए आन्दोलन को प्रेरणा दी और भावी आतताई शासकों को सन्देश भी दे दिया .

Thursday, April 11, 2019

कश्मीर से आतंक का सफाया करने के लिए नेहरू जैसी बड़ी सोच अपनाना होगा



शेष नारायण सिंह


कश्मीर के बारे में वहां के कुछ नेताओं के अजीबोगरीब बयानों के बाद कश्मीर फिर चर्चा में हैं .. देश की हर समस्या के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराने वालों के सामने भी दुविधा  है . जब जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के सामने कश्मीर समस्या आई थी तो देश की आर्थिक और सैनिक  तैयारी बिलकुल नहीं थी. इंग्लैण्ड और अमरीका  भारत का विरोध कर रहे थे .अंग्रेजों से वफादारी  के इनाम के रूप में मुहम्मद अली जिन्नाह को पाकिस्तान की  बख्शीश मिल चुकी थी , जिन्ना किसी भी कीमत पर जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने के चक्कर में थे और जम्मू-कशमीर के तत्कालीन राजा पाकिस्तान के साथ जाने के बारे में विचार कर रहे थे . लेकिन सरदार पटेल ने न केवल जम्मू-कश्मीर का भारत में बिना  शर्त विलय करवाया ,बल्कि अमरीका और इंग्लैण्ड की मर्जी के खिलाफ पाकिस्तान को भी उसकी औकात दिखा दी .  आज  भारत दुनिया में एक बड़ी अर्थशक्ति ,सैन्य शक्ति, परमाणु शक्ति और अंतरिक्ष शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है .अमरीका और ब्रिटेन से भारत की दोस्ती है लेकिन फिर भी कश्मीर में एक बड़ी समस्या पैदा हो गयी  है. अलगाववादी नेताओं की जमात ,हुर्रियत कान्फरेन्स के लोग तो पाकिस्तान का जयकारा लगाते ही रहते थे ,अब भारत के साथ रहने की बात करने वाले नेता भी भारत से अलग होने की धमकी देने लगे  हैं . जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों. महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयान बहुत ही निराशाजनक हैं .  यह तीनों ही नेता बीजेपी के साथ कई अवसरों पर सरकार में  शामिल रह चुके  हैं . संविधान के अनुच्छेद 35 ए के मामले ने इतना  तूल पकड लिया है कि जम्मू-कश्मीर के होशमंद नेता भी अलग होने की बात करने लगे  हैं. इसके लिए काफी हद तक मौजूदा सत्ताधारी पार्टी और उसके नेता ज़िम्मेदार हैं. बीजेपी के नेता  चुनावों के समय कश्मीर को मुद्दा बनाते हैं, उसके कारण उनको पाकिस्तान और मुसलमान को निशाने पर लेने में आसानी होती है . बाद में उसका ज़िक्र उतनी शिद्दत से नहीं करते .लगता  है कि इस बार भी कोशिश  वही थी लेकिन मामला बहुत आगे बढ़ गया . जम्मू-कश्मीर के वे नेता भी भारत विरोधी बयान देने लगे जो कल तक राज्य में बीजेपी के साथ सरकार चला रहे थे . देश की हर समस्या के लिये जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार बताने वाले नेताओं को अब यह समझ लेने की ज़रूरत है कि कश्मीर में अगर   हालात सामान्य करना  है तो नेहरू की किताब के पन्ने  ही पढ़ने पड़ेंगें . आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी  जब भी विपक्ष में रही है कश्मीर में संविधान के आर्टिकिल ३७० का  विरोध करती रही है लेकिन जब भी सत्ता में आई  है अलग बात करती  है . इस  बार मामला थोड़ा अटक गया है . बीजेपी केंद्र में सत्ता में है और राज्य में भी राष्ट्रपति शासन के  रास्ते उसी की सत्ता है . चुनाव के चक्कर में कश्मीर के नाजुक मसलों को उठा दिया और अब कश्मीर की राजनीति एक बहुत ही संवेदनशील मुकाम पर पंहुच गयी  है . कश्मीर को भारत का अखंड हिस्सा मानने वाले कश्मीरी नेता भी अब अपना प्रधानमंत्री बनाने और  आज़ादी की बात करने लगे हैं .हालत इतनी चिंताजनक है कि फ़ौरन से पेशतर केंद्र सरकार को ज़रूरी क़दम उठाने पड़ेंगे. कहीं ऐसा न हो कि हर भाषण में कश्मीर की बात करके और प्रेस कान्फरेन्स करके ध्रुवीकरण तो हो जाये लेकिन कश्मीर की हालात बद से बदतर हो जाएँ .


