शेष नारायण सिंह
२१ साल पहले सफ़दर हाशमी को दिल्ली के पास एक औद्योगिक इलाके में मार डाला गया था .वे मार्क्सवादी कमुनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे . उनको मारने वाला एक मुकामी गुंडा था और किसी लोकल चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार था. अपनी मौत के समय सफ़दर एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . सफ़दर हाशमी ने अपनी मौत के कुछ साल पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप की तरकीब पर काम करना शुरू किया था. कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे बड़े लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे वे. सफ़दर की मौत के बाद दिल्ली और फिर पूरे देश में ग़म और गुस्से की एक लहर फूट पड़ी थी . जो काम सफ़दर करना चाहते थे और उन्हें कई साल लगते, वह एकाएक उनकी मौत के बाद स्वतः स्फूर्त तरीके से बहुत जल्दी हो गया. देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और सफ़दर की याद में बना संगठन, सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ,'सहमत' एक ऐसे मंच के रूप में विकसित हो गया जिसके झंडे के नीचे खड़े हो कर हिन्दू पुनरुत्थानवाद को संस्कृति का नाम दे कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आर एस एस के मातहत संगठनों को चुनौती देने के लिए सारे देश के प्रगतिशील संस्कृति कर्मी लामबंद हो गए.
राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संस्कृति के आधार पर जनता को लामबंद करने की पश्चिमी देशो में तो बहुत पहले से कोशिश होती रही है लेकिन अपने यहाँ ऐसी कोई परंपरा नहीं थी .१८५७ में अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ जो एकता दिखी थी , उस से ब्रितानी साम्राज्यवाद की चिंताएं बढ़ गयी थी, भारत का हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जिस तरह से खड़ा हो गया था , वह भारत में साम्राज्यवादी शासन के अंत की चेतावनी थी . हिन्दू और मुसलमान की एकता को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सारे तरीके अपनाए . बंगाल का बंटवारा उसमें से एक था. लेकिन जब अंग्रेजों के खिलाफ १९२० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हिन्दू और मुसलमान फिर लामबंद हो गए तो अंग्रेजों ने इस एकता को खत्म करने केलिए सक्रिय हस्तक्षेप की योजना पर काम करना शुरू कर दिया..१९२० के आन्दोलन के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन को भारत की अवाम की ताक़त से दहशत पैदा होने लगी थी .सने भारत में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के लिए सक्रिय कोशिश शुरू कर दी. अंग्रेजों के वफादारों की फौज में ताज़े ताज़े भर्ती हुए पूर्व क्रांतिकारी ,वी डी सावरकर ने १९२३-२४ में अपनी किताब "हिन्दुत्व-हू इज ए हिन्दू " लिखी जिसे आगे चल कर आम आदमी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भोथरा करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला था .इसी दौर में आर एस एस की स्थापना हुई जिसके सबसे मह्त्वपूर्ण उद्देश्यों में पिछले हज़ार साल की गुलामी से लड़ना बताया गया था . इसका मतलब यह हुआ कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद हो रहा था, उसका ध्यान बँटा कर उसे मुसलमानों की सत्ता के खिलाफ तैयार करना था . ज़ाहिर है इस से अँगरेज़ को बहुत फायदा होता क्योंकि उसके खिलाफ खिंची हुई भारत के अवाम की तलवारें अंग्रेजों से पहले आये मुस्लिम शासकों को तलाशने लगतीं और अँगरेज़ मौज से अपना राजकाज चलाता रहता . सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सावरकर की इसी किताब के गर्भ से निकलता हैं. आर एस एस और सावरकर की हिन्दू महासभा के ज़रिये, अवाम को बांटने की अँगरेज़ की इस कोशिश से महात्मा गाँधी अनभिज्ञ नहीं थे . शायद इसी लिए उन्होंने अपने आन्दोलन में सामाजिक परिवर्तन की बातें भी जोड़ दीं. लेकिन दंगों की राजनीति का इस्तेमाल करके हिन्दू और मुसलमानों की एकता को खंडित करने में ब्रितानी साम्राज्य को सफलता मिली . १९२७ में आर एस एस ने नागपुर में जो दंगा आयोजित किया, बाद में बाकी देश में भी उसी माडल को दोहराया गया . नतीजा यह हुआ कि भारत के आम आदमी की एकता को अंग्रेजों ने अपने मित्रों के सहयोग से खंडित कर दिया .
वामपंथी राजनीतिक सोच के लोगों ने संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए पहली बार १९३६ में कोशिश की . प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ और उसके पहले अध्यक्ष ,हिन्दी और उर्दू के बड़े लेखक , प्रेमचंद को बनाया गया.इसी दौर में रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और नाटक के क्षेत्र में वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप हुआ. इप्टा का गठन करके इन लोगों ने बहुत काम किया . लेकिन यह जागरूकता १९४७ में कमज़ोर पड़ गयी क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आज़ादी मिली थी उसकी वजह से आम आदमी की सोच प्रभावित हुई. वैसे भी राष्ट्रीय चेतना के निगहबान के रूप में कांग्रेस का उदय हो चुका था.. जनचेतना में एक मुकम्मल बदलाव आ चुका था लेकिन वामपंथी उसे समझ नहीं पाए और इसमें बिखराव हुआ.उधर गाँधी हत्या केस में फंस जाने की वजह से आर एस एस वाले भी ढीले पड़ गए थे . १९६४ में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना करके संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दू पुनरुत्थानवाद की राजनीति के स्पेस में काम करना शुरू कर दिया. लेकिन उनके पास कोई आइडियाज नहीं थे इसलिये खीच खांच कर काम चलता रहा . वह तो १९८४ के चुनावों में बी जे पी की हार के बाद आर एस एस ने भगवान् राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति को सांस्कृतिक आन्दोलन का मुखौटा पहना कर आगे करने का फैसला किया . भगवान् राम का हिन्दू समाज में बहुत सम्मान है और उसी के बल पर आर एस एस ने बी जे पी को राजनीति में सम्मानित मुकाम दिलाने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर हाशमी और उनकी पार्टी को संघ की इस डिजाइन का शायद अंदाज़ लग गया था. लगभग उसी दौर में सफ़दर ने कलाकारों को लामबंद करने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर की मौत ऐसे वक़्त पर हुई जब आर एस एस ने राम के नाम पर हिन्दू जनमानस के एक बड़े हिस्से को अपने चंगुल में कर रखा था . समझदारी की बात कोई सुनने को तैयार नहीं था लेकिन सहमत के गठन के बाद संस्कृति के स्पेस में संघ को बाकायदा चुनौती दी जाने लगी . सहमत की उस दौर की करता धर्ता , सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं . जिन्होंने अयोध्या के मोर्चे पर ही, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनती दी और उनकी बढ़त को रोकने में काफी हद तक सफलता पायी. शायद सहमत के नेतृत्व में हुए आन्दोलन का ही नतीजा है कि आज आर एस एस के सभी संगठन बी जे पी के मातहत संगठन बन चुके हैं और सरकार बनाने के चक्कर में हरदम रहते हैं . वहीं से ज़्यादातर संगठनों का खर्चा पानी चलता है ...
