Wednesday, August 30, 2017

आरक्षण में आरक्षण की राजनीति और भविष्य की राजनीतिक संभावनाएं



शेष नारायण सिंह

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक ऐसे प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है जिसके बाद एक ऐसे आयोग का गठन किया जायेगा जो केंद्र सरकार की  नौकरियों में  पिछड़ी जाति के कोटे से मिलने वाले आरक्षण की समीक्षा करेगा . कोशिश यह होगी कि ओबीसी आरक्षण का फायदा उन् सभी पिछड़ी जातियों तक पंहुचे जो अभी तक भी हाशिये पर हैं. सरकार ने दावा किया है कि यह आयोग ओबीसी लिस्ट में शामिल जातियों को आरक्षण से मिलने वाले लाभ का न्यायपूर्ण वितरण उन जातियों को नहीं मिल पा रहा है जिनकी संख्या कम है .इस आयोग  से यह भी अपेक्षा की जायेगी कि वह अब तक नज़रंदाज़ की गयी पिछड़ी जातियों को न्याय दिलाने के तरीके भी सुझाए . केंद्रीय सूची में मौजूद सभी ओबीसी जातियों की नए सिरे से समीक्षा करने के लिए बनाए जा रहे इस आयोग के दूरगामी राजनीतिक पारिणाम  होंगें . मंत्रिमंडल के फैसले की जानकारी देते हुए केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बताया कि अभी तक  होता यह रहा  है कि संख्या में अधिक और राजनीतिक रूप से सक्षम जातियां अति पिछड़ों को नज़रंदाज़ करती रही हैं लेकिन उसको दुरुस्त करना ज़रूरी हो गया था इसलिए सरकार को यह फैसला करना पड़ा .
२०१५ में हुए बिहार विधान सभा के चुनाव के दौरान आर एस एस के प्रमुख ,मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण नीति की समीक्षा की जानी चाहिए . लालू प्रसाद यादव और उनके तब के चुनाव के सहयोगी  नीतीश कुमार ने मोहन भागवत के इस बयान को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया था कि पिछड़ी जातियों की भारी संख्या वाले बिहार में बीजेपी बुरी तरह से चुनाव हार गयी  . मंत्रिमंडल की बैठक के बाद फैसलों की जानकारी देने आये अरुण जेटली से जब पूछा गया की क्या केंद्र सरकार मोहन भागवत की बात को ही अमली जामा पंहुचाने की दिशा में चल रही है तो उन्होंने साफ़ कहा कि ' सरकार के पास इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं है और न ही भविष्य में ऐसा प्रस्ताव होगा यानी उन्होंने मोहन भागवत की बात को लागू करने की किसी संभावना से साफ़ इनकार कार दिया . प्रस्तावित आयोग का सीमित उद्देश्य केवल मंडल कमीशन की जातियों की योग्यता की  श्रेणी का पुनार्विभाजन ही है और कुछ नहीं . केंद्रीय मंत्री की बात अपनी जगह है लेकिन यह तय है कि ओबीसी लिस्ट में संशोधन की बात पर ताक़तवर जातियों के नेता राजनीतिक स्तर पर हल्ला गुल्ला ज़रूर करेंगे . लगता  है कि लालू प्रसाद यादव की  २७ अगस्त की प्रस्तावित  रैली के लिए केंद्र सरकार और बीजेपी ने  बड़ा मुद्दा दे दिया है . यह भी संभव  है कि केंद्र सरकार लालू यादव और उनके साथ आने वाली पार्टियों की ताकत को भी इसी फैसले की कसौटी पर कसना चाह रही हो . ओबीसी की राजनीति के बड़े पैरोकार नीतीश कुमार शरणागत होने के बाद केंद्र सरकार को लालू यादव को चिढाने का भी एक अवसर हाथ आया है जिसका राजनीतिक लाभ होगा और केंद्र सरकार उसको लेने की कोशिश अवश्य करेगी .

मीडिया से मुखातिब अरुण जेटली ने बताया कि ग्यारह राज्यों में इस तरह की सूची पहले से  ही है जिसमे आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखण्ड ,पश्चिम बंगाल, जम्मू, आदि शामिल हैं . ओबीसी   वर्ग में आरक्षण लेने के लिए क्रीमी लेयर की बात भी हुयी . अब तक सालाना आमदनी छः लाख रूपये वाले लोगों के बच्चे आरक्षण के लिए योग्य होते थे. अब वह सीमा बढाकर आठ लाख कर दी गयी है .
बिहार और उत्तर प्रदेश दलित और ओबीसी राजनीति का एक प्रमुख केंद्र है . दक्षिण भारत में तो यह राजनीति स्थिर हो चुकी है बिहार और उत्तर प्रदेश में  ओबीसी की सबसे ताक़तवर जातियों यादव और कुर्मी का दबदबा  है . बीजेपी प्रमुख अमित शाह लोकसभा २०१४ चुनाव के दौरान उत्तर प्रद्देश के प्रभारी थे और विधानसभा २०१७ के दौरान तो वे पार्टी के  अध्यक्ष ही थे . इन दोनों चुनावों में उन्होंने गौर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ लेने का बड़ा राजनीतिक प्रयास किया . केशव प्रसाद मौर्य को राज्य की राजनीति में महत्व देना इसी रणनीति का हिस्सा था . यादव जाति को अलग थलग  करके समाजवादी पार्टी को  पराजित करने की  योजना की सफलता के बाद से ही ओबीसी जातियों को फिर से समायोजित करने की बात चल रही थी. ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को पिछड़ी जातियों के बारे में प्रस्तावित आयोग इसी राजनीति का हिस्सा है .

