Friday, December 29, 2017

गुजरात विधानसभा चुनाव:२०१७,राहुल गांधी को रोकने में आदित्यनाथ योगी की बड़ी भूमिका


 शेष नारायण सिंह
गुजरात चुनाव के नतीजे आ गए . राज्य सरकार बीजेपी के हाथ रही लेकिन विपक्षी राजनीति का एक नया व्याकरण भी रचा गया . अभी बहुत ही  शुरुआती मामला है लेकिन राहुल गांधी ने कांग्रेस के नेता  के रूपमें राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश की और कुछ हद तक सफल रहे . राजनीतिक प्रक्रिया कोई  एक दिन का काम नहीं है उसको पकने में वक़्त लगता है लेकिन संकेत नज़र आने लगे हैं . बीजेपी ने  राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन के लिए हिन्दू धर्म का प्रयोग करने की जो  योजना बनाई उसकी बहुत ही दिलचस्प कहानी है . १९७७ में जनता पार्टी में शामिल पुरानी जनसंघ के लोग अपने मूल संगठन ,आर एस एस के प्रति हमेशा वफादार रहे हैं . १९७८ में जब मधु लिमये ने ऐलान किया कि जनता पार्टी में शामिल लोग आर एस एस से नाता तोड़ लें तो बहुत विवाद हुआ. आर एस एस वालों ने कहा कि उनका संगठन राजनीतिक पार्टी नहीं है  लेकिन मधु लिमये  ने बात को  बहुत आगे बढ़ा दिया और बात इतनी बढ़ गयी कि आर एस एस ने अपने लोगों को जनता पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की बात की गयी . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन के रूप में राजनीति करने  का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें तत्कालीन बीजेपी के कर्ता धर्ता ,अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद को केंद्र में रख कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनोंविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. अयोध्या के  पड़ोसी जिले गोरखपुर में स्थित गोरक्षनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ ने अपने कारणों से इसमें शामिल होने का फैसला किया .उनका कारण भावनात्मक ज्यादा था क्योंकि उनके गुरु महंत  दिग्विजय नाथ ने ही १९४९ में अयोध्या में राम मंदिर के आन्दोलन की अगुवाई की थी  और बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियाँ रखवाई थी .  विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया . बीजेपी की राजनीति में शुद्ध हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति का युग आ गया . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो हिन्दू धर्म को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ते  गए  . अयोध्या के भगवान राम के इर्द गिर्द ही  बीजेपी ने जनता को एकजुट करने का फैसला किया .  राजनीतिक विचारक माज़िनी के विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित वी डी सावरकर की किताब हिंदुत्व की विचारधारा पर काम करने वाले आर एस एस ने हिंदुत्व और श्री राम को अपनी राजनीति के केंद्र में रखने का जो फैसला लिया वह आज तक चला आ रहा है .
इस रणनीति का बीजेपी को फ़ायदा भी खूब  हुआ . १९८४ में दो सीट लाने  वाली पार्टी ने  अयोध्या के आन्दोलन के बाद अपनी राजनीतिक ताकत बहुत बढ़ा ली है. कांग्रेस में दरबारी संस्कृति के चलते किसी भी विचारधारा  को चुनौती देने की स्थिति  रह ही नहीं गयी है . जब वी एच पी ने भगवान राम को केंद्र में रख कर राजनीतिक लामबंदी की राजनीति शुरू की तो राजीव गांधी उनके  चक्रव्यूह में फंस गए . उसी तरह से पी वी  नरसिम्हा राव ने भी राम की राजनीति का कोई विकल्प तलाशने की कोशिश नहीं की . वे बार बार कहते तो थे कि वे  बीजेपी से तो लड़ सकते थे लेकिन राम जी से लड़ना उनके बस की बात नहीं थी. लेकिन उन्होंने भी किसी राजनीतिक योजना पर काम नहीं किया .
भगवान राम वास्तव में विष्णु के अवतार  हैं . इसलिए वैष्णव  परम्परा के धार्मिक  अनुष्ठानों में उनका बहुत ही अधिक महत्व है . लेकिन आर एस एस की कोशिश यह है कि उनको  हिन्दू  धर्म के सभी सम्प्रदायों का आराध्य देव सिद्ध कर दिया जाए . पिछले तीस  वर्षों से इसी पर  बीजेपी का राजनीतिक  फोकस बना रहा . बीजेपी एजेंडा तय करती रही और कांग्रेस उस पर प्रतिक्रिया देती रही . बीजेपी के अभियान का ही नतीजा है कि कांग्रेस को राम विरोधी और हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने में बीजेपी को सफलता मिली . जहां पूरे देश में भगवान  राम की मान्यता है वहीं    कांग्रेस के कुछ लोग राम की ऐतिहासिकता पर बहस करते रहे . यह बीजेपी के लिए बहुत ही सुविधा जनक स्थिति  रही .  कभी दिग्विजय सिंह   को तो कभी शुशील कुमार शिंदे को हिन्दू विरोधी साबित  करने  का काम चलता रहा . कांग्रेस के मुख्यालय में  बैठे नेता लोग आपस में ही  एक दूसरे की जड़ों में  मट्ठा डालते रहे . भगवान  राम को केंद्र में रखकर एकेश्वरवादी हिन्दू समाज स्थापित करके उसका इंचार्ज बनने की आर एस एस की योजना को तीस वर्षों में एक बार भी ललकारा नहीं गया . लेकिन अब हालात बदले हैं. ऐसा लगता  है  कि राहुल  गांधी को को बहुत ही सुलझा  हुआ सलाहकार मिल गया है .
इसी राजनीतिक घटनाक्रम का  नतीजा है कि इस बार के  गुजरात के चुनाव में राहुल गांधी मंदिर मंदिर घूमते रहे . उनके मंदिर जाने की राजनीति को बीजेपी और उसके मातहत लोगों ने बहुत ही ज्यादा चर्चा में लाने की कोशिश की . पूरी दुनिया को बता दिया गया कि राहुल  गांधी ने कांग्रेस को सेकुलर राजनीति से अलग कर दिया है . मुसलमानों  की मस्जिदों  या दरगाहो में नहीं जा रहे  हैं . ऐसा लगता है कि राहुल गांधी की मंदिर यात्राओं में एक नया पैटर्न था . इंदिरा गांधी के बाद वे पहले कांग्रेसी बने जिन्होंने अपना एजेंडा फिक्स करने की  कोशिश की . वे राम को एक मोनोलिथिक  देवता के रूप में स्थापित करने की कोशिशों पर सवालिया निशान लगाने की कोशिश कर रहे थे और उसमें पूरी तरह सफल हुए .  कुछ वैष्णव  ठिकानों को छोड़ दिया जाए तो तो ज़्यादातर ऐसे  मंदिरों में गए जो शैव मतावालाम्बियों के हैं या शक्ति के उपासकों के हैं . शक्ति के उपासक शैव परम्परा  के बहुत ही  करीबी होते हैं .  सोमनाथ मंदिर के अलावा वे करीब बीस मंदिरों में  गए जो गैर वैष्णव हैं .राहुल गांधी ने बाक़यदा प्रेस  के सामने घोषित किया कि वे शिव भक्त हिन्दू  हैं . ऐसा लगता  है कि वे  यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि  भगवान राम के नाम पर पूरे देश के धार्मिक लोगों को एक ही जगह पर इकठ्ठा करने की कोशिश को सफल नहीं होने देंगें . दुनिया में बहुत से राजनीतिक धर्म हैं , जहां एक ही आराध्य होता है और उसी के नाम पर समाज की एकता की कोशिश की जाती है . मसलन इसाई मजहब में बहुत सारे वर्ग ज़रूर हैं लेकिन सब का केंद्र बाइबिल में वर्णित ईश्वर ही है . पोप का असर सभी ईसाईयों पर है . इस्लाम में भी ७२  सम्प्रदाय हैं लेकिन सबके आराध्य हज़रत मुहम्मद ही हैं  और कुरआन में ही अंतिम सत्य अंकित है . आर एस एस की कोशिश भी यही रही होगी कि भगवान   राम को सब हिन्दुओं का आराध्य बना दिया जाए और उसी के ज़रिये हिन्दू मात्र की एकता का प्रयास किया जाए . प्राचीन काल में भारत में शैवों, वैष्णवों , शाक्तों, आदि के बीच बहुत सारे संघर्षों की बातों का भी इतिहास में उल्लेख है . ऐसी स्थिति में सारे हिन्दुओं को एक ही  रंग में रंग देने का प्रोजेक्ट  मुश्किल तो बहुत है लेकिन उस दिशा में भगवान राम के सहारे सफलता मिलना शुरू  हो गयी थी. राहुल गांधी का शंकर जी के विभिन्न स्वरूपों के मंदिरों में फेरी लगाना   एक राजनीतिक उदेश्य था .और बीजेपी की राम केन्द्रित राजनीति को आइना दिखाना  भी उनका मकसद लगता है .
राहुल गांधी अपने गुजरात चुनाव के अभियान के दौरान  पूरे गुजरात में वे ज्यादातर ऐसे ही मंदिरों में गए जो शैव  परंपरा के मंदिर थे .वीर मेघमाया मंदिरबहुचारजी मंदिरखोडि़यार मंदिरशामलाजी मंदिर,आदि मंदिर राजनीतिक हिंदुत्‍व की योजना पर सीध हमला करते हैं .  सावरकरवादी हिंदुत्‍व सब कुछ भगवान राम या वैष्णव मत में घेर देने की कोशिश करता है .जबकि हिन्दू धर्म की विविधता ही  यही है कि वह बहुत से देवताओं को आराध्य मानता है . मेरे गाँव में नीम के पेड़ में विराजने वाली काली माई पूरे गाँव की श्रद्धा की देवी हैं  जहां  दलित भी जाते हैं और ब्राह्मण भी . यह आदिकाल से चला  आ रहा है .इसी तरह से देश भर में  गांव का आदमी राम के अलावा भी तमाम भगवानों को पूजता है। उसके लिए उसका मुकामी देवता ज्‍यादा पूजनीय  है।
 राहुल गांधी के इस अभियान का मर्म बीजेपी को अच्छी तरह से मालूम था . इसीलिए जय श्री राम का नारा लागाने वालों के अलावा भी शिवभक्ति के राहुल  गांधी के काम  को उनसे बड़ी लाइन खींच कर छोटा करने की   कोशिश की गयी . इसी सिलसिले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को गुजरात चुनाव में मुख्य स्टार प्रचारक के रूप में  प्रस्तुत किया गया . योगी आदित्य नाथ शैव  परम्परा के सबसे प्रमुख मठों में से एक , गोरक्षनाथ मंदिर एवं मठ के महंत हैं . उनकी परम्परा में मत्स्येन्द्र नाथ, गोरख नाथ , जालंधर नाथ  इत्यादि महत्वपूर्ण संत हुए हैं . नाथ परमपरा की शुरुआत स्वयं शंकर जी से होती है , वे ही उनके आदि नाथ हैं . इतिहास में सबसे ज़्यादा नाम गुरु गोरखनाथ का है.  उन्होंने चालीस ग्रंथों की रचना की थी , सभी उपलब्ध नहीं हैं लेकिन १४ आज भी मिल जाते हैं . उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया था और जगह जगह मठों की स्थापना की थी .गुजरात में भी  शैव मतावलम्बियों में  गोरखनाथ मंदिर  का बहुत सम्मान है . शायद यही कारण है कि सौराष्ट्र  ,जहां बीजेपी की हालत बहुत ही खराब थी , वहां भी बड़ी संख्या में सीटें उसके  हाथ आई हैं  सौराष्ट्र के सभी सभी जिलों की कमज़ोर सीटों पर योगी आदित्यनाथ ने प्रचार किया था ..
योगी आदित्यनाथ चुनाव  प्रचार के लिए गुजरात के ३३ में से २९ जिलों में गए , ३५ चुनाव सभाएं कीं . जहां भी गए सरकारी तामझाम से दूर आश्रमों में ही  ठहरे . शायद इसीलिये जहाँ जहां गए उन सभी सीटों पर एकाध को छोड़कर बीजेपी की जीत हुयी . जहां राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का स्ट्राइक रेट ५० प्रतिशत बताया  जा रहा है , वहीं योगी आदित्यनाथ का स्ट्राइक रेट ९५ प्रतिशत रहा .
देश की राजनीतिक को धार्मिक बनाकर एक ही देवता को केंद्र में रखने की आर एस एस की योजना पर गुजरात  चुनाव में राहुल गांधी और योगी आदित्यनाथ  का यह एहसान रहेगा  कि उन्होंने हिन्दू धार्मिकता को उसकी विविधता का पुराना मौलिक आयाम फिर से दिया . इसके बाद यह भी तय हो गया कि कांग्रेस भी हिन्दू विरोधी टैग से बाहर आ चुकी है और यह भी कि एक ही देवता के नाम पर पूर्ण राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन संभव नहीं है . इसके अलावा  अब यह भी तय है कि आने वाले चुनावों में योगी आदित्यनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है .