इन हालात में ज़रूरी यह  है कि कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए जवाहरलाल नेहरू की राह को अपनाया जाय जिन्होंने २७ मई १९६४ को अपने मृत्यु के दिन भी कश्मीर  समस्या के समाधान के लिए लगातार प्रयास किया था . हालांकि उन्होंने शेख अब्दुल्ला को १९५३ में गिरफ्तार कर लिया था लेकिन उनको मामूल था कि कश्मीर की समस्या के हल के लिए कश्मीर के सबसे बड़े नेता को शामिल करना ज़रूरी होगा . इसी सोच के तहत उन्होंने  शेख अब्दुल्ला को रिहा किया और पाकिस्तान जाकर समाधान की संभावना तलाशने का काम सौंपा था.  शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर गए और वहां लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया . २७ मई १९६४ के ,दिन जब मुमुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आ गयी . सब किया धरा बर्बाद हो गया ,.उसके बाद कश्मीर के हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
सवाल यह है कि  कश्मीर का मसला  इस मुकाम तक कैसे पंहुचा . जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया थाऔर भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले ३० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओंमहात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था.इसको समझने के लिए थोड़े पीछे के इतिहास में जाना पडेगा  .भारत-पाक विभाजन के वक़्त ,जम्मू-कश्मीर के महाराजा ,हरि सिंह ने पाकिस्तान के सामने  स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की  जाए ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने नेहरू की बात को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया . पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडेपेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे .कबायली हमला हुआ और राजा अपनी मनमानी पर अड़ा रहा . राजा की गलतियों के कारण ही कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता और वे भारत के साथ थे . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं. राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता थाने हालात को बहुत बिगाड़ा . उसके बाद इंदिरा गांधी के दौर में भी बात बिगाड़ी गयी. १९८० में जब वे दोबारा  सत्ता में आईं तो अपने परिवार के ही  अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में तत्कालीन गृह मंत्रीमुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब  कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.
ज़रूरत इस बात की है कि नेहरू जैसी बड़ी सोच अपनाई जाय और  कश्मीर से आतंक को खतम करने की कोशिश गंभीरता से की जाए.

क्या वैकल्पिक मीडिया के कारण २०१९ का चुनाव असली मुद्दों पर हो पायेगा ?



शेष नारायण सिंह

लोकसभा २०१९ का चुनाव आभियान शुरू हो गया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब बाकायदा प्रचार में शामिल हो गए हैं . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले दौर के मतदान वाले क्षेत्रों में वे सघन प्रचार कर रहे हैं . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी को जो ज़बरदस्त बढ़त मिली थी ,वह आगे के हर दौर में और घनीभूत होती  गयी थी . २०१४ का चुनाव मुज़फ्फरनगर के २०१३ के दंगों के तुरंत बाद हो रहा  था. इलाके के असामाजिक तत्वों   ने तरह तरह के वीडियो आदि जारी करके माहौल  बहुत ही ज़हरीला बना दिया था . चुनाव में मुसलमानों के खिलाफ इलाके के  हिन्दुओं को एकजुट कर दिया गया था . नतीजा दुनिया के सामने  है . मुज़फ्फर नगर के दंगों में मुसलमान गुंडे और हिन्दू गुंडे एक दूसरे से  लड़ रहे थे .  