Saturday, December 16, 2017

गुजरात के नतीजे राहुल और मोदी की भावी राजनीति की दिशा तय करेंगे .



शेष नारायण सिंह . 

गुजरात का विधान सभा चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना हो गया है . १८ दिसंबर को जब नतीजे आयेंगे तो दोनों बड़ी पार्टियों के बड़े नेताओं के लिए बहुत ही अहम राजनीतिक भविष्य की भूमिका लिखेंगे . अगर प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी की पार्टी चुनाव जीत  गयी तो आने वाले  लोकसभा चुनाव में २०१९ में वे  देश की राजनीति के निर्विवाद नेता बन जायेंगे . और अगर राहुल गांधी की पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत लाती  है तो भारत के राजनीतिक क्षितिज में राहुल गांधी एक गंभीर नेता के रूप में स्थापित हो जायेंगे.  उनके लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण मौक़ा है जब वे राजनीतिक रूप से अपने आपको स्थापित करने की बात सोच सकते हैं . अगर उनकी पार्टी गुजरात में सरकार  बनाने लायक  संख्या में सीटें जीत सकती है तो अगले साल होने वाले मध्य प्रदेशछतीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में कांग्रेस की  जीत की संभावना बढ़ जायेगी  लेकिन अगर हार गए तो राहुल गांधी की उसी छवि की वापसी होगी जो उन्होंने २०१४ के चुनाव में  कांग्रेस  की पराजय के बाद  अर्जित की थी.
 राहुल गांधी की दादीइंदिरा गांधी की राजनीति में भी यह मुकाम आया था  .  कांग्रेस की खासी दुर्दशा १९६७ के आम चुनावों में हो चुकी थी. उत्तर भारत के  ज्यादातर राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन  गयी थीं. जिस तरह से आजकल बीजेपी के नेता राहुल गांधी को एक अगंभीर किस्म के नेता के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते रहते हैं उसी तरह  १९६७ के चुनावों में पंजाब से लेकर बंगाल तक कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के अन्दर ही मौजूद   सिंडिकेट के नेता इंदिरा गांधी को  मामूली नेता साबित करने का प्रयास कर रहे थे. शास्त्री जी की मृत्यु के बाद १९६६ में इंदिरा गांधी को सिंडिकेट के प्रधान मंत्री तो बनवा दिया था लेकिन उनको अपने  प्रभाव के अन्दर ही काम करने को मजबूर करते रहते थे. विपक्ष ने भी  गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के ज़रिये  कांग्रेस की स्थापित सत्ता को चुनौती देने का पूरा इंतज़ाम कर लिया था. १९६७ के चुनावों में  गैर कांग्रेसवाद को आंशिक सफलता मिल गयी थी . कई राज्यों में कांग्रेस की  सरकारें नहीं बनी थीं और कांग्रेस  विपक्षी पार्टी हो गयी थी. हालांकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन वह भी नेहरू युग की बहुमत वाली नहीं काम चलाऊ बहुमत वाली सरकार थी . गैरकांग्रेसवाद की सफलता इंदिरा गांधी के  राजनीतिक अस्तित्व को चुनौती दे रही थी.
गैरकांग्रेसवाद को समझने के लिए इतिहास की शरण में जाना पड़ेगा क्योंकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझे बिना भारत की राजनीति के इस महत्वपूर्ण अध्याय को समझना असंभव है .  कांग्रेस पार्टी कैसे  एक ऐसी राजनीतिक शक्ति बनी जो भारतीय जनता की अधिकतम भावनाओं की प्रतिनिधि और वाहक बनी और वही कांग्रेस १९६७ आते आते देश की बड़ी आबादी की नज़र में गिर गयी और कैसे इंदिरा गांधी  महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस को ख़त्म करके एक नई कांग्रेस को शक्ल  देने में कामयाब हुईं,यह इतिहास के पन्नों में साफ़ साफ़ अंकित है .

महात्मा के कांग्रेस की राजनीति में १९१६ में सक्रिय होने और अग्रणी भूमिका के पहले  कांग्रेस की पहचान एक ऐसे  संगठन के रूप में  होती थी  जो बंबई और कलकत्ता के कुछ वकीलों की अगुवाई में  अंग्रेजों के अधीन रहते हुए डोमिनियन स्टेटस टाइप कुछ  अधिकारों की बात करता था . लेकिन महात्मा गांधी के नेतृत्व में आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसने कांग्रेस को एक जनसंगठन बना दिया .१९१६ में चंपारण में जो  प्रयोग हुआ वह १९२०  में एक बहुत बड़े आन्दोलन के रूप में बदल गया.  १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ थाकेवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के ज्यादातर  बड़े नेताओं  ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश   हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया .बाकी देश में  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन  उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ गयीं  क्योंकि  जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया  . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसको  समाजवादी नेताओं ने भी ताकत  दी.  आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया भी कांग्रेस के सदस्य के रूप में इस अभियान में योगदान किया ...बाद में इन्हीं समाजवादियों ने कांग्रेस के विरोध में सबसे मुखर स्वर का नेतृत्व भी किया जब साफ़ हो गया कि आज़ादी के बाद गांधी का  रास्ता भूल कर कांग्रेस  की राजनीति फेबियन सोशलिज्म की तरफ बढ़  रही है .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की गंभीर  कोशिश तब शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया .विपक्ष के तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद,अमरोहा  और जौनपुर में १९६३ में हुए लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . संसोपा के डॉ लोहिया  फर्रुखाबाद ,प्रसोपा के आचार्य जे बी कृपलानी अमरोहा और जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है .इस समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं.  

