Sunday, November 19, 2017

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना: बाबरी मस्जिद विवाद और श्री श्री रविशंकर



शेष नारायण सिंह


 अयोध्या विवाद में अब कोर्ट के बाहर सुलह की बात को ज्यादा अहमियत दी जा रही है. इस बार सुलह कराने  के लिए बंगलौर के एक  धार्मिक नेता श्री श्री रविशंकर ने अपने आपको मध्यथ नियुक्त  कर लिया है . माहौल भी अनुकूल है .आज उत्तर प्रदेश में एक ऐसी सरकार है जिसके मुख्य मंत्री,योगी आदित्यनाथ हैं जो गोरखनाथ पीठ के महंत भी हैं . वे स्वयं  भी   अयोध्या की बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्म भूमि बनाने के बड़े समर्थक रहे हैं . उनके पहले के गोरखनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ रामजन्म भूमि आन्दोलन के बड़े नेता रहे  हैं . महंत अवैद्यनाथ के गुरु महंत दिग्विजय नाथ ने १९४९ में बाबरी मस्जिद में रामलला की  मूर्ति रखवाने में प्रमुख  भूमिका निभाई थी . ज़ाहिर है वर्तमान मुख्यमंत्री की इच्छा होगी कि वहां राम मंदिर बन जाये लेकिन अब वे संवैधानिक  पद पर हैं और उनकी ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट का जी भी आदेश होगा ,उसको  लागू करने भर की है. जो मामला सुप्रीम कोर्ट में है उसमें उत्तर प्रदेश सरकार पार्टी भी नहीं है . उत्तर प्रदेश सरकार ने साफ़ कर दिया  है कि बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का   फैसला  ही अंतिम सत्य होगा और सरकार उसको लागू करेगी . राज्यपाल राम नाइक ने इस  आशय का बयान भी दे दिया है . 

इस पृष्ठभूमि में श्री श्री रविशंकर ने अयोध्या विवाद में इंट्री मारी  है . राज्यपाल ने उनको साफ़ संकेत दे दिया है कि सरकार से कोई मदद नहीं मिलने  वाली है . राज्यपाल  से जब रविशंकर मिलने गए तो उन्होंने मुलाक़ात की लेकिन बाद में एक बयान भी दे दिया . राज्यपाल ने  कहा कि ," इस तरह की कोशिशें उन लोगों द्वारा  की जा रही हैं जिनको लगता है कि इस से मामले को जल्दी सुलझाया जा सकता है . मेरी शुभकामना उन लोगों के साथ है लेकिन सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही अंतिम और  बाध्यकारी होगा ."   लेकिन श्री श्री रविशंकर का उत्साह इससे कम नहीं हुआ . वे
अयोध्या भी गए ,उत्तर प्रदेश में  मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मिले.  उनकी तरफ से यह माहौल बनाने की कोशिश की गयी  कि उनके प्रयासों को  सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है लेकिन कुछ देर बाद ही सरकार की तरफ से बयान आ गया  कि  श्री श्री की मुख्यमंत्री से हुयी मुलाकात केवल शिष्टाचार वश की गयी मुलाक़ात है . इसका भावार्थ यह हुआ कि उनके अयोध्या जाने न जाने से सरकार को कुछ  भी लेना देना नहीं है .  

 श्री श्री रविशंकर ने यह मुहिम  शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की प्रेरणा से शुरू की  थी. लेकिन वसीम रिजवी को मुसलमानों के बीच बहुत इज्ज़त नहीं दी जाती 'वसीम रिजवी के अयोध्या मसले को लेकर चल रही मुलाकातों व दावों को लेकर इससे जुड़े मुकदमे के पक्षकारों से जब बात की गई तो दोनों पक्षों के लोगों ने एक सुर से समझौते के मसौदे को बकवास बताया। 

अयोध्या मसले के मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी ने वसीम रिजवी  के फार्मूले को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा, 'राजनीतिक  फायदा उठाने के लिए इस तरीके के फार्मूले पेश किए जा रहे हैं। सुन्नी इसको मानने को तैयार नहीं है.'  
श्री श्री रविशंकर के इस मामले में शामिल होने को लेकर सभी पक्षकारों में खासी  नाराज़गी है .आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल  ला  बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी मौलाना वली रहमानी ने कहा  कि ,"१२ साल पहले भी  श्री श्री रविशंकर  ने इस तरह की कोशिश की थी और कहा था कि विवादित   स्थल हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए. आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल  ला  बोर्ड के महासचिव ने  शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की दखलन्दाजी का भी बहुत बुरा माना है . उन्होंने कहा कि किसी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष के  पास इस तरह के अख्तियारात नहीं हैं कि वह किसी भी विवादित जगह को किसी एक पार्टी को सौंप दे .  वसीम रिजवी उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार के ख़ास थे लेकिन आजकल नई सरकार के करीबी बताये जा रहे हैं . कुछ दिन पहले उन्होंने  बाबरी मस्जिद को लेकर कई विवादित बयान दिए हैं . 

यह मामला इतना बड़ा इसलिए बना  कि बीजेपी को  हिंदुत्व का मुद्दा चाहिए था .१९८० में तत्कालीन जनता पार्टी टूट गयी और भारतीय जनता पार्टी का गठन हो गया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाया . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए त्याग  दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई जिसमें भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओंअटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब गांधियन सोशलिज्म को भूल जाइए . आगे से पार्टी की राजनीति  के स्थाई भाव के रूप में हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या में  रामजन्मभूमि  के निर्माण के नाम पर  राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनोंविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना अगस्त १९६४  में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है .
विश्व हिन्दू पारिषद आज भी  अयोध्या  विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है  . बिना  उसकी सहमति के कुछ भी  नहीं  हासिल किया जा सकता . श्री श्री रविशंकर की मध्यस्थता को विश्व हिन्दू परिषद वाले कोई महत्व नहीं देते . उसके प्रवक्ता , शरद  शर्मा ने कहा है कि ," रामजन्मभूमि हिन्दुओं की है . पुरातत्व के साक्ष्य यही कहते हैं कि वहां एक मंदिर था और अब एक भव्य मंदिर बनाया जाना चाहिए . जो लोग मध्यस्थता आदि कर रहे हैं उन्पीर नज़र रखी जा रही है लेकिन समझौते की कोई उम्मीद नहीं है . अब इस काम को संसद के ज़रिये किया जाएगा ,"
  समझ में नहीं आता कि श्री श्री रविशंकर किस  तरह की  मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं जब राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद  विवाद के दोनों ही पक्ष उनकी किसी भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं . अयोध्या में भी वे कुछ साधू संतों से मिलने में तो कामयाब रहे लेकिन किसी ने उनको गंभीरता से नहीं लिया . आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत से मिलने  की कोशिश भी वे कर रहे हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि उनको वहां से क्या हासिल होता है . 

No comments:

Post a Comment