शेष नारायण सिंह
राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार की तरफ से एक अध्यादेश जारी हुआ है , जो अगस्त १९८२ में बिहार के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र के उस काले कानून की याद दिला देता है जो उन्होंने प्रेस की आज़ादी को रौंद देने के लिए कानून की किताबों में दर्ज करवाने की साज़िश की थी . डॉ जगन्नाथ मिश्र ने उस बिल में ऐसा इंतज़ाम किया था कि पत्रकारों को ऐसी सज़ा दी जाए जो एक हत्यारे को भी नहीं दी जा सकती थी. अपराध संहिता और दंड प्रक्रिया में संशोधन कर दिया गया था . पत्रकार के खिलाफ अगर एफ आई आर दर्ज हो जाए तो उसके तथाकथित अपराध को गैरज़मानती बना दिया गया था . पुलिस के पास यह अधिकार आ गया था कि वह किसी भी पत्रकार को पकड़कर मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करके उसको सख्त से सख्त सज़ा दिलवा सकती थी . उस बिल को काला बिल कहा गया , पूरे देश के पत्रकार सड़क पर आ गए और तत्कालीन प्रधानमंत्री और डॉ जगन्नाथ मिश्र की आका इंदिरा गांधी ने हस्तक्षेप किया और उस काले कानून को वापस लेना पड़ा . इंदिरा गांधी पांच साल पहले प्रेस की आज़ादी को रौंदने का नतीजा भोग चुकी थीं. उनके बेटे और उनके सलाहकारों ने सेंसरशिप लगा दी थी और १९७७ का चुनाव बुरी तरह से हार चुकी थीं. डॉ मिश्र ने अपने कुछ ख़ास चेला टाइप अफसरों की सलाह से यह कानून बनाया था लेकिन मीडिया और जनता की प्रतिरोध की आवाज़ इतनी तेज़ हो गयी कि इस काले कानून को वापस लेकर अपनी कुर्सी बचाना ही उनको सही फैसला लगा . डॉ मिश्र ने भी हद कर दी थी. पत्रकार को अपराधी की श्रेणी में बैठाने का पूरा बंदोबस्त कर दिया था. ताजीरात हिन्द की दफा २९२ और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के सेक्शन ४५५ को बदल दिया था अपनी इस कारस्तानी को उन्होंने बिहार विधानसभा में पारित भी करवा लिया था .
बिहार के इस काले कानून को दफ़न हुए ३५ साल हो गए हैं . इस बीच कई राज्य सरकारों ने इसी तरह का दुस्साहस किया लेकिन शुरुआती कोशिशें ही नाकाम कर दी गयीं . बिहार वाले काले बिल की तरह का ही एक अध्यादेश इस बार राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे लेकार आयी हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि उनके इस अध्यादेश के सार्वजनिक बहस के दायरे में आ जाने के बाद केंद्र सरकार और उनकी पार्टी क्या रुख अपनाती है .जहां तक वसुंधरा राजे की बात है उन्होंने तो यह पेशबंदी मुकम्मल तरीके से कर ली है कि अगले साल होने वाले चुनावों के मद्दे-नज़र उनकी सरकार की पिछले पांच साल की गलतियाँ उनकी पार्टी के नेताओं और आम जनता तक मीडिया के ज़रिये न पंहुचें ...
राजस्थान सरकार के आर्डिनेंस में जो प्रावधान हैं वे निश्चित रूप से लोकशाही पर सीधा हमला हैं .राजस्थान सरकार का यह अध्यादेश मूल रूप से भ्रष्ट जजों, मैजिस्ट्रेटों और सरकारी अफसरों को बचाने के लिए लाया गया है लेकिन इसी में यह व्यवस्था भी है कि मीडिया उन आरोपों के बारे में कोई रिपार्ट नहीं करेगा जब तक कि सम्बंधित अधिकारी के खिलाफ मुक़दमा चलाने की अनुमति सरकार की तरफ से नहीं मिल जायेगी. क्रिमिनल लाज ( राजस्थान अमेंडमेंट ) अध्यादेश २०१७ नाम के इस आर्डिनेंस को पिछले महीने जारी किया गया था और अब सरकार इसको कानून का रूप देने के लिए बिल के साथ तैयार है .
