Sunday, October 15, 2017

किसान को बेचारा मानकर शासक वर्ग विकास में बाधा डालते हैं .



शेष नारायण सिंह

करीब चालीस साल बाद कुवार के महीने में  गाँव गया. मेरे गाँव में पांडे बाबा वाला महीना बहुत ही खूबसूरत होता है. न गर्मी न ठंडी,   तरह तरह की फसलों की खुशबू हवा में तैरती रहती है. अन्य इलाकों  में जिस त्यौहार को  विजयादशमी या दशहरा कहा जाता है उसको मेरे क्षेत्र में पांडे बाबा ही कहा जाता था. पांडे बाबा हमारे यहाँ के लोकदेवता हैं . उनको धान चढ़ाया जाता था. उनका  इतिहास  मुझे नहीं पता है लेकिन माना जाता था कि पांडे बाबा की पूजा करने से बैलों का स्वास्थ्य बिलकुल सही रहता है . गोमती नदी के किनारे दक्षिण में धोपाप है और  नदी के उस पार पांडे बाबा का स्थान है . जहां उनका ठिकाना है उस गाँव का नाम बढ़ौना डीह है लेकिन अब उसको  पांडे बाबा के नाम से ही जाना जाता है . आज के चालीस साल पहले हर  घर से कोई पुरुष सदस्य पांडे बाबा के मेले में दशमी के दिन ज़रूर जाता था.. हर गाँव से हर घर से लोग जाते थे. बैलों की खैरियत तो सबको चाहिए होती थी. मैं पहली बार आज से पचास साल पहले आपने गाँव के कुछ वरिष्ठ लोगों के  साथ गया था,मेरे बाबू नहीं जा सके थे . उन  दिनों दशमी तक धान की फसल तैयार  हो चुकी होती थी ,अब नहीं होती . इस बार मैंने देखा कि धान के पौधों में अभी फूल ही लग रहे थे ,यानी अभी महीने भर की कसर है.
अब कोई पांडे बाबा नहीं जाता. क्योंकि अब किसी को बैलों के अच्छे स्वास्थ्य की ज़रूरत ही नहीं है. अब खेती में बैलों की कोई भूमिका नहीं है . पहले बैलों से हल चलते थे सिंचाई के लिए भी कुएं से पानी निकालने में बैलों की अहम भूमिका होती थीबैलगाड़ी या लढा से सामान  ढोया जाता था.  यानी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बैलों की बहुत बड़ी भूमिका होती थी. अब नहीं होती. अब ट्रैक्टर से खेत जोते जाते हैं ट्यूबवेल से सिंचाई होती है ट्राली से माल ढोया जाता है .अब ग्रामीण  व्यवस्था में बैलों की कोई भूमिका नहीं होती. इसलिए अगर घर में पल रही गाय बछड़े को जन्म दे देती है तो लोग दुखी हो जाते हैं . अभी तक तो बछड़े को औने पौने दाम पर बेच दिया जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं होता. गाय या बछड़े को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना अब असंभव है. स्वयम्भू गौरक्षक ऐसा होने नहीं देते . नतीजा यह हो रहा है कि एक ऐसे जानवर को बाँध कर खिलाना पड़ रहा है  जो गाय और भैंस का चारा खाता है और किसान की आर्थिक स्थिति को कमज़ोर करता  है. पिछले करीब चार  महीने से एक नयी परम्परा शुरू हो गयी है . अब लोग  अपने गाँव से थोड़ी दूर ले जाकर बछड़ों को रात बिरात छोड़ आते हैं. वे खुले घूमते हैं और जहां भी हरी फसल दिखती हसी,चरते खाते हैं .  कुछ साल पहले हमारे गाँवों में पता नहीं कहाँ से नील गाय बहुत बड़ी संख्या में आ गए थे. अब संकट का रूप धारण कर चुके हैं . बताते हैं कि नील गायों को डराने के  लिए १०-१५ साल पहले सरकारी तौर पर जंगली सूअर छोड़ दिए गए थे . सूअरों ने नील गाय को तो भगाया नहीं ,खुद  ही जम  गए . अब तक हरियाली वाली फसलें नील गाय खाते थे . आलूशकरकंद प्याज ,लहसुनगाजर ,मूलीआदि ज़मीन के नीचे होने वाली फसलों को सुअर नुक्सान पंहुचा रहे थे और अब इसी जमात में वे बछड़े भी शामिल हो गए हैं.जिनको किसानों ने ही  छुट्टा छोड़  दिया है . खेती की हालत बहुत ही ख़राब है .
कई लोगों को प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी का वह भाषण बहुत अच्छी तरह से याद है जिसमें उन्होंने २०१४ के लोकसभा चुनाव के पहले कहा था कि किसान की आमदनी दुगुनी कर दी जायेगी . नीतियाँ ऐसी बनाई जायेंगी जिस से किसान को सम्पन्नता की राह पर डाल दिया जाएगा . उनकी बातों पर भरोसा करके किसानों ने उनको वोट दिया ,लोकसभा में तो जिताया ही,  विधान सभा में भी उनकी पार्टी को  वोट दिया और सरकार बनवा दी . लेकिन उत्तर प्रदेश में  उनकी सरकार बनते ही पशुओं की बिक्री एकदम बंद हो गयी . हर गाँव  में दो चार ऐसे नौजवान प्रकट हो गए जिनके जीवन का उद्देश्य ही गौवंश की रक्षा है. लोग परेशान हैं कि जाएँ तो जाएँ कहाँ .जानवरों को बेचकर किसान को अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी. आमदनी दुगुना करने के वायदे वाली सरकार के संरक्षण में काम कर रहे गौरक्षकों ने आमदनी का एक जरिया भी खत्म कर दिया और सरकार कोई भी कार्रवाई नहीं कर रही है .

