शेष नारायण सिंह
महात्मा गांधी की अगुवाई में देश ने १९४२ में अंग्रेजों भारत छोड़ा का नारा दिया था . उसके पहले क्रिप्प्स मिशन भारत आया था जो भारत को ब्रितानी साम्राज्य के अधीन किसी तरह का डामिनियन स्टेटस देने की पैरवी कर रहा था. देश की अगुवाई की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने स्टफोर्ड क्रिप्स को साफ़ मना कर दिया था. कांग्रेस ने १९२९ की लाहौर कांग्रेस में ही फैसला कर लिया था कि देश को पूर्ण स्वराज चाहिए . लाहौर में रावी नदी के किनारे हुए कांग्रेस के अधिवेशन में तय किया गया था कि पार्टी का लक्ष्य अब पूर्ण स्वराज हासिल करना है .१९३० से ही देश में २६ जनवरी के दिन स्वराज दिवस का जश्न मनाया जा रहा था. इसके पहले कांग्रेस का उद्देश्य होम रूल था लेकिन अब पूर्ण स्वराज चाहिए था . कांग्रेस के इसी अधिवेशन की परिणति थी की देश में १९३० का महान आन्दोलन , सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुआ. नमक सत्याग्रह या गांधी जी का दांडी मार्च इसी कांग्रेस के इसी फैसले को लागू करने के लिए किए गए थे .वास्तव में १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन एक सतत प्रक्रिया थी क्योंकि जब १९३० के आन्दोलन के बाद अँगरेज़ सरकार ने भारतीयों को ज्यादा गंभीरता से लेना शुरू किया लेकिन वादा खिलाफी से बाज़ नहीं आये तो आन्दोलन लगातार चलता रहा . इतिहास के विद्यार्थी के लिए यह जानना ज़रूरी है कि जिस कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे उसी अधिवेशन में देश ने पूर्ण स्वराज की तरफ पहला क़दम उठाया था .
नौ अगस्त को भारत छोड़ा आन्दोलन की शुरुआत के ७५ साल पूरे हुए . इस अवसर पर लोकसभा में ‘भारत छोडो ‘ आन्दोलन को याद किया गया .लेकिन एक अजीब बात देखने को मिली कि लोकसभा में अपने भाषणों में न तो प्रधानमंत्री और न ही लोकसभा की स्पीकर ने जवाहरल लाल नेहरू का नाम लिया . प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सन बयालीस के महात्मा गांधी के नारे ‘करेंगें या मरेंगें ‘ के नारे की तर्ज़ पर ‘ करेंगें और करके रहेंगें’ का नया नारा दिया . उन्होंने गरीबी, कुपोषण और निरक्षरता को देश के सामने मौजूद चुनौती बताया और सभी राजनीतिक दलों से अपील किया कि इस चुनौती से मुकाबला करने के लिए सब को एकजुट होना पडेगा. उन्होंने इस बात पर दुःख जताया कि महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज्य का सपना भी अधूरा है .प्रधानमंत्री ने सभी बहादुर नेताओं के बलिदान को याद किया. उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के सभी लोगों के एकजुट होने की बात की और कहा कि जब आज़ादी के नेता जेल चले गए थे तो कुछ नौजवान नेताओं ने आन्दोलन का काम संभाल लिया . इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री मोदी ने लाल बहादुर शास्त्री, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का नाम लिया . यह तीनों नेता सन बयालीस में नौजवान थे और सक्रिय थे . उन्होंने लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ,भगत सिंह , सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद को भी याद किया जब कि इनमें से कोई भी भारत छोडो आन्दोलन में शामिल नहीं हुआ था का .उन्होंने यह ज़िक्र नहीं किया कि नौ अगस्त के दिन पूरी की पूरी कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया था . महात्मा गांधी और महादेव देसाई को पुणे के आगा खान पैलेस में गिरफ्तार करके रखा गया था जबकि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बाकी सदस्यों को अहमदनगर जेल भेज दिया गया था . प्रधानमंत्री ने इन नेताओं में से किसी का नाम नहीं लिया .अहमदनगर किले की जेल में जो नेता बंद थे उनमें जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ,आचार्य कृपलानी ,नरेंद्र देव, आसिफ अली, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि थे. प्रधानमंत्री ने इनमें से किसी का नाम नहीं लिया .इस आन्दोलन को प्रधानमंत्री ने आज़ादी के आन्दोलन में अंतिम जनसंघर्ष बताया और कहा कि उसके पांच साल बाद ही अँगरेज़ भारत छोड़ कर चले गए.
