शेष नारायण सिंह
सरदार पटेल की जयंती पर इस बार बहुत सक्रियता रही . सरकारी तौर पर बहुत सारे आयोजन हुए . स्वतंत्रता सेनानी पूर्वजों की किल्लत झेल रही सत्ताधारी पार्टी ने सरदार को अपनाने की ऐसी मुहिम चलाई कि कुछ लोगों को शक होने लगा कि कहीं सरदार पटेल ने बीजेपी की सदस्यता तो नहीं ले ली है . नेहरू के परिवार पर हमला हुआ और सरदार पटेल को अपनाने की ज़बरदस्त योजना पर काम हुआ .यह भी प्रचारित किया गया कि सरदार को जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था . यह सरासर गलत है . सरदार पटेल को जिन दो व्यक्तियों ने प्रधानंत्री नहीं बनने दिया उनके नाम हैं , मोहनदास करमचंद गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल .इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरदार पटेल के मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रही होगी लेकिन उन्होंने किसी से कहा नहीं था . जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने और सरदार पटेल की भूमिका को लेकर बहुत सारे सवाल उछाले जाते रहते हैं . सरदार पटेल की राजनीति के एक मामूली विद्यार्थी के रूप में मैं अपना फ़र्ज़ समझता हूँ कि सच्चाई को एक बार फिर लिख देने की ज़रूरत है . जब अंतरिम सरकार के गठन की बात, वाइसरॉय लार्ड वावेल, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच में तय हो गयी और यह तय हो गया कि २२ जुलाई १९४६ को लार्ड वावेल कांग्रेस अध्यक्ष को अंतरिम सरकार की अगुवाई करने के लिए आमंत्रित करेंगें तो नए कांग्रेस अध्यक्ष का निर्वाचन ज़रूरी हो गया . हालांकि सरकार के अगुआ के पद का नाम वाइसरॉय की इक्जीक्युटिव काउन्सिल का वाइस प्रेसिडेंट था लेकिन वास्तव में वह प्रधानमंत्री ही था. इस समझौते के वक़्त कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे . वे भारत छोड़ो आन्दोलन के समय से ही चले आ रहे थे क्योंकि सन बयालीस में पूरी कांग्रेस वर्किंग कमेटी को अहमदनगर किले में बंद कर दिया गया था . रिहाई के बाद नया कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना था . मौलाना खुद को ही निर्वाचित करवाना चाहते थे . ऐसा किसी अखबार में छप भी गया . महात्मा गांधी को जब यह पता लगा तो उन्होंने मौलाना आज़ाद को अखबार की कतरन भेजी और उसके साथ जो पत्र लिखा उसमें साफ़ लिख दिया कि वे एक ऐसा बयान दें जिस से साफ़ हो जाए कि वे खुद को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से अलग कर चुके हैं. महात्मा जी के सुझाव के बाद मौलाना आज़ाद मैदान से बाहर हो गए .
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी . २९ अप्रैल १९४६ को नामांकन दाखिल करने का अंतिम दिन था . २० अप्रैल को ही महात्मा गांधी ने कुछ लोगों को बता दिया था कि वे जवाहरलाल को अगला कांग्रेस अध्यक्ष देखना चाहते हैं . लेकिन देश में मौजूद कुल पन्द्रह प्रदेश कांग्रेस कमेटियों में से बारह की की तरफ से सरदार पटेल के पक्ष में नामांकन आ चुके थे . आचार्य कृपलानी भी उम्मीदवार थे. उनका नाम भी प्रस्तावित था. उधर महात्मा गांधी नेहरू के पक्ष में अब खुलकर आ गए थे. उन्होंने संकेत दिया कि अंग्रेजों से सत्ता ली जा रही है तो ऐसा व्यक्ति चाहिए जो अंग्रेजों से उनकी तरह ही बात कर सके . जवाहरलाल इसके लिए उपयुक्त थे क्योंकि वे इंग्लैंड के नामी पब्लिक स्कूल हैरो में पढ़े थे , कैम्ब्रिज गए थे और बैरिस्टर थे. महात्मा गांधी ने यह भी संकेत दिया कि जवाहरलाल को विदेशों में भी लोग जानते हैं और वे अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं .महात्मा गांधी को यह भी मालूम था कि जवाहरलाल कैबिनेट में दूसरे स्थान पर कभी नहीं जायेंगे जबकि अगर उनको नम्बर एक पोजीशन मिल गयी तो सरदार पटेल सरकार में शामिल हो जांएगे और इस तरह से दोनों मिलकर काम कर लेंगें. वे दोनों सरकार रूपी बैलगाड़ी में जुड़े दो बैलों की तरह देश को संभाल लेगें . महात्मा गांधी के पूरे समर्थन के बाद भी जवाहरलाल नेहरू की तैयारी बिलकुल नहीं थी. उनका नाम किसी भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी से प्रस्तावित नहीं हुआ था. अंतिम तारीख २९ अप्रैल थी लेकिन औपचारिक रूप से नेहरू के नाम का प्रस्ताव नहीं हुआ था . आचार्य कृपलानी ने लिखा है कि महात्मा गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने ही कार्य समिति की बैठक में जवाहरलाल के नाम का प्रस्ताव किया और कार्यसमिति के सदस्यों से उस पर दस्तख़त करवा लिया .इमकान है कि सरदार पटेल ने भी उस प्रस्ताव पर दस्तख़त किया था .जब जवाहरलाल के नाम का प्रस्ताव हो गया तो कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया और सरदार पटेल को भी नाम वापसी का कागज़ दे दिया जिससे नेहरू को निर्विरोध निर्वाचित किया जा सके. सरदार पटेल ने वहां मौजूद महात्मा गांधी को वह कागज़ दिखाया . महात्मा गांधी ने जवाहरलाल नेहरु से कहा कि किसी भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने आपके नाम का प्रस्ताव नहीं किया है केवल कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने ही आपके नाम का प्रस्ताव किया है . जवाहरलाल चुप रहे. महात्मा जी ने सरदार पटेल को नाम वापसी के कागज़ पर दस्तखत करने का इशारा कर दिया . सरदार ने तुरंत दस्तखत कर दिया और इस तरह जवाहरलाल का कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में निर्विरोध निर्वाचन पक्का हो गया . महात्मा गांधी की बात मान कर सरदार इसके पहले भी जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए नाम वापस ले चुके थे , १९२९ में लाहौर में आम राय सरदार के पक्ष में थी लेकिन महात्मा गांधी ने सरदार से नाम वापस करवा दिया था .
महात्मा गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए सरदार ने जवाहरलाल के पक्ष में मैदान ले लिया . हालांकि यह भी सच है कि उस वक़्त के महात्मा गांधी के इस फैसले पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बाद में अपनी बात बहुत ही तकलीफ के साथ कही. उन्होंने कहा कि "गांधी ने एक बार और ग्लैमरस नेहरु के लिए अपने भरोसेमंद लेफ्टीनेंट को कुर्बान कर दिया ." लेकिन सरदार पटेल ने कोई भी नाराजगी नहीं जताई, वे कांग्रेस के काम में जुट गए . सरदार की महानता ही है कि इतने बड़े पद से एकाएक महरूम किये जाने के बाद भी मन में कोई तल्खी नहीं पाली. यह अलग बात है कि जवाहरलाल के तरीकों से वे बहुत खुश नहीं थे . उन्होंने मध्य प्रदेश के नेता डी पी मिश्र को २९ जुलाई को जो चिट्ठी लिखी वह जवाहरलाल के प्रति उनके स्नेह की एक झलक देती है. लिखते हैं कि " हालांकि नेहरू चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं लेकिन लेकिन वे कई बार बाल सुलभ सरलता के साथ आचरण करते हैं . लेकिन अनजानी गल्त्तियों के बावजूद उनका उत्साह बेजोड़ है . आप निश्चिन्त रहें जब तक हम लोग उस ग्रुप में हैं जो कांग्रेस की नीतियों को चला रहा है, तब तक इस जहाज़ की गति को कोई नहीं रोक सकता "