गैर कांग्रेसवाद की आंशिक सफलता के बाद इंदिरा गांधी की अथारिटी को चुनौती  मिलना शुरू ही गयी थी .  कांग्रेस के बाहर से  तो हमला हो ही रहा था अंदर से भी उनको ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा था.   इंदिरा गांधी ने हालात की चुनौती को स्वीकार किया और  १९६९ में कांग्रेस को तोड़ दिया . कांग्रेस के पुराने नेता मूल कांग्रेस में बचे रहे पार्टी  का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी ज़ब्त हो गया इंदिरा कांग्रेस का जन्म हुआ जिसकी एकछत्र  नेता के  रूप में इंदिरा गांधी ने अपनी नई राजनीति की फिर से स्शुरुआत की . प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने लोकसभा को भंग करने की सिफारिश की समय से पहले चुनाव करवाया .बैंकों का राष्ट्रीयकरण प्रिवी पर्स की समाप्ति  और गरीबी हटाओं के वामपंथी रुझान के नारों के साथ १९७१ के चुनाव में भारी बहुमत हासिल किया . उनके विरोधी राजनीतिक रूप से  बहुत कमज़ोर हो   गए. कांग्रेस के अंदर  और बाहर वे एक मज़बूत नेता के  रूप में सामने आईं. १९७१ का चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य की भूमिका बन  गया . दोबारा  भी इंदिरा  गांधी पर राजनीतिक संकट तब आया जब १९७७ में उनकी पार्टी  बुरी तरह से चुनाव  हार गयी . उसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़  में हुए उपचुनाव में मोहसिना किदवई को उमीदवार बनाया और उत्तर प्रदेश में  , जहां उनकी पार्टी शून्य पर पंहुच गयी थी ,लोकसभा में एक सीट पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा हुआ . उसके बाद से कांग्रेस की नेता के रूप में दोबारा उन्होंने अपना मुकाम सुनिश्चित किया .
 एक चुनाव के नतीजों से  किसी नेता का भविष्य बन बिगड़ सकता है . गुजरात विधान सभा का चुनाव राहुल गांधी के लिए ऐसा ही चुनाव है यदि इस चुनाव में वे सफल होते हैं तो कांग्रेस के उन नेताओं से वे पिंड छुड़ा सकेंगें जो राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कृपा पात्र रहे थे और अब पार्टी की केंद्रीय सत्ता पर कुण्डली मार कर बैठे हुए हैं. दस साल की डॉ मनमोहंन  सिंह के सत्ता के दौरान इन लोगों ने अपने चेला उद्योगपतियों और भ्रष्ट नेताओं के लिए जो चाहा करवाया और आज अपनी पार्टी को ऐसे  मुकाम पर ला चुके हैं जहां वह  मजाक का विषय बन चुकी है . इस चुनाव में जीत का मतलब यह होगा कि वे अपने साथ ऐसे लोगों को ले सकेंगें जिनके सहारे जनता को साथ लिया जा सकता है. गुजरात चुनाव में कांग्रेस के परंपरागत नेताओं में अशोक गहलौत और भरत सिंह सोलंकी के  अलावा  किसी की ख़ास  भूमिका  नहीं रही है . ज़ाहिर है गुजरात के अपने नए साथियोंहार्दिक पटेल,अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी की भूमिका को भी ध्यान में रखकर ही कोई काम करना होगा  .अब उनके पास अपनी पार्टी को नए हिसाब से चलाने का वैसा ही मौक़ा होगा जो  जो इंदिरा गांधी को १९६९ में मिला था जब नेहरू युग के पुराने नेताओं ने अपना कांग्रेस संगठन बना लिया था और कांग्रेस से इंदिरा गांधी को निकाल दिया था . लेकिन उनके पास  सरकार थी और वे खुद प्रधानमंत्री थीं. उनके साथ लोग जुड़ते चले गए और इंदिरा  कांग्रेस का जन्म हो गया . अगर गुजरात में राहुल गांधी सरकार बनवाने में कामयाब हो जाते हैं तो उनके  पास यह अवसर होगा .
यह तो जीत की स्थिति का आकलन है . लेकिन अगर उनकी सरकार  नहीं बनी तो उनकी भावी राजीति पर बहुत ही भारी भरकम सवाल पैदा हो जायेगें . उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा उसका आकलन करना संभव नहीं है क्योंकि  उस तरह की कोई नजीर नहीं है .यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में भी सच है . अगर वे गुजरात चुनाव जीत गए तो देश की राजनीति में बहुत ही भारी राजनीतिक हैसियत के मालिक हो जायेगें . पहले से ही भारी उनकी मौजूदा ताकत में  वृद्धि होगी  लेकिन अगर गुजरात में उनकी इतनी मेहनत के बाद  भी सत्ता बीजेपी के हाथ से छिटक गयी तो नरेंद्र मोदी की आगे की  राह मुश्किल हो जायेगी  . दिल्ली में जो लोग उनके गुणगान करते नहीं आघाते वे उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण करते नज़र आयेगें .जाहिर है इस काम के बाद उनकी सत्ता कमज़ोर होगी . जो भीहो लेकिन एक बात  तय है कि गुजरात चुनाव देश की दोनों ही  बड़ी पार्टियों के वर्तमान शीर्ष नेताओं की राजनीति की भावी दिशा में बहुत ही अहम भूमिका निभाने जा रहा है .

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