Saturday, December 16, 2017

सोनिया गांधी ने कांग्रेस को दलदल से निकाला था , देखें राहुल क्या करते हैं .



शेष नारायण सिंह

राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद की कुर्सी औपचारिक रूप से सम्भलवाकर सोनिया गांधी ने राजनीति से वानप्रस्थ की घोषणा की . वे कांग्रेस की राजनीति के शीर्ष तक पंहुची . इसके पीछे कारण यह था कि वे इंदिरा गांधी के बड़े बेटे की पत्नी थीं . सोनिया गांधी जब कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं और जिस तरह से बनीं ,वह कांग्रेस पार्टी के चापलूसी की परम्परा का एक प्रतिनिधि नमूना  है . संसद भवन के दो-तीन किलोमीटर के दायरे में देश के सर्वोच्च चापलूस हमेशा से ही विराजते रहे हैं . सत्ता चाहे जिसकी हो ये लोग उसके करीबी आटोमेटिक रूट से हो जाते हैं . सोनिया गांधी को भी इन्हीं चापलूसों ने ही कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन किया था . लेकिन जिस तरह से उन्होंने खंड खंड होती कांग्रेस को फिर से केंद्रीय सत्ता के केंद्र में स्थापित करने का माहौल बनाया उससे लग गया कि वे संगठन के फन की माहिर हैं . सत्ता से पैदल कांग्रेस को अटल बिहारी वाजपेयी को हराने वाली पार्टी बना कर उन्होंने साबित कर दिया कि वे एक सक्षम नेता हैं . उन्होंने देश के गवर्नेंस माडल में बहुत सारे बदलाव किये . सूचना का अधिकार एक ऐसा हथियार है जो देश की ज़िम्मेदार राजनीति में हमेशा सम्मान से याद किया जाएगा . गड़बड़ तब शुरू हुई जब राहुल गांधी ने अपनी तरह के लोगों को कांग्रेस के केंद्र में घुसाना शुरू कर दिया .नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की अथारिटी धूमिल होना शुरू हो गयी . और कांग्रेस फिर पतन के रास्ते पर चल पड़ी . राहुल गांधी उस दौर में सी पी जोशी और मधुसूदन मिस्त्री नाम के लोगों पर बहुत ज़्यादा भरोसा करने लगे . सी पी  जोशी की एक उपलब्धि यह है कि वे विधान सभा का चुनाव एक  वोट से हारे थे और मधुसूदन मिस्त्री की सबसे बड़ी उपलब्धी यह है कि वे वडोदरा से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में अपने विरोधी उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का पोस्टर फाड़ने बिजली के खम्बे पर चढ़े थे . राहुल की अगुवाई में यह उत्तर प्रदेश की राजनीति के इंतज़ाम के कर्ता  धर्ता बनाये गए थे . राहुल गांधी ने कांग्रेस को .ऐसे लोगों के हवाले कर दिया जिनकी राजनीति में समझ न के बराबर थी . नतीजा सामने है. कांग्रेस उत्तर प्रदेश में शून्य के आस पास पंहुच चुकी है .

अब राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं .नई दिल्ली की राजनीति के बारे में रिपोर्ट करने वालों को मालूम है कि किस तरह से राहुल गांधी २०११ के बाद सोनिया गांधी के ज़्यादातर फैसलों को पलट दिया करते थे. नई दिल्ली के प्रेस क्लब में एक अध्यादेश के कागजों को फाड़ते हुए राहुल गांधी को जिन लोगों ने देखा है उनको मालूम है कि यू पी ए -२ के समय राहुल गांधी मनमानी पर आमादा रहते थे . प्रियंका गांधी को २०१४ में प्रचार करने से रोकने के पीछे भी यही उनकी अपनी असुरक्षा काम कर रही थी . उनको यह मुगालता भी रहता था की सभी कांग्रेसी उनके  दास हैं .लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है . गुजरात चुनाव के दौरान  उन्होंने सभ्य आचरण  किया था और अब दुनिया जानती है कि राहुल  गांधी बदल गए हैं .

उन लोगों की बात से  भी सहमत नहीं हुआ जा सकता  जो कहते रहते हैं कि कांग्रेस की राजनीति में वंशवाद की शुरुआत जवाहरलाल  नेहरू ने की थी . उन्होंने तो इंदिरा गांधी को कभी चुनाव तक नहीं लड़ने दिया था . नई दिल्ली में विराजने वाले चापलूसों ने ही उनको शास्त्रीजी के मंत्रिमंडल में शामिल करवा दिया था . इंदिरा गाधी को  संसद की राज्यसभा का सदस्य बनने का मौक़ा भी शास्त्री जी   ने दिया , नेहरू ने नहीं . हाँ इंदिरा गांधी ने बाकायदा वंशवाद की  स्थापना की . कांग्रेस की मूल मान्यताओं को इंदिरा गांधी ने ही धीरे धीरे दफ़न किया .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई
 संजय गांधी की मृत्यु के बाद भी इंदिरा गांधी ने अपने बड़े बेटे को राजनीति में  स्थापित करना शुरू किया .वह भी वंशवाद था . उनकी अकाल मृत्य के बाद फिर कुछ ऐसे लोगों  ने जो सत्ता   का आनंद लेना चाहते  थे उन्होंने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनवा दिया . उनके भी  दून स्कूल टाइप  लोग ही दोस्त थे . मणिशंकर अय्यर उसी   वर्ग के नेता हैं . राजीव गांधी भी अपने संभ्रांत साथियों के भारी प्रभाव में रहते थे. मुख्यमंत्रियों को इस तरह से हटाते थे जैसे  बड़े लोग कोई अस्थाई नौकर को हटाते हैं .. उनके काल में भी दिल्ली की  संभ्रांत बस्तियों  में विराजने वाले लोगों  ने खूब माल काटा . लेकिन १९८९ में सत्ता से बेदखल होने के बाद वे काफी परिपक्व हो गए थे  लेकिन अकाल मृत्यु ने उनको भी काम नहीं करने दिया .
सोनिया गांधी ने विपरीत परिस्थितियों में कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला और सत्ता दिलवाई . इसलिए सोनिया गांधी की  इज्ज़त एक राजनेता के रूप में की जा सकती है . अब राहुल गांधी को चार्ज दिया गया है . देखना दिलचस्प होगा कि वे कैसे अपनी दादी द्वारा स्थापित की गयी कांग्रेस को आगे बढाते हैं . इस कांग्रेस को महात्मा गांधी या जवाहरलाल नेहरू या सरदार पटेल या  की कांग्रेस मानना ठीक नहीं होगा क्योंकि उस कांग्रेस को तो इंदिरा गांधी ने १९६९ में ख़त्म करके इंदिरा   कांग्रेस की स्थापना कर दी थी.  मौजूदा कांग्रेस उसी इंदिरा  कांग्रेस की वारिस है . और राहुल गांधी उसी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं .

