शेष नारायण सिंह
इसी मई में नरेंद्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो गए. सरकार और उसके समर्थकों का दावा है कि बी जे पी सरकार ने पिछले तीन वर्षों में हर क्षेत्र में सफलता की बुलंदियां हासिल की हैं ,विदेश नीति से लेकर महंगाई ,बेरोजगारी ,कानून व्यवस्था सभी क्षेत्रों में सफलता के रिकार्ड बनाए गए हैं ,ऐसा बीजेपी वालों का दावा है . यह अलग बात है कि इन सभी क्षेत्रों में सरकार की सफलता संदिग्ध हैं . महंगाई कहीं कम नहीं हुयी है , चुनाव अभियान के दौरान बीजेपी ने जिन करोड़ों नौकरियों का वादा किया था ,वह कहीं भी नज़र नहीं आ रही हैं . ख़ासतौर से ग्रामीण इलाकों में चारों तरफ बेरोजगार नौजवानों के हुजूम देखे जा सकते हैं . किसानों की हालत जो पिछले ४० वर्षों से खराब होना शुरू हुई थी वह बद से बदतर होती जा रही है. उत्तर प्रदेश और बिहार के अवधी ,भोजपुरी इलाकों से नौजवान बड़ी संख्या में देश के औद्योगिक नगरों की तरफ पलायन करते थे और छोटी मोटी नौकरियाँ हासिल करते थे, वह पूरी तरह ठप्प है . लेकिन बीजेपी के प्रवक्ता आपको ऐसे ऐसे आंकड़े दिखा देगें कि लगेगा कि आपकी ज़मीन से इकट्ठा की गयी जानकारी गलत है , वास्तव में देश तरक्की कर रहा है , चारों तरफ खुशहाली है , नौजवान बहुत खुश हैं और अच्छे दिन आ चुके हैं .
मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने की खुशी में टेलिविज़न चैनलों पर बहसों का मौसम शुरू हो गया है . बीजेपी के कुशाग्रबुद्धि प्रवक्ता वहां मौजूद रहते हैं और पूरी दुनिया को बताते रहते हैं कि पिछले तीन वर्षों में सब कुछ बदल गया है . ऐसे ही एक डिबेट में शामिल होने का मौक़ा मिला . बीजेपी के प्रवक्ता ने अच्छी तरह अपनी बात रखी जो उनको रखना चाहिए . यह उनका फ़र्ज़ है .
इसी डिबेट में कांग्रेस प्रवक्ता भी थे. तेज़ तर्रार नौजवान नेता. राहुल गांधी की राजनीति के अलमबरदार . लेकिन उनके पास बीजेपी के प्रवक्ता का विरोध करने के लिए कोई तैयारी नहीं थी. लगातार नरेंद्र मोदी पर हमले करते रहे . अपने हस्तक्षेप के दौरान कई बार उन्होंने नरेंद्र मोदी या प्रधान मंत्री शब्द का बार बार उलेख किया और बहस में बीजेपी सरकार की खामियों को गिनाने के लिए केवल नरेंद्र मोदी का सहारा लेने की कोशिश करते रहे.जब डिबेट में मौजूद पत्रकारों ने उनको याद दिलाया कि अगर आपकी बात को सच मान भी लिया जाए कि पिछले तीन वर्षों में सरकार ने जनहित का कोई काम नहीं किया है और हर मोर्चे पर फेल रही है तो आप लोगों ने सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का कर्त्तव्य क्यों नहीं निभाया, कांग्रेस ने सरकार की असफलताओं को उजागर करने के लिए कोई जन आन्दोलन क्यों नहीं शुरू किया . क्यों आप लोग टेलिविज़न कैमरों और अपनी पार्टी के दफ्तरों के अलावा कहीं नज़र नहीं आये. तो उनके पास बगलें झांकने के अलावा कोई जवाब नहीं था. बड़ी खींचतान के पाद उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि पिछले दिनों जन्तर मन्तर पर तमिलनाडु से आये किसानों का जो विरोध देखा गया था , वह कांग्रेस द्वारा आयोजित था. ज़ाहिर है और किसी आन्दोलन का ज़िक्र नहीं किया जा सकता था क्योंकि कहीं कुछ था ही नहीं . ऐसी हालत में एक ऐसे आन्दोलन को अपना बनाकर पेश करने की कोशिश की गयी जिसमें कांग्रेस की भूमिका केवल यह थी कि उनके आला नेता , राहुल गांधी किसानों के उन आन्दोलन से सहानुभूति जताने जंतर मंतर गए थे , कुछ देर बैठे थे और उस मुद्दे पर उनकी पार्टी ने बयान आदि देने की रस्म अदायगी की थी.