आज ग्रामीण इलाकों में  जो लोग परिवार के मुखिया  हैं उनकी उम्र साठ साल के पार है. उन लोगों ने अपने बचपन में १९६४ की वह  भुखमरी भी देखी है जो लगातार सूखे की  वजह से आई थी. किसान लगभग पूरी तरह से बरसात के पानी पर ही निर्भर था.  उन यादों से भी लोग कांप जाते हैं . नरेंद्र मोदी के वायदों के बाद लोगों को उम्मीद थी कि गरीब का बेटा जब प्रधानमंत्री बनेगा तो शायद कुछ ऐसा कर दे जो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कियाथा. हरित क्रान्ति की शुरुआत कर दी थी. हालांकि उसका श्रेय इंदिरा गांधी ने बटोरा.
दिल्ली आकर जब खेती किसानी के इंचार्ज कुछ महाप्रभुओं से बात की तो उन्होंने लाखों करोड़ों मीट्रिक टन और लाखों हेक्टेयर में  अच्छी फसलों के आंकड़े देकर मुझे संतुष्ट करने की कोशिश की . इन आंकड़ाबाज अफसरों नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करेंइसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता हैतभी इस देश का नेता और पत्रकार जगता है। गांव का किसानजिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती हैवह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता।
कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा क्योंकि गांव का गरीब और किसान मांग कर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीबसरकारी लापरवाही के चलते मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थीवह लगभग आदिम काल की थी। 
जवाहरलाल नेहरू ने कृषि को प्राथमिकता नहीं दी . उनको उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा। लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो उनको एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गईं थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरलअयूब ने भी हमला कर दिया। युद्ध का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवानजय किसान का नारा दिया और अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन किया कि सभी लोग एक दिन का उपवास रखें। यानी मुसीबत से लडऩे के लिए हौसलों की ज़रूरत पर बल दिया। लेकिन भूख की लड़ाई हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे उनसे कोई भी बता सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है। लेकिन भूख सब कुछ करवाती है। अमरीका से पी एल 480 योजना के तहत मंगाये गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती थीं .
केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम है कि गांव का गरीब किसान जब अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए क़र्ज़ लेता है  तो कितनी बार मरता हैअपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के तोता रटंत पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा का ही जवाब था १९६६ में शुरू हुआ खेती को  आधुनिक बनाने का वह ऐतिहासिक कार्य. २०१४ के चुनाव के पहले जब नरेंद्र मोदी ने किसान की आमदनी डबल करने की बात की तो लोगों को लगा कि शायद वैसा ही कुछ हो जाए . लेकिन आज की ज़मीनी सच्चाई यह है कि किसान के लिए सरकारी नीतियों में ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा है.