इस बिल को देखते ही लगता है कि जिस तरह से राजे महराजे अपने लोगों को किसी भी अपराध से मुक्त करने के लिए सदा तैयार रहते थे ,उसी तरह राजस्थान की राजशाही परम्परा की वारिस मुख्यमंत्री ने अपने भ्रष्ट अधिकारियों के कारनामों पर पर्दा डालने के लिए जल्दी में यह सारा कार्यक्रम रचा है . इस अध्यादेश में यह प्रावधान है कि सरकार की मंजूरी के बिना जज,मैजिस्ट्रेट,और अन्य सरकारी कर्मचारियों के उन कामों की जांच नहीं की जा सकती जो उन्होंने अपनी ड्यूटी निभाते समय किया हो. सबको मालूम है कि सरकारी बाबू सारे भ्रष्टाचार ड्यूटी के समय ही करते हैं. ऐसा लगता है कि उनके उन्हीं कारनामों की भ्रष्टाचार से सम्बंधित जांच में अडंगा डालने के लिए यह कानून लाया जा रहा है . इसके लपेटे में मीडिया को भी ले लिया गया है. कानून में व्यवस्था दी गयी है कि जब तक भ्रष्टाचार की जांच के लिए सरकार की मंजूरी नहीं मिल जाती तब तक मीडिया भी आरोपों के बारे में रिपोर्ट नहीं कर सकता. इस मंजूरी में छः महीने लग सकते हैं .
अभी तक ऐसा होता रहा है कि किसी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ अगर कोई व्यक्ति शिकायत करता था और जांच एजेंसी जांच करने से इनकार कर देती थी तो पीड़ित पक्ष मुक़दमा करके कोर्ट से जांच का आदेश करवा लेता था . जांच एजेंसी को एफ आई आर दर्ज करके जांच की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती थी . लेकिन अब राजस्थान में ऐसा नहीं हो सकेगा . प्रस्तावित कानून में इस पर भी रोक लगा दी गयी है . लिखा है ," कोई भी मैजिस्ट्रेट किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ किसी जांच का आदेश नहीं देगा जो वर्तमान या भूतकाल में जज, मैजिस्ट्रेट या सरकारी कर्मचारी रह चुका हो ". हाँ अगर सरकार जांच एजेंसी की अनुमति मांगने वाली दरखास्त पर १८० दिन तक कोई कार्रवाई नहीं करती तो जांच एजेंसी को जांच करनी की स्वतंत्रता होगी . प्रस्तावित कानून में क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में भी परिवर्तन किया गया है . इसके कानून बन जाने के बाद , भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी का नाम ,पता , फोटो, और उसके परिवार के बारे में कोई भी जानकारी न तो छापी जा सकती है और न ही किसी अन्य रूप में प्रकाशित की जा सकती है . अगर किसी ने इस नियम का उन्ल्लंघन किया उसको दो साल की सज़ा हो सकती है . .
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प्रस्तावित कानून में क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के सेक्शन १५६ ( ३) और १९०(१) में भीबद्लाव किया जाएगा जिसमें प्रावधान है कि कोई भी मैजिस्ट्रेट किसी भी अपराध का संज्ञान ले सकता है और जांच का आदेश दे सकता है .अब इसमें संशोधन किया जा रहा है अब इस सेक्शन के तहत कोई भी मैजिस्ट्रेट किसी भी सरकारी कर्मचारी, जज या मैजिस्ट्रेट के खिलाफ किसी जांच का आदेश नहीं दे सकता जब तक की सरकार से जांच की अनुमति न ले ली गयी हो.. अगर कथित अपराध उसकी ड्यूटी के दौरान किया गया है . यह नियम भूतपूर्व कर्मचारियों पर भी लागू होगा.