एक बार सरदार पटेल ने महात्मा गांधी के कहने के बाद जवाहरलाल को अपना नेता मान लिया तो मान लिया . इसके बाद उस मार्ग से बिलकुल डिगे नहीं .जब जिन्नाह ने डाइरेक्ट एक्शन का आवाहन किया तो मुस्लिम बहुत इलाकों में खून खराबा मच गया . हालात बिगड़ने लगे तो सरदार ने ही नेहरू को संभाला . महात्मा गांधी के जीवनकाल में तो वे नेहरू की अति उत्साह में की गयी गलतियों की शिकायत महात्मा गांधी से गाहे बगाहे करते भी थे लेकिन महात्मा गांधी के जाने के बाद उन्होंने नेहरू को हमेशा समर्थन दिया और गार्जियन की तरह रहे. नेहरू साठ साल के हुए तो १४ नवम्बर १९४९ को डॉ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और पुरुषोत्तम दास टंडन ने एक किताब प्रकाशित किया . “ नेहरु :अभिनन्दन ग्रंथ “ नाम की इस किताब में तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल का एक लेख है . लेख बड़ा है . कुछ अंश उन लोगों को सही जवाब दे देते हैं जो इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि दोनों नेताओं में वैमनस्य था .जवाहरलाल नेहरु के बारे में सरदार लिखते हैं कि “ लोगों के लिए यह अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल है जब कुछ दिनों के लिए एक दूसरे से दूर होते हैं और समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए एक दूसरे की सलाह नहीं ले पाते तो हम एक दूसरे को कितना याद करते हैं . . यह अपनत्व ,निकटता ,दोस्ती और दो भाइयों के बीच प्रेम को कुछ शब्दों में कह पाना मुश्किल है . राष्ट्र के हीरो, देश के लोगों के नेता ,देश के प्रधानमंत्री जिनका महान कार्य और जिनकी उपलब्धियां एक खुली किताब हैं , उनको मेरी तारीफ़ की ज़रूरत नहीं है .”
देश में कुछ ऐसे लोगों का एक वर्ग पैदा हो गया है जो यह कहते नहीं अघाता कि प्रधानमंत्री पद के बारे में दोनों नेताओं के बीच भारी मतभेद था. कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि सरदार पटेल खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे . लेकिन इस बात को उनकी बेटी मणिबेन पटेल ने बार बार गलत बताया है . वे उन दिनों सारदार पटेल के साथ ही रहती थीं. स्वयं सरदार पटेल ने लिखा है कि ,” यह बहुत ज़रूरी था कि हमारी आज़ादी के ठीक पहले के धुन्धलके में वे ( जवाहरलाल ) ही हमारे प्रकाशस्तम्भ होते और जब आजादी के बाद भारत एक संकट के बाद दूसरे संकट का सामना कर रहा था , तो उनको ही हमारे विश्वास और हमारी एकता का निगहबान होना चाहिए था . मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता कि आज़ादी के दो वर्षों में उन्होंने हमारे अस्तित्व को चुनौती देने वाली शक्तियों के खिलाफ कितना संघर्ष किया है . मैं उनसे उम्र में बड़ा हूँ . मुझे इस बाद की खुशी है कि हम लोगों के सामने प्रशासन और संगठन से सम्बंधित जो भी समस्याएं आती हैं, उनके बारे में उन्होंने मेरी हर सलाह को माना है .मैने देखा है कि वे ( नेहरु) हर समस्या के बारे में मेरी सलाह मांगते हैं और उसको स्वीकार कारते हैं .”
सरदार पटेल ने जोर देकर कहा कि “ कुछ निहित स्वार्थ वाले यह प्रचार करते हैं कि हम लोगों में मतभेद है .इस कुप्रचार को कुछ लोग आगे भी बढाते हैं .लेकिन यह सरासर गलत है .हम दोनों जीवन भर दोस्त रहे हैं . हमने हमेशा ही एक दूसरे के दृष्टिकोण का सम्मान किया है और जैसी भी समय की मांग रही हो, जैसा भी ज़रूरी हुआ एक दूसरे की बात को माना है . ऐसा तभी संभव हुआ क्योंकि हम दोनों को एक दूसरे पर पूरा भरोसा है ”
सरदार पटेल और नेहरु के बीच मतभेद बताने वालों को इतिहास का सही ज्ञान नहीं है . इस बात में दो राय नहीं है कि उनके राय बहुत से मामलों में हमेशा एक नहीं होती थी लेकिन पार्टी की बैठकों में , कैबिनेट की बैठकों में उनके बीच के मतभेद एक राय में बदल जाते थे .ज्यादातर मामलों में सरदार की राय को ही जवाहरलाल स्वीकार कर लेते थे . जवाहरलाल नेहरू को यह बात हमेशा मालूम रहती थी कि वे प्रधानमंत्री महात्मा गांधी के आशीर्वाद और सरदार पटेल के सहयोग से ही बने हैं.
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