शेष नारायण सिंह
कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी, ज़रुरत से ज्यादा बोल गए हैं . अफवाहों को सूचना मानकर उन्होंने एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती की है . ग्रेटर नोयडा के एक गाँव में पुलिस अत्याचार के बाद ७४ लोगों के मारे जाने की बात करके उन्होंने न केवल अपने अज्ञान का प्रदर्शन किया है ,बल्कि ग्रामीण भारत की अपनी समझ को बहुत ही बचकाने स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है.यह सच है कि उन्हें ग्रामीण लोगों की सामाजिक संरचना की समझ नहीं है . उनको बताने वाले बहुत सारे लोग हैं लेकिन उनको बताने वालों की समझ भी अब शक़ के घेरे में है. ७४ लोगों के मारे जाने वाली उनकी बात को खैर कोई नहीं मानेगा. सरकारी तौर पर उसका खंडन भी कर दिया गया है . गाँव के लोग भी उनकी इस बात का मजाक उड़ा रहे हैं. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जब भट्टा पारसौल और उसके आस पास के गाँवों के सारे लोग अपने घरों में मौजूद हैं तो क्या मारने के लिए ७४ लोगों को पुलिस वाले कहीं और से लाये थे. उपलों के बीच लोगों जला दिए जाने का उनका दावा हास्यास्पद भी नहीं है . बिलकुल तरस खाने लायक है .लेकिन इससे भी घटिया काम राहुल गांधी ने किया है. बिना सच को जाने समझें उन्होंने महिलाओं और लड़कियों के बलात्कार की बात कर दी. जबकि गाँव से जो जानकारी मिल रही है ,उसके हिसाब से कहीं कोई रेप नहीं हुआ . अगर राहुल गांधी को ग्रामीण सामाजिक संरचना की मामूली जानकारी भी होती तो वे मुंह उठा कर किसी गाँव की महिलाओं के रेप की बात को इतनी गैरजिम्मेदारी से न कहते . शायद उन्हें मालूम नहीं कि उनकी इस बात से उस इलाके के लोगों को कितनी तकलीफ हुई है . रेप के साथ जिस तरह की नकारात्मक बातें जुडी हैं , उसके चलते रेप की बात को लोग खुले आम नहीं करते. लेकिन राहुल गांधी ने रेप की बेबुनियाद बात को प्रचारित करके महिलाओं को अपमान का विषय बना दिया है. होना यह चाहिये था कि अगर उन्हें उन गावों में किसी रेप की बात का पता चला था तो उसकी सच्चाई को समझने की कोशिश करते और फिर इतने नाजुक मसले पर कोई टिप्पणी करते. लेकिन अपने वोटों को पक्का करने के चक्कर में राहुल गाँधी इतनी जल्दी में हैं कि औरतों की आबरू जैसे विषय को भी बहुत ही छिछोरपन के साथ उठा रहे हैं . उन्हें भट्टा पारसौल की महिलाओं के बारे में हल्की टिप्पणी करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए
Wednesday, May 18, 2011
राजनीति की भजनलाली परंपरा में भाजपा ने कांग्रेस को पीछे छोड़ा
शेष नारायण सिंह
कर्नाटक में आजकल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है उसने १९८० के भजन लाल की याद दिला दी. चरण सिंह सरकार की गिरने के बाद जब १९८० के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो भजन लाल हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे. राज कर रहे थे ,मौज कर रहे थे , रिश्वत की गिज़ा काट रहे थे . लेकिन चुनावों के नतीजे आये तो जनता पार्टी ज़मींदोज़ हो चुकी थी . उसके कुछ ही दिनों बाद कुछ विधान सभाओं के चुनाव होने थे .हरियाणा का भी नंबर आने वाला था लेकिन भजन लाल पूरी सरकार के साथ दिल्ली पंहुचे और इंदिरा गाँधी के चरणों में लेट गए. हाथ जोड़कर प्रार्थना की उनको कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाए.इंदिरा जी ने उन्हें अभय दान दे दिया . बस उसी वक़्त से उनकी सरकार हरियाणा की कांग्रेस सरकार बन गयी. अगर उस दौर में हरियाणा में भी विधान सभा चुनाव होते तो बिकुल तय था कि जनता पार्टी हार जाती और भजन लाल इतिहास के गर्त में पता नहीं कहाँ गायब हो जाते लेकिन उनकी किस्मत में राज करना लिखा था सो उन्होंने राजनीति की भजन लाली परम्परा की बुनियाद डाली . बाद में उन्होंने रिश्वतखोरी के तरह तरह के रिकार्ड बनाए , भ्रष्टाचार को एक ललित कला के रूप में विकसित किया . पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोख्त में अहम भूमिका निभाई और भारतीय राजनीतिक आचरण को कलंकित किया . कांग्रेस में आजकल भ्रष्टाचार के बहुत सारे कारनामें अंजाम दिए जा रहे हैं लेकिन बे ईमानी में जो बुलंदियां भजन लाल ने हासिल की थीं वह अभी अजेय हैं .