लोकसभा में आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए स्पीकर सुमित्रा महाजन ने महात्मा गांधी की अगुवाई में शुरू हुए भारत छोडो आन्दोलन पर अपना वक्तव्य दिया . उन्होंने लोकमान्य तिलक ,वी डी सावरकर और दीन दयाल उपाध्याय का नाम लिया . हालांकि लोकमान्य तिलक की तब तक मृत्यु हो चुकी थी और दीन दयाल उपाध्याय सन ४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में शामिल नहीं हुए थे .
देखने में आया है कि जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है तब से देश के निर्माण और आज़ादी की लड़ाई में जवाहरलाल नेहरू के योगदान को नज़रंदाज़ करने का फैशन हो गया है . इसके पहले विदेशमंत्री सुषमा स्वराज बांडुंग कान्फरेंस की याद में एक सम्मलेन में गयी थीं , वहां भी उन्होंने नेहरू का नाम नहीं लिया जबकि चेकोस्लोवाकिया के टीटो और मिस्र के नासिर ने जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर बांडुंग सम्मेलन के बाद निर्गुट सम्मलेन को ताक़त दिया था . बाद में तो अमरीका और रूस के सहयोगी देशों के अलावा लगभग पूरी दुनिया ही उसमें शामिल हो गयी थी.
सवाल यह उठता है कि जवाहरलाल नेहरू के योगदान का उल्लेख किये बिना भारत के १९३० से १९६४ तक के इतिहास की बात कैसे की जा सकती है. जिस व्यक्ति को महात्मा गांधी ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था , जिस व्यक्ति की अगुवाई में देश की पहली सरकार बनी थी, जिस व्यक्ति ने मौजूदा संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद रखी, जिस व्यक्ति ने देश को संसाधनों के अभाव में भी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता की डगर पर डाल कर दुनिया में गौरव का मुकाम हासिल किया उसको अगर आज़ाद भारत के राजनेता भुलाने का अभियान चलाते हैं तो यह उनके ही व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है . आजकल कुछ तथाकथित इतिहासकारों के सहारे भारत के इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य चल रहा है जिसमें बच्चों के दिमाग से नेहरू सहित बहुत सारे लोगों के नाम गायब कर दिए जायेंगें जो बड़े होकर नेहरू के बारे में कुछ जानेंगें ही नहीं . लेकिन ऐसा संभव नहीं है क्योंकि गांधी और नेहरू विश्व इतिहास के विषय हैं और अगर हमें अपनी आने वाले पीढ़ियों को नेहरू के बारे में अज्ञानी रखा तो हमारा भी हाल उतर कोरिया जैसा होगा जहां के स्कूलों में मौजूदा शासक के दादा किम इल सुंग को आदि पुरुष बताया जाता है . अब कोई उनसे पूछे कि क्या किम इल सुंग के पहले उत्तरी कोरिया में शून्य था .
महात्मा गांधी की अगुवाई में आज़ादी की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें नेहरू रिपार्ट का अतुल्य योगदान है . यह रिपोर्ट २८-३० अगस्त १९२८ के दिन हुयी आल पार्टी कान्फरेंस में तैयार की गयी थी . यही रिपोर्ट महात्मा गांधी की होम रुल की मांग को ताक़त देती थी. इसी के आधार पर डामिनियन स्टेटस की मांग की जानी थी इस रिपोर्ट को एक कमेटी ने बनाया था जिसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे . इस कमेटी के सेक्रेटरी जवाहरलाल नेहरू थे .अन्य सदस्यों में अली इमाम , तेज बहादुर सप्रू, माधव श्रीहरि अणे ,मंगल सिंह ,सुहैब कुरेशी सुभाष चन्द्र बोस और जी आर प्रधान थे .सुहैब कुरेशी ने रिपोर्ट की सिफारिशों से असहमति जताई थी . इसके बारे में लिखने का मतलब केवल इतना है कि राहुल गांधी, राजीव गांधी और संजय गांधी जैसे नाकाबिल लोगों को देश की राजनीति पर थोपने का अपराध तो जवाहरलाल की बेटी इंदिरा गांधी ने ज़रूर किया है लेकिन इंदिरा गांधी की गलतियों के लिए क्या हम अपनी आज़ादी के लड़ाई के शिल्पी महात्मा गांधी और उनके सबसे भरोसे के साथी जवाहरलाल नेहरू को नज़रंदाज़ करने की गलती कर सकते हैं .एक बात और हमेशा ध्यान रखना होगा कि महात्मा गांधी के सन बयालीस के आन्दोलन के लिए बम्बई में कांग्रेस कमेटी ने जो प्रस्ताव पास किया था अ, उसका डाफ्ट भी जवाहलाल नेहरू ने बनाया था और उसको विचार के लिए प्रस्तुत भी नेहरू ने ही किया था .