सहमत आज सांस्कृतिक हस्तक्षेप के एक ऐसे माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है कि दक्षिणपंथी राजनीतिक और संस्कृति संगठन उसकी परछाईं बचा कर भाग लेते हैं ..उसका कारण शायद यह है कि सहमत के गठन के पहले बहुमत के अधिनायकत्व की सोच की बिना पर चल रहे आर एस एस के धौंस पट्टी के अभियान से लोग ऊब चुके थे और जो भी सहमत ने कहा उसे दक्षिणपंथी दादागीरी से मुक्ति के रूप में अपनाने को उत्सुक थे .सहमत के वार्षिक कार्यक्रमों में ही , ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पक्षधर रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को अवामी प्रतिरोध का हाथियार बनाया गया और उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत की पहचान के रूप में पेश किया गया.. सहमत के गठन का यह फायदा हुआ कि कलाकारों को एक मंच मिला . बाद में जब गुजरात में मुसलमानों के सफाए के लिए नरेंद्र मोदी ने अभियान चलाया तो सबसे बड़ा प्रतिरोध उन्हें' सहमत' और शबनम हाशमी के नए संगठन 'अनहद' से ही मिला. आज भी इन्हीं दो संगठनों के बैनर के नीचे मोदी की ज्यादतियों को सिविल सोसाइटी की ओर से चुनौती दी जा रही है. आर एस एस में भी अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रास्ते सत्ता पाने की उम्मीद धूमिल हो गयी है . शायद इसीलिए अब वे नौकरशाही और पुलिस में घुस चुके अपने स्वयंसेवकों पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं ..जहां तक संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय प्रगतिशील जमातों की बात है , उनके लिए सहमत और अनहद के अलावा भी बहुत सारे मंच उपलब्ध हैं और हर जगह काम हो रहा है.. राजनीतिक एकजुटता के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप को एक माध्यम बनाने की परंपरा भी रही है और संभावना भी है लेकिन बुनियादी बात आइडियाज़ की है जो दक्षिण पंथी संगठनों के पास बहुत कम होती है जबकि जन आन्दोलन के लिए संस्कृति के औज़ार ही सबसे बड़े हथियार होते हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी जन आन्दोलनों की बात होगी आम आदमी के साथ खडी जमातों को ज़्यादा सम्मान मिलेगा .
Thursday, December 31, 2009
Sunday, December 27, 2009
झारखण्ड में बी जे पी ने भ्रष्टाचार के सामने किया समर्पण
शेष नारायण सिंह
झारखण्ड विधानसभा चुनाव ने बहुत सारे मुगालते दूर कर दिए.चुनाव के पहले नक्सलवादी राजनीति की ताक़त का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह गलत निकला . कुछ इलाकों के अलावा राज्य में नक्सलों का प्रभाव सीमित है.. और दूसरी बात यह कि नक्सलवादियों की किसी धमकी या बहिष्कार की फ़रियाद को जनता बकवास समझती है ... एक मुगालता यह था कि बी जे पी में नए अध्यक्ष की तैनाती के बाद शायद मूल्य आधारित राजनीति का युग शुरू होगा क्योंकि जितने प्रचार के बाद आर एस एस ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया था, लगता था कि कुछ दिन के लिए ही सही, पार्टी भ्रष्टाचार आदि की राजनीति से दूर हो जायेगी लेकिन वह भी नहीं हुआ. गद्दी संभालते ही नितिन गडकरी ने उस आदमी को झारखण्ड का मुख्यमंत्री बना दिया जिसके भ्रष्टाचार के बारे में बी जे पी का हर नेता भाषण देता रहता था . यानी यह तय हो गया है कि नितिन गडकरी ने भी बी जे पी के उन्ही भ्रष्ट अध्यक्षों के पदचिन्हों पर चलने का फैसला कर लिया है जिसके शिखर पुरुष पूर्व बी जे पी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण माने जाते हैं.... एक मुगालता और टूटा है . अब तक आमतौर पर माना जाता था कि सत्ता के लिये कांग्रेस कुछ भी कर सकती है लेकिन झारखण्ड में शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री न बनाकर और बी जे पी को सरकार में शामिल होने का मौक़ा देकर कांग्रेस ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस पार्टी दूरगामी लक्ष्य को हासिल करने के लिए छोटे छोटे स्वार्थों से उबरने की राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुकी है ..राहुल गाँधी को आम तौर पर कांग्रेस की नयी नीतियों के मुख्य पैरोकार के रूप में देखा जाता है . अगर झारखण्ड में हुए ताज़ा कांग्रेसी फैसले में भी उनकी ही राजनीतिक सूझबूझ काम आई है तो इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस में फिर से एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति बनने की योजना बन चुकी है और उस पर गंभीरता से काम हो रहा है.. और इस योजना की अगुवाई राहुल गाँधी ही कर रहे हैं...