सवाल यह उठता है कि क्या मुख्य विपक्षी दल का कर्त्तव्य यहीं ख़त्म हो जाता है . क्या लोकतंत्र में यह ज़रूरी नहीं कि सरकार अपनी राजनीतिक समझ के हिसाब से जनहित और राष्ट्रहित के कार्यक्रम लागू करती रहे और अगर उसकी सफलता संदिग्ध हो तो जनता के बीच जाकर या किसी भी तरीके से विपक्षी पार्टियां सरकार की कमियों को बहस के दायरे में लायें . या विपक्ष की यही भूमिका है कि वह इस बात का इंतज़ार करे कि २०१९ तक जनता बीजेपी से निराश हो जायेगी और फिर से कांग्रेस सहित विपक्षी दलों को सत्ता थमा देगी. फिलहाल यही माहौल है . कहीं कुछ भी विरोध देखा नहीं जा रहा है.
कांग्रेस का ड्राइंग रूम की पार्टी बन जाना इस देश की भावी राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है . कांग्रेस के राहुल गांधी टीम के मौजूदा नेता यह दावा करते हैं कि उनकी पार्टी महात्मा गांधी, सरदार पटेल ,जवाहर लाल नेहरू की पार्टी है . बात बिलकुल सही है क्यों जवाहर लाल नेहरू के वंशज उनकी पार्टी के सर्वोच्च नेता हैं . लेकिन क्या इन लुटियन की दिल्ली में रमण करने वाले नए कांग्रेसी नेताओं को मालूम नहीं है कि कांग्रेस के नेताओं ने आन्दोलन को देश की राजनीति का स्थाई भाव बना दिया था. १९२० से लेकर १९४६ तक कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्य की कमियों को हर मोर्चे पर बेपरदा किया था जहां भी संभव था. १९४७ के पहले कांग्रेस के तीन बड़े आन्दोलन राजनीतिक आचरण के विश्व इतिहास में जिस सम्मान से उद्धृत किये जाते हैं उसपर कोई भी देश या समाज गर्व कर सकता है . १९२० का महात्मा गांधी का आन्दोलन इतना ज़बरदस्त था कि भारत की जनता की एकजुटता को खंडित करने के लिए उस वक़्त के हुक्मरानों को सारे घोड़े खोलने पड़े थे. १९२० के आन्दोलन के बाद ही ऐसा माहौल बना था कि अंग्रेजों ने अपने वफादार भारतीयों को आगे करके कई ऐसे संगठन बनवाये जिनके कारण भारतीय अवाम की एकता को तोड़ने में उनको सफलता मिली. कांग्रेस के १९३० के आन्दोलन का ही नतीजा था कि महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को मजबूर कर दिया कि वह भारतीयों के साथ मिलकर देश पर शासन करें . १९३५ का गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट कांग्रेस की अगुवाई में चले आन्दोलन का ही नतीजा था .यह भी सच है कि अँगरेज़ शासकों ने भारत की राजनीतिक एकता को खत्म करने के बहुत सारे प्रयास किये लेकिन कहीं कोई सफलता नहीं मिली. शायद राजनीतिक आन्दोलन के इसी जज्बे का नतीजा था कि१९४२ में जब महात्मा गांधी के साथ खड़े देश ने नारा दिया कि अंग्रेजो ' भारत छोडो ' तो ब्रिटिश हुकूमत ने इन शोषित पीड़ित लोगों की आवाज़ को हुक्म माना और उनको साफ़ लग गया कि भारत की एकजुट राजनीतिक ताक़त के सामने टिक पाना नामुमकिन था. राजनीति की इस परम्परा का वारिस होने का दावा करने वाली कांग्रेस के मौजूदा नेताओं का वातानुकूलित माहौल से बाहर न निकलने का आग्रह समझ परे है .