गुजरात के नतीजे राहुल और मोदी की भावी राजनीति की दिशा तय करेंगे .



शेष नारायण सिंह . 

गुजरात का विधान सभा चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना हो गया है . १८ दिसंबर को जब नतीजे आयेंगे तो दोनों बड़ी पार्टियों के बड़े नेताओं के लिए बहुत ही अहम राजनीतिक भविष्य की भूमिका लिखेंगे . अगर प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी की पार्टी चुनाव जीत  गयी तो आने वाले  लोकसभा चुनाव में २०१९ में वे  देश की राजनीति के निर्विवाद नेता बन जायेंगे . और अगर राहुल गांधी की पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत लाती  है तो भारत के राजनीतिक क्षितिज में राहुल गांधी एक गंभीर नेता के रूप में स्थापित हो जायेंगे.  उनके लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण मौक़ा है जब वे राजनीतिक रूप से अपने आपको स्थापित करने की बात सोच सकते हैं . अगर उनकी पार्टी गुजरात में सरकार  बनाने लायक  संख्या में सीटें जीत सकती है तो अगले साल होने वाले मध्य प्रदेशछतीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में कांग्रेस की  जीत की संभावना बढ़ जायेगी  लेकिन अगर हार गए तो राहुल गांधी की उसी छवि की वापसी होगी जो उन्होंने २०१४ के चुनाव में  कांग्रेस  की पराजय के बाद  अर्जित की थी.
 राहुल गांधी की दादीइंदिरा गांधी की राजनीति में भी यह मुकाम आया था  .  कांग्रेस की खासी दुर्दशा १९६७ के आम चुनावों में हो चुकी थी. उत्तर भारत के  ज्यादातर राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन  गयी थीं. जिस तरह से आजकल बीजेपी के नेता राहुल गांधी को एक अगंभीर किस्म के नेता के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते रहते हैं उसी तरह  १९६७ के चुनावों में पंजाब से लेकर बंगाल तक कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के अन्दर ही मौजूद   सिंडिकेट के नेता इंदिरा गांधी को  मामूली नेता साबित करने का प्रयास कर रहे थे. शास्त्री जी की मृत्यु के बाद १९६६ में इंदिरा गांधी को सिंडिकेट के प्रधान मंत्री तो बनवा दिया था लेकिन उनको अपने  प्रभाव के अन्दर ही काम करने को मजबूर करते रहते थे. विपक्ष ने भी  गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के ज़रिये  कांग्रेस की स्थापित सत्ता को चुनौती देने का पूरा इंतज़ाम कर लिया था. १९६७ के चुनावों में  गैर कांग्रेसवाद को आंशिक सफलता मिल गयी थी . कई राज्यों में कांग्रेस की  सरकारें नहीं बनी थीं और कांग्रेस  विपक्षी पार्टी हो गयी थी. हालांकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन वह भी नेहरू युग की बहुमत वाली नहीं काम चलाऊ बहुमत वाली सरकार थी . गैरकांग्रेसवाद की सफलता इंदिरा गांधी के  राजनीतिक अस्तित्व को चुनौती दे रही थी.
गैरकांग्रेसवाद को समझने के लिए इतिहास की शरण में जाना पड़ेगा क्योंकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझे बिना भारत की राजनीति के इस महत्वपूर्ण अध्याय को समझना असंभव है .  कांग्रेस पार्टी कैसे  एक ऐसी राजनीतिक शक्ति बनी जो भारतीय जनता की अधिकतम भावनाओं की प्रतिनिधि और वाहक बनी और वही कांग्रेस १९६७ आते आते देश की बड़ी आबादी की नज़र में गिर गयी और कैसे इंदिरा गांधी  महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस को ख़त्म करके एक नई कांग्रेस को शक्ल  देने में कामयाब हुईं,यह इतिहास के पन्नों में साफ़ साफ़ अंकित है .

महात्मा के कांग्रेस की राजनीति में १९१६ में सक्रिय होने और अग्रणी भूमिका के पहले  कांग्रेस की पहचान एक ऐसे  संगठन के रूप में  होती थी  जो बंबई और कलकत्ता के कुछ वकीलों की अगुवाई में  अंग्रेजों के अधीन रहते हुए डोमिनियन स्टेटस टाइप कुछ  अधिकारों की बात करता था . लेकिन महात्मा गांधी के नेतृत्व में आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसने कांग्रेस को एक जनसंगठन बना दिया .१९१६ में चंपारण में जो  प्रयोग हुआ वह १९२०  में एक बहुत बड़े आन्दोलन के रूप में बदल गया.  १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ थाकेवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के ज्यादातर  बड़े नेताओं  ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश   हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया .बाकी देश में  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन  उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ गयीं  क्योंकि  जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया  . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसको  समाजवादी नेताओं ने भी ताकत  दी.  आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया भी कांग्रेस के सदस्य के रूप में इस अभियान में योगदान किया ...बाद में इन्हीं समाजवादियों ने कांग्रेस के विरोध में सबसे मुखर स्वर का नेतृत्व भी किया जब साफ़ हो गया कि आज़ादी के बाद गांधी का  रास्ता भूल कर कांग्रेस  की राजनीति फेबियन सोशलिज्म की तरफ बढ़  रही है .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की गंभीर  कोशिश तब शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया .विपक्ष के तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद,अमरोहा  और जौनपुर में १९६३ में हुए लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . संसोपा के डॉ लोहिया  फर्रुखाबाद ,प्रसोपा के आचार्य जे बी कृपलानी अमरोहा और जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है .इस समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं.  

गैर कांग्रेसवाद की आंशिक सफलता के बाद इंदिरा गांधी की अथारिटी को चुनौती  मिलना शुरू ही गयी थी .  कांग्रेस के बाहर से  तो हमला हो ही रहा था अंदर से भी उनको ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा था.   इंदिरा गांधी ने हालात की चुनौती को स्वीकार किया और  १९६९ में कांग्रेस को तोड़ दिया . कांग्रेस के पुराने नेता मूल कांग्रेस में बचे रहे पार्टी  का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी ज़ब्त हो गया इंदिरा कांग्रेस का जन्म हुआ जिसकी एकछत्र  नेता के  रूप में इंदिरा गांधी ने अपनी नई राजनीति की फिर से स्शुरुआत की . प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने लोकसभा को भंग करने की सिफारिश की समय से पहले चुनाव करवाया .बैंकों का राष्ट्रीयकरण प्रिवी पर्स की समाप्ति  और गरीबी हटाओं के वामपंथी रुझान के नारों के साथ १९७१ के चुनाव में भारी बहुमत हासिल किया . उनके विरोधी राजनीतिक रूप से  बहुत कमज़ोर हो   गए. कांग्रेस के अंदर  और बाहर वे एक मज़बूत नेता के  रूप में सामने आईं. १९७१ का चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य की भूमिका बन  गया . दोबारा  भी इंदिरा  गांधी पर राजनीतिक संकट तब आया जब १९७७ में उनकी पार्टी  बुरी तरह से चुनाव  हार गयी . उसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़  में हुए उपचुनाव में मोहसिना किदवई को उमीदवार बनाया और उत्तर प्रदेश में  , जहां उनकी पार्टी शून्य पर पंहुच गयी थी ,लोकसभा में एक सीट पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा हुआ . उसके बाद से कांग्रेस की नेता के रूप में दोबारा उन्होंने अपना मुकाम सुनिश्चित किया .
 एक चुनाव के नतीजों से  किसी नेता का भविष्य बन बिगड़ सकता है . गुजरात विधान सभा का चुनाव राहुल गांधी के लिए ऐसा ही चुनाव है यदि इस चुनाव में वे सफल होते हैं तो कांग्रेस के उन नेताओं से वे पिंड छुड़ा सकेंगें जो राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कृपा पात्र रहे थे और अब पार्टी की केंद्रीय सत्ता पर कुण्डली मार कर बैठे हुए हैं. दस साल की डॉ मनमोहंन  सिंह के सत्ता के दौरान इन लोगों ने अपने चेला उद्योगपतियों और भ्रष्ट नेताओं के लिए जो चाहा करवाया और आज अपनी पार्टी को ऐसे  मुकाम पर ला चुके हैं जहां वह  मजाक का विषय बन चुकी है . इस चुनाव में जीत का मतलब यह होगा कि वे अपने साथ ऐसे लोगों को ले सकेंगें जिनके सहारे जनता को साथ लिया जा सकता है. गुजरात चुनाव में कांग्रेस के परंपरागत नेताओं में अशोक गहलौत और भरत सिंह सोलंकी के  अलावा  किसी की ख़ास  भूमिका  नहीं रही है . ज़ाहिर है गुजरात के अपने नए साथियोंहार्दिक पटेल,अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी की भूमिका को भी ध्यान में रखकर ही कोई काम करना होगा  .अब उनके पास अपनी पार्टी को नए हिसाब से चलाने का वैसा ही मौक़ा होगा जो  जो इंदिरा गांधी को १९६९ में मिला था जब नेहरू युग के पुराने नेताओं ने अपना कांग्रेस संगठन बना लिया था और कांग्रेस से इंदिरा गांधी को निकाल दिया था . लेकिन उनके पास  सरकार थी और वे खुद प्रधानमंत्री थीं. उनके साथ लोग जुड़ते चले गए और इंदिरा  कांग्रेस का जन्म हो गया . अगर गुजरात में राहुल गांधी सरकार बनवाने में कामयाब हो जाते हैं तो उनके  पास यह अवसर होगा .
यह तो जीत की स्थिति का आकलन है . लेकिन अगर उनकी सरकार  नहीं बनी तो उनकी भावी राजीति पर बहुत ही भारी भरकम सवाल पैदा हो जायेगें . उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा उसका आकलन करना संभव नहीं है क्योंकि  उस तरह की कोई नजीर नहीं है .यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में भी सच है . अगर वे गुजरात चुनाव जीत गए तो देश की राजनीति में बहुत ही भारी राजनीतिक हैसियत के मालिक हो जायेगें . पहले से ही भारी उनकी मौजूदा ताकत में  वृद्धि होगी  लेकिन अगर गुजरात में उनकी इतनी मेहनत के बाद  भी सत्ता बीजेपी के हाथ से छिटक गयी तो नरेंद्र मोदी की आगे की  राह मुश्किल हो जायेगी  . दिल्ली में जो लोग उनके गुणगान करते नहीं आघाते वे उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण करते नज़र आयेगें .जाहिर है इस काम के बाद उनकी सत्ता कमज़ोर होगी . जो भीहो लेकिन एक बात  तय है कि गुजरात चुनाव देश की दोनों ही  बड़ी पार्टियों के वर्तमान शीर्ष नेताओं की राजनीति की भावी दिशा में बहुत ही अहम भूमिका निभाने जा रहा है .