झारखण्ड में अब बी जे पी के सहयोग से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सरकार बनना तय है .बी जे पी के नए अध्यक्ष ने घोषणा कर दी है कि वास्तव में वह बी जे पी की सरकार होगी क्योंकि उसे वे बी जे पी की नौवीं राज्य सरकार बता रहे हैं. यानी जो शिबू सोरेन कल तह संघी बिरादरी के लिए भ्रष्टाचार और अपराध का पर्याय था वह आज नितिन गडकरी का अपना बंदा बन चुका है .. जहां उन्होंने शिबू सोरेन को अपना मुख मंत्री बताया उसी भाषण में उन्होंने दावा किया कि वे जल्दी ही लाल किले पर बी जे पी का झंडा फहराने की फ़िराक में हैं ..यहाँ उनकी राजनीतिक नासमझी को रेखांकित करना उद्देश्य नहीं है लेकिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि लाल किले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है किसी पार्टी का नहीं. झारखण्ड में जिन चुनावों के बाद बी जे पी के सहयोग से गठबंधन सरकार बनने जा रही है उसके लिए जो चुनाव प्रचार हुए वे बहुत ही दिलचस्प थे..पूरे चुनाव में बी जे पी वालों ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि शिबू सोरेन जैसे भ्रष्ट आदमी का साथी होने की वजह से कांग्रेस बहुत ही भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी है. और जनता को चाहिय कि उसे बिलकुल वोट न दें . शिबू सोरेन के खिलाफ भी बी जे पी ने बहुत ही ज़हरीला प्रचार अभियान चलाया था और उन्हें अपराध और भ्रष्टाचार का देवता बना कर पेश किया था. चुनाव के दौरान टी वी चैनलों पर चले बहस मुबाहसों में बी जे पी वाले शिबू सोरेन की धज्जियां उड़ाते नज़र आते थे ..लगता था कि अगर कहीं शिबू सोरेन या उनके सहयोगी रहे कांग्रेसी जीत गए तो सर्वनाश हो जाएगा लेकिन सरकार में शामिल होने की जो उतावली बी जे पी ने दिखाई उस से साफ़ साबित हो गया कि बी जे पी वाले भी भ्रष्टाचार से कोई परहेज़ नहीं करते..
बी जे पी ने शिबू सोरेन को हमेशा ही भ्रष्टाचार का पर्याय माना है . जिन लोगों को याद होगा वे बी जे पी का वह अभियान कभी नहीं भूल पायेंगें कि किस तरह से बी जे पी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी जब शिबू सोरेन केंद्र में मंत्री थे और उनके भ्रष्टाचार बी जे पी को राजनीतिक प्वाइंट स्कोर करने का एक बड़ा हथियार दिखता था . शिबू सोरेन पर अपने सहायक शशि नाथ झा की हत्या का आरोप भी लग चुका है . जिसके चक्कर में वेह जेल की हवा खा चुके हैं .. बी जे पी को अब तक यह सबसे बड़ा अधर्म का काम लगता था. लेकिन अब दिल्ली में उनके एक प्रवक्ता ने बता दिया कि शिबू सोरेन को दुमका की एक अदालत ने बरी कर दिया है और अब वे पवित्र हो गए हैं... शिबू सोरेन के साथ बंधू तिर्की भी हैं और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार की पाठ्यपुस्तकों में उदाहरण के रूप में दर्ज हैं..जब पी वी नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में अविश्ववास मत से बचाने के लिए शिबू सोरेन से रिश्वत ली थी,तो उनके खिलाफ सबसे बड़े राजनीतिक मोर्चे की कमान भी बी जे पी वालों के हाथ में थी.
इतनी सारी राजनीतिक दुविधाओं के चलते यह बात समझ में नहीं आती कि बी जे पी वाले शिबू सोरेन के साथ सरकार कैसे चलायेंगें . शिबू सोरेन के साथ कई ऐसे विधायक हैं जो बी जे पी के साथ नहीं जाना चाहते . क्योंकि कंधमाल और अन्य जगहों पर ईसाईयों और मुसलमानों के साथ बी जे पी वालों ने जो सुलूक किया है उसके चलते किसी भी अल्पसंख्यक के लिए बी जे पी के साथ रहना असंभव माना जाता है अगर उसकी आदतें शाहनवाज़ हुसैन या मुख्तार अब्बास नकवी जैसी न हों... इस लिए बी जे पी के साथ जाने के बाद शिबू सोरेन के कुछ अपने साथी भी उनका साथ छोड़ सकते हैं .शायद कांग्रेस इसी अवसर का इंतज़ार करेगी . जो भी हो जल्दबाजी करके बी जे पी ने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया है जबकि कांग्रेस ने शिबू सोरेन को मुख्य मंत्री पद से दूर रख कर राजनीतिक कुशलता का उदाहरण दिया है .
झारखण्ड विधानसभा चुनाव ने बहुत सारे मुगालते दूर कर दिए.चुनाव के पहले नक्सलवादी राजनीति की ताक़त का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह गलत निकला . कुछ इलाकों के अलावा राज्य में नक्सलों का प्रभाव सीमित है.. और दूसरी बात यह कि नक्सलवादियों की किसी धमकी या बहिष्कार की फ़रियाद को जनता बकवास समझती है ... एक मुगालता यह था कि बी जे पी में नए अध्यक्ष की तैनाती के बाद शायद मूल्य आधारित राजनीति का युग शुरू होगा क्योंकि जितने प्रचार के बाद आर एस एस ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया था, लगता था कि कुछ दिन के लिए ही सही, पार्टी भ्रष्टाचार आदि की राजनीति से दूर हो जायेगी लेकिन वह भी नहीं हुआ. गद्दी संभालते ही नितिन गडकरी ने उस आदमी को झारखण्ड का मुख्यमंत्री बना दिया जिसके भ्रष्टाचार के बारे में बी जे पी का हर नेता भाषण देता रहता था . यानी यह तय हो गया है कि नितिन गडकरी ने भी बी जे पी के उन्ही भ्रष्ट अध्यक्षों के पदचिन्हों पर चलने का फैसला कर लिया है जिसके शिखर पुरुष पूर्व बी जे पी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण माने जाते हैं.... एक मुगालता और टूटा है . अब तक आमतौर पर माना जाता था कि सत्ता के लिये कांग्रेस कुछ भी कर सकती है लेकिन झारखण्ड में शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री न बनाकर और बी जे पी को सरकार में शामिल होने का मौक़ा देकर कांग्रेस ने साबित कर दिया है कि कांग्रेस पार्टी दूरगामी लक्ष्य को हासिल करने के लिए छोटे छोटे स्वार्थों से उबरने की राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुकी है ..राहुल गाँधी को आम तौर पर कांग्रेस की नयी नीतियों के मुख्य पैरोकार के रूप में देखा जाता है . अगर झारखण्ड में हुए ताज़ा कांग्रेसी फैसले में भी उनकी ही राजनीतिक सूझबूझ काम आई है तो इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस में फिर से एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति बनने की योजना बन चुकी है और उस पर गंभीरता से काम हो रहा है.. और इस योजना की अगुवाई राहुल गाँधी ही कर रहे हैं...
