शेष
नारायण सिंह
केंद्र
में नरेंद्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के साथ ही यह बात बहुत ज़ोरों से चलाई
जा रही है कि अब देश की राजनीति में उनका कोई विकल्प नहीं है .बीजेपी के नेता इस बात
को जोर देकर कहते हैं कि नरेंद्र मोदी अब जवाहरलाल नेहरू की तरह आजीवन
प्रधानमंत्री बने रहेंगें . टेलीविज़न चैनलों में भी यह
बात कही जा रही है . नरेंद्र मोदी की सफलताओं का ज़िक्र किया जा रहा है . बीजेपी के
प्रवक्ता और मंत्री इस बात का दावा बार बार कर रहे हैं
कि पिछले तीन वर्षों में को भ्रष्टाचार नहीं हुआ है . देश की जनता के पास इसका
प्रतिवाद करने का कोई मंच नहीं है लिहाजा सभी इस बात को माने बैठे हैं कि जब इतने
बड़े नेता कह रहे हैं तो सच ही होगा. विपक्षी पार्टियों का जिम्मा है कि वे मोदी
सरकार की अगर कोई नाकामयाबी है तो उसका ज़बरदस्त तरीके से प्रचार करें लेकिन ऐसा
नहीं हो रहा है . सबसे बड़ा ज़िम्मा कांग्रेस पार्टी
का है लेकिन उनके प्रवक्ता रोज़ शाम ४ बजे के आस पास २४ अकबर रोड ,
नई दिल्ली के अपने मुख्यालय में विराजते
हैं और अपनी बात को बहुत प्रभावशाली तरीके से कहते हैं . आमतौर पर यह बात बीजेपी के कुछ नेताओं या मंत्रियों के बयानों पर उनकी प्रतिक्रिया होती है . अगले दिन सुबह बात चीत
में वे ही बताते हैं कि बीजेपी की ओर से मीडिया मैनेज
हो गया है और प्रेस कांग्रेस की बात को प्राथमिकता नहीं दे रहा है . मीडिया पर
हमला करना आजकल फैशन हो गया है लेकिन इन नेताओं को अपने गिरेबान में झांकना होगा
कि अगर मीडिया उनकी बात नहीं उठा रहा है तो क्या और
कोई तरीका नहीं है जिस से वे अपनी बात जनता तक पंहुचा सकें . केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से हर हफ्ते कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है
जो जनविरोधी है लेकिन कहीं भी किसी भी राजनीतिक पार्टी
ने किसी तरह का विरोध किया ही नहीं .मीडिया का स्पेस हर दौर में सत्ताधारी पार्टी
को ज्यादा मिलता रहा है क्योंकि उनके काम और आचरण से देश का अवाम सीधे तौर पर
प्रभावित होता रहा है . कांग्रेस के दौर में भी मीडिया का स्पेस सरकारी पार्टी को मिलता था और तब बीजेपी के नेता भी मीडिया के मैनेज होने की
शिकायत करते थे. लेकिन बीजेपी वालों ने दिल्ली समेत देश की ज़्यादातर राजधानियों
में जुलूस आदि निकाल कर कांग्रेस की सरकारों को कटघरे
में खडा किया था . देश की राजनीति की बदकिस्मती है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है और
चारों तरफ यह चर्चा है कि नरेंद्र मोदी का कहीं कोई विकल्प नहीं है .ज़ाहिर है
बीजेपी इस अभियान की अगुवा है लेकिन इस तरह की बात को कोई मतलब नहीं है क्योंकि
अगर विकल्प की ज़रुरत पडी तो लोकतंत्र अपने हित में किसी भी नेता का विकल्प तलाश
लेता है .नरेंद्र मोदी की विकल्पहीनता की बात बीजेपी की रणनीति का हिस्सा हो
सकती है लेकिन विपक्ष को उसके लपेट में आने की क्या ज़रुरत है , यह बात आम आदमी की समझ से परे है.