शशि कपूर का सबसे बड़ा शाहकार -मुंबई का पृथ्वी थिएटर



शेष नारायण सिंह

पृथ्वी थियेटर ,मुंबई महानगर के उपनगर , जुहू में एक ऐसा मुकाम है जहां बहुत सारे लोगों ने अपने सपनों को रंग दिया है .यह थियेटर अपने पिता स्व पृथ्वीराज कपूर की याद में शशि कपूर और उनकी पत्नी जेनिफर कपूर से बनवाया था. शशि कपूर अपने परिवार में एक अलग तरह के इंसान थे .उनकी मृत्यु की खबर सुनकर उनके गैरफिल्मी काम की याद आ गयी जो दुनिया भर में नाटक की राजधानी के रूप में जाना जाता है .
हमारी और हमारी पहले की पीढ़ी के ज़्यादातर लोग अकबर का वही तसव्वुर करते हैं जो के. आसिफ की फिल्म ‘मुगले-आज़म ‘ में दिखाया गया है . बहुत ही भारी भरकम आवाज़ में भारत के शहंशाह मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर के डायलाग हमने सुने हैं . अकबर का नाम आते ही उन लोगों के सामने तस्वीर घूम जाती है जिसमें मुगले आज़म की भूमिका में पृथ्वीराज कपूर को देखा गया है .
पृथ्वीराज कपूर अपने ज़माने के बहुत बड़े अभिनेता थे. उन्हीं की याद में उनके बच्चों ने पृथ्वी थियेटर की इमारत की स्थापना की . पृथ्वीराज कपूर का 'पृथ्वी थियेटर शहर शहर घूमा कारता था. उसी सिलसिले में उनके सबसे छोटे पुत्र ,शशि कपूर की मुलाक़ात ,जेनिफर केंडल से कलकत्ता में हुई थी .पृथ्वीराज कपूर की इच्छा थी कि पृथ्वी थियेटर को एक स्थायी पता दिया जा सके. इस उद्देश्य से उन्होंने १९६२ में ही ज़मीन का इंतज़ाम कर लिया था लेकिन बिल्डिंग बनवा नहीं पाए. १९७२ में उनकी मृत्यु हो गयी .ज़मीन की लीज़ खत्म हो गयी .उनके बेटे शशि कपूर और जेनिफर केंडल लीज क नवीकरण करवाया और आज पृथ्वी थियेटर पृथ्वीराज कपूर के सम्मान के हिसाब से ही जाना जाता है . श्री पृथ्वीराज कपूर मेमोरियल ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउन्डेशन नाम की संस्था इसका संचालन करती है . इसके मुख्य ट्रस्ट्री शशि कपूर थे और उनके बच्चे इसका संचालन करते हैं. आज मुंबई के सांस्कृतिक कैलेण्डर में पृथ्वी थियेटर का स्थान बहुत बड़ा है .
जब १९७८ में जेनिफर केंडल और उनके पति , हिंदी फिल्मों के नामी अभिनेता शशि कपूर ने इस जगह पर पृथ्वी का काम शुरू किया तो इसका घोषित उद्देश्य हिंदी नाटकों को एक मुकाम देना था .लेकिन अब अंग्रेज़ी नाटक भी यहाँ होते हैं .जेनिफर केंडल खुद एक बहुत बड़ी अदाकारा थीं और अपने पिता की नाटक कंपनी शेक्स्पीयाराना में काम करती थीं. पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थियेटर की स्थापना १९४४ में कर ली थी. सिनेमा की अपनी कमाई को वे पृथ्वी थियेटर के नाटकों में लगाते थे . अपने ज़माने में उन्होंने बहुत ही नामी नाटकों की प्रस्तुति की .शकुंतला ,गद्दार, आहुति, किसान, कलाकार कुछ ऐसे नाटक हैं जिनका हिंदी/उर्दू नाटकों के विकास में इतिहास में अहम योगदान है और इन सबको पृथ्वीराज कपूर ने ही प्रस्तुत किया था .थियेटर के प्रति उनके प्रेम को ध्यान में रख कर ही उनके बेटे और पुत्रवधू ने इस संस्थान को स्थापित किया था . मौजूदा पृथ्वी थियेटर का उदघाटन १९७८ में किया गया . पृथ्वी के मंच पर पहला नाटक “ उध्वस्त धर्मशाला “ खेला गया जिसको महान नाटककार ,शिक्षक और बुद्दिजीवी जी पी देशपांडे ने लिखा था . नाटक की दुनिया के बहुत बड़े अभिनेताओं , नसीरुद्दीन शाह और ओम पूरी ने इसमें अभिनय किया था . इन दोनों को मैं महान कलाकार मानता हूँ .पृथ्वी से मेरे निजी लगाव का भी यही कारण है .अब तो खैर जब भी मुंबई आता हूँ यहाँ चला ही जाता हूँ क्योंकि यह मेरे बच्चों के घर के बहुत पास है .पृथ्वी की इस इस इमारत का दूसरा नाटक था बकरी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस नाटक को इप्टा की ओर से एम एस सथ्यू ने निर्देशित किया था .
यह वह समय है जबकि मुंबई की नाटक की दुनिया में हिंदी नाटकों की कोई औकात नहीं थी लेकिन पृथ्वी ने एक मुकाम दे दिया और आज अपने सपनों को एक शक्ल देने के लिए मुंबई आने वाले बहुत सारे संघर्षशील कलाकार यहाँ दिख जाते हैं .पृथ्वी के पहले मुंबई में अंग्रेज़ी, मराठी और गुजराती नाटकों का बोलबाला हुआ करता था लेकिन पृथ्वी थियेटर की स्थापना के करीब वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . अब हिंदी के नाटकों की अपनी एक पहचान है और मुंबई के हर इलाके में आयोजित होते है .
इस सब में स्व शशि कपूर, उनकी पत्नी जेनिफर केंडल और उनकी बेटी संजना कपूर का बड़ा योगदान है 

जाति एक शिकंजा है ,तरक्की के लिए इसका विनाश ज़रूरी है.



शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के  निर्वाण को साठ साल से ऊपर हो गए .इस मौके पर उनको  हर साल याद किया जाता  है , इस साल भी किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. शायद ऐसा इसलिए है कि उनके नाम पर राजनीति करने वाले उन्हीं बातों को प्रचारित करते है जो उनको  अपने  स्वार्थ के हिसाब से उपयोगी लगती  हैं . आम अवधारणा यह है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे . यह सच है लेकिन इतना ही सच नहीं है . और  भी बहुत कुछ है . मसलन  डॉ साहब मानते थे कि  जाति की व्यवस्था शताब्दियों की साज़िश का नतीजा है और उसका खात्मा सामाजिक विकास की एक ज़रूरी शर्त है . अंबेडकर ने कहा था कि जब तक अंतरजातीय शादी-ब्याह नहीं होंगें तब तक बात नहीं बनने वाली नहीं है, जाति प्रथा को तोड़ना नामुमकिन होगा . सहविवाह और सहभोजन  बहुत  ज़रूरी है .
डॉ आंबेडकर के  दर्शन में इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जो देश के हर नागरिक को जानना चाहिए .उनके दर्शन शास्त्र की  कई बातों के बारे में ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेताआज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया थावही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चितऔर अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं थी  . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरूप  और उसमें जाति के मह्त्व की बात हैवह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमीचाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर होसंभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते.  बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता. इस बात में दो राय नहीं है कि  डा अंबेडकर पर अपने पहले के महान समाज सुधारक ,ज्योतिबा फुले का बड़ा प्रभाव था . उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी व्यक्ति से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता. कहीं ऐसा न हो कि केवल मनु को लक्ष्य करने के चक्कर में  मनु के विचार तो ख़त्म हो जाएँ लेकिन  जाति प्रथा ज्यों की त्यों बनी रह जाये . जाति प्रथा का खात्मा ज़रूरी  है लेकिन अगर केवल मनु को टारगेट किया जाता रहा तो बात बनेगी नहीं . पूरे सिस्टम पर हमला करना पडेगा .