झारखण्ड में अब बी जे पी के सहयोग से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सरकार बनना तय है .बी जे पी के नए अध्यक्ष ने घोषणा कर दी है कि वास्तव में वह बी जे पी की सरकार होगी क्योंकि उसे वे बी जे पी की नौवीं राज्य सरकार बता रहे हैं. यानी जो शिबू सोरेन कल तह संघी बिरादरी के लिए भ्रष्टाचार और अपराध का पर्याय था वह आज नितिन गडकरी का अपना बंदा बन चुका है .. जहां उन्होंने शिबू सोरेन को अपना मुख मंत्री बताया उसी भाषण में उन्होंने दावा किया कि वे जल्दी ही लाल किले पर बी जे पी का झंडा फहराने की फ़िराक में हैं ..यहाँ उनकी राजनीतिक नासमझी को रेखांकित करना उद्देश्य नहीं है लेकिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि लाल किले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है किसी पार्टी का नहीं. झारखण्ड में जिन चुनावों के बाद बी जे पी के सहयोग से गठबंधन सरकार बनने जा रही है उसके लिए जो चुनाव प्रचार हुए वे बहुत ही दिलचस्प थे..पूरे चुनाव में बी जे पी वालों ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि शिबू सोरेन जैसे भ्रष्ट आदमी का साथी होने की वजह से कांग्रेस बहुत ही भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी है. और जनता को चाहिय कि उसे बिलकुल वोट न दें . शिबू सोरेन के खिलाफ भी बी जे पी ने बहुत ही ज़हरीला प्रचार अभियान चलाया था और उन्हें अपराध और भ्रष्टाचार का देवता बना कर पेश किया था. चुनाव के दौरान टी वी चैनलों पर चले बहस मुबाहसों में बी जे पी वाले शिबू सोरेन की धज्जियां उड़ाते नज़र आते थे ..लगता था कि अगर कहीं शिबू सोरेन या उनके सहयोगी रहे कांग्रेसी जीत गए तो सर्वनाश हो जाएगा लेकिन सरकार में शामिल होने की जो उतावली बी जे पी ने दिखाई उस से साफ़ साबित हो गया कि बी जे पी वाले भी भ्रष्टाचार से कोई परहेज़ नहीं करते..
बी जे पी ने शिबू सोरेन को हमेशा ही भ्रष्टाचार का पर्याय माना है . जिन लोगों को याद होगा वे बी जे पी का वह अभियान कभी नहीं भूल पायेंगें कि किस तरह से बी जे पी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी जब शिबू सोरेन केंद्र में मंत्री थे और उनके भ्रष्टाचार बी जे पी को राजनीतिक प्वाइंट स्कोर करने का एक बड़ा हथियार दिखता था . शिबू सोरेन पर अपने सहायक शशि नाथ झा की हत्या का आरोप भी लग चुका है . जिसके चक्कर में वेह जेल की हवा खा चुके हैं .. बी जे पी को अब तक यह सबसे बड़ा अधर्म का काम लगता था. लेकिन अब दिल्ली में उनके एक प्रवक्ता ने बता दिया कि शिबू सोरेन को दुमका की एक अदालत ने बरी कर दिया है और अब वे पवित्र हो गए हैं... शिबू सोरेन के साथ बंधू तिर्की भी हैं और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार की पाठ्यपुस्तकों में उदाहरण के रूप में दर्ज हैं..जब पी वी नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में अविश्ववास मत से बचाने के लिए शिबू सोरेन से रिश्वत ली थी,तो उनके खिलाफ सबसे बड़े राजनीतिक मोर्चे की कमान भी बी जे पी वालों के हाथ में थी.
इतनी सारी राजनीतिक दुविधाओं के चलते यह बात समझ में नहीं आती कि बी जे पी वाले शिबू सोरेन के साथ सरकार कैसे चलायेंगें . शिबू सोरेन के साथ कई ऐसे विधायक हैं जो बी जे पी के साथ नहीं जाना चाहते . क्योंकि कंधमाल और अन्य जगहों पर ईसाईयों और मुसलमानों के साथ बी जे पी वालों ने जो सुलूक किया है उसके चलते किसी भी अल्पसंख्यक के लिए बी जे पी के साथ रहना असंभव माना जाता है अगर उसकी आदतें शाहनवाज़ हुसैन या मुख्तार अब्बास नकवी जैसी न हों... इस लिए बी जे पी के साथ जाने के बाद शिबू सोरेन के कुछ अपने साथी भी उनका साथ छोड़ सकते हैं .शायद कांग्रेस इसी अवसर का इंतज़ार करेगी . जो भी हो जल्दबाजी करके बी जे पी ने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया है जबकि कांग्रेस ने शिबू सोरेन को मुख्य मंत्री पद से दूर रख कर राजनीतिक कुशलता का उदाहरण दिया है .
