शेष नारायण सिंह
चित्तौड़ की रानी पद्मिनी और चित्तौड़ गढ़ के हवाले से एक फिल्म बनी है और उस पर विवाद हो रहा है. जिस अभिनेत्री ने रानी पद्मिनी की भूमिका अदा की है उसको जला डालने और उसकी नाक काट लेने के लिए इनामों की घोषणा हो रही है . राजपूतों के कुछ संगठन इसमें आगे आ गए हैं . राजपूती आन बान और शान पर खूब चर्चा हो रही है . ऐसा लगता है कि कुछ लोग राजपूतों की एकता की कोशिश कर रहे हैं और उसको बतौर वोट बैंक विकसित करने का कोई कार्यक्रम चल रहा है . इसका आयोजन कौन कर रहा है,अभी इसकी जानकारी सार्वजनिक चर्चा में नहीं आयी है . राजपूतों के इतिहास पर बहुत कुछ लिखा गया है . नामी गिरामी विद्वानों ने शोध किया है और क्षत्रियों और राजपूतों में तरह तरह के भेद बताये गए हैं . वह बहसें आकादमिक हैं लेकिन आम तौर पर ठाकुर, क्षत्रिय और राजपूत को एक ही माना जाता है . इसलिए इस लेख में ठाकुरों और राजपूतों के बारे में अकादमिक चर्चाओं से दूर सामाजिक सवालों पर बात करने की कोशिश की जायेगी . मैं राजपूत परिवार में पैदा हुआ था . लेकिन राजपूत जाति की राजनीति से मेरा साबका १९६९ में पडा जब जौनपुर के मेरे कालेज में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का अधिवेशन हुआ . देश के कोने कोने से राजपूत राजा महाराजा आये थे . मेवाड़ के स्व महाराणा भगवत सिंह ने अध्यक्षता की थी. डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मण सिंह भी आये थे. और भी बहुत से राजा आये थे . उस अधिवेशन में पूरी चर्चा इस बात पर होती रही कि इंदिरा गांधी ने राजाओं का प्रिवी पर्स छीन कर राजपूतों की आन बान पर बहुत बड़ा हमला किया था . आजादी के बाद सरदार पटेल ने जिन राजाओं के राजपाट का भारत में विलय करवाया था उनको कुछ विशेषाधिकार और उनके राजसी जीवन निर्वाह के लिए प्रिवी पर्स देने का वायदा भी किया था . कुछ राजाओं को को १९४७ में लाखों रूपया मिलता था . मसलन मैसूर के राजा को २६ लाख रूपये मिलते थे . सन १९५० में सोने का भाव करीब १०० रूपये प्रति दस ग्राम होता था .आज करीब तीस हज़ार रूपये है. आज की कीमत से इसकी तुलना की जाए तो यह ७८ करोड़ रूपये हुए. 1970 में जब इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स ख़त्म किया तब भी सोना १८४ रूपये प्रति दस ग्राम था . ऐसे सैकड़ों राज थे हालांकि कुच्छ को तो बहुत कम रक़म मिलती थी . यानी प्रिवी पर्स देश संपत्ति पर बड़ा बोझ था . इसलिए स्वतंत्र भारत में प्रिवी पर्स के मामले पर आम नाराज़गी की थी .उस समय की देश की आर्थिक स्थिति के लिहाज़ से इस को देश पर बोझ माना जाता था .राजाओं के ख़िताबों की आधिकारिक मान्यता को भी पूर्णतः असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता था। प्रिवी पर्स को हटाने का प्रस्ताव १९६९ में जब संसद में लाया गया तो प्रस्ताव राज्य सभा पारित नहीं हो सका और मामला टल गया . बाद में इंदिरा गांधी ने नागरिकों के लिये सामान अधिकार एवं सरकारी धन के दुरूपयोग का हवाला देकर १९७१ में २६वें संविधानिक संशोधन के रूप में पारित कर दिया . और प्रिवी पर्स ख़त्म हो गया .कई राजाओं ने १९७१ के चुनावों में इस मुद्दे पर इंदिरा गांधी को चुनौती दी , लोक सभा का चुनाव लड़ने लिए मैदान लिया और सभी बुरी तरह से हार गए .
इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में मैंने इस अधिवेशन को देखा और इसमें शामिल हुआ. अजीब लगा कि अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों के पक्ष में क्षत्रिय समाज को एकजुट करने की आयोजकों की तरफ से की गयी . मेरे दर्शनशास्त्र के और मेरे गुरू ने मुझे समझाया कि इस बहस का कोई मतलब नहीं है . उत्तर प्रदेश ,जहां यह बहस हो रही थी , वहां किसी भी राजपूत या क्षत्रिय राजा को प्रिवी पर्स नहीं मिलता था . उत्तर प्रदेश में प्रिवी पर्स वाले लेवल तीन राजा थे, काशी नरेश ,नवाब रामपुर और समथर के राजा.. इन तीनों में कोई भी राजपूत नहीं था. जबकि उसी उत्तर प्रदेश में लगभग सभी गाँवों में राजपूत रहते हैं . उनकी समस्याओं पर अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में कोई चर्चा नहीं हुयी .उस दौर में किसानो को खाद, चीनी ,सीमेंट आदि काले बाज़ार से दुगुनी कीमत पर खरीदना पड़ता था ,उन किसानों में बड़ी संख्या में राजपूत थे लेकिन महासभा में इस विषय पर कहीं कोई बात नहीं हो रही थी. एक छात्र को भी भाषण करने का अवसर मिलना था . जिसके लिए मुझे कालेज की तरफ से बुलाया गया . मैंने किसान राजपूतों , चपरासी राजपूतों, क्लर्क राजपूतों , बेरोजगार राजपूतों की समस्याओं का ज़िक्र कर दिया और राजाओं के लाभ के एजेंडे से बात फिसल गयी. उसके बाद से सरकार से किसानों की समस्याओं पर बात शुरू हो गयी . राजपूती शान और आन बान की बहस के बीच राजपूतों की बुनियादी समस्याओं पर भी बहस शुरू हो गयी .
यह काम मैं कसर करता हूँ . अभी पिछले दिनों रानी पद्मिनी को केंद्र में रख कर बनाई फिल्म की बहस में जब मुझे शामिल होने का अवसर मिला तो मैंने रानी पद्मिनी के इतिहास और जौहर के हवाले से उन समस्याओं का भी उल्लेख कर दिया जो आज के राजपूत रोज़ ही झेल रहे हैं . मेरे गाँव और आस पास के इलाके में राजपूतों की बड़ी आबादी है . सैकड़ों किलोमीटर तक राजपूतों के ही गाँव हैं . बीच बीच में और भी जातियां हैं .ज्यादातर लोग बहुत ही गरीबी की ज़िंदगी बिता रहे हैं . दिल्ली , मुंबई, जबलपुर, नोयडा , गुरुग्राम आदि शहरों में हमारे इलाके के राजपूत भरे पड़े हैं . वे अपना गाँव छोड़कर आये हैं . वहां खेती है लेकिन ज़मीन के रकबा इतना कम हो गया है कि परिवार का भरण पोषण नहीं हो सकता . शिक्षा की कमी है इसलिए यहां मजदूरी करने पर विवश हैं . मजदूरी भी ऐसी कि न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम कमाते हैं . किसी झुग्गी में चार -पांच लोग रहते हैं . राजपूती आन की ऐसी चर्चा गाँव में होती रहती है कि वहां चल रही मनरेगा योजनाओं में काम नहीं कर सकते , खानदान की नाक कटने का डर है . यह तो उन लोगों की हाल है जो अभी दस पांच साल पहले घर से आये हैं . जो लोग यहाँ चालीस साल से रह रहे हैं , उनकी हालत बेहतर बताई जाती है . एक उदाहरण पूर्वी दिल्ली के मंडावली का दिया जा सकता है . पटपडगंज की पाश सोसाइटियों से लगे हुए मंडावली गाँव की खाली पडी ज़मीन पर १९८० के आस पास पूर्वी दिल्ली के बड़े नेता , हरिकिशन लाल भगत के गुंडों ने पुरबियों से दस दस हज़ार रूपये लेकर ३५ गज ज़मीन के प्लाट पर क़ब्ज़ा करवा दिया था. सब बस गए .बाद में वह कच्ची कालोनी मंज़ूर हो गयी और अब ३५ साल बाद उस ज़मीन की कीमत बहुत बढ़ गयी है लेकिन उस ज़मीन की कीमत बढवाने में वहां रहने वालों की दो पीढियां लग गईं . वहां ठाकुरों , ब्राहमणों आदि के जाति के आधार मोहल्ले बना दिए गए थे . उनमें राजपूत भी बड़ी संख्या में थे. दिल्ली के संपन्न इलाकों में भी राजपूत रहते थे . सुल्तानपुर के सांसद भी उन दिनों राजपूत थे और राजपूत वोटों के बल पर जीत कर आये थे लेकिन उनको भी उन गंदी बस्ती में रह रहे लोगों की परवाह नहीं थी . जब पांच साल बाद फिर चुनाव हुए तो उन्होंने जिले में जाकर ठाकुर एकता का नारा दिया था . इसी तरह की एक कालोनी दिल्ली के वजीराबाद पुल के आगे है . सोनिया विहार नाम की इस कालोनी में भी लाखों की संख्या में राजपूत रहते हैं और आजकल उस फिल्म में रानी पद्मावती के चित्रण को लेकर गुस्से में हैं .
