शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
बिलकुल सही कहा सर आपने-
ReplyDeleteकि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके देश की एकता के लिए पहला क़दम उठा लिया है
चूकि आरएसएस वाले तो मद के अंधे हैं और मद के अन्धो को कभी अपने से श्रेष्ठ नहीं दीखता
आजकल ऐसा लगने लगा है मानो देशहित का कोई भी काम करने के लिए संघी विचारधारा का होना ज़रूरी है या फिर यूं कहिये की जो आरएसएस और उसके कार्यकर्त्ता करते हैं वही देशहित में होता है