Friday, December 25, 2009
मीडिया ही बनेगा राजनीतिक अपराध के खिलाफ युद्ध का हरावल दस्ता
शेष नारायण सिंह
आजकल अपराध और दबदबे का अजीब मेल देखा जा रहा है. सत्तर के दशक में अपराधियों को नेता बनाने का जो पौधा,स्व. इंदिरा गांधी के छोटे बेटे, स्व.संजय गाँधी ने रोपा था ,वह अब फल देने लगा है .. अपराधी नेताओं और उनकी दूसरी पीढी समाज को धकिया कर रसातल तक ले जाने की अपनी मुहिम पर पूरे ध्यान से लगी हुई है.. इस हफ्ते के अखबारों में दो ख़बरें ऐसी हैं जो सामाजिक पतन की इबारत की तरह खौफनाक हैं और दोनों ही सामाजिक जीवन में घुस चुके अपराध के समाजशास्त्र की कहानी को बहुत ही सफाई से बयान करती हैं ..पहली तो हरियाणा की खबर , जहां उन्नीस साल पहले बुढापे की दहलीज़ पर क़दम रख चुके एक अधेड़ पुलिस अफसर ने एक १४ साल की बच्ची के साथ ज़बरदस्ती की और जब लडकी ने आत्महत्या कर ली तो उसके परिवार वालों को परेशान करता रहा . १९ साल के अंतराल के बाद जब अदालत का फैसला आया तो उस अफसर को ६ महीने की सज़ा हुई. अब पता लग रहा है कि उस अफसर को अपनी हुकूमत के दौरान राजनेता ओम प्रकाश चौटाला मदद करते रहे, उसे तरक्की देते रहे और केस को कमज़ोर करके अदालत में पेश करवाया. . जानकार बताते हैं कि केस को इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि हाई कोर्ट से वह अपराधी अफसर बरी हो जाएगा. राजनेता की मदद के बिना कानून का रखवाला यह अफसर अपराध करने के बाद बच नहीं सकता था.दूसरा मामला . उत्तर प्रदेश के एक छुटभैया विधायक के बेटे का है . यह बददिमाग लड़का दिल्ली के किसी शराबखाने में घुस कर गोलियां चला कर भाग खड़ा हुआ . उसी शराबखाने में बीती रात उसकी बहन गयी थी और अपना पर्स भूल कर चली आई थी.उसी पर्स को वापस लेने गयी अपनी बहन के साथ गया लड़का गोली चला कर रौब मारना चाहता था. उत्तर प्रदेश की सरकारी पार्टी के विधायक का यह लड़का दिल्ली पुलिस के हत्थे चढ़ गया और आजकल पुलिस की हिरासत में है .यह दो मामले तो ताज़े हैं . ऐसे बहुत सारे मामले पिछले कुछ वर्षों में देखने में आये हैं .जेसिका लाल और नीतीश कटारा हत्याकांड तो बहुत ही हाई प्रोफाइल मामले हैं जिसमें नेताओं के बच्चे अपराध में शामिल पाए गए हैं. ऐसे ही और भी बहुत सारे मामले हैं जिनमें नेताओं के साथ साथ अफसरों के बच्चे भी आपराधिक घटनाओं में शामिल पाए गए हैं ... अफ़सोस की बात यह है कि जब यह बच्चे अपराध करते हैं तो उनके ताक़तवर नेता और अफसर बाप उन्हें बचाने के लिए सारी ताक़त लगा देते हैं.और यही सारी मुसीबत की जड़ है ..
समाज को इन अपराधी नेताओं और अफसरों ने ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से वापसी की डगर बहुत ही मुश्किल है. यह मामला केवल उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब तक ही नहीं सीमित है . इस तरह की प्रवृत्ति पूरे देश में फ़ैल चुकी है . अगर इस प्रवृत्ति पर फ़ौरन काबू न कर लिया गया तो बहुत देर हो जायेगी और देश उसी रास्ते पर चल निकलेगा जिस पर पाकिस्तान चल रहा है या अफ्रीका के बहुत सारे देश उसी रास्ते पर चल कर अपनी तबाही मुकम्मल कर चुके हैं . लेकिन अपराधी तत्वों का दबदबा इतना बढ़ चुका है कि इन अपराधियों को काबू कर पाना आसान बिलकुल नहीं होगा. हालात असाधारण हो चुके हैं और उनको दुरुस्त करने के लिए असाधारण तरीकों का ही इस्तेमाल करना होगा. नेहरू के युग में यह संभव था कि अगर अपराधी का नाम ले लिया जाए तो वह दब जाता था , डर जाता था और सार्वजनिक जीवन को दूषित करना बंद कर देता था . जवाहर लाल नेहरू ने एक बार अपने मंत्री केशव देव मालवीय को सरकार से निकाल दिया था क्योंकि दस हज़ार रूपये के किसी घूस के मामले में वे शामिल पाए गए थे..उन्होंने एक बार एक ऐसे व्यक्ति को गलती से टिकट दे दिया जिसके ऊपर आपराधिक मुक़दमे थे . जब मध्य भारत में चुनावी सभा के दौरान उनको पता चला कि यह तो वही व्यक्ति है जिसे उन्होंने गिरफ्तार करवाया था, नेहरू जी ने उसी चुनावी मंच से ऐलान किया कि इस आदमी को गलती से टिकट दे दिया गया है , उसे कृपया वोट मत दीजिये और उसे चुनाव में हरा दीजिये. वह आदमी कोई मामूली आदमी नहीं था, मंत्री रह चुका था , रजवाड़ा था और आज के एक बहुत बड़े नेता का पूज्य पिता था . आज जब हम देखते हैं कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देना पसंद करती हैं जो अपनी दबंगई के बल पर चुनाव जीत सकें तो जवाहर लाल नेहरू के वक़्त की याद आना स्वाभाविक भी है और ज़रूरी भी.. ज़ाहिर है कि नेहरू ने राजनीतिक जीवन में जिस शुचिता की बुनियाद रखी थी उनके वंशज संजय गाँधी ने उसके पतन की शुरुआत का उदघाटन कर दिया था. बाद में तो सभी पार्टियों ने वही संजय गाँधी वाला तरीका अपनाया और राजनीतिक व्यवस्था आज गुंडों के हवाले हो चुकी है .. अगर यही व्यवस्था चलती रही तो मुल्क को तबाह होने का खतरा बढ़ जाएगा... इस हालत से बचने के लिए सबसे ज़रूरी तो यह है कि अपराधी नेताओं और अफसरों के दिमाग में यह बात बैठा दी जाए कि जेसिका लाल और नीतीश कटारा के हत्यारों की तरह ही हर बद दिमाग सिरफिरे को जेल में ठूंस देने की ताक़त कानून में है . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कानून का इकबाल बुलंद करने वाले भी ज़्यादातर मामलों में शामिल पाए जाते हैं..ऐसी हालात में घूम फिर कर ध्यान मीडिया पर ही जाता है . पिछले दिनों जितने भी हाई प्रोफाइल मामलों में न्याय हुआ है उसमें मीडिया की भूमिका अहम् रही है . इस बार भी हरियाणा वाले अपराधी अफसर के मामले में मीडिया ने ही सच्चाई को सामने लाने का अभियान शुरू किया है और उम्मीद है कि रुचिका की मौत के लिए ज़िम्मेदार अपराधी को माकूल सज़ा मिलेगी. .इस लिए राजनीति में अपराधियों के दबदबे के बावजूद अभी उम्मीद बाकी है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अपराधियों को सज़ा मिलने की गति तेज़ होगी.. और मीडिया की मुहिम देश को और समाज को बचाने में कारगर साबित होगी.