बुनियादी सवाल यह है कि चुनाव के समय या किसी आन्दोलन के समय राजपूतों का आवाहन करने वालों को क्या इस बात का ध्यान नहीं रखना चाहिए कि राजपूतों में जो गरीबी , अशिक्षा , बेरोजगारी आदि समस्याएं हैं उनको भी विचार के दायरे में रखना बाहुत ज़रूरी है . मेरे गाँव में राजपूतों के पास बहुत कम ज़मीन है . १९६१ में जब जनगणना हुयी थी तो मैं अपने गाँव के लेखपाल के साथ घर घर घूमा था . राजपूतों के १५ परिवार थे . अब वही अलग बिलग होकर करीब चालीस परिवार हो गए हैं . ज़मीन जितनी थी ,वही है. यानी सब की ज़मीन के बहुत ही छोटे छोटे टुकड़े हो गए हैं . पहले भी किसी तरह पेट पलता था , अब तो सवाल ही नहीं है . उन्हीं परिवारों के राजपूत लड़के , महानगरों में मेहनत मजूरी करके पेट पाल रहे हैं. मालिन बस्तियों में रह रहे हैं , राजपूत एकता का जब भी नारा दिया जाता है , वे ही लोग भीड़ का हिस्सा बनते हैं और राजपूत नेताओं की कमियों को छुपाने के लिए चलाई गयी बहसों में भाग लेते हैं . सवाल यह है कि क्या इन लोगों के बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकारों के लिए कोई आन्दोलान नहीं चलाया जाना चाहिए . अगर राजपूतों के नाम पर राजनीति करने वालों और राजपूत भावनाओं से लाभ लेने वालों से यह सवाल पूछे जाएँ तो समाज का भला होना निश्चित है . लेकिन यह सवाल पूछने के लिए गरीबी और सरकारी उपेक्षा का जीवन जी रहे लोगों को ही आगे आना पड़ेगा. राजपूती आन बान और शान के आंदोलनकारियों के नेताओं से यह सवाल भी पूछे जाने चाहिए .
रानी पद्मिनी के संदर्भ में एक बात और बहुत ज़रूरी पूछी जानी है लेकिन वह सवाल पीड़ित पक्ष के लोग पूछने नहीं आयेगें . किसान राजपूतों के परिवार में लड़कियों की शिक्षा आदि का सही ध्यान नहीं दिया जाता . जहां लड़कों के लिए गरीबी में भी कुछ न कुछ इंतज़ाम किया जाता था , लड़कियों को पराया धन मान कर उपेक्षित किया जाता था . आज ज़रूरी यह है कि राजपूत नेताओं से समाज के वरिष्ठ लोग यह सवाल पूछें कि क्या राजपूत लड़कियों की शिक्षा आदि के लिए कोई ख़ास इंतजाम नहीं किया जाना चाहिए . क्या उनके अधिकारों की बात को हमेशा नज़र अंदाज़ किया जाता रहेगा . अगर लड़कियों को सही शिक्षा दी जाए और उनको भी अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो सामाजिक परिवर्तन की बात को रफ्तार मिलेगी . ऐसा हर वह आदमी जानता है जिसकी सोचने समझने की शक्ति अभी बची हुयी है . आज एक सिनेमा के विरोध के नाम पर जो नेता आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं क्या उनको अपने गिरेबान में झाँक कर नहीं देखना चाहिए कि लड़कियों को सम्मान की ज़िन्दगी देने में समाज और सरकार का भी कुछ योगदान होता है . जो लोग राजपूतों के इतिहास की बात करके राजपूत लड़कों को किसी की नाक काटने और किसी को जिंदा जला देने की राह पर डाल रहे हैं क्या उनको राजपूतों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को दुरुस्त करने के लिए आन्दोलन नहीं शुरू करना चाहिए . हर राजपूत को अत्याचारी के रूप में चित्रण करने की परम्परा को दुरुस्त करने के लिए क्या कोई राजपूत नेता आन्दोलन की डगर पर जाने के बारे में विचार करेगा क्योंकि ऐसे बहुत सारे इलाके हैं जहां राजपूत परिवार की आर्थिक हालत दलितों से भी बदतर है . इन सवालों को पूछने वालों की समाज और देश को सख्त ज़रूरत है . क्या राजपूतों के कुछ नौजवान यह सवाल पूछने के लिए आगे आयेंगें ?