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य और शूद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं थायह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिबा फुलेडा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..

समाज और राजनीति का फ़र्ज़ है लड़कियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देना



शेष नारायण सिंह

केरल की हादिया के प्रेम और विवाह करने एक अधिकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है . हाई कोर्ट में उसके अपनी पसंद के पुरुष से शादी करने के  अधिकार को अनुपयुक्त पाया गया था जिसके खिलाफ  देश के सर्वोच्च न्यायलय में अपील की गयी है . फैसला अभी नहीं आया है इसलिए उस मामले में कोई टिप्पणी करना उचित नहीं   है. हादिया पहले अखिला थी , इस्लाम  क़ुबूल कर लिया और अपनी पसंद के मुस्लिम लड़के से शादी कर ली . उसके विवाह करने के अधिकार पर जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ जाएगा तब उस पर चर्चा की जायेगी . सुनवाई के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उचित  समझा कि उसकी शिक्षा को जारी रखा जाना  चाहिए तो उसके लिए ज़रूरी निर्देश दे दिए गए हैं और वह तमिलनाडु के अपने मेडिकल कालेज में अपनी पढ़ाई से सम्बंधित कार्य कर रही है . लेकिन लव जिहाद के बारे में बात की जा सकती  है ,उसपर समाजशास्त्रीय  विमर्श और टिप्पणी की जा सकती है .
वास्तव में एक लडकी और एक लड़के के बीच होने वाले प्रेम को लव जिहाद का नाम देना और इसको मुद्दा बनाना समाज में पुरुष आधिपत्य की मानसिकता का एक  नमूना है . लव  जिहाद वाले ज़्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि जो गरीब या मध्य वर्ग के लोग हैं , उनको ही अपमानित करने के लिए लक्षित किया जाता है . यह नया भी नहीं है . हिन्दू लडकी और मुस्लिम लड़के के बीच प्रेम को हमेशा ही आर एस एस और उसके अधीन  संगठनों की राजनीति में हिकारत की नज़र से देखा जाता रहा   है .  बीजेपी के पूर्व उपाध्यक्ष सिकंदर बख्त को भी आर एस एस के इस क्रोध  को झेलना पड़ा था. बाद में तो वे बीजेपी की कृपा से केंद्रीय मंत्री  और राज्यपाल भी हुए लेकिन आर एस एस के अखबार आर्गनाइज़र के २ जून १९५२ के  अंक में उनके बारे में जो लिखा है उससे साफ़ हो जाता है कि आर एस एस ने  उनको शक की नज़र से देखा . सिकंदर बख्त एंड कंपनी शीर्षक के लेख में उनके बारे में जो बातें लिखीं थीं ,वे किसी को भी आपत्तिजनक लग सकती हैं. अखबार को शक था कि तब के कांग्रेसी नेता  सिकंदर बख्त किसी बड़ी कांग्रेसी महिला नेता के प्रेम में हैं और उसके साथ रह रहे हैं . इसी को केंद्र में रख कर काफी कुछ लिखा गया था . बाद में जब उन्होंने एक हिन्दू लडकी से शादी कर लिया तो दिल्ली शहर में भारी हल्ला  गुल्ला किया गया था . इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और विवाह पर आर एस एस के संगठन अब ज्यादा आक्रामक हो गए हैं . यह हमेशा से ही ऐसे ही थे. इनकी राजनीतिक  ताक़त बढ़ गयी  है और अब उनके  इस तरह के कारनामों को सरकारी संरक्षण मिलता है इसलिए वे  ज़्यादा मुखर  हो गए हैं .
एक और दिलचस्प बात गौर करने लायक है . लव जिहाद और  उससे जुडी हिंसा का शिकार आम तौर पर गरीब या  सम्पन्नता के निचले पायदान पर  मौजूद लोग ही होते हैं .  सम्पन्न या राजनीतिक रूप से  ताक़तवर लोगों पर लव जिहाद के हमलावर कुछ नहीं बोलते .  देश  भर में ऐसे  लाखों जोड़े हैं जो हिन्दू  मुस्लिम विवाह के उदाहरण हैं लेकिन उनपर कभी किसी लव जिहादी ने जिहाद नहीं छेड़ा .शाहरुख ख़ानआमिर ख़ानसैफ़ अली ख़ानइरफान ख़ानसलीम ख़ानन नसीरूद्दीन शाहसाजिद नाडियावाला, , इमरान हाशमीमुज़फ़्फ़र अलीइम्तियाज़ अलीअज़ीज़ मिर्ज़ाफ़रहान अख़्तरआदि बाहुत सारे  फ़िल्मी लोगों की पत्नियां हिन्दू हैं . यह ताक़तवर लोग हैं . शायद  इसीलिये इनके खिलाफ कभी कोई बयान भी नहीं आया है . बीजेपी के नेता  मुख्तार अब्बास नक़वीशहनवाज़ हुसैन और एम  जे अकबर की पत्नियां भी हिन्दू लडकियां   हैं .  इनकी भी कभी चर्चा नहीं होती ,शायद  इसलिए कि यह तो अपने लोग हैं .
असल मुद्दा सामाजिक और आर्थिक है . जो लोग समाज के सबसे गरीब तबके से हैं उनको सभी ब्रांड के राजनीतिक और धार्मिक शमशीर  चमकाने वाले निशाना  बनाते हैं . और यह समस्या केवल हिन्दू मुस्लिम जोड़ों  तक की सीमित नहीं है.  पिछले कई वर्षों से लगभग रोज़ ही अखबार में ऐसी कोई खबर नज़र आ जाती है   जिसमें पता  चलता है कि किसी लडकी की इसलिए हत्या कर दी गयी कि उसने अपने परिवार वालों की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी  कर ली थी . इसी हफ्ते एक हैरतअंगेज़ खबर पढने को मिली जिसमे लिखा था  कि एक लडकी अपने  किसी पुरुष सजातीय दोस्त के साथ  सिनेमा देखने चली गयी . लडकी के पिता और भाई को वह लड़का पसंद नहीं था . बाप और भाइयों ने अपनी ही लडकी और बहन का गैंग रेप किया और उसको सबक सिखाने की कोशिश की . यह हैवानियत क्यों है ? यह  सवाल सरकार के दायरे में जाएगा ,तो वह इसको कानून व्यवस्था की नज़र से देखेगी . इस खबर  में भी पुलिस का पक्ष ही अखबार में छपा था लेकिन इसका असली हल पुलिस नहीं निकाल  सकती  है . इस समस्या के हल के लिए समाज को आगे आना पडेगा . इसका गहराई से  अध्ययन करना पड़ेगा और कोई सूरत सुझानी पड़ेगी . अब  तक तो जो भी तरीके बताये गए है वे ठीक नहीं हैं . शायद समाज और राष्ट्र ने इस समस्या की गहराई को समझा ही नहीं है .
बहुत पहले सब इस  तरह  की खबरें   सार्वजनिक चर्चा में  आने लगी थीं तो कुछ हलकों से सुझाव आये थे कि शिक्षा के स्तर में तरक्की होने पर यह सब बदल जाएगा लेकिन अब देखा जा रहा  है कि आम तौर पर ऊंची औपचारिक शिक्षा प्राप्त लोग  इस तरह के असमाजिक और अमानवीय कार्यों में लगे हुए हैं . ज़ाहिर है केवल शिक्षा से  समस्या का हल   नहीं निकलने वाला है . इसके लिए    सम्पन्नता भी चाहिए और उससे भी  ज्यादा राजनीतिक स्तर पर सुरक्षा की व्यवस्था भी चाहिए .  न्यायपालिका की सुरक्षा तभी प्रभावी होगी जब  राजनीतिक स्तर पर उसको लागू करने की इच्छा शक्ति मौजूद हो . राजनीतिक इच्छा  शक्ति का तभी विकास होगा जब एक समाज के रूप में राजनीति कर्मियों को सामाजिक ज़िम्मेदारी और दायित्व से  बांधा जा सके .
देश की राजधानी  के एक सौ किलोमीटर के दायरे में लगभग प्रति  दिन ' हानर किलिंग ' के नाम पर  लड़कियों को हलाल किया जा रहा है . अजीब बात यह है कि  इलाके के सभी मुकामी नेता इन हत्यारों का ही साथ देते हैं. इसका  कारण यह है कि नेताओं को वोट से मतलब है और  ग्रामीण समाजों में  परिवार का वोट देने का फैसला पुरुष ही करते  हैं . वोटबाज़ी की तिकड़म की राजनीति में लड़कियों की कोई भूमिका नहीं होती . ऐसा इलसिए होता है कि वे  लडकियां राजनीतिक शक्ति से संपन्न नहीं होती हैं .उनको शक्ति सम्पन्न बनाये बिना  समाज का भला नहीं होने वाला है .सरकार ने  लड़कियों को सक्षम बनाने के लिए कई योजनायें चला रखी हैं . बेटी बचाओ, बेटी पढाओ  , उज्जवला, स्वाधार ,महिलाओं के प्रशिक्षण और उनको जिम्मेवारी देने संबंधी योजनाएं कागजों में उपलब्ध हैं लेकिन उनको सही अर्थों में लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए . जिसकी भारी कमी है .
संविधान के ७३ वें और ७४ वें   संसोधन के बाद पंचायतों के चुनावों में कुछ सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गयी थीं लेकिन नतीजा क्या हुआ ? महिलाओं का पर्चा भरवाकर उनके पति गाँव पंचायत के प्रधान  बन बैठे . प्रधानपति नाम के एक अलग  किस्म के जीव  ग्रामीण भारत में विचरण करने लगे . ऐसा इसलिए हुआ कि लड़कियों की  शिक्षा पर ज़रूरी ध्यान नहीं दिया गया था. लेकिन अब  बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों की लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे उन इलाकों की लडकियां दिल्लीपुणेबंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने की आज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है .छः साल पहले की बात है . झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक के मामले ने मुझको विचलित कर दिया था .  उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजालड़की कुशाग्रबुद्धि की थीउसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन  वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती .
समाज और राजनीति को ऐसी ही परिस्थितियों में हस्तक्षेप करना पडेगा . समाज में  लड़के लड़कियों को सम्मान की ज़िंदगी देने के लिए उनको खुदमुख्तारी के अधिकार देने पड़ेगें . और यह  कम सरकार और राजनीतिक  बिरादरी ही कर सकती है 