भजन लाल की किताब से ही कुछ पन्ने लेकर बाद के वक़्त में अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश में २००३ में मुलायम सिंह यादव को मुख्य मंत्री बनवाने में सफलता पायी थी . परमाणु विवाद के दौर में भी जो खेल किया गया था वह भी राजनीति के भजन लाल सम्प्रदाय की साधना से ही संभव हुआ था . आजकल कांग्रेस के जुगाड़बाज़ नेताओं में वह टैलेंट नहीं है जो भजन लाल के पास था . शहर दिल्ली के मोहल्ला दरियागंज निवासी हंस राज भरद्वाज में उस प्रतिभा के कुछ् लक्षण हैं .कांग्रेस ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया . उन्होंने वहां अपनी कला को निखारने की कोशिश की और कुछ चालें भी चलीं लेकिन वहां उनकी टक्कर राजनीति के भजनलाली परंपरा के एक बहुत बड़े आचार्य से हो गयी . वहां बीजेपी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा जी विराजते हैं . उनके आगे भजन लाल जैसे लोग फर्शी सलाम बजाने को मजबूर कर दिए जाते हैं . बेचारे हंसराज भारद्वाज तो भजनलाली संस्कृति के एक मामूली साधक हैं . येदुरप्पा जी ने हंस राज जी को बार बार पटखनी दी. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने अभी तक यह समझ नहीं पा रहे है कि येदुरप्पा जी भजनलाल पंथ के बहुत बाहरी ज्ञाता और महारथी हैं . भजनलाली परम्परा के संस्थापक, भजन लाल की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे अपने आला कमान को चुनौती दें , दर असल वे इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिंह राव के आशीर्वाद से ही भ्रष्टाचार की बुलंदियां तय करते थे लेकिन बी एस येदुरप्पा ने अपने आलाकमान को डांट कर रखा हुआ है .जब बेल्लारी बंधुओं के खनिज घोटाले वाले मामले में बीजेपी सरकार की खूब कच्ची हुई तो बीजेपी अध्यक्ष और दिल्ली के अन्य बड़े नेताओं ने उनको दिल्ली तलब किया और मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया कि उनको हटा दिया जाएगा . इस आशय के संकेत भी दे दिए गए लेकिन येदुरप्पा ने दिल्ली वालों को साफ़ बता दिया कि वे गद्दी नहीं छोड़ेगें , बीजेपी चाहे तो उनको छोड़ सकती है . उसके बाद बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता का बयान आया कि हम येदुरप्पा को नहीं हटाएगें क्योंकि उस हालत में दक्षिण भारत से उनकी पार्टी का सफाया हो जाएगा.उन दिनों दिल्ली के नेताओं के बहुत बुरी हालत थी.उस घटना का नतीजा यह हुआ कि इस बार जब कर्नाटक के राज्यपाल ने इंदिरा युग की राजनीतिक चालबाजी की शुरुआत की तो बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं ने येदुरप्पा के साथ होने के दावे पेश करना शुरू कर दिया और एक बार फिर यह साबित हो गया कि बीजेपी भी भ्रष्टाचार की समर्थक पार्टी है . जिन विधायकों के बर्खास्त होने के बाद तिकड़म से येदुरप्पा ने विधान सभा में शक्ति परीक्षण में जीत दर्ज किया था , उन्हीं विधयाकों की कृपा से आज बी एस येदुरप्पा ने दोबारा सत्ता हासिल कर ली और राजनीतिक आचरण में शुचिता की बात करने वाली वाली बीजेपी के सभी नेता उनके साथ खड़े हैं . यह बुलंदी बेचारे भजन लाल को कभी नहीं मिली थी .दिल्ली के उनके नेताओं ने जब चाहा उनका हटा दिया और कुछ दिन बाद वे दुबारा जुगाड़ लगा कर सत्ता के केंद्र में पंहुच जाते थे . लेकिन आला नेता की ताबेदारी कभी नहीं छोडी . येदुरप्पा का मामला बिलकुल अलग है . उनकी वजह से बीजेपी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की कोशिश मुंह के बल गिर पड़ी है . विधान सभा चुनावों के नतीजों से साबित हो गया है कि जनता ने बीजेपी की मुहिम के बावजूद कांग्रेस को उतना भ्रष्ट नहीं माना जितना बीजेपी चाहती थी. जनता साफ़ देख रही है कांग्रेस तो भ्रष्ट लोगों को जेल भेज रही है , कार्रवाई कर रही है लेकिन बीजेपी अपने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बचा भी रही है और पार्टी के बड़े नेता उसी मुख्यमंत्री की ताल पर ताता थैया कर रहे हैं .ज़ाहिर है राजनीतिक अधोपतन के मुकाबले में देश की दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे के मुक़ाबिल खडी हैं और राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है .