मौजूदा कांग्रेस नेताओं से गांधी-नेहरू परम्परा की उम्मीद भी नहीं है लेकिन राहुल गांधी की दादी और चाचा की राजनीति की उम्मीद तो की ही जा सकती है . जब १९७७ में भारी जनाक्रोश के बाद इंदिरा गांधी की सरकार बेदखल कर दी गयी थी तो सत्ता को अपनी हैसियत से जोड़ चुके संजय गांधी के सामने मुश्किलें बहुत थीं . इमरजेंसी के उनके कारनामों की जांच के लिए शाह आयोग बना दिया गया था, जनता का भारी विरोध था, गली गली में कांग्रेस और इंदिरा -संजय की टोली की निंदा हो रही थी. इमरजेंसी में कांग्रेस के बड़े नेता रहे लोग जनता पार्टी की शरण में जा चुके थे . कांग्रेस के लिए चारों तरह अन्धेरा ही अँधेरा था लेकिन कांग्रेस ने सड़क पर आने का फैसला किया . एक दिन दिल्ली की सडकों पर चलने वालों देखा कि काले पेंट से दिल्ली की दीवारें पेंट कर दी गयी थीं और लिखा था कि ' शाह आयोग नाटक है '. शाह आयोग को इमरजेंसी की ज्यादातियों की जांच करने के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने स्थापित किया था. उसी के विरोध से तिरस्कृत कांग्रेस ने विरोध की बुनियाद डाल दी. यह सच है कि उन दिनों सभ्य समाज में कांग्रेस के प्रति बहुत ही तिरस्कार का भाव था लेकिन संजय गांधी और इंदिरा गांधी ने हिम्मत नहीं हारी . बहुत सारे ऐसे नौजवानों को संजय गांधी ने इकठ्ठा किया जिनको भला आदमी नहीं माना जा सकता था लेकिन उनके सहारे ही आन्दोलन खड़ा कर दिया और जनता पार्टी की सरकार के विरोधाभासों को बहस के दायरे में ला दिया . इंदिरा गांधी और संजय गांधी जेल भी गए और जब जेल से बाहर आये तो उनके साथ और बड़ी संख्या में लोग जुड़ते गए. नतीजा यह हुआ कि १९८० में कांग्रेस की धमाकेदार वापसी हुई . आज के कांग्रेस के अला नेता किसी आन्दोलन के बाद जेल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं . हाँ याह संभव है कि उनको नैशनल हेराल्ड के केस में आपराधिक मामले में जेल जाना पड़ जाए.
कांग्रेस ने १९९९ से २००४ तक सोनिया गांधी के नेतृव में भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को लगातार घेरने की राजनीति की और सारे तामझाम , सारे मीडिया मैनेजमेंट, सारे शाइनिंग इण्डिया के बावजूद जनता ने कांग्रेस को फिर से सत्ता सौंप दी. सत्ता खंडित थी लेकिन बदलाव हुआ और बदलाव राजनीतिक आन्दोलन के रास्ते हुआ. यह ज़रूरी नहीं कि आन्दोलन के बाद सत्ता मिल ही जाए. सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं , आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया ने विपक्ष में रहते हुए जीवन भर उस वक़्त की कांग्रेस सरकारों की खामियों को सड़क पर उतर कर जनता के सामने उजागर करते रहे . उन महान नेताओं को सत्ता कभी नहीं मिली लेकिन लोकतंत्र में जनता को यह अहसास हमेशा बना रहा कि उस दौर की सत्ताधारी पार्टी जो भी जनविरोधी काम कर रही है उसकी जानकारी नेताओं को है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं . आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी भी जब विपक्ष में होती थी तो आम जनता को प्रभावित करने आले मुद्दों पर आन्दोलन का रास्ता अपनाती रही है . दिल्ली में रहने वालों को मालूम है कि जब तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे हर हफ्ते बीजेपी की अलग अलग इकाइयों का जंतर मंतर पर कोई न कोई आन्दोलन चलता ही रहता था.
आज के विपक्षी नेताओं की स्थिति बिलकुल अलग है . वे टेलिविज़न की बाईट देते हैं , प्रेस कान्फरेंस करते हैं , लाखों की कारों में बैठकर संसद आते हैं , गपशप करते हैं , कभी कभार कुछ बोल देते हैं और उम्मीद करते हैं कि देश भर में रहने वाली जनता उनके वचनों को तलाश करके निकाले और उनके अनुसार पूरी तरह से नाकाम हो चुकी मोदी सरकार के खिलाफ २०१९ में मतदान करे और हरे भरे दिल्ली शहर से बाहर गए बिना इन विपक्षी नेताओं को सत्ता सौंप दे .लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं होता . यहाँ न कोई बिल्ली होती है और न कोई छींका टूटता है इसलिए सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को अपना कर्त्तव्य सही तरह से निभाने के लिए जनता के बीच जाना होगा . उनको यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि लोकतंत्र में सरकारी पक्ष की भूमिका पर निगरानी रखने और जनता को चौकन्ना रखने के लिए विपक्ष होता है . आज की स्थिति यह है कि विपक्ष अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहा है .
साभार : देशबन्धु ( 19-05-2017}
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