सभी सरकारी कर्मचारियों को निर्देश जारी कर दिया गया है कि वे किसी भी व्यक्ति या संगठन के खिलाफ प्रेस या सोशल मीडिया के ज़रिये कोई भी आरोप न लगाएं और न ही कोई कमेन्ट करें . सरकार के नियमों की किताब के हवाले से चेतावनी दी गयी है कि अगर किसी ने ऐसा नहीं किया तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जायेगी. वसुंधरा राजे की सरकार अपराध की जांच के नियमों में इतना मूलभूत बदलाव करके राजस्थान में भ्रष्टाचार को खुली छूट देने की कोशिश कर रही है . साथ ही प्रेस की आज़ादी पर भी ऐलानियाँ हमला कर रही है . राजस्थान की मुख्यमंत्री को पता होना चाहिए कि भारत में प्रेस की आज़ादी किसी नेता की तरफ से मिली हुयी खैरात नहीं है . यह भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद १९ (१)(ए) में गारंटी के रूप में मिला हुआ अधिकार है और उसको बदलने की कोशिश जिसने भी किया उसने उसकी सज़ा भुगती है. इंदिरा गांधी को जो सज़ा मिली थी उसको पूरी दुनिया जानती है . प्रेस की आज़ादी कुचलने के कारण ही उनको १९७७ में चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था.
संविधान के मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद १९(१) ( ए) के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी देश के हर नागरिक को उपलब्ध है . संविधान इसकी गारंटी देता है . मीडिया की आज़ादी संविधान के इसी अनुच्छेद से मिलती है . लेकिन यह आज़ादी निरंकुश नहीं है . अनुच्छेद १९ (२) के तहत कुछ पाबंदियां भी हैं. संविधान के अनुसार ' सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी है .इस अधिकार में यह भी शामिल है कि सभी व्यक्ति बिना किसी बाहरी दखलन्दाजी के स्वतंत्र राय रख सकते हैं ,किसी भी माध्यम से सूचना ग्रहण कर सकते हैं , किसी को भी सूचना दे सकते हैं "
सभी सरकारों ने प्रेस की इस स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की बार बार कोशिश की है लेकिन संविधान को पालन करवाने का ज़िम्मा सुप्रीम कोर्ट के पास है . सुप्रीम कोर्ट संविधान के उन प्रावधानों की सही व्याख्या भी करता है जिन पर कोई विवाद हो . सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में यह भी है कि अगर कोई संविधान की मनमानी व्याख्या करने की कोशिश करे तो उसको नियंत्रित करे. कई बार सरकारें यह कहती भी पाई गयी हैं कि संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता जैसी किसी भी बात की गारंटी नहीं दी गयी है. सरकारों के ऐसे आग्रह सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा ही दुरुस्त किया है . संविधान के लागू होने के कुछ दिन बाद ही यह नौबत आ गयी थी . उस समय सुप्रीम कोर्ट ने रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मुक़दमे में आदेश दिया था कि " अभिव्यक्ति की आज़ादी सभी लोकतांत्रिक संगठनों की बुनियाद है " इन्डियन एक्सप्रेस बनाम यूनियन आफ इण्डिया के केस में कोर्ट ने कहा कि हालांकि संविधान के अनुच्छेद १९ में कहीं भी ' फ्रीडम आफ प्रेस ' शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है लेकिन यह अनुच्छेद १९(१) ( ए) में समाहित है .इसी तरह से बेनेट कोलमैन एंड कंपनी बनाम यूनियन आफ इण्डिया के केस में सरकार के कहा था कि अखबार की पृष्ठ संख्या कम कर दी जाए . टाइम्स आफ इण्डिया ग्रुप की कंपनी बेनेट कोलमैन ने न्यूजप्रिंट कंट्रोल आर्डर को चुनौती देते हुए मुक़दमा कर दिया और कोर्ट ने आदेश दिया कि अख़बार की पेज संख्या कम करने संबंधी आदेश संविधान के अनुच्छेद १९(१)(ए ) का उन्ल्लंघन करता है .
इस बात की पूरी संभावना है कि जनमत के दबाव के चलते वसुंधरा राजे सरकार को अपने विवादित कानून को ख़त्म करना पड़ेगा लेकिन अगर वे जिद पर अड़ी रहीं तो सुप्रीम कोर्ट से तो प्रेस की आज़ादी की हिफाज़त की उम्मीद हमेशा ही बनी हुयी है
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