Saturday, September 15, 2012

उत्तर प्रदेश की राजनीति तय करेगी देश की आगामी राजनीति की दिशा


( 10 सितम्बर को लिखा था )

शेष नारायण सिंह 

संसद के मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया . पूरे सत्र में केवल में दोनों सदनों से केवल चार विधेयक पास हो सके .जिसमें तीन तो  संस्थाओं के बिल हैं और एक रासायनिक हथियारों  को रोकने  से सम्बंधित कानून बनाने  के बारे में है ..इसके अलावा कुछ बिल केवल एक सदन से पास हुए . हल्ला गुल्ला के बीच ४ ज़रूरी बिल पास करा लिए गए.कुछ बिल केवल पेश किये जा सके इनमें संविधान के ११७ वें संशोधन का विवादास्पद बिल भी है जिसको पास करवा कर  सरकार सुप्रीम कोर्ट के उस  फैसले को बे असर करना चाहती है जिसमें अनुसूचित जातियों को आरक्षण में प्रमोशन देने पर रोक लगा दी गयी है . यह बिल राज्य सभा में पेश कर दिया गया है . यानी अब यह महिला आरक्षण बिल की तरह संसद की संपत्ति बना रहेगा. अगर लोक सभा में पेश किया गया होता तो १५ वीं  लोक सभा का कार्यकाल ख़त्म होने पर वह बिल समाप्त मान लिया जाता . मानसून सत्र के दौरान संसद का बाकी समय २०१४ के लोक सभा चुनावों का एजेंडा तय करने में लग गया.बीजेपी ने कांग्रेस को भ्रष्ट साबित करने में कोई कसर नहीं छोडी . कोयले के ब्लाकों के आवंटन में हुई हेराफेरी  के बारे में नई दिल्ली में रहने वाले हर पत्रकार को पता था .जब सी ए जी ने उस हेराफेरी को एक शक्ल दे दी तो बीजेपी वाले सी ए जी की रिपोर्ट के बहाने कांग्रेस को घेरने की अपनी योजना में जुट गए. इसके लिए उन्होंने संसद में काम काज ठप्प करने की रण नीति अपनाई. यह रणनीति आम तौर पर सच्चाई को छुपाने के लिए अपनाई  जाती है . ऐसा लगता था कि दोनों ही बड़ी राजनीतिक पार्टियां, कांग्रेस और बीजेपी , कोयले के घोटाले के मामले पर  बहस नहीं चाहते थे. अगर बहस होती तो सारी बातें परत दर परत खुल जातीं और जैसा कि अब सभी जानते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों के ही नेता कोयले की हेरा फेरी में शामिल थे.  समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब तीसरे मोर्चे की शुरुआत के संकेत दिए तो उसी प्रेस वार्ता में उन्होंने साफ़ कह दिया था कि यह कांग्रेस और बीजेपी के बीच नूरा कुश्ती है .मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बासुदेव आचार्य ने भी उसी प्रेस संवाद में कहा था कि इस केस में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही बहस से भाग रहे हैं . सीताराम येचुरी  ने भी कहा  है कि दोनों पार्टियों के बीच समझौता जैसा  कुछ हो गया था और इस बार संसद में शुद्ध रूप से मैच फिक्सिंग चल रही थी.  अब तो पता चल रहा है कि बहुत ही आदरणीय अखबारों के मालिक भी कोयले के लाभ हथियाने में लगे हुए थे. कुल मिलाकर संसद का मानसून सत्र विधायी कार्य के लिहाज़ से तो उपयोगी नहीं रहा लेकिन भविष्य की राजनीति का एजेंडा तय करने में इस सत्र की  महत्वपूर्ण भूमिका रही. 