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात सुझाना इस लेख का मकसद नहीं है . अगर विकल्प की
ज़रुरत पडी तो वह वक़्त की ताक़त से अपने आप
तय हो जाएगा. भला कोई सोच सकता था कि जिस व्यक्ति को
बीजेपी के ही कई तिकड़मबाज़ नेताओं ने
गुजरात से बाहर कर दिया था ,वही बीजेपी का सबसे
बड़ा नेता और प्रधानमंत्री हो जाएगा.
बीजेपी के उस समय के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी और उनके गुट के नेता लोग तो १३
सितम्बर २०१३ के दिन भी नरेंद्र मोदी को विकल्प मानने को तैयार नही थे. पार्टी के
तत्कालीन अध्यक्ष , राजनाथ सिंह ने जब गोवा में
अपनी पार्टी की बैठक में आडवानी आदि की मर्जी के खिलाफ जाकर नरेंद्र मोदी को
पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था तो दिल्ली में विराजने
वाले कई बड़े नेता राजनाथ सिंह के खिलाफ ही लामबंद होने लगे थे लेकिन वक़्त ने साबित कर दिया कि राजनाथ सिंह का फैसला उनकी पार्टी के हित में
सही था. आज की स्थिति यह है कि सितम्बर २०१३ में जो
लोग नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे थे, नरेंद्र मोदी के
विकल्प के रूप में उनकी चर्चा तक नहीं होती. दिलचस्प बात यह है कि उनमें से
कई महानुभाव आज उनके कृपापात्र भी बन गए हैं .
कई
मीडिया संगठन नेताओं के ऊपर जनहित पर आघात करते है तो सच्चाई के साथ
खड़े मीडिया को ज्यादातर राजनेता अपनी आलोचना का विषय बनाते हैं . मीडिया का न तो
यह काम है कि वह किसी का विकल्प सुझाए और नहीं उसके लिए यह न्यायसंगत होगा .
लेकिन देश की जनता को किसी भी चिंता और ऊहापोह की स्थिति से बचाने के लिए यह मीडिया का फ़र्ज़
है कि जितना संभव हो देश की जनता को उसकी चिंता से
मुक्त करे. इसका तरीका यह है कि आज के पहले जब भी देश की राजनीति में किसी भी
प्रधानमंत्री का विकल्प न होने की बात चली ही उस वक़्त के हालात हो याद दिला दे.
जवाहरलाल
नेहरू के जीवन काल में उनके
प्रधानमंत्रित्व के अंतिम दौर में यह चर्चा शुरू हो गयी थी . इस आशय की किताबें
आदि भी लिखी जाने लगी थीं . नेहरू के बाद जिस नेता को देश ने चुना ,उनका कार्यकाल बहुत कम समय का रहा लेकिन लाल बहादुर शास्त्री ने यह तय कर
दिया कि उन्होंने नेहरू की नीति में जो कमियाँ रह गयी थीं उनको भी दुरुस्त करने की
क्षमता उनके अन्दर थी. चीन के साथ हुए संघर्ष में भारत
को अपमान झेलना पड़ा था और उसी से मनबढ़ हुए पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अय्यूब ने भारत
को युद्ध की तरफ जाने को मजबूर कर दिया . कश्मीर घाटी में
बड़े पैमाने पर घुसपैठ करवाई और युद्ध को भारत पर थोप दिया .शास्त्री जी के
राजनीतिक नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना को ऐसा ज़बरदस्त
जवाब दिया कि पाकिस्तानी सेना के हौसले हमेशा के लिए पश्त हो गए . शास्त्री जी ने
ही देश में मौजूद अन्न की कमी से सीधे लोहा लिया और ग्रीन रिवोल्युशन की शुरुआत की
. यह अलग बात है कि शास्त्री जी की मृत्यु के बाद उसकी सारी वाह वाही इंदिरा जी ने
अपने खाते में दर्ज करवा दी.
प्रधानमंत्री
पद को लेकर विकल्प हीनता की स्थिति तब भी आयी थी जब इमरजेंसी को खत्म करने
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा
गांधी ने चुनाव की घोषणा कर दी.