Saturday, November 25, 2017

क्या गरीब राजपूत लड़के लड़कियों की भी सुध ली जायेगी ?



शेष नारायण सिंह

चित्तौड़ की रानी पद्मिनी और चित्तौड़ गढ़ के हवाले से एक  फिल्म बनी है और उस पर विवाद हो  रहा है. जिस अभिनेत्री ने रानी पद्मिनी की भूमिका अदा की है उसको जला डालने और उसकी नाक काट लेने के लिए इनामों  की घोषणा हो रही है . राजपूतों के  कुछ संगठन इसमें आगे आ गए हैं . राजपूती आन बान और शान पर खूब चर्चा  हो रही है . ऐसा लगता है कि कुछ लोग राजपूतों की एकता की कोशिश कर रहे हैं और उसको बतौर वोट  बैंक विकसित करने का कोई कार्यक्रम चल रहा है . इसका आयोजन कौन कर रहा है,अभी इसकी जानकारी सार्वजनिक चर्चा में नहीं आयी है . राजपूतों के इतिहास पर बहुत कुछ लिखा गया  है . नामी गिरामी विद्वानों  ने शोध किया  है और  क्षत्रियों और राजपूतों में तरह तरह के भेद बताये गए हैं . वह बहसें आकादमिक हैं लेकिन आम तौर पर ठाकुरक्षत्रिय और राजपूत को एक ही माना जाता है . इसलिए इस लेख में ठाकुरों और राजपूतों के बारे में अकादमिक चर्चाओं से दूर सामाजिक सवालों पर बात करने की कोशिश की जायेगी . मैं राजपूत परिवार में  पैदा हुआ था . लेकिन राजपूत  जाति की राजनीति से मेरा साबका १९६९ में पडा जब जौनपुर के मेरे कालेज में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का अधिवेशन हुआ . देश के कोने  कोने से राजपूत राजा महाराजा आये थे . मेवाड़ के स्व महाराणा भगवत सिंह  ने  अध्यक्षता की थी. डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मण सिंह भी आये  थे.  और भी बहुत से राजा आये थे .  उस अधिवेशन में पूरी चर्चा इस बात पर होती रही  कि इंदिरा गांधी ने राजाओं का प्रिवी पर्स छीन कर राजपूतों की आन बान पर बहुत बड़ा हमला किया था . आजादी के बाद सरदार पटेल ने जिन राजाओं के राजपाट का भारत में विलय करवाया था उनको कुछ विशेषाधिकार और उनके राजसी जीवन निर्वाह के लिए प्रिवी पर्स देने का वायदा  भी किया था . कुछ राजाओं को को १९४७   में लाखों रूपया  मिलता था . मसलन मैसूर के राजा को २६ लाख रूपये मिलते थे .  सन १९५०  में सोने का भाव करीब १०० रूपये प्रति दस ग्राम  होता था .आज करीब  तीस हज़ार रूपये है. आज की कीमत से इसकी तुलना की जाए तो यह ७८  करोड़  रूपये हुए. 1970 में जब इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स ख़त्म किया तब  भी सोना १८४ रूपये प्रति दस ग्राम था . ऐसे सैकड़ों राज थे हालांकि कुच्छ को तो बहुत कम रक़म मिलती थी .  यानी प्रिवी पर्स देश  संपत्ति पर बड़ा बोझ था . इसलिए स्वतंत्र भारत में प्रिवी पर्स के मामले  पर आम नाराज़गी की थी .उस समय की देश की आर्थिक स्थिति  के लिहाज़ से इस को  देश पर  बोझ माना जाता था .राजाओं के ख़िताबों की आधिकारिक मान्यता को भी पूर्णतः असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता था। प्रिवी पर्स को  हटाने का प्रस्ताव १९६९ में जब संसद में लाया गया तो प्रस्ताव राज्य सभा पारित नहीं हो  सका और मामला टल गया . बाद में  इंदिरा गांधी ने  नागरिकों के लिये सामान अधिकार एवं सरकारी धन के दुरूपयोग का हवाला देकर  १९७१ में २६वें संविधानिक संशोधन के रूप में पारित कर दिया . और प्रिवी पर्स ख़त्म हो गया .कई राजाओं ने १९७१ के चुनावों में इस मुद्दे पर इंदिरा गांधी को चुनौती दी , लोक सभा का चुनाव लड़ने  लिए मैदान लिया और सभी बुरी तरह से हार गए .

इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में मैंने इस अधिवेशन को देखा और इसमें शामिल हुआ. अजीब लगा कि अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों के पक्ष में क्षत्रिय समाज को एकजुट  करने की आयोजकों की तरफ से  की गयी .  मेरे दर्शनशास्त्र के  और मेरे गुरू ने मुझे समझाया कि इस बहस का  कोई मतलब नहीं है . उत्तर प्रदेश ,जहां यह बहस हो रही थी वहां किसी भी  राजपूत या क्षत्रिय राजा को प्रिवी पर्स नहीं मिलता था . उत्तर प्रदेश में प्रिवी पर्स वाले लेवल तीन राजा थेकाशी नरेश ,नवाब रामपुर और समथर के राजा.. इन तीनों में कोई भी राजपूत नहीं था. जबकि उसी उत्तर प्रदेश में लगभग सभी  गाँवों  में राजपूत  रहते हैं . उनकी समस्याओं पर  अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में कोई चर्चा नहीं हुयी .उस दौर में किसानो को खाद,  चीनी ,सीमेंट आदि काले बाज़ार से दुगुनी कीमत पर खरीदना पड़ता था ,उन  किसानों में बड़ी संख्या में राजपूत थे  लेकिन महासभा में इस विषय पर कहीं कोई बात नहीं हो रही थी.  एक छात्र को भी भाषण करने का अवसर मिलना था . जिसके लिए मुझे कालेज की तरफ से बुलाया गया . मैंने किसान राजपूतों , चपरासी राजपूतों, क्लर्क राजपूतों , बेरोजगार राजपूतों  की समस्याओं का ज़िक्र कर दिया और राजाओं के लाभ के  एजेंडे से बात फिसल गयी. उसके बाद से सरकार से किसानों की समस्याओं  पर बात शुरू हो गयी . राजपूती शान और आन बान की  बहस के बीच राजपूतों की बुनियादी समस्याओं पर भी बहस  शुरू हो गयी .