राजनीतिक नेताओं ने माहौल को बहुत ही गरम कर दिया था . मुसलमान  भी हर घटना पर  प्रतिक्रिया दे रहे थे . जिसको मीडिया अपने मसाले के साथ पेश कर रहा था .नतीजा यह हुआ कि चुनाव के समय किसी को कुछ करना ही नहीं पड़ा . बहुसंख्यक लोग हिन्दू पार्टी को जिताने के लिए तैयार थे  . बीजेपी की पहचान पिछले  तीस   साल में एक हिन्दू पार्टी की हो चुकी है लिहाज़ा जब चुनाव आया तो जनता ने अपना फैसला दे दिया .उम्मीदवार कोई  हो हिन्दू जनता का वोट कमल पर लगा गया . उस वक़्त की सरकार की नाकामियों को  बीजेपी के नेता और   प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार , नरेंद्र मोदी  ने बहुत ही करीने से हाईलाईट किया . उन्होंने गुजरात माडल के विकास और दो करोड़ नौकरियाँ प्रति वर्ष देने का वायदा करके चुनाव को बहुत ही ऊंची पिच पर ले जाकर खड़ा कर दिया .डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के भ्रष्टाचार को, उनके ऊपर रिमोट कंट्रोल की मौजूदगी और बेरोजगारी को मुद्दा  बनाया और वायदा किया कि बेरोजगारी  भी खतम कर देंगे, भ्रष्टाचार को नेस्तनाबूद कर देंगें और देश की आर्थिक प्रगति को ज़रूरी रफ़्तार देंगे. जनता ने विश्वास किया और बम्पर  बहुमत नरेंद्र मोदी को थमा दिया . लेकिन इस बार बात अलग  है . नरेंद्र मोदी को वायदा नहीं करना है . वह काम तो वे पांच साल पहले कर चुके हैं. उन्होंने कहा था कि पांच साल बाद जब दोबारा जनादेश लेने आऊंगा तो अपने काम का हिसाब दूंगा .इस  हिसाब से अब लेखाजोखा देने का समय आया है लेकिन अब हालात बदल गए हैं . जनता सवाल तो पूछ रही है लेकिन मीडिया में उनपर चर्चा नहीं हो रही है.

पांच साल पहले  किये गए वायदों पर तो अब कोई बात ही नहीं हो रही है . नए मुद्दे बनाने की कोशिश  सत्ताधारी पार्टी बड़े पैमाने पर कर रही है . पाकिस्तान को दुश्मन नंबर एक बनाकर चुनावी बिसात बिछाई जा रही है . इस्लाम और पाकिस्तान को केंद्र में रखकर चुनाव  संचालित करने की कोशिश चल रही है . पुलवामा में सी आर पी एफ के सैनिको पर आतंकवादी हमला और बालाकोट   में  भारतीय वायुसेना की बमबारी ने देश में पाकिस्तान विरोध के नाम पर बीजेपी के पक्ष में ज़बरदस्त माहौल बनाया  था लेकिन विपक्ष ने उस पर भी शंका के बादल घेर दिया  . नतीजा यह हुआ कि मार्च के पहले हफ्ते में जो माहौल बना था अब वह   नहीं है .  जहां तक पांच साल में किए गए काम की बात है , उसमें मौजूदा सरकार के बहुत ही बड़े कामों में नोटबंदी और जी एस टी हैं लेकिन बीजेपी के नेता उसका ज़िक्र ही  नहीं कर रहे हैं . ज़ाहिर है यह मुद्दे बीजेपी को नुक्सान पंहुचाने की ताक़त रखते हैं. दो करोड़ नौकरियाँ और किसानों की आमदनी दुगुनी  करने वाले वायदों को  भी भुलाने की कोशिश की जा रही है  . अंतरिक्ष में मिसाइल दागे जाने को भी राष्ट्रप्रेम से जोड़ने की कोशिश चल रही है . अगले दो चार दिन में इसका भी असर स्पष्ट होने लगेगा . सौ बात की एक बात यह कि बीजेपी के पास २०१४ जैसे ज़बरदस्त असर वाले मुद्दे नहीं हैं . सरकार में होने की वजह से हमला करने का विकल्प भी  जा चुका  है . अब तो अपने काम का हिसाब देना है .  बीजेपी के नेता गिनाते तो बहुत सारे काम हैं लेकिन मीडिया के साथ साथ उनकी विश्वसनीयता पर भी  संकट है .