कर्नाटक में आजकल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है उसने १९८० के भजन लाल की याद दिला दी. चरण सिंह सरकार की गिरने के बाद जब १९८० के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो भजन लाल हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे. राज कर रहे थे ,मौज कर रहे थे , रिश्वत की गिज़ा काट रहे थे . लेकिन चुनावों के नतीजे आये तो जनता पार्टी ज़मींदोज़ हो चुकी थी . उसके कुछ ही दिनों बाद कुछ विधान सभाओं के चुनाव होने थे .हरियाणा का भी नंबर आने वाला था लेकिन भजन लाल पूरी सरकार के साथ दिल्ली पंहुचे और इंदिरा गाँधी के चरणों में लेट गए. हाथ जोड़कर प्रार्थना की उनको कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाए.इंदिरा जी ने उन्हें अभय दान दे दिया . बस उसी वक़्त से उनकी सरकार हरियाणा की कांग्रेस सरकार बन गयी. अगर उस दौर में हरियाणा में भी विधान सभा चुनाव होते तो बिकुल तय था कि जनता पार्टी हार जाती और भजन लाल इतिहास के गर्त में पता नहीं कहाँ गायब हो जाते लेकिन उनकी किस्मत में राज करना लिखा था सो उन्होंने राजनीति की भजन लाली परम्परा की बुनियाद डाली . बाद में उन्होंने रिश्वतखोरी के तरह तरह के रिकार्ड बनाए , भ्रष्टाचार को एक ललित कला के रूप में विकसित किया . पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोख्त में अहम भूमिका निभाई और भारतीय राजनीतिक आचरण को कलंकित किया . कांग्रेस में आजकल भ्रष्टाचार के बहुत सारे कारनामें अंजाम दिए जा रहे हैं लेकिन बे ईमानी में जो बुलंदियां भजन लाल ने हासिल की थीं वह अभी अजेय हैं .भजन लाल की किताब से ही कुछ पन्ने लेकर बाद के वक़्त में अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश में २००३ में मुलायम सिंह यादव को मुख्य मंत्री बनवाने में सफलता पायी थी . परमाणु विवाद के दौर में भी जो खेल किया गया था वह भी राजनीति के भजन लाल सम्प्रदाय की साधना से ही संभव हुआ था . आजकल कांग्रेस के जुगाड़बाज़ नेताओं में वह टैलेंट नहीं है जो भजन लाल के पास था . शहर दिल्ली के मोहल्ला दरियागंज निवासी हंस राज भरद्वाज में उस प्रतिभा के कुछ् लक्षण हैं .कांग्रेस ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया . उन्होंने वहां अपनी कला को निखारने की कोशिश की और कुछ चालें भी चलीं लेकिन वहां उनकी टक्कर राजनीति के भजनलाली परंपरा के एक बहुत बड़े आचार्य से हो गयी . वहां बीजेपी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा जी विराजते हैं . उनके आगे भजन लाल जैसे लोग फर्शी सलाम बजाने को मजबूर कर दिए जाते हैं . बेचारे हंसराज भारद्वाज तो भजनलाली संस्कृति के एक मामूली साधक हैं . येदुरप्पा जी ने हंस राज जी को बार बार पटखनी दी. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने अभी तक यह समझ नहीं पा रहे है कि येदुरप्पा जी भजनलाल पंथ के बहुत बाहरी ज्ञाता और महारथी हैं . भजनलाली परम्परा के संस्थापक, भजन लाल की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे अपने आला कमान को चुनौती दें , दर असल वे इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिंह राव के आशीर्वाद से ही भ्रष्टाचार की बुलंदियां तय करते थे लेकिन बी एस येदुरप्पा ने अपने आलाकमान को डांट कर रखा हुआ है .