यह काम मैं कसर करता हूँ . अभी पिछले दिनों  रानी पद्मिनी को केंद्र में रख कर बनाई फिल्म की बहस में जब मुझे शामिल होने का अवसर मिला तो मैंने रानी पद्मिनी के इतिहास और जौहर के हवाले से उन समस्याओं का भी उल्लेख कर दिया जो आज के राजपूत रोज़ ही  झेल रहे हैं . मेरे गाँव और आस पास के इलाके में  राजपूतों की बड़ी आबादी  है . सैकड़ों  किलोमीटर तक राजपूतों के ही गाँव हैं . बीच बीच में और भी जातियां हैं .ज्यादातर लोग  बहुत ही गरीबी की ज़िंदगी बिता  रहे  हैं . दिल्ली , मुंबई, जबलपुर, नोयडा , गुरुग्राम आदि शहरों में हमारे इलाके के राजपूत भरे पड़े हैं . वे अपना गाँव छोड़कर आये हैं . वहां खेती है लेकिन ज़मीन के रकबा इतना कम हो गया है कि परिवार का भरण पोषण नहीं हो  सकता . शिक्षा की कमी है इसलिए यहां मजदूरी करने पर विवश हैं . मजदूरी भी ऐसी कि न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम कमाते हैं . किसी झुग्गी में  चार -पांच लोग रहते हैं . राजपूती आन की ऐसी चर्चा गाँव में होती रहती है कि वहां चल रही मनरेगा योजनाओं में काम   नहीं कर सकते ,  खानदान की नाक कटने का डर है . यह तो उन लोगों की हाल है जो अभी   दस पांच साल पहले घर से आये हैं . जो लोग यहाँ चालीस साल से रह रहे  हैं , उनकी हालत बेहतर बताई जाती है . एक उदाहरण पूर्वी दिल्ली के मंडावली का दिया जा सकता है . पटपडगंज की पाश सोसाइटियों से लगे हुए  मंडावली गाँव की खाली पडी ज़मीन पर १९८० के आस पास पूर्वी दिल्ली के बड़े नेता , हरिकिशन लाल  भगत के  गुंडों ने पुरबियों से दस दस हज़ार रूपये लेकर ३५ गज ज़मीन के प्लाट पर क़ब्ज़ा करवा दिया था. सब बस गए .बाद में वह कच्ची कालोनी मंज़ूर हो गयी और अब ३५ साल बाद उस ज़मीन की कीमत बहुत बढ़ गयी  है लेकिन उस  ज़मीन की कीमत बढवाने में वहां रहने वालों की दो पीढियां लग गईं . वहां ठाकुरों , ब्राहमणों आदि के जाति के आधार मोहल्ले बना दिए गए थे . उनमें राजपूत भी बड़ी संख्या में थे. दिल्ली के संपन्न इलाकों में भी राजपूत रहते थे . सुल्तानपुर के सांसद भी उन दिनों राजपूत थे और राजपूत वोटों के बल  पर जीत कर आये थे लेकिन उनको  भी उन गंदी बस्ती में रह रहे लोगों की परवाह   नहीं थी . जब  पांच साल बाद फिर चुनाव हुए तो उन्होंने जिले में जाकर ठाकुर एकता का नारा दिया था .  इसी तरह की एक  कालोनी दिल्ली के वजीराबाद पुल के आगे है . सोनिया विहार नाम की इस कालोनी में भी लाखों की संख्या में राजपूत रहते हैं और आजकल  उस फिल्म में रानी  पद्मावती के चित्रण को लेकर गुस्से में हैं .

बुनियादी सवाल यह है कि  चुनाव के समय या किसी आन्दोलन के समय राजपूतों का आवाहन करने वालों को क्या  इस बात का ध्यान नहीं रखना चाहिए कि राजपूतों में जो गरीबी , अशिक्षा , बेरोजगारी आदि समस्याएं हैं उनको भी विचार के दायरे में रखना बाहुत ज़रूरी है .  मेरे गाँव में  राजपूतों के पास बहुत कम ज़मीन है . १९६१ में जब जनगणना हुयी थी तो मैं अपने गाँव के लेखपाल  के साथ घर घर घूमा  था .  राजपूतों के १५ परिवार थे . अब वही अलग बिलग होकर करीब चालीस परिवार  हो गए हैं . ज़मीन  जितनी थी ,वही है. यानी सब की ज़मीन  के बहुत ही छोटे  छोटे टुकड़े  हो गए हैं . पहले भी किसी तरह पेट पलता था , अब तो सवाल ही नहीं है . उन्हीं परिवारों के राजपूत लड़के , महानगरों में मेहनत मजूरी करके पेट पाल रहे हैं. मालिन बस्तियों में रह  रहे  हैं , राजपूत एकता का जब भी नारा दिया जाता है , वे ही लोग  भीड़ का हिस्सा बनते हैं और राजपूत नेताओं की कमियों को छुपाने के लिए चलाई गयी बहसों में भाग लेते हैं . सवाल यह  है कि क्या इन लोगों के बुनियादी  शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकारों के लिए कोई आन्दोलान नहीं चलाया जाना  चाहिए . अगर राजपूतों के नाम पर  राजनीति करने वालों और राजपूत भावनाओं से लाभ लेने वालों से यह सवाल पूछे जाएँ तो समाज का भला होना निश्चित है . लेकिन यह सवाल   पूछने के लिए गरीबी और सरकारी उपेक्षा का जीवन जी रहे लोगों  को ही आगे आना पड़ेगा. राजपूती आन बान और शान के आंदोलनकारियों के नेताओं से यह  सवाल भी पूछे जाने चाहिए .

रानी पद्मिनी के संदर्भ में एक बात और बहुत ज़रूरी पूछी  जानी है लेकिन वह सवाल पीड़ित पक्ष के लोग पूछने नहीं आयेगें . किसान राजपूतों के  परिवार में लड़कियों की शिक्षा आदि का सही ध्यान  नहीं दिया जाता . जहां लड़कों के लिए गरीबी  में भी कुछ न कुछ इंतज़ाम किया जाता  था , लड़कियों को पराया धन मान कर  उपेक्षित किया जाता था . आज ज़रूरी यह है कि राजपूत नेताओं से समाज के वरिष्ठ लोग यह सवाल पूछें कि क्या राजपूत लड़कियों की शिक्षा आदि के लिए कोई ख़ास इंतजाम नहीं किया  जाना चाहिए . क्या उनके अधिकारों की बात को हमेशा नज़र अंदाज़ किया जाता रहेगा .  अगर लड़कियों  को सही शिक्षा दी जाए और उनको भी अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो सामाजिक परिवर्तन की बात को रफ्तार मिलेगी . ऐसा हर वह आदमी जानता  है जिसकी सोचने समझने की शक्ति अभी बची हुयी  है . आज एक सिनेमा के विरोध के नाम पर जो नेता आन्दोलन की अगुवाई कर रहे  हैं क्या उनको अपने गिरेबान में झाँक कर नहीं देखना चाहिए कि लड़कियों को सम्मान की ज़िन्दगी देने में समाज और सरकार का भी कुछ योगदान होता है . जो लोग राजपूतों के इतिहास की बात करके राजपूत लड़कों को  किसी की नाक काटने और किसी को जिंदा जला देने की राह पर डाल रहे हैं क्या उनको राजपूतों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को दुरुस्त करने के लिए आन्दोलन नहीं शुरू करना  चाहिए .  हर राजपूत को  अत्याचारी के रूप में चित्रण करने की परम्परा  को दुरुस्त करने के लिए क्या कोई राजपूत नेता आन्दोलन की डगर  पर जाने  के बारे में विचार करेगा  क्योंकि ऐसे बहुत सारे इलाके हैं जहां राजपूत परिवार की आर्थिक हालत दलितों से भी बदतर है . इन सवालों को पूछने  वालों की समाज  और देश को सख्त ज़रूरत  है . क्या राजपूतों के कुछ नौजवान यह सवाल पूछने के लिए आगे आयेंगें ?

Monday, November 20, 2017

६३ साल की उम्र में जाना भी कोई जाना है , के वी एल नारायण राव नहीं



के वी एल नारायण राव नहीं रहे . एन डी टी वी को राधिका रॉय की बहुत छोटी कंपनी से बड़ी कंपनी बनाने में जिन लोगों का योगदान है , नारायण राव उसमें सरे फेहरिस्त हैं . ६३ साल की उम्र में कूच करके नारायण राव ने बहुत लोगों को तकलीफ पंहुचाई है , मुझे भी . 

बृहस्पतिवार दिनांक २० नवम्बर १९९७ के दिन मैं नारायण राव से पहली बार मिला था. एन डी टी वी में मुझे पंकज पचौरी ने प्रवेश दिलाया था. हिंदी विभाग की प्रमुख मृणाल पांडे ने किसी ऐसे पत्रकार को अपने नए कार्यक्रम के लिए लेने का फैसला किया था, जो बीबीसी के कार्य पद्धति को जानता हो. पंकज ने कहा कि बीबीसी छोड़कर तो कोई नहीं आएगा लेकिन अगर आप कहें तो एक आउटसाइड कंट्रीब्यूटर को बुला दूं . मृणाल जी ने पंकज से सुझाव माँगा तो उन्होंने मेरा नाम बता दिया . मृणाल जी ने मुझे राधिका रॉय से मिलवाया और वहीं , प्रणय रॉय और आई पी बाजपाई भी आ गए और मेरा इंटरव्यू हो गया . चुन लिया गया . राधिका ने कहा अब आप नरायन के पास जाइए क्योंकि Only he negotiates the money . इस तरह मेरी ,के वी एल नारायण राव से डब्लू-१७ गेटर कैलाश-१ वाले दफ्तर में मुलाक़ात हुयी .

नारायण राव उन दिनों जनरल मैनेजर थे . मालिकों के बाद सबसे बड़ी पोजीशन वही थी. मैं अख़बार से गया था , मुझे पता ही नहीं था कि एन डी टी वी में तनखाहें बहुत ज्यादा होती थीं. मुझे जो मिल रहा था मैने उस से काफी आगे बढ़ कर बताया . नारायण राव ने कहा कहा कि सोच लीजिये . मुझे नौकरी ज़रूर चाहिए थी , मैंने थोडा कम कर दिया . मुस्कराते हुए टोनी ग्रेग की लम्बाई वाले गंभीर आवाज वाले शख्स ने कहा कि आपने जो पहले कहा था , कंपनी ने आपको उस से ज्यादा धन देने का फैसला लिया है . अगर आप उससे ज्यादा कहते तो भी मिल सकता था . बहरहाल अब आप जाइए ,, काम शुरू करिए . आपकी उम्मीद से ज्यादा तनखाह आपको मिलेगी.

