Sunday, September 12, 2010

किसी की राजनीति चमकाने के लिए उमर अब्दुल्ला क्यों लेते हैं फैसले

शेष नारायण सिंह

जम्मू कश्मीर में कमज़ोर सरकार का खामियाजा वहाँ के लोगों को भुगतना पद रहा है .इतनी मुश्किल राजनीतिक हालात हैं और सरकार को भनक तक नहीं है कि हो क्या रहा है . ईद जैसे पवित्र त्यौहार के दिन सरकार की गफलत के चलते खून खराबा हुआ और अब सरकार की तरफ से बयान आया है कि हुर्रियत के नेता, मीरवैज़ उमर फारूक ने सरकार के साथ दगाबाजी की . सरकार का आरोप है कि मीरवैज़ के ख़ास सहायक शहीद-उल-इस्लाम ने मुख्य मंत्री के दफ्तर में फ़रियाद की थी कि उन्हें लाल चौक तक एक जुलूस ले जाने दिया जाए वरना उनकी राजनीतिक हैसियत बहुत सिकुड़ जायेगी . उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए ज़रूरी है कि उन्हें यह जुलूस निकालने दिया जाए . यह शहीद-उल-इस्लाम पुराना आतंकवादी है और हिजबुल्ला नाम के आतंकवादी संगठन का सरगना रह चुका अहै . समझ में नहीं आता कि इस तरह के लोगों पर भरोसा करके जम्मू कश्मीर में मौजूदा मुख्यमंत्री क्या हासिल करना चाहते हैं . और जो दूसरी बात समझ में नहीं आती वह यह कि हुर्रियत कान्फरेन्स के अध्यक्ष , मीरवैज़ उमर फारूक के राजनीतिक अस्तित्व के लिए मुख्य मंत्री ने क्यों इस तरह का गैरजिम्मेदार फैसला लिया .बहर हाल कश्मीर में नेताओं की वजह से ईद जैसा पवित्र त्यौहार खून के रंग में रंग गया. . तुर्रा यह कि पाकिस्तान के पैसे पर पल रहे हुर्रियत के आन्दोलन को राजनीतिक स्पेस मिल गया. जो कि भारत के हित में कभी नहीं हो सकता. लाल चौक पर अपने भाषण में हुर्रियत के नेताओं ने जो आग उगली वह हर तरफ से भारत और कश्मीरियों के विरोध में है .सबको मालूम है कि कश्मीर में सेना का बहुत ही ज्यादा महत्व है और उसे अपना काम करने के लिए विशेष अधिकार मिले हुए हैं . इन अधिकारों को पाकर सेना के अधिकारी खुश नहीं हैं और न ही सिविल सोसाइटी इसे सही मानती है लेकिन कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के आदेश पर काम कर रहे नेताओं ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि अलग तरह के तरीकों से ही उन्हें काबू किया जा सकता है . मुख्य मंत्री समेत कश्मीर के ज़्यादातर नेता सेना के ख़ास अधिकारों में कटौती की मांग करते रहे हैं और अब वह होने भी वाला है . इस के बाद की राजनीति का खाका खींचते हुए उमर फारूक ने कहा कि सेना के अधिकारों में कमी करने से ही काम नहीं चलेगा. कश्मीर की समस्या का हल भी निकालना पड़ेगा. कश्मीर समस्या के हल की उनकी परिभाषा यह है कि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर पर अपने अधिकार को खत्म कर दे और इन पाकिस्तान परस्तों को राज्य की जनता से खिलवाड़ करने का मौक़ा दे. ज़ाहिर है कि कोई भी सरकार इस तरह की बातों को स्वीकार नहीं कर सकती . मीरवैज़ उमर फारूक टाइप लोगों को बता दिया जाना चाहिए कि कश्मीर समस्या का हल यह है कि जम्मू-कश्मीर का वह इलाका जो वहां के महाराजा हरि सिंह के पास था और जिसे उसने भारत के गणराज्य में मिलाने के कागजों पर दस्तखत किया था ,उसे पूरी तरह से भारत के हवाले किया जाए . और पाकिस्तान की ओर से कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश पर लगाम लगाई जाए. ज़रुरत इस बात की भी है कि कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राजनीति को हावी किया जाए .इसके लिए सभी राजनीतिक जमातों को जनहित और राष्ट्रहित में साथ खड़े रहना चाहिए . लेकिन इस सारे मामले में महबूबा मुफ्ती की भूमिका संदिग्ध है . वे दोनों तरफ हाथ मार रही हैं. आजकल उनके बयान बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल कर रही हैं उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . महबूबा मुफ्ती की बातों से साफ़ लगता है कि वे केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करती नज़र आ रही है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें .यह बात कश्मीर के हित में नहीं है कि किसी भी नेता के राजनीतिक स्पेस को सुनिश्चित करने के लिए सरकार के फैसले लिए जाएँ . वैसे भी जम्मू कश्मीर के हालात असाधारण हैं और वहां राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है .ख़ास कर जब भूखों मर रहे पाकिस्तान के नेता अपने घर को दुरुस्त करने से ज़्यादा कश्मीर में गड़बड़ी फैलाने में रूचि लेते हों . और इधर गीलानी, मलिक या मीरवैज़ क्या कम थे जो महबूबा मुफ्ती भी उसी तरफ खिसकती दिख रही हैं . अगर फ़ौरन कुछ न किया गया तो आने वाली नस्लें मौजूदा लीडरशिप को माफ़ नहीं करेगीं.

2 comments:

  1. बाजपेई की सरकार ने वहां 15 सालों बाद चुनाव कराए थे. उसके पहले इसके लिए पहले वहां माहौल भी बनाया गया.50 प्रतिशत से ज्यादा चुनाव हुआ था. लेकिन अब कांग्रेस हमेशा की तरह दुर्बलता से काम ले रही है.आजादी के बाद भी उसने जब बंगाल में दंगा हो रहा था तो कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी थी परिणाम क्या हुआ किसी से छिपा नहीं.कुछ के हाथो देश का भला नही हो सकता है. देश पर आए संकटो पर तो गांधी परिवार तो कुछ बोलने को तैयार ही नही महंगाई नक्सल, कश्मीर जैसे मुद्दे इनके लिए कुछ है नही. अभी किसी राज्य में चुनाव हो तो रैली संबोधित करने चले जाएंगे.गैरकांग्रेसी सरकारों से हिसाब मांगेंगे और ये दिल्ली सरकार ने कॉमनवेल्थ पर कितना पैसा खाय़ा ये पूछना भूल जाते हैं.

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  2. शेख अब्दुल्ला के शासन में ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संदिग्ध परिस्थियों में मौत हुई थी. जिन्होने कश्मीर के अंदर जाने के लिए परमिट व्यवस्था का विरोध किया था और बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर में दाखिल हुए थे.उसी दिन उनको नजरबंद कर दिया गया. और रात को उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो गई.कांग्रेस ने उनके मौत की न्यायिक जांच की जरूरत ही नही समझी.दरअसल मौजूदा राजनीति में धर्म का भी खेल नजर आ रहा है. अमरनाथ यात्रियों पर पत्थर फेंकना, ईद के समय शांति का ऐलान होना और इन सबसे पहले कश्मीर से हिंदुओं को खदेड़ना और फिर सिखों को निशाने पर लेना. कुल मिलाकर राजनीति और धर्म का कॉकटेल कश्मीर में खूब देखने को मिल रहा है.

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