आजकल अपराध और दबदबे का अजीब मेल देखा जा रहा है. सत्तर के दशक में अपराधियों को नेता बनाने का जो पौधा,स्व. इंदिरा गांधी के छोटे बेटे, स्व.संजय गाँधी ने रोपा था ,वह अब फल देने लगा है .. अपराधी नेताओं और उनकी दूसरी पीढी समाज को धकिया कर रसातल तक ले जाने की अपनी मुहिम पर पूरे ध्यान से लगी हुई है.. इस हफ्ते के अखबारों में दो ख़बरें ऐसी हैं जो सामाजिक पतन की इबारत की तरह खौफनाक हैं और दोनों ही सामाजिक जीवन में घुस चुके अपराध के समाजशास्त्र की कहानी को बहुत ही सफाई से बयान करती हैं ..पहली तो हरियाणा की खबर , जहां उन्नीस साल पहले बुढापे की दहलीज़ पर क़दम रख चुके एक अधेड़ पुलिस अफसर ने एक १४ साल की बच्ची के साथ ज़बरदस्ती की और जब लडकी ने आत्महत्या कर ली तो उसके परिवार वालों को परेशान करता रहा . १९ साल के अंतराल के बाद जब अदालत का फैसला आया तो उस अफसर को ६ महीने की सज़ा हुई. अब पता लग रहा है कि उस अफसर को अपनी हुकूमत के दौरान राजनेता ओम प्रकाश चौटाला मदद करते रहे, उसे तरक्की देते रहे और केस को कमज़ोर करके अदालत में पेश करवाया. . जानकार बताते हैं कि केस को इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि हाई कोर्ट से वह अपराधी अफसर बरी हो जाएगा. राजनेता की मदद के बिना कानून का रखवाला यह अफसर अपराध करने के बाद बच नहीं सकता था.दूसरा मामला . उत्तर प्रदेश के एक छुटभैया विधायक के बेटे का है . यह बददिमाग लड़का दिल्ली के किसी शराबखाने में घुस कर गोलियां चला कर भाग खड़ा हुआ . उसी शराबखाने में बीती रात उसकी बहन गयी थी और अपना पर्स भूल कर चली आई थी.उसी पर्स को वापस लेने गयी अपनी बहन के साथ गया लड़का गोली चला कर रौब मारना चाहता था. उत्तर प्रदेश की सरकारी पार्टी के विधायक का यह लड़का दिल्ली पुलिस के हत्थे चढ़ गया और आजकल पुलिस की हिरासत में है .यह दो मामले तो ताज़े हैं . ऐसे बहुत सारे मामले पिछले कुछ वर्षों में देखने में आये हैं .जेसिका लाल और नीतीश कटारा हत्याकांड तो बहुत ही हाई प्रोफाइल मामले हैं जिसमें नेताओं के बच्चे अपराध में शामिल पाए गए हैं. ऐसे ही और भी बहुत सारे मामले हैं जिनमें नेताओं के साथ साथ अफसरों के बच्चे भी आपराधिक घटनाओं में शामिल पाए गए हैं ... अफ़सोस की बात यह है कि जब यह बच्चे अपराध करते हैं तो उनके ताक़तवर नेता और अफसर बाप उन्हें बचाने के लिए सारी ताक़त लगा देते हैं.और यही सारी मुसीबत की जड़ है ..
समाज को इन अपराधी नेताओं और अफसरों ने ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से वापसी की डगर बहुत ही मुश्किल है. यह मामला केवल उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब तक ही नहीं सीमित है . इस तरह की प्रवृत्ति पूरे देश में फ़ैल चुकी है . अगर इस प्रवृत्ति पर फ़ौरन काबू न कर लिया गया तो बहुत देर हो जायेगी और देश उसी रास्ते पर चल निकलेगा जिस पर पाकिस्तान चल रहा है या अफ्रीका के बहुत सारे देश उसी रास्ते पर चल कर अपनी तबाही मुकम्मल कर चुके हैं . लेकिन अपराधी तत्वों का दबदबा इतना बढ़ चुका है कि इन अपराधियों को काबू कर पाना आसान बिलकुल नहीं होगा. हालात असाधारण हो चुके हैं और उनको दुरुस्त करने के लिए असाधारण तरीकों का ही इस्तेमाल करना होगा. नेहरू के युग में यह संभव था कि अगर अपराधी का नाम ले लिया जाए तो वह दब जाता था , डर जाता था और सार्वजनिक जीवन को दूषित करना बंद कर देता था . जवाहर लाल नेहरू ने एक बार अपने मंत्री केशव देव मालवीय को सरकार से निकाल दिया था क्योंकि दस हज़ार रूपये के किसी घूस के मामले में वे शामिल पाए गए थे..उन्होंने एक बार एक ऐसे व्यक्ति को गलती से टिकट दे दिया जिसके ऊपर आपराधिक मुक़दमे थे . जब मध्य भारत में चुनावी सभा के दौरान उनको पता चला कि यह तो वही व्यक्ति है जिसे उन्होंने गिरफ्तार करवाया था, नेहरू जी ने उसी चुनावी मंच से ऐलान किया कि इस आदमी को गलती से टिकट दे दिया गया है , उसे कृपया वोट मत दीजिये और उसे चुनाव में हरा दीजिये. वह आदमी कोई मामूली आदमी नहीं था, मंत्री रह चुका था , रजवाड़ा था और आज के एक बहुत बड़े नेता का पूज्य पिता था . आज जब हम देखते हैं कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देना पसंद करती हैं जो अपनी दबंगई के बल पर चुनाव जीत सकें तो जवाहर लाल नेहरू के वक़्त की याद आना स्वाभाविक भी है और ज़रूरी भी.. ज़ाहिर है कि नेहरू ने राजनीतिक जीवन में जिस शुचिता की बुनियाद रखी थी उनके वंशज संजय गाँधी ने उसके पतन की शुरुआत का उदघाटन कर दिया था. बाद में तो सभी पार्टियों ने वही संजय गाँधी वाला तरीका अपनाया और राजनीतिक व्यवस्था आज गुंडों के हवाले हो चुकी है .. अगर यही व्यवस्था चलती रही तो मुल्क को तबाह होने का खतरा बढ़ जाएगा... इस हालत से बचने के लिए सबसे ज़रूरी तो यह है कि अपराधी नेताओं और अफसरों के दिमाग में यह बात बैठा दी जाए कि जेसिका लाल और नीतीश कटारा के हत्यारों की तरह ही हर बद दिमाग सिरफिरे को जेल में ठूंस देने की ताक़त कानून में है . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कानून का इकबाल बुलंद करने वाले भी ज़्यादातर मामलों में शामिल पाए जाते हैं..ऐसी हालात में घूम फिर कर ध्यान मीडिया पर ही जाता है . पिछले दिनों जितने भी हाई प्रोफाइल मामलों में न्याय हुआ है उसमें मीडिया की भूमिका अहम् रही है . इस बार भी हरियाणा वाले अपराधी अफसर के मामले में मीडिया ने ही सच्चाई को सामने लाने का अभियान शुरू किया है और उम्मीद है कि रुचिका की मौत के लिए ज़िम्मेदार अपराधी को माकूल सज़ा मिलेगी. .इस लिए राजनीति में अपराधियों के दबदबे के बावजूद अभी उम्मीद बाकी है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अपराधियों को सज़ा मिलने की गति तेज़ होगी.. और मीडिया की मुहिम देश को और समाज को बचाने में कारगर साबित होगी.