किसानों की समस्या को समझने वालों ने इस देश में कभी भी सत्ता नहीं संभाली . जब से ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारत पर क़ब्ज़ा किया तब से ही खेती की अनदेखी होती रही है . सत्ताधीशों की सुविधा के अनुसार खेती करने के अवसर हमेशा से ही उपलब्ध कराये जाते रहे हैं . ऐसा नहीं है कि अपने देश में अधिक नक़दी देने वाली फसलों की कमी रही हो. लेकिन उनको भी शासक अपने हित साधन के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं नील, अफीम,रबड़,चाय,पिपरमिंट,गन्ना ,काफी, मसाले आदि ऐसी फसलें हैं जो किसान को सम्पन्न बना सकती थीं लेकिन सरकारों ने ऐसा होने नहीं दिया . नील और अफीम को तो शुद्ध रूप से सरकारी नियंत्रण में ही रखा गया और वहां जमकर शोषण हुआ.महात्मा गांधी का चंपारण आन्दोलन ही नील के किसानों की समस्याओं को दृष्टि में रखकर किया गया . इस तरह के बहुत सारे उदहारण देश भर में हुए हैं जहाँ किसानों की समस्याओं की बुनियाद पर आन्दोलन शुरू हुए लेकिन अंत उनका भी सत्ताधीशों की शक्ति को पुख्ता करने में ही हुआ .
आधुनिक युग में भी भारतीय किसान को अन्नदाता ही माना जा रहा है .किसी भी नेता का भाषण सुन लीजिये उसमें किसान को भगवान् बताने की कोशिश की जायेगी . लेकिन उसकी सम्पन्नता के बारे में कोई भी योजना कहीं नहीं नज़र आयेगी. किसान की दुर्दशा का बुनियादी कारण इसी सोच में है. उसकी पैदावार की कीमत सरकार तय करती है . और जब सरकार की तरफ से  न्यूनतम खरीद मूल्य तय करने की घोषणा की जाती है तो लगता है कि मंत्री जी बहुत बड़ी कृपा कर रहे हैं और किसान को कुछ खैरात में दे रहे हैं . इसके अलावा भी सरकारी नीतियों में भारी कमियाँ हैं . खाद के नाम पर  जो सब्सिडी आती थी वह  सीधे खाद का उत्पादन करने वाली कंपनी के खाते  में जमा हो जाता था और उस से उम्मीद की  जाती थी कि वह किसान को उसका लाभ देगा .लेकिन ऐसा होता नहीं था. वर्तमान सरकार में एक मंत्री जी हैं जो कभी  रासायनिक खाद विभाग के  मंत्री हुआ करते थे . उनके ऊपर आरोप लगा था कि  रासायनिक खाद पर सरकार ने जो भी सब्सिडी बढ़ाई थी उसका पचास प्रतिशत मंत्री ने  नक़द वापस ले  लिया था. जांच की मांग भी हुयी लेकिन मामला रफा दफा हो गया . ऐसे  बहुत सारे मामले हैं जहां सत्ताधीशों ने किसान के नाम पर हेराफेरी की है और किसान को घडियाली आंसू की बोतलें भेजते रहे हैं .
समस्या का हल किसान को अन्नदाता और देश की खाद्य आवश्यकताओं के पूर्तिकर्ता के खांचे से बाहर निकालकर नीतियाँ बनाने की सोच में है .उस पर दया करने की कोई ज़रूरत नहीं है . दुनिया के कई देशों में अन्न की कमी है . वहां विश्व खाद्य संगठन आदि की मदद से अन्न भेजा जाता है. इस काम में अमरीका और  विकसित देशों का पूरी तरह  से कब्ज़ा है . हमें मालूम  है कि दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य कंपनी कारगिल भारत में दूर दराज़ के गावों में जाकर सस्ते दाम पर गेहूं आदि खरीद रही है उस गेहूं को वह उन देशों में भेजती है जहाँ खाने की कमी होती है . कारगिल अमरीकी कंपनी है. सरकार को चाहिए कि किसानों की पैदावार को सीधे विश्व  भर में फैले उपभोक्ता तक पंहुचाने का उपाय करे. ऐसी नीतियाँ बनाई जाएँ जिससे किसान को बेचारा माने जाने वालों को समझ में आये कि किसान बेचारा नहीं होता, अगर जागरूकता हो तो वह अमरीकी किसानों की तरह बहुत सम्पन्नता का जीवन बिता सकता है लेकिन उसके लिए उसकी आत्मसम्मान की भावना को  सही मुकाम पर पंहुचाना होगा, उसको केवल मतदाता ही नहीं देश के विकास का हरावल दस्ता मानना होगा . 

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