कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने जो राह निकाली उस पर अब पूरी कांग्रेस चल पड़ी है. लेकिन अपनी इस पथरीली राह के चलते राहुल गांधी अपने राजनीतिक विरोधियों के सामने मुसीबत भी बनते जा रहे हैं। जो लोग उन्हें बच्चा कहकर टालने के चक्कर में रहते थे, अब वे उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं। हालांकि समाज के आखिरी आदमी से मुलाकात की उनकी योजना कई वर्षों से चल रही है लेकिन पिछले हफ्ते दस दिन के उनके कारनामे समकालीन भारतीय राजनीति में संदर्भ बनने की हैसियत रखते हैं।
पिछले दिनों उनकी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की यात्रा और उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में एक दलित के घर जाकर रहना, उसके यहां भोजन करना और वहीं गांव में लगे इंडिया मार्क II हैंडपंप पर तौलिया पहन कर नहाना, भारतीय राजनीतिक नेताओं को उनका असली फर्ज याद दिलाने का काम करेगा।
उत्तर प्रदेश सरकार को एतराज हो सकता है कि राहुल गांधी ने अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं की या उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत वाले दलों को बुरा लग सकता है कि राहुल गांधी उन लोगों का विश्वास जीतने की कोशिश कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से उनकी पार्टी के वोटर हैं। जहां तक सुरक्षा का सवाल है तो वह सुरक्षा एजेंसियों का विषय है, उसपर उन्हें ही ध्यान देना चाहिए लेकिन राहुल की यात्राओं का जो राजनीतिक भावार्थ है, उसको समझना और उसे आम आदमी तक पहुंचाना हमारा कर्तव्य है और हमारे पेशे की बुनियादी जरूरत भी। राहुल गांधी गांव के सबसे गरीब आदमी के दुख दर्द को समझने की कोशिश कर रहे हैं। ज़ाहिर है जिस तरह से उनका लालन पालन हुआ है, उसमें उन्हें गरीब आदमी की तकलीफों को समझने के अवसर बहुत कम मिले हैं। आज जब गरीबों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से नरेगा जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसमें बहुत सारा सरकारी धन लग रहा है तो राजनेताओं का फर्ज है कि वे नजर रखें कि जो योजना बनी है, वह सही तरीके से लागू भी हो रही है। राहुल गांधी वही काम कर रहे हैं जो उन्हें एक राजनीतिक नेता के रूप में करना चाहिए लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता उस काम की खिल्ली उड़ा रहे हैं, जो उन्हें भी करना चाहिए।
जरूरत इस बात की है समाज के जागरूक लोग, मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता नेताओं को यह बताएं कि आपका कर्तव्य क्या है। किसी भी राजनेता को पूरे देश में कहीं भी आम आदमी से मिलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उस पर सवालिया निशान लगाने वालों की मंशा की विवेचना की जानी चाहिए। कुछ भी करना पड़े ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है कि राजनीति में सक्रिय लोगों को तब तक सामाजिक मान्यता न मिले जब तक कि वे आम आदमी के बीच में जाकर उसके दुख दर्द को समझने के लिए सक्रिय प्रयास न करें। सच्चाई यह है कि अगर राजनेता ग्रामीण भारत की तकलीफों को समझने के लिए उनके बीच में समय बिताएगा तो भ्रष्टाचार के दानव से कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी जा सकती है। अगर ईमानदार राजनेता के ग्रामीण स्तर पर किसी भी वक्त पहुंच जाने का माहौल बन गया तो बहुत छोटे स्तर के भ्रष्टाचार पर बहुत आसानी से लगाम लगाई जा सकेगी।
अगर इस बिरादरी को कमजोर करने में सफलता मिल गई तो टॉप पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को बहुत बड़ी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि मीडिया से जुड़े लोग चौकन्ना रहें और ज्यों ही कोई बड़ा नेता किसी भी राजनीतिक कार्यकर्ता के ग्रामीण इलाकों में जाने या वहां काम करने का मखौल उड़ाए, उससे तुरंत सवाल पूछ लिया जाय कि आप क्यों नहीं जाते? अगर नेताओं के बीच गरीब आदमी की सेवा करने और उसका दुख दर्द बांटने की होड़ लग गई तो देश की आज़ादी को सम्मान दिया जा सकेगा। यहां राहुल गांधी की प्रशस्ति करने का कोई मकसद नहीं है। बस एक बात बता देना ज़रूरी है कि जो लोग भी अच्छा काम करें उनकी तारीफ की जानी चाहिए। एक और बात राहुल गांधी के बारे में की जाती है कि वे बच्चे हैं, अभी उनको राजनीति सीखने की ज़रूरत है। यह बात भी बहुत ही गैर जिम्मेदार बयानों की श्रेणी में आयेगी। राहुल गांधी लगभग 40 साल के होने वाले हैं। महात्मा गांधी चालीस के भी नहीं हुए थे जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह नाम के अजेय राजनीतिक हथियार का अविष्कार कर दिया था। 1909 में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बीजक, क्वहिंद स्वराजं की जब रचना हुई तो महात्मा गांधी 40 साल के ही थे। दुनिया जानती है कि क्वहिंद स्वराजं का भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन में कितना योगदान है।
40 साल की उम्र में जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके थे। इसके पहले 32 साल की उम्र में ही नेहरू उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय नेता बन चुके थे। 1921 में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक सम्मेलन में उन्होंने स्वदेशी के पक्ष में जनमत तैयार कर लिया था और पूरे राज्य में उनका विश्वास किया जाता था। 1921 के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में फैजाबाद जिले के भीटी गांव में उन्हें एक सभा को संबोधित करना था। कलेक्टर ने दफा 144 लगाकर मीटिंग में दखल देने की कोशिश की। पता चला कि साढ़े चार मील दूर सुल्तानपुर जिला शुरू हो जाता है। जवाहर लाल ने अपने श्रोताओं समेत सुल्तानपुर की सीमा में पैदल ही प्रवेश किया और वहां जाकर भाषण किया। इन्हीं श्रोतओं में 11 साल का एक बालक भी था जिसका नाम राम मनोहर लोहिया था। बाद में डा. लोहिया देश के बहुत बड़े नेता बने। 24 साल की उम्र में उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी थी और उसके पहले ही भारत का प्रतिनिधि बनाए गए बीकानेर के महाराजा को लंदन में फटकार लगाई थी। जब लोहिया चालीस साल के थे तो जवाहर लाल नेहरू को चुनौती दे रहे थे। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के, बड़े नेता माधव सदाशिव गोलवलकर भी 34 साल की उम्र में संघ के सर्वोच्च पद पर असीन हो हो चुके थे। इसलिए राहुल गांधी को बच्चा कहने वालों को इतिहास से सबक लेना चाहिए और ग्रामीण भारत को मुख्यधारा में लाने की उनकी कोशिश की निंदा नहीं करनी चाहिए बल्कि उसे अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल करना चाहिए।
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