जवाहरलाल नेहरू को नकारने की कोशिश करने वालों को यह भी जान लेना चाहिए कि उनकी पार्टी के पूर्वजों ने जिन जेलों में जाने के डर से जंगे-आज़ादी में हिस्सा नहीं लिया था , उन्हीं जेलों में जवाहरलाल नेहरू अक्सर जाते रहते थे . जिस भारत छोडो आन्दोलन के ७५ साल पूरे होने के बाद लोकसभा में विशेष कार्यक्रम किया गया उसी के दौरान जवाहरलाल १०४० दिन रहे जेलों में रहे थे .भारत छोडो आन्दोलन के दिन ९ अगस्त १९४२ को उनको मुंबई से गिरफ्तार किया गया था और १५ जून १८४५ को रिहा किया गया था . यानी इस बार ३४ महीने से ज्यादा वे जेल में रहे थे. इसके पहले भी कभार जाते रहते थे .जो लोग उनको खलनायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं ,ज़रा कोई उनसे पूछे कि उनके राजनीतिक पूर्वज सावरकर , जिन्नाह आदि उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत की वफादारी के इनाम के रूप में वे कितने अच्छे दिन बिता रहे थे . सावरकर तो माफी मांग कर जेल से रिहा हुए थे .अंडमान की जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें .और इम्पायर के हित में ही काम करेंगे. इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि वी डी सावरकर ने जेल से छूटने के बाद ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे महात्मा गांधी के आन्दोलन को ताक़त मिलती हो .
भारत छोड़ो आन्दोलन की एक और उपलब्धि है . अहमदनगर फोर्ट जेल में जब जवाहरलाल बंद थे उसी दौर में उनकी किताब डिस्कवरी आफ इण्डिया लिखी गयी थी .जब अंगेजों को पता लगा कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बारह सदस्य एक ही जगह रहते हैं और वहां राजनीतिक मीटिंग करते हैं तो सभी नेताओं को अपने राज्यों की जेलों में भेजा जाने लगा. मार्च १९४५ में गोविंद वल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और जवाहरलाल नेहरू को अहमदनगर से हटा दिया गया .बाकी गिरफ्तारी का समय इन लोगों ने यू पी की जेलों ,बरेली , नैनी अल्मोड़ा में काटीं . जब इन लोगों को गिरफ्तार किया गया था तो किसी तरह की चिट्ठी पत्री लिखने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई चिट्ठी आ सकती थी .बाद में नियम थोडा बदला . हर हफ्ते इन कैदियों को अपने परिवार के लोगों के लिए दो पत्र लिखने की अनुमति मिल गयी . परिवार के सदस्यों के चार पत्र अका सकते थे . लेकिन जवाहर लाल नेहरू को यह सुविधा नहीं मिल सकी क्योंकि उनके परिवार में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित और बेटी इंदिरा गांधी ही थे . वे लोग भी यू पी की जेलों में बंद थे और वहां की जेलों में बंदियों को कोई भी चिट्ठी न मिल सकती थी और न ही वे लिख सकते थे.
इसलिए भारत छोडो आन्दोलन का ज़िक्र होगा तो महात्मा गांधी के साथ इन बारह कांग्रेसियों का ज़िक्र ज़रूर होगा . हां यह अलग बात है कि जब भारत में इतिहास को पूरी तरह से दफना दिया जाएगा और शुर्तुर्मुगी सोच हावी हो जायेगी तो जवाहरलाल नेहरू को भुला देना संभव होगा और अहमदनगर के बाकी कैदियों को भी भुलाया जा सकेगा .लेकिन अभी तो यह संभव नहीं नज़र आता
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