शेष नारायण सिंह
बहुत साल बाद कोलकाता जाने का मौक़ा लगा .तीन दिन की इस कोलकाता यात्रा ने कई भ्रम साफ़ कर दिया. ज्यादा लोगों से न मिलने का फायदा भी होता है . बातें बहुत साफ़ नज़र आने लगती हैं . १९७८ में आपरेशन बर्गा पर एक परचा लिखने के बाद अपने आपको ग्रामीण पश्चिम बंगाल का ज्ञाता मानने की बेवकूफी मैं पहले भी कर चुका हू. कई बार अपने आप से यह कह चुका हूँ कि आगे से सर्वज्ञ होने की शेखी नहीं पालेगें लेकिन फिर भी मुगालता ऐसी बीमारी है जिसका जड़तोड़ इलाज़ होता ही नहीं . एक बार दिमाग दुरुस्त होता है ,फिर दुबारा वही हाल तारी हो जाता है. इसलिए मेरे अन्दर पिछले कुछ महीनों से फिर सर्वज्ञता की बीमारी के लक्षण दिखने लगे थे . १४ फरवरी को कोलकाता पंहुचा ,सब कुछ अच्छा लग रहा था . जनता के राज के ३३ साल बहुत अच्छे लग रहे थे. लेकिन जब वहां कुछ अपने पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो सन्न रह गया . जनवादी जनादेश के बाद सत्ता में आयी कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति की चिन्दियाँ हवा में नज़र आने लगीं. नंदीग्राम की कथा का ज़िक्र हुआ तो अपन दिल्ली टाइप पत्रकार की समझ को लेकर पिल पड़े और ममता बनर्जी के खिलाफ ज़हर उगलने का काम शुरू कर दिया .और कहा कि इस छात्र परिषद् टाइप महिला ने फिर उन्हीं गुंडों का राज कायम करने का मसौदा बना लिया है जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय के ज़माने में बंगाल को क़त्लगाह बना दिया था . लेकिन अपने दोस्त ने रोक दिया और समझाया कि ऐसा नहीं है . नंदीग्राम में जब तूफ़ान शुरू हुआ तो वहां एक भी आदमी तृणमूल कांग्रेस का सदस्य नहीं था . जो लोग वहां वामपंथी सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए थे वे सभी सी पी एम के मेम्बर थे. और वे वहां के सी पी एम के मुकामी नेताओं के खिलाफ उठ खड़े हुए थे . कोलकता की राइटर्स बिल्डिंग में बैठे बाबू लोगों को जनता का उठ खड़ा होना नागवार गुज़रा और अपनी पार्टी के मुकामी ठगों को बचाने के लिए सरकारी पुलिस आदि का इस्तेमाल होने लगा . सच्ची बात यह है कि वहां सी पी एम के दबदबे के वक़्त में तो वाम मोर्चे के अलावा और किसी पार्टी का कोई बंदा घुस ही नहीं सकता था. जब नंदीग्राम के लोग सडकों पर आ गए तो उनकी नाराजगी का लाभ उठाने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने प्रयास शुरू किया और अब वहां सी पी एम के लोग भागे भागे फिर रहे हैं . इस सूचना का मेरे ऊपर पूरा असर पड़ा . वामपंथी रुझान की वजह से चीज़ों को सही परिदृश्य में समझने की आदत के तहत और भी सवाल दिमाग में उठने लगे. सी पी एम के पुराने सहयोगी और बंगला के महान साहित्यकार सुभाष मुखोपाध्याय का भी ज़िक्र हुआ जिनका ममता को सही कहना बहुत ही अजीब माना गया था लेकिन फिर परत दर परत बातें साफ़ होने लगीं. और समझ में आ गया कि अब वहां का भद्रलोक कम्युनिस्ट पार्टियों के रास्ते ज़मींदारी प्रथा को कायम करना चाहता है . पश्चिम बंगाल का आम आदमी ज़मींदारी स्थापित करने की इसी वामपंथी कोशिश के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है . ममता बनर्जी का राजनीतिक उदय इसी नेगेटिव राजनीति का नतीजा है . इसमें दो राय नहीं है कि उनकी पार्टी में भी जो लोग शामिल हैं वे उसी तरह की राजनीतिक फसल काटना चाह रहे हैं जो पिछले दस साल से कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग काट रहे हैं . आशंका यह भी है कि वे मौजूदा राजनीतिक गुंडों से ज्यादा खतरनाक होंगें लेकिन जनता को तो फिलहाल मौजूदा बदमाशों की राजनीति को ख़त्म करना है .