आरक्षण की राजनीति को  डॉ राम मनोहर लोहिया ने अफर्मेटिव एक्शन यानी सकारात्मक हस्तक्षेप नाम दिया था  . उनका दावा था कि  अमरीका में भी  इस तरह की राजनीतिक योजना पर काम किया गया था . अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ भीमराव आंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया माने जाते हैं . इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी कि दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया. संविधान के लागू होने के इतने  साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की ज़रुरत महसूस की जा रही है . हालांकि आज के नेताओं में किसी की वह ताक़त नहीं है कि वह आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह वे तरीके भी अपना सकें जो चुनाव के गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों . लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ हानि को ध्यान में रख कर ही सही सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है . उस समय  दलितों को आरक्षण दिया  गया था. पिछड़ी जातियों को तो आरक्षण विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री रहते दिया गया .
उत्तर प्रदेश में  ओबीसी की राजनीति में सही तरीके से आरक्षण की बात हमेशा उठती रही है . ताक़तवर यादव और कुर्मी जाति के लोग बड़ी संख्या में  सरकारी नौकरियों पर मंडल कमीशन लागू होने के बाद से ही काबिज़ हो रहे थे और अति पिछड़ी जातियों में बड़ा असंतोष था .बीजेपी की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था .पिछड़ों की राजनीति के मामले में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताक़त बहुत ज्यादा थी. पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया . नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वे अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी. उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था .उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनायी थी जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण की सिफारिश की थी . राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ ले लेती हैं जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें के आधार पर काम शुरू भी हो गया था . बहुत ही शुरुआती दौर था . यह योजना परवान चढ़ पाती कि आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। मायावती ने बाद में इस श्रेणी को ख़त्म कर दिया . इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। बाद में तो बीजेपी में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आन्तरिक चिंतन हुआ और अमित शाह ने २०१४ में उस चिंतन का  लाभ उठाया . चल रहा है . ज़ाहिर है आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है .

संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को सामाजिक  बराबरी के एक हथियार के रूप में लागू किया था लेकिन आरक्षण से उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं मिले इसलिए उसे और संशोधित भी किया गया लेकिन आजकल एक अजीब बात देखने में आ रही है . वे जातियां जिनकी वजह से देश और समाज में दलितों को शोषित पीड़ित रखा गया था वही आरक्षण की बात करने लगी हैं . पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए बनी काका कालेलकर और मंडल कमीशन की सिफारिशों में क्रीमी लेयर की बात की गयी थी . इसका मतलब यह था कि जो लोग आरक्षण के लाभ को लेकर आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नहीं रह गए हैंउनके घर के बच्चों को आरक्षण के लाभ से अलग कर दिया जाना चाहिए लेकिन बहुत दिनों तक ऐसा नहीं हुआ. 
सामाजिक बराबरी के दर्शन शास्त्र के आदिपुरुष महात्मा फुले ने इसे एक बहुत ही गंभीर राजनीतिक परिवर्तन का हथियार माना है . उनका मानना था कि दबे कुचले वर्गों को अगर बेहतर अवसर दिए जाएँ तो सब कुछ बदल सकता है ... महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। महात्मा फुले ने समझाया कि जाति की संस्था समाज के प्रभुता संपन्न वर्गों के आधिपत्य को स्थापित करने का एक हथियार है.उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा,बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये,जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया,ऋग्वेद के पुरुष सूक्त काजिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थीको फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
एक लम्बा इतिहास है सकारात्मक हस्तक्षेप का और इसे हमेशा ही ऐसा राजनीतिक विमर्श माना जाता रहा है जो मुल्क और कौम के मुस्तकबिल को प्रभावित करता है .
केंद्रीय मंत्रिमडल की ओबीसी जातियों के फिर से वर्गीकरण की नीति का महत्व है और यह निश्चित रूप से उन  वर्गों को कष्ट देगी जो जन्म से तो ओबीसी हैं लेकिन कर्म से महात्मा फुले के प्रभुता संपन्न वर्ग में शामिल हो चुके हैं . हो सकता है कि बीजेपी ने राजनीतिक लाभ लेने और विरोधी को कमज़ोर करने के लिए ही यह कदम उठाया हो लेकिन इसके नतीजे महत्वपूर्ण होंगें .

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