Saturday, February 26, 2011

अलविदा साथी अनिल , बहुत जल्दी क्यों चले गए ?

जाने-माने लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा का निधन हो गया. उन्होंने 25 फरवरी को दिन में 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में अंतिम सांस ली. 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे उसी दौरान ट्रेन में ब्रेन स्ट्रोक हुआ. उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया. तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार कल उन्होंने अन्तिम सांस ली. उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा.

अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ. उन्होंने पटना विश्वविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी की परीक्षा पास की. विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पीएचडी बीच में ही छोड़ दिया. उन्होंने बाद में कई तरह के काम किये. प्रूफ रीडिंग, शिक्षण, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये. 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी. आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे. 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया. अमृत प्रभात, लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये.

दैनिक जागरण, रीवां के भी वे स्थानीय संपादक रहे. लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया. अनिल सिन्हा एक जुझारू और प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं. अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं. वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है. उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है.

उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई. जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है. उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है. वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे. वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे. वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे. वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा माले से भी जुड़े थे. इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी. इस राजनीतिक जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था.

कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया. ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया. पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई. पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया था. उनकी सैकड़ों रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है. उनका रचना संसार बहुत बड़ा है, उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया. मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित नागार्जुन व केदार जन्मशती आयोजन के वे मुख्यकर्ता धर्ता थे.

उनके निधन पर शोक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी राय, अशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंकर राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं. अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे. इनकी आलोचना में सर्जनात्मकता और शालीनता दिखती है. ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृर्जनात्मकता हो. इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है.

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