कम्युनिस्ट पार्टी के आतंक का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि कोई भी सरकारी अफसर अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर सकता . महानगरों में तो कम लेकिन गाँवों में इस आतंक का बाकायदा नंगा नाच हो रहा है . वहां तैनात बी डी ओ को लोकल पार्टी यूनिट के सेक्रेटरी से पूछे बिना कोई काम करने की अनुमति नहीं है . यहाँ तक कि उसको सरकारी काम के लिए जो जीप मिलती है उसकी चाभी भी पार्टी के अधिकारी के पास होती है .यानी पार्टी के हुकुम के बिना वह अपने रोज़मर्रा के काम भी नहीं कर सकता .सरकारी नौकरियों के मामले में तो चौतरफा आतंक का ही राज है . एक दिलचस्प वाक़या एक बहुत करीबी दोस्त से सुनने को मिला. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन अपनी मातृभूमि से बहुत मुहब्बत करते हैं .इंसानी जीवन से वह सब कुछ पा चुके हैं जिसके बारे में लोग सपने देखते हैं . एक बार उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री से इच्छा ज़ाहिर की वे जादवपुर विश्वविद्यालय से किसी रूप में जुड़ना चाहते हैं . मुख्यमंत्री ने उत्साहित होकर सुझाया कि उन्हें वाइस चांसलर ही बनना चाहिए .इस से जादवपुर और वाम मोर्च सरकार का नाम होगा लेकिन पार्टी दफतर में बैठे मुंशी टाइप लोगों ने कहा कि मुख्य मंत्री को इस तरह की नियुक्ति करने का पावर नहीं है. पार्टी की एजुकेशन ब्रांच जांच करेगी. उसके बाद सरकार को फैसला लेने दिया जाएगा .खैर एजुकेशन ब्रांच के लोग बैठे और सोच विचार के बाद अमर्त्य सेन के नाम को खारिज कर दिया . जब किसी ने पूछा कि ऐसा क्यों किया जा रहा है तो जवाब मिला कि अमर्त्य सेन पार्टी के मेंबर नहीं है इसलिए उन्हें इतने महत्वपूर्ण पद पर नहीं तैनात किया जा सकता .यह है पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की दखलंदाजी का हाल. इस खबर के बाद समझ में आने लगा है कि ज्योति बासु को किस दम्भी मानसिकता ने प्रधान मंत्री पद तक पंहुचने से रोका था. अब सभी मानते हैं कि अगर ज्योति बाबू प्रधान मंत्री बन गए होते तो इतनी दुर्दशा नहीं होती और कम्युनिस्ट आन्दोलन का राजनीतिक फायदा हुआ होता लेकिन उस वक़्त तो दंभ अपने मानवीकृत रूप में नई दिल्ली के एकेजी भवन और कोलकाता की अलीमुद्दीन स्ट्रीट में तांडव कर रहा था.
पश्चिम बंगाल में आज कोई भी सरकारी नौकरी किसी ऐसे आदमी को नहीं मिल सकती जो वामपंथी मोर्चे की किसी पार्टी का मेंबर नहीं है . सारे टेस्ट सारे इम्तिहान पास कर लेने के बाद इंटरव्यू के वक़्त बोर्ड में पार्टी की तरफ से कोई लिस्ट आ जाती है जिसमें लिखे नामों पर बोर्ड को मुहर लगानी होती है . उसके बाहर के किसी आदमी को नौकरी नहीं दी जा सकती. पश्चिम बंगाल में लोगों के बीच वाम मोर्चे से नाराजगी है उसके पीछे इसी मानसिकता का योगदान है . सी पी एम के शुभ चिंतकों का मानना भी है कि पश्चिम बंगाल में आज सर्वहारा की पार्टी का कहीं नामो निशान नहीं है. १९७० के दशक के कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की तीसरी पीढी के लोग उसी तरह से लूट पाट कर रहे हैं जैसे ६० और सत्तर के दशक में कांग्रेसियों ने किया था . उनके जवाब में नक्सलवादी आन्दोलन शुरू हुआ था और इनकी जवाब में माओवादी उठ खड़े हुए हैं . आने वाला कल दिलचस्प होगा क्योंकि छात्र परिषद् की बदमाशी की राजनीति सीख चुके लोगों की सत्ता आने के बाद उनके लोग भी उसी तरह की लूट पाट मचाएगें लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि उसके बाद शायद जो सिंथेसिस बने उस से पश्चिम बंगाल में सही मायनों में जनवादी सरकार बन सकेगी ,
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