मुद्दों की कमी के संकट के वक़्त बीजेपी की चुनावी मशीनरी १९८९ से ही हिन्दू मुस्लिम झगड़ों को इस्तेमाल करती रही है लेकिन उसके लिए ज़रूरी है कि मुसलमानों के नेता भी बढ़ चढ़कर आक्रामक बयान दें .उन बयानों के जवाब में आक्रामक भाषा बहुत काम आती है .. लेकिन इस बार वैसा माहौल नहीं है. सबसे ताज़ा वाकये का ज़िक्र करके बात को समझा जा सकता है .दिल्ली के पास के हरियाणा के  गुडगाँव जिले के एक गाँव में कुछ गुंडों ने  एक मुस्लिम परिवार के घर में  घुसकर लाठी डंडों से परिवार के लोगों को बेरहमी से मारा और उनको घायल कर दिया . उनका घर लूटा बच्चों को मारा . इस गुंडागर्दी का शिकार एक चार साल का एक बच्चा भी हुआएक दुधमुंही बच्ची को भी उठाकर फेंक दिया गया .आस पड़ोस का कोई भी आदमी उनको बचाने नहीं आया . अभी तीस साल पहले तक अगर कहीं कोई गुंडा गाँव में किसी को मारता पीटता था तो  पूरा गाँव साथ खड़ा हो जाता था. जहां यह वारदात हुई है वहां बहुत सारी  कालोनियां  हैं जिनमें दिल्ली के लोग रहते हैं और बहुत सारे ऐसे लोग भी रहते हैं   जो रोज़ दिल्ली काम करने के लिए जाते हैं . जिस मुहम्मद साजिद को गुंडों ने मारा  पीटा वह  किसी गेटेड सोसाइटी में नहीं एक गाँव में रहता है . रोज़गार की तलाश में करीब पन्द्रह साल पहले उत्तर प्रदेश के बागपत जिले से वह यहाँ आया था . किसी मामूली विवाद पर पड़ोस के गाँव के दो लड़कों ने उनके भतीजे को झापड़ मार दिया और जब उसने विरोध किया तो दस मिनट बात कुछ गुंडे  हथियारों के साथ आये और घर में घुसकर साजिद को मारा पीटा बच्चों को मारा औरतों को मारा और घर में तोड़फोड़ किया . इस  सारे अपराध को करने के बाद वे लोग आराम से चले गए . घर के छत पर छुपे परिवार के लोगों ने अपने फोन के कैमरे से अपराध  का वीडियो बना लिया. वारदात के बाद कहीं कोई कार्रवाई नहीं की गयी पुलिस ने कोई  एक्शन नहीं लिया . लेकिन जब हिंसा का वह वीडियो वायरल हो गया पूरे देश में चर्चा शुरू हो गयी ,राहुल गांधीअखिलेश यादव आदि नेताओं ने तो इस  शर्मनाक घटना पर बयान दिया लेकिन किसी मुसलमान नेता ने कोई भी आक्रामक  बयान  नहीं दिया .नतीजा यह हुआ कि बात आगे नहीं बढ़ सकी .   इस वारदात के बाद कहीं भी कोई दंगा नहीं हुआ. राजनीति चमकाने के लिए दंगों का आविष्कार  तब शुरू हुआ जब १९२० के असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा  गांधी ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारत में हिन्दू और मुसलमान एक हैं . अंग्रेजों के खिलाफ पूरा देश एकजुट खड़ा हो गया तब अँगरेज़ ने दंगों की योजना पर काम शुरू किया . उसके बाद से ही दंगे राजनीतिक ध्रुवीकरण के हथियार के रूप में इस्तेमाल होते रहे हैं .चुनावों में इनका इस्तेमाल भी कोई नया नहीं है . लेकिन इस बार लगता है कि मुसलमान नेताओं ने तय कर लिया है कि चाहे जितनी उत्तेजना फैलाई जाए लेकिन वे चुप रहेंगे . अगर साम्प्रदायिक तनाव न  फैला तो दंगे होना असंभव होगा .