इस सत्र में उत्तर प्रदेश की राजनीति के अंतर  कलह भी सामने आये तो वहां की राजनीति की वह ताकत  भी नज़र आई जिसके हिसाब से वह देश की राजनीति को प्रभावित करता है . करीब दो हफ्ते तक संसद के काम में बाधा डाल कर कोयले पर बहस न होने देने की बीजेपी और कांग्रेस की संयुक्त रणनीति से जब परदे लगभग हट गए  तो लेफ्ट फ्रंट के पुराने साथी मुलायम सिंह यादव ने मोर्चा संभाला और वामपंथी पार्टियों के  साथ अखबार वालों को संबोधित किया . उस दिन तो ऐसा लगा कि तीसरे मोर्चे के गठन की शुरुआत हो गयी है. बात अगले दिन भी चली जब मुलायम सिंह यादव ने संसद के मुख्य प्रवेश द्वार पर तीसरे मोर्चे के संभावित साथियों के साथ धरना दिया . लेकिन उसके बाद ही कांग्रेस ने  उनके हाथ एक ऐसा अवसर थमा दिया जिसके बाद उत्तर प्रदेश में लोक सभा चुनावों में उनकी जीत की संभावना बहुत बढ़ गयी है . कांग्रेस ने तय किया कि वह सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति वालों प्रमोशन देने के बारे में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभाव हीन  साबित करने के लिए राज्य सभा में एक बिल लायेगी.उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति के चलते दलित बिरादरी के लोग मुलायम सिंह को वोट नहीं देते . ज़ाहिर है इस बिल का समर्थन करने से उनको कोई चुनावी फायदा नहीं होने वाला था . लेकिन विरोध करने से उत्तर प्रदेश के ओ बी सी ,ब्राह्मणों, कायस्थों और ठाकुरों का वोट एकमुश्त मिलने की संभावना थी. मुलायम सिंह यादव ने अवसर को फ़ौरन भांप लिया और दलितों के लिए प्रमोशन में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता को प्रमोशन के आधार के रूप में मान्यता देने वाले बिल का विरोध करने का फैसला किया . भाग्य भी साथ दे रहा था . जब राज्य सभा में  हल्ला गुल्ला के बीच सरकार ने इस बिल को पेश करने की कोशिश की तो समाजवादी पार्टी के  सदस्य वेल  में जाने के लिए आगे बढे . लेकिन बहुजन समाज पार्टी के एक सदस्य ने सपा के नरेश अग्रवाल को  घेरकर रोकने की कोशिश की. नरेश अग्रवाल ने उसको धकेल दिया और आगे चले गए लेकिन इस प्रक्रिया में धक्का मुक्की हुई जिसको  टेलिविज़न पर पूरे देश ने देखा. सन्देश साफ़ था कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी  उत्तर प्रदेश की ८० फीसदी आबादी के कल्याण के लिए किसी भी हद तक जा सकती  है . जहां मायावती बाकी देश में अपनी  बिरादरी के  वोटरों को खींचने में कुछ हद तक सफल रहीं वहीं मुलायम सिंह यादव ने यह लगभग तय कर दिया कि उत्तर प्रदेश में अब सभी सीटों पर मायावती के  साथ ब्राहमण नहीं खड़ा होगा. सरकारी नौकरियों में अगड़ी जातियों में सबसे  ज्यादा  संख्या  ब्राह्मणों की  ही  है . मायावती की प्रमोशन में आरक्षण की नीति से सबसे  ज्यादा ब्राह्मण ही परेशान हैं . कुछ  ब्राह्मणों  को राजनीतिक संरक्षण देकर मायावती ने अपनी छवि ब्राह्मणों की शुभचिंतक के रूप में स्थापित करने की कोशिश की थी लेकिन जब आरक्षण में प्रमोशन की सबसे बड़ी समर्थक के रूप में उन्होंने अपने आप को स्थापित  कर दिया है तो उन्हें ब्राह्मण नेता, दलाल  या ठेकेदार तो समर्थन देते रहेगें लेकिन मध्यवर्ग का ब्राह्मण अब मायावती को किसी भी हाल में समर्थन नहीं देगा. राज्यसभा में इस बिल को पेश करने की प्रक्रिया में कांग्रेस ने जिस  उतावली का परिचय दिया है उसके बाद उसे भी उत्तर प्रदेश में अगड़ी जाति के सरकारी कर्मचारियों के शत्रु के रूप में ही राजनीति करनी पड़ेगी. इस सारी प्रक्रिया में मुलायम सिंह यादव ही एक ऐसे नेता हैं जो उत्तर प्रदेश की गैर दलित आबादी के सबसे प्रिय नेता के रूप में उभरे हैं .
