शेष नारायण सिंह
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
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