ऐसी हालात में लगता है  कि लोकसभा चुनाव २०१९ असली मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा . जनता की तरफ से भी सवाल पूछे जा रहे हैं . कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को महत्वपूर्ण राजनीतिक ज़िम्मेदारी दे दी है . प्रियंका गांधी को मीडिया भी कवर कर रहा है और वे असली सवालों को बार बार पूछ रही हैं.कांग्रेस के बडबोले प्रवक्ताओं और लुटियन की दिल्ली में  रहकर का पिछले तीस-चालीस साल से कांग्रेसी  राजनीति का मालपुआ  काट रहे नेताओं से बिलकुल अलग हटकर उन्होने दो करोड़ नौकरियों , किसानों की मुसीबतों , अर्थव्यवस्था की बदहाली को राजनीतिक विमर्श में  लाने में आंशिक ही सही ,सफलता पायी  है . विपक्ष के कुछ और नेताओं से बात करने से अनुमान लगना शुरू हो गया है कि वे अब बीजेपी और  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से तय किए गए एजेंडे पर बहस नहीं करेंगे. वे नरेंद्र मोदी से  उन्हीं मुद्दों को  फोकस में रहने के लिए कह रहे हैं जो २०१४ में बीजेपी के चुनाव अभियान के केंद्र में थे .अभी पिछले हफ्ते जिस तरह से पुलवामा और बालाकोट के मुद्दे को चुनावी बहस से बाहर लाने का काम राम गोपाल यादव, सैम पित्रोदा और ममता बनर्जी ने किया है,उससे जानकारों को यह उम्मीद हो गयी है कि देशहित के असली मुद्दों पर चुनाव फिर लौट सकता है .हालांकि बीजेपी के नेता तो यही कोशिश करते रहेंगे कि चुनाव , देशप्रेम , भारतमाता, पाकिस्तान और हिंदुत्व के इर्दगिर्द ही केन्द्रित रखा जाए लेकिन संचार क्रान्ति के कारण अब सूचना पर प्रीमियम नहीं है . वह  आसानी से आमजन के लिए भी उपलब्ध है .  एक बात और हुयी है . टेलिविज़न और अखबारों में  बहुत सारे ऐसे लोग काम करने आ गए हैं जिनकी प्रतिबद्धता किसी न किसी विचारधारा से रहती है. नतीजतन मीडिया की विश्वनीयता बहुत ही कम हो गयी है . टेलिविज़न और अखबार चलाने में बहुत ज़्यादा पूंजी की ज़रूरत होती है जिसके चलते  खबरों के रुझान मालिकों के हित को ध्यान में रखकर किया जाता है .विश्वास के इस संकट के वक़्त  खबरों के लिए लोग सीधे इंटरनेट पर भरोसा कर रहे हैं . यह बात शहरी  इलाकों में तो है ही ,गाँवों में  भी इंटरनेट की सघनता है . नतीजा सामने है . सरकार और मीडिया घरानों की कोशिश के बावजूद भी सचाई आसानी से पब्लिक डोमेन में है. जिसके चलते लोकसभा २०१९ का चुनाव असली मुद्दों पर तय होने की सम्भावना बढ़ गयी है.

अगर अवाम की हिफाज़त नहीं कर सके तो हुकूमत करना मुश्किल हो जाएगा


शेष नारायण सिंह

गुडगाँव जिले के एक गाँव में कुछ गुंडों ने  एक मुस्लिम परिवार के घर में  घुसकर लाठी डंडों से परिवार के लोगों को बेरहमी से मारा और उनको घायल कर दिया . उनका घर लूटा , बच्चों को मारा . इस गुंडागर्दी का शिकार एक चार साल का एक बच्चा भी हुआ, एक दुधमुंही बच्ची को भी उठाकर फेंक दिया गया .आस पड़ोस का कोई भी आदमी उनको बचाने नहीं आया . अभी तीस साल पहले तक अगर कहीं कोई गुंडा गाँव में किसी को मारता पीटता था तो  पूरा गाँव साथ खड़ा हो जाता था.  शहरों में अलग बात थी . लेकिन गाँव में हिन्दू-मुसलमान के बीच आज जैसी नफरत नहीं थी.  