जो  लोग मुलायम सिंह यादव को जानते हैं उन्हें मालूम है कि एक बार जो उनके साथ आ जाता है उसे वे भागने का मौक़ा बिलकुल नहीं देते. मुसलमानों के भी वे हमेशा से नेता नहीं थे लेकिन जब बाबरी मस्जिद की  हिफाज़त के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया तो मुसलमान  उनके  साथ  हो  गए . कल्याण  सिंह  को  साथ  लेने के हादसे  के बाद  थोडा दूर  गए  थे लेकिन जैसे  ही  उन्होंने कल्याण  सिंह  से किनारा किया  मुसलमानों ने उन्हें  फिर अपना लिया . आज मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सबसे बड़े नेता हैं . ऐसा  इसलिए संभव हुआ कि उन्होंने जब मुसलमानों का विश्वास  जीता तो उनकी तरक्की के लिए बहुत काम भी किया. आज मुसलमान  उनके ऊपर  भरोसा करता है . अभी तक बीजेपी और कांग्रेस के प्रचार की मुख्य धारा यही रही है कि हर हाल में  अगड़ी जातियों को मुलायम सिंह यादव से दूर रखा  जाए, इसके लिए बीजेपी ने उन्हें मुल्ला मुलायम सिंह तक कह डाला था. लेकिन आज जब सरकारी नौकरियों में उनकी राजनीति के कारण अगड़ी जातियों के लोग उनके साथ जुड़ जाते हैं तो  वे भी कभी साथ नहीं छोड़ेगें. मुलायम सिंह यादव अपने साथ रहने वालों के लिए चिंतित रहते हैं, उसमें दो राय नहीं है.
इस तरह से बहुत ही भरोसे के साथ कहा जा  सकता है कि  संसद का मानसून सत्र विधायी कार्य के लिहाज़ से तो शायद बेकार साबित हुआ लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह निश्चित रूप से उफान लाएगा. इस बात की संभावना बहुत बढ़ गयी  है कि उत्तर प्रदेश से आने वाला कोई नेता देश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाला है . यह काम चौ.चरण सिंह और इंदिरा गांधी के बाद उत्तर प्रदेश के किसी नेता ने नहीं किया . राजीव   गांधी को इस श्रेणी में नहीं रखा जाएगा क्योंकि उन्होंने अपनी माँ की मौत से पैदा हुई सहानुभूति के बाद सत्ता पायी थी . मुलायम सिंह यादव की मौजूदा राजनीति उन्हें देश भर  में ओ बी सी और सवर्ण जातियों का नेता बनाने की क्षमता रखती है . हालांकि यह देखना भी दिलचस्प होगा कि  उत्तर प्रदेश का यह नेता साथ छोड़कर जाने वाले अपने विरोधियों से साथ किस तरह से व्यवहार करता है . अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि  बेनी प्रसाद वर्मा की तरह उन्होंने राजनीतिक विरोधियों को हमेशा शून्य तक पंहुचाया है . इस बार भी लगभग पक्का है कि नए राजनीतिक व्याकरण की रचना कर रहे मुलायम सिंह यादव के नए साथियों के आने के बाद उनका साथ छोड़ने वालों की खासी संख्या  होगी .  देखना यह है कि राज्य में सत्ता के नए समीकरण क्या रूप लेते हैं . 

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