जब बेल्लारी बंधुओं के खनिज घोटाले वाले मामले में बीजेपी सरकार की खूब कच्ची हुई तो बीजेपी अध्यक्ष और दिल्ली के अन्य बड़े नेताओं ने उनको दिल्ली तलब किया और मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया कि उनको हटा दिया जाएगा . इस आशय के संकेत भी दे दिए गए लेकिन येदुरप्पा ने दिल्ली वालों को साफ़ बता दिया कि वे गद्दी नहीं छोड़ेगें , बीजेपी चाहे तो उनको छोड़ सकती है . उसके बाद बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता का बयान आया कि हम येदुरप्पा को नहीं हटाएगें क्योंकि उस हालत में दक्षिण भारत से उनकी पार्टी का सफाया हो जाएगा.उन दिनों दिल्ली के नेताओं के बहुत बुरी हालत थी.उस घटना का नतीजा यह हुआ कि इस बार जब कर्नाटक के राज्यपाल ने इंदिरा युग की राजनीतिक चालबाजी की शुरुआत की तो बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं ने येदुरप्पा के साथ होने के दावे पेश करना शुरू कर दिया और एक बार फिर यह साबित हो गया कि बीजेपी भी भ्रष्टाचार की समर्थक पार्टी है . जिन विधायकों के बर्खास्त होने के बाद तिकड़म से येदुरप्पा ने विधान सभा में शक्ति परीक्षण में जीत दर्ज किया था , उन्हीं विधयाकों की कृपा से आज बी एस येदुरप्पा ने दोबारा सत्ता हासिल कर ली और राजनीतिक आचरण में शुचिता की बात करने वाली वाली बीजेपी के सभी नेता उनके साथ खड़े हैं . यह बुलंदी बेचारे भजन लाल को कभी नहीं मिली थी .दिल्ली के उनके नेताओं ने जब चाहा उनका हटा दिया और कुछ दिन बाद वे दुबारा जुगाड़ लगा कर सत्ता के केंद्र में पंहुच जाते थे . लेकिन आला नेता की ताबेदारी कभी नहीं छोडी . येदुरप्पा का मामला बिलकुल अलग है . उनकी वजह से बीजेपी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की कोशिश मुंह के बल गिर पड़ी है . विधान सभा चुनावों के नतीजों से साबित हो गया है कि जनता ने बीजेपी की मुहिम के बावजूद कांग्रेस को उतना भ्रष्ट नहीं माना जितना बीजेपी चाहती थी. जनता साफ़ देख रही है कांग्रेस तो भ्रष्ट लोगों को जेल भेज रही है , कार्रवाई कर रही है लेकिन बीजेपी अपने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बचा भी रही है और पार्टी के बड़े नेता उसी मुख्यमंत्री की ताल पर ताता थैया कर रहे हैं .ज़ाहिर है राजनीतिक अधोपतन के मुकाबले में देश की दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे के मुक़ाबिल खडी हैं और राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है .
Friday, May 13, 2011
शिक्षा के बिना मुसलमानों का पिछड़ापन ख़त्म नहीं होगा
शेष नारायण सिंह
ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
सुप्रीम कोर्ट के इंसाफ़ के बाद मुल्क मज़बूत होगा
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
Thursday, May 5, 2011
उत्तर प्रदेश की आख़िरी लड़ाई बीजेपी और मायावती के बीच होगी
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .
जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .
जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .
Tuesday, May 3, 2011
जीता कोई भी हो हारा पाकिस्तान ही है
शेष नारायण सिंह
करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .
करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .
Subscribe to:
Posts (Atom)