आज उस दिन को बीस साल हो गए थे . मैं आज ही सोच रहा था कि अपने बीस साल पहले के दिन को याद करूंगा और कुछ लिखूंगा . मैंने बिलकुल नहीं सोचा था कि उस दिन को याद करते हुए मैं आज के वी एल नारायण राव के लिए श्रद्धांजलि लिखूंगा . दिल एकदम टूट गया है .

मैं एन डी टी वी में ज़्यादातर सुबह ही शिफ्ट में काम करता था . सुबह छः बजे से दिन के दो बजे तक . उसी शिफ्ट में अंग्रेज़ी बुलेटिन की इंचार्ज रेणु राव भी हुआ करती थीं. रेनू ने नारायण राव से विवाह किया था. रेनू . स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा की भांजी थीं . मैं बहुगुणा जी को जानता था और इन दोनों की शादी में बहुगुणा जी के आवास सुनहरी बाग़ रोड पर शामिल हुआ था . यह दोनों इन्डियन एक्सप्रेस में मिले थे जहां राधिका रॉय डेस्क की इंचार्ज हुआ करती थीं . बाद में नारायण राव , आई आर एस में चुन लिए गए . कुछ साल वहां काम किया लेकिन जब राधिका रॉय ने एन डी टी वी को बड़ा बनाने का फैसला किया तो उन्होंने नारायण राव को अपने साथ आने का प्रस्ताव दिया . उन्होंने नौकरी छोड़ी और एन डी टी वी आ गए . रेनू वहां पहले से ही थीं. एन डी टी वी में काम करने का जी बेहतरीन माहौल था , अब शायद नहीं है , उसको राधिका रॉय की प्रेरणा से नारायण राव ने ही बनाया था.

नारायण राव से किसी ने पूछा कि इनकम टैक्स के बड़े पद पर आप थे, उसको छोड़कर प्राइवेट कंपनी में क्यों आ गए . उन्होंने कहा कि वहां तनखाह कम थी , यहाँ पैसे बनाने आया हूँ . नारायण राव ने इनकम टैक्स विभाग में भी बहुत इमानदारी का जीवन जिया था .उनके पिता , स्व.जनरल के वी कृष्णा राव ,भारतीय सेना के प्रमुख रह चुके थे . रिटायर होने के बाद जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा,नगालैंड और मणिपुर के राज्यपाल भी हुए ..नारायण राव ने अपने बहुत ही बड़े इन्सान और आदरणीय पिता के गौरव को अपना आदर्श मानते थे . के वी एल नारायण राव को मैं कभी नहीं भुला पाऊंगा .

Sunday, November 19, 2017

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना: बाबरी मस्जिद विवाद और श्री श्री रविशंकर



शेष नारायण सिंह


 अयोध्या विवाद में अब कोर्ट के बाहर सुलह की बात को ज्यादा अहमियत दी जा रही है. इस बार सुलह कराने  के लिए बंगलौर के एक  धार्मिक नेता श्री श्री रविशंकर ने अपने आपको मध्यथ नियुक्त  कर लिया है . माहौल भी अनुकूल है .आज उत्तर प्रदेश में एक ऐसी सरकार है जिसके मुख्य मंत्री,योगी आदित्यनाथ हैं जो गोरखनाथ पीठ के महंत भी हैं . वे स्वयं  भी   अयोध्या की बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्म भूमि बनाने के बड़े समर्थक रहे हैं . उनके पहले के गोरखनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ रामजन्म भूमि आन्दोलन के बड़े नेता रहे  हैं . महंत अवैद्यनाथ के गुरु महंत दिग्विजय नाथ ने १९४९ में बाबरी मस्जिद में रामलला की  मूर्ति रखवाने में प्रमुख  भूमिका निभाई थी . ज़ाहिर है वर्तमान मुख्यमंत्री की इच्छा होगी कि वहां राम मंदिर बन जाये लेकिन अब वे संवैधानिक  पद पर हैं और उनकी ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट का जी भी आदेश होगा ,उसको  लागू करने भर की है. जो मामला सुप्रीम कोर्ट में है उसमें उत्तर प्रदेश सरकार पार्टी भी नहीं है . उत्तर प्रदेश सरकार ने साफ़ कर दिया  है कि बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का   फैसला  ही अंतिम सत्य होगा और सरकार उसको लागू करेगी . राज्यपाल राम नाइक ने इस  आशय का बयान भी दे दिया है . 

इस पृष्ठभूमि में श्री श्री रविशंकर ने अयोध्या विवाद में इंट्री मारी  है . राज्यपाल ने उनको साफ़ संकेत दे दिया है कि सरकार से कोई मदद नहीं मिलने  वाली है . राज्यपाल  से जब रविशंकर मिलने गए तो उन्होंने मुलाक़ात की लेकिन बाद में एक बयान भी दे दिया . राज्यपाल ने  कहा कि ," इस तरह की कोशिशें उन लोगों द्वारा  की जा रही हैं जिनको लगता है कि इस से मामले को जल्दी सुलझाया जा सकता है . मेरी शुभकामना उन लोगों के साथ है लेकिन सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही अंतिम और  बाध्यकारी होगा ."   लेकिन श्री श्री रविशंकर का उत्साह इससे कम नहीं हुआ . वे
अयोध्या भी गए ,उत्तर प्रदेश में  मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मिले.  उनकी तरफ से यह माहौल बनाने की कोशिश की गयी  कि उनके प्रयासों को  सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है लेकिन कुछ देर बाद ही सरकार की तरफ से बयान आ गया  कि  श्री श्री की मुख्यमंत्री से हुयी मुलाकात केवल शिष्टाचार वश की गयी मुलाक़ात है . इसका भावार्थ यह हुआ कि उनके अयोध्या जाने न जाने से सरकार को कुछ  भी लेना देना नहीं है .  

 श्री श्री रविशंकर ने यह मुहिम  शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की प्रेरणा से शुरू की  थी. लेकिन वसीम रिजवी को मुसलमानों के बीच बहुत इज्ज़त नहीं दी जाती 'वसीम रिजवी के अयोध्या मसले को लेकर चल रही मुलाकातों व दावों को लेकर इससे जुड़े मुकदमे के पक्षकारों से जब बात की गई तो दोनों पक्षों के लोगों ने एक सुर से समझौते के मसौदे को बकवास बताया। 

अयोध्या मसले के मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी ने वसीम रिजवी  के फार्मूले को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा, 'राजनीतिक  फायदा उठाने के लिए इस तरीके के फार्मूले पेश किए जा रहे हैं। सुन्नी इसको मानने को तैयार नहीं है.'  
श्री श्री रविशंकर के इस मामले में शामिल होने को लेकर सभी पक्षकारों में खासी  नाराज़गी है .आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल  ला  बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी मौलाना वली रहमानी ने कहा  कि ,"१२ साल पहले भी  श्री श्री रविशंकर  ने इस तरह की कोशिश की थी और कहा था कि विवादित   स्थल हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए. आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल  ला  बोर्ड के महासचिव ने  शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की दखलन्दाजी का भी बहुत बुरा माना है . उन्होंने कहा कि किसी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष के  पास इस तरह के अख्तियारात नहीं हैं कि वह किसी भी विवादित जगह को किसी एक पार्टी को सौंप दे .  वसीम रिजवी उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार के ख़ास थे लेकिन आजकल नई सरकार के करीबी बताये जा रहे हैं . कुछ दिन पहले उन्होंने  बाबरी मस्जिद को लेकर कई विवादित बयान दिए हैं . 

यह मामला इतना बड़ा इसलिए बना  कि बीजेपी को  हिंदुत्व का मुद्दा चाहिए था .१९८० में तत्कालीन जनता पार्टी टूट गयी और भारतीय जनता पार्टी का गठन हो गया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाया . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए त्याग  दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई जिसमें भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओंअटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब गांधियन सोशलिज्म को भूल जाइए . आगे से पार्टी की राजनीति  के स्थाई भाव के रूप में हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या में  रामजन्मभूमि  के निर्माण के नाम पर  राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनोंविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना अगस्त १९६४  में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है .
विश्व हिन्दू पारिषद आज भी  अयोध्या  विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है  . बिना  उसकी सहमति के कुछ भी  नहीं  हासिल किया जा सकता . श्री श्री रविशंकर की मध्यस्थता को विश्व हिन्दू परिषद वाले कोई महत्व नहीं देते . उसके प्रवक्ता , शरद  शर्मा ने कहा है कि ," रामजन्मभूमि हिन्दुओं की है . पुरातत्व के साक्ष्य यही कहते हैं कि वहां एक मंदिर था और अब एक भव्य मंदिर बनाया जाना चाहिए . जो लोग मध्यस्थता आदि कर रहे हैं उन्पीर नज़र रखी जा रही है लेकिन समझौते की कोई उम्मीद नहीं है . अब इस काम को संसद के ज़रिये किया जाएगा ,"
  समझ में नहीं आता कि श्री श्री रविशंकर किस  तरह की  मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं जब राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद  विवाद के दोनों ही पक्ष उनकी किसी भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं . अयोध्या में भी वे कुछ साधू संतों से मिलने में तो कामयाब रहे लेकिन किसी ने उनको गंभीरता से नहीं लिया . आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत से मिलने  की कोशिश भी वे कर रहे हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि उनको वहां से क्या हासिल होता है .