ज़्यादातर विपक्षी नेता जेलों में बंद थे . इंदिरा गांधी के खुफिया तंत्र ने उनको
सलाह दी थी कि विपक्ष की एकता संभव नहीं है और चुनाव करवा कर पांच साल
के लिए जनादेश ताज़ा करवा लें . लेकिन जनता के दबाव में जेल से आकर
विपक्षी नेता लोग ,सर्वोदय के कर्णधार जयप्रकाश नारायण
के साथ खड़े हो गए और भारतीय लोकदल के चुनाव निशान पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया
गया , पार्टी का नाम जनता पार्टी दिया गया जबकि सच्चाई यह है
कि पार्टी का गठन सरकार बन जाने के मई महीने में हुआ. चुनाव की घोषणा होने के बाद
, इंदिरा गांधी सरकार के वरिष्ठ मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता ,
बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर ,कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना लिया और जनता
पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ गए. चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया कि इंदिरा
गांधी का विकल्प संभव था और वह एक राजनीतिक सच्चाई था.
दूसरा
इस तरह का अवसर तह आया जब बहुत भारी बहुमत से देश में राज कर रहे राजीव गांधी का कोई विकल्प न
होने की बात चल पडी थी. लेकिन बोफर्स का राजनीतिक
तूफान आया तो एक साधारण हैसियत का राजा जिसकी अपनी कोई राजनीतिक ज़मीन नहीं थी ,
राजीव गांधी को बेदखल करने का साधन बन गया . गौर करने की बात यह
है कि जिस विश्वनाथ प्रताप सिंह ने
राजीव गांधी के विकल्प के रूप में अपने आप को पेश
करने में सफलता पाई थी वे हमेशा से ही इंदिरा गांधी
परिवार के कृपा पात्र रहे थे.१९७१ के बाद इंदिरा गांधी ने उनको छोटा मंत्री बनाया
था, १९८० में संजय गांधी की कृपा से मुख्यमंत्री बने थे और
१९८४-८५ में राजीव गांधी ने उनको वित्त मंत्री बना
दिया था . जब उनको इंदिरा जी ने राज्य मंत्री बनाया था
, उस समय भी कांग्रेस में उनसे बहुत बड़े नेता थे और उनमें से
एक , चन्द्रशेखर थे जो १९८९ में प्रधानमंत्री पद के ज़बरदस्त
दावेदार थे लेकिन वक़्त ने वी पी सिंह को चुना और राजीव गांधी का विकल्प तैयार हो
गया . इसी तरह से अटल बिहारी वाजपेयी के बाद डॉ मनमोहन
सिंह का प्रधानमंत्री बनना भी एक ऐसी सच्चाई है जिसका
अंदाज़ किसी को नहीं था, डॉ मनमोहन सिंह को भी नहीं .
इसलिए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात करना राजनीति और लोकतंत्र की ताक़तों
को न समझ पाने का लक्षण है.
अगर लोकतंत्र के लिए ज़रूरी हुआ तो कोई भी मोदी के विकल्प के रूप में सामने आ जाएगा . आखिर २०१३ तक इसी पार्टी के
लाल कृष्ण आडवानी, अरुण जेटली , सुषमा
स्वराज , वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी
आदि वर्तमान प्रधानमंत्री के अति आदरणीय नेता रह चुके हैं . पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
योगी आदित्य नाथ का नाम भी दिल्ली के सत्ता का गलियारों में खुसुर
पुसुर स्टाइल में चल चुका है लेकिन सच्चाई यह है कि आज
बीजेपी की राजनीति को मोदी के विकल्प की ज़रुरत
नहीं है. जब ज़रूरी होगा समय अपना विकल्प तलाश लेगा अभी
तो विपक्ष को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि उस जनता की आवाज़
को दमदार तरीके से उठायें जो किसी भी सरकार तक अपनी बात नहीं पंहुचा सकती ,
विकल्प की बात करना एक तरह से अवाम के मुख्य मुद्दों से भटकाव है और वह राजनीतिक विकास के हित में नहीं है
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