बाबरी मस्जिद के खिलाफ अभियान चलाने वाली राजनीति ने हिन्दू और मुसलमान के बीच इतनी गहरी खाईं बना दी है कि अब कोई नहीं आता . हरियाणा का गुडगाँव जिला दिल्ली से सटा हुआ है . जहां यह वारदात हुई है वहां बहुत सारी  कालोनियां  हैं , जिनमें दिल्ली के लोग रहते हैं और बहुत सारे ऐसे लोग भी रहते हैं   जो रोज़ दिल्ली काम करने के लिए जाते हैं . जिस मुहम्मद साजिद को गुंडों ने मारा  पीटा वह  किसी गेटेड सोसाइटी में नहीं , एक गाँव में रहता है . रोज़गार की तलाश में करीब पन्द्रह साल पहले उत्तर प्रदेश के बागपत जिले से वह यहाँ आया था .पुराने फर्नीचर की मरम्मत और गैस के चूल्हों की मरम्मत का काम करता था. अभी तीन साल पहले उसने यहाँ अपना  घर बना लिया था. सारा परिवार मेहनत करता था और अपनी छत के नीचे गुज़र बसर करता था. किसी मामूली विवाद पर पड़ोस के गाँव के दो लड़कों ने उनके भतीजे को झापड़ मार दिया और जब उसने विरोध किया तो दस मिनट बात कुछ गुंडे  हथियारों के साथ आये और घर में घुसकर साजिद को मारा पीटा , बच्चों को मारा , औरतों को मारा और घर में तोड़फोड़ किया . इस  सारे अपराध को करने के बाद वे लोग आराम से चले गए . घर के छत पर छुपे परिवार के लोगों ने अपने फोन के कैमरे से   अपराध  का वीडियो बना लिया. वारदात के बाद कहीं कोई कार्रवाई नहीं की गयी , पुलिस ने कोई  एक्शन नहीं लिया . लेकिन जब हिंसा का वह वीडियो वायरल हो गया , पूरे देश में चर्चा शुरू हो गयी ,राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अरविन्द केजरीवाल के बयान आने लगे तो शायद हरियाणा सरकार को लगा  कि कुछ करना चाहिए . नतीजतन पुलिस ने  पड़ोस के गाँव के एक लड़के को पकड़ लिया और बयान दे दिया कि कार्रवाई हो रही है .  हरियाणा के एक बीजेपी प्रवक्ता का बयान आ  गया कि दो पक्षों की मारपीट को कम्युनल रंग दिया जा रहा है . उस प्रवक्ता महोदय को वीडियों में यह नहीं दिख रहा है कि छः सात गुंडे एक आदमी को बुरी तरह से लाठियों से पीट रहे हैं और उसके बचाव में उसके परिवार की जो एक महिला आयी है उसके साथ भी धक्कामुक्की हो रही है . बीजेपी के बड़े नेता जो आम तौर पर हर किसी घटना पर ट्वीट करते रहते हैं ,इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं . शायद ऐसा इसलिए हो कि चुनाव के मौसम में अपने हिन्दू कार्यकर्ताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते हों .
यह शर्मनाक है , यह हमारी आज़ादी के बुनियादी उसूलों पर हमला है और इसकी निंदा की जानी चाहिए . पुलिस को सरकार के सर्वोच्च स्तर से याद दिलाया जाना चाहिए कि  कानून व्यवस्था को लागू करना उनका प्राथमिक कर्तव्य है. उनको अपना काम करना चाहिए .लेकिन .आज हम देखते हैं कि दंगे भड़काने के लिए सत्ताधारी पार्टी के लोग तरह तरह की कोशिश करते पाये जा रहे  हैं . आम तौर पर माना जाता  है कि जब दंगे होते हैं तो सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण होता है और बीजेपी को चुनाव में लाभ होता है . यह ट्रेंड १९८९ के आम चुनाव के बाद से देखा जा रहा है . इस बात में दो राय नहीं है कि साम्प्रदायिक हिंसा का उद्देश्य चुनाव में लाभ लेना होता है .  राजनीति चमकाने के लिए दंगों का आविष्कार  तब शुरू हुआ जब १९२० के असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा  गांधी ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारत में हिन्दू और मुसलमान एक हैं . अंग्रेजों के खिलाफ पूरा देश एकजुट खड़ा हो गया तब अँगरेज़ ने दंगों की योजना पर काम शुरू किया . उसके बाद से ही अंग्रेजों ने दंगों के बारे में एक विस्तृत रणनीति बनाई और संगठित तरीके से देश में दंगों का आयोजन होने लगा .प्रायोजित साम्प्रदायिक हिंसा तो १९२७ में शुरू हो गयी थी लेकिन स्वार्थी राजनेताओं ने 1940 के दशक में धर्म आधारित खूनी संघर्ष की बुनियाद रख दी । जब अंग्रेजों की समझ में आ गया कि अब इस देश में उनकी हुकूमत के अंतिम दिन आ गए हैं तो उन्होंने मुल्क को तोड़ देने की अपनी प्लान बी पर काम शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अगस्त 1947 में जब आजादी मिली तो एक नहीं दो आजादियां मिलींभारत के दो टुकड़े हो चुके थेसाम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबे पूरे हो चुके थे लेकिन सीमा के दोनों तरफ ऐसे लाखों परिवार थे जिनका सब कुछ लुट चुका था.  जो हिंसक अभियान शुरू हुआ उसको अब बाकायदा  संस्थागत रूप दिया  जा चुका है। भारत की आजादी के पहले हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उसने हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास का ऐसा बीज बो दिया था जो आज बड़ा पेड़ बन चुका है और अब उसके जहर से समाज के कई स्तरों पर नासूर विकसित हो रहा है। भारत की राजनीतिकसामाजिक और सांस्कृतिक जिंदगी में अब दंगे स्थायी भाव बन चुके हैं।
अब भारत में दंगे नहीं होते. पहले के समय में जब  केंद्र में सेकुलर पार्टी की सरकारें होती थीं तो मुसलमान भी मारपीट का जवाब मारपीट से देता था जिसके कारण दंगे होते थे . अब मुसलमान दहशत में है , चुप रहता  है . इसलिए अब राजनीतिक संरक्षण प्राप्त  गुंडे छिटपुट मुसलमानों को  उनके घर में घुसकर मारते हैं और घटना का वीडियो बनाकर पूरे देश में वायरल करते हैं . जिसके बाद मुसलमानों में दहशत फ़ैलाने में सफलता पाते हैं . जब दंगे होते थे तो अधिकतर दंगों के आयोजकों का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सम्प्रदायों का ध्रुवीकरण होता था .  देखा यह गया है कि भारत में अधिकतर दंगे चुनावों के कुछ पहले सत्ता को ध्यान में रख कर करवाए जाते हैं। विख्यात भारतविद् प्रोफेसर पॉल ब्रास ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ''द प्रोडक्शन ऑफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कंटेम्परेरी इण्डिया" में दंगों का बहुत ही विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने साफ कहा है कि हर दंगे में जो मुकामी नेता सक्रिय होता हैदोनों ही समुदायों में उसकी इच्छा राजनीतिक शक्ति हासिल करने की होती है लेकिन उसको जो ताकत मिलती है वह स्थानीय स्तर पर ही होती है।  उसके ऊपर भी राजनेता होते हैं जो साफ नज़र नहीं आते लेकिन वे बड़ा खेल कर रहे होते हैं। अपनी किताब में पॉल ब्रास ने यह बात बार-बार साबित करने की कोशिश की है कि भारत में दंगे राजनीतिक कारणों से होते हैंहालांकि उसका असर आर्थिक भी होता है लेकिन हर दंगे में मूलरूप से राजनेताओं का हाथ होता है।  अब दंगों की जगह मुसलमानों में दहशत फैलाकर राजनीतिक  मकसद हासिल किया जाता  है .इसकी शुरुआत दादरी में अखलाक के घर में गोश्त पकडकर की गयी थी . तब तक मुसलमानों को मुगालता था कि  हुकूमत उनकी मदद करेगी .इसलिए थोडा हल्ला गुल्ला भी हुआ था लेकिन उसके बाद से पहलू खान समेत ऐसे तमाम वारदात हुयी हैं जिसमें सरकारें अपराधियों के साथ ही देखी गयी हैं . गुडगाँव की घटना उसी सिलसिले की सबसे ताज़ा कड़ी है .  लेकिन सरकार को खबरदार रहना पडेगा क्योंकि अगर अवाम की  हिफाज़त की  गारंटी नहीं दे सके तो हुकूमत का अधिकार ही नहीं रहेगा .