Friday, December 18, 2009
आर्थिक उदारीकरण और गावों को शहर बनाने के सपने की वजह से है महंगाई
शेष नारायण सिंह
बुधवार को संसद में विपक्ष ने महंगाई को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की . इसके पहले इस मुद्दे पर बहस हो चुकी थी लेकिन बहस का कोई नतीजा नहीं निकला . सरकार ने बहस में हिस्सा लिया और सब अपने अपने घर चले गए . जो बातें चर्चा में उठायी गयी थीं सब नोट कर ली गयीं और कहीं कोई कार्यवाही नहीं हुई. लेकिन जब चारों तरफ से त्राहि त्राहि के स्वर दिल्ली के सत्ता के गलियारों में पहुचने लगे तो विपक्ष को भी लगा कि महंगाई को मुद्दा बनाया जा सकता है .. शायद इसी भावना के वशीभूत होकर वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने बढ़ती कीमतों के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चानुमा कुछ पेश करने की कोशिश की .. संसद के अन्दर और बाहर फोटो खिंचवाई और बात को नक्की कर दिया. लेकिन कहीं भी किसी तरफ से नहीं लगा कि विपक्ष महंगाई को कम करने के लिए गंभीर है. जहां तक कांग्रेस और बी जे पी का सवाल है उनकी गलत और पूंजीपति परस्त नीतियों की वजह से ही महंगाई उस हद को पार कर गयी हैं जहां से उसे वापस ला पाना बहुत ही मुश्किल होगा..इस लिए उनसे जनता की पक्षधरता की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं
भारत इकलौता ऐसा निकास शील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं ..पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है और इस चक्कर में हर जगह खाने पीने की चीज़ों और ईंधन की कीमत घट रही है .लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है . यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है...खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रहीहैं उसके लिए बड़ी कंपनियां ज़िम्मेदार हैं . राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीज़ों के बाज़ार में हैं .. खराब फसलकी वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताक़त है . उनके पैसे से चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें..जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा.आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाएँ और कला बाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान चलायें. खाद्यान में फ्यूचर ट्रेड को फ़ौरन रोकें. सार्वजनिक वितरण पर्नाली को मज़बूत करें और राशन की दुकानों के ज़रिये सकारात्मक हस्तक्षेप करके कीमतों को फ़ौरन कण्ट्रोल करें.. राशन की दुकानों के ज़रिये ही खाद्य तेल, चीनी और दालों की बिक्री का मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना चाहिए.. . सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है.. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है . अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं .. करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिये यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें.
इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है ..अभी पिछले दिनों दिल्ली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमावड़ा हुआ था तो दिल्ली के मीडिया और अन्य लोगों को पता चला था कि किसान को उतनी रक़म भी गन्ने की कीमत के रूप में नहीं मिलती जितनी उसकी लागत आती है... यही हाल बाकी फसलों का भी है . यानी किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना
पड़ेगा और सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..
महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ( ग्राम स्वराज्य)...
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही दफ़न कर दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है .. उसके बाद जब १९९१ में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया . बाद की सरकारें उसी सोच कोआगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं . तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है ..
इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी एक दिन के लिए संसद में हल्ला गुला करके और संसद भवन के बाहर फोटो खिंचवा कर ही संतुष्ट न हो जाए बल्कि ऐसी राजनीतिक सोच को विकसित करने की कोशिश करे जिस से पराये मुल्कों का मुंह ताक़ने की हालत ख़त्म हों और देश गाँधी जी वाली आत्मनिर्भर सोच के सहारे अपने लोगों और अपने देश का विकास कर सके..( दैनिक जागरण से साभार )
बुधवार को संसद में विपक्ष ने महंगाई को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की . इसके पहले इस मुद्दे पर बहस हो चुकी थी लेकिन बहस का कोई नतीजा नहीं निकला . सरकार ने बहस में हिस्सा लिया और सब अपने अपने घर चले गए . जो बातें चर्चा में उठायी गयी थीं सब नोट कर ली गयीं और कहीं कोई कार्यवाही नहीं हुई. लेकिन जब चारों तरफ से त्राहि त्राहि के स्वर दिल्ली के सत्ता के गलियारों में पहुचने लगे तो विपक्ष को भी लगा कि महंगाई को मुद्दा बनाया जा सकता है .. शायद इसी भावना के वशीभूत होकर वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने बढ़ती कीमतों के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चानुमा कुछ पेश करने की कोशिश की .. संसद के अन्दर और बाहर फोटो खिंचवाई और बात को नक्की कर दिया. लेकिन कहीं भी किसी तरफ से नहीं लगा कि विपक्ष महंगाई को कम करने के लिए गंभीर है. जहां तक कांग्रेस और बी जे पी का सवाल है उनकी गलत और पूंजीपति परस्त नीतियों की वजह से ही महंगाई उस हद को पार कर गयी हैं जहां से उसे वापस ला पाना बहुत ही मुश्किल होगा..इस लिए उनसे जनता की पक्षधरता की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं
भारत इकलौता ऐसा निकास शील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं ..पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है और इस चक्कर में हर जगह खाने पीने की चीज़ों और ईंधन की कीमत घट रही है .लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है . यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है...खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रहीहैं उसके लिए बड़ी कंपनियां ज़िम्मेदार हैं . राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीज़ों के बाज़ार में हैं .. खराब फसलकी वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताक़त है . उनके पैसे से चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें..जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा.आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाएँ और कला बाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान चलायें. खाद्यान में फ्यूचर ट्रेड को फ़ौरन रोकें. सार्वजनिक वितरण पर्नाली को मज़बूत करें और राशन की दुकानों के ज़रिये सकारात्मक हस्तक्षेप करके कीमतों को फ़ौरन कण्ट्रोल करें.. राशन की दुकानों के ज़रिये ही खाद्य तेल, चीनी और दालों की बिक्री का मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना चाहिए.. . सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है.. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है . अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं .. करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिये यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें.
इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है ..अभी पिछले दिनों दिल्ली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमावड़ा हुआ था तो दिल्ली के मीडिया और अन्य लोगों को पता चला था कि किसान को उतनी रक़म भी गन्ने की कीमत के रूप में नहीं मिलती जितनी उसकी लागत आती है... यही हाल बाकी फसलों का भी है . यानी किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना
पड़ेगा और सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..
महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ( ग्राम स्वराज्य)...
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही दफ़न कर दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है .. उसके बाद जब १९९१ में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया . बाद की सरकारें उसी सोच कोआगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं . तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है ..
इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी एक दिन के लिए संसद में हल्ला गुला करके और संसद भवन के बाहर फोटो खिंचवा कर ही संतुष्ट न हो जाए बल्कि ऐसी राजनीतिक सोच को विकसित करने की कोशिश करे जिस से पराये मुल्कों का मुंह ताक़ने की हालत ख़त्म हों और देश गाँधी जी वाली आत्मनिर्भर सोच के सहारे अपने लोगों और अपने देश का विकास कर सके..( दैनिक जागरण से साभार )
Wednesday, December 16, 2009
टोनी ब्लेयर ने कहा- झूठ का सहारा लेकर इराक पर किया था हमला
शेष नारायण सिंह
जब अमरीका ने इराक पर हमला किया था तो उसकी दुम की तरह एक और प्रधानमंत्री उसके पीछे पीछे लगा हुआ था. वह अमरीकी राष्ट्रपति बुश की हर बात पर हाँ में हाँ मिला रहा था. उस वक़्त के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री , टोनी ब्लेयर इतनी शेखी में थे कि लगता था कि वे दुनिया बदल देंगें , इराक के सद्दाम हुसैन को हटाकर इंसानियत को तबाही से बचा लेंगें..झूठ के सहारे मीडिया में ऐसी ऐसी ख़बरें छपवा दी थीं कि लगता था कि अगर सद्दाम हुसैन को ख़त्म न किया गया तो दुनिया पर पता नहीं क्या दुर्दिन आ जाएगा. उन्होंने अपने लोगों और पूरी दुनिया को बता रखा था कि इराक के पास सामूहिक संहार के हथियार थे और अगर इराक को फ़ौरन तबाह न किया गया तो सद्दाम हुसैन ४५ मिनट के अन्दर ब्रिटेन पर हमला कर सकते हैं इस सारे गड़बड़ झाले में ब्रिटिश और अमरीकी मीडिया की भूमिका भी कम नहीं है क्योंकि उसने भी ब्लेयर और बुश के राग झूठ को अपना स्थायी भाव बना लिया था. इराक के मामले की जांच कर रही चिल्कोट इन्क्वायरी ने जांच कर के पता लगाया है कि यह ४५ मिनट वाला शिगूफा किसी गंभीर इंटेलिजेंस का नतीजा नहीं था, वह तो पश्चिमी देशों के आला अधिकारियों ने एक टैक्सी ड्राईवर की बात पर विश्ववास करके अपनी रिपोर्ट में लिख दिया था. हुआ यह था कि बग़दाद के एक टैक्सी वाले ने अपनी गाडी की पिछली सीट पर बैठे दो फौजी अफसरों को आपस में गप्प मारते सुना था और उसने ब्रिटेन के इन इंटेलिजेंस अफसरों को यह जानकारी दे दी थी . इस तथाकथित जानकारी पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को इतना भरोसा था कि जब संयुक्त राष्ट्र सहित बाकी सभी विश्वसनीय संस्थाओं ने अपनी रिपोर्टों में यह लिख दिया कि इराक के पास सामूहिक संहार के हथियार नहीं हैं तो टोनी ब्लेयर और उनके आका , जार्ज डब्ल्यू बुश ने विश्वास नहीं किया..अपनी इस बेवकूफी की वजह से टोनी ब्लेयर को ब्रिटेन में कहीं भी मुंह छुपाने के लिये जगह नहीं बची है . उनसे ब्रिटेन की जनता जवाब मांग रही है , ब्रिटिश संसद को भी उन्होंने गुमराह किया , वहां भी उनसे जवाब माँगा जा सकता है और आपराधिक मामलों की अंतर राष्ट्रीय कोर्ट में भी उन्हें जवाब देना पड़ सकता है लेकिन ब्रिटेन के इस पूर्व प्रधान मंत्री की हिम्मत इन मंचों पर अपने झूठ का बचाव करने की नहीं पड़ रही है ..उन्होंने अपनी बात कहने के लिए बी बी सी वन के एक धार्मिक प्रोग्राम को चुना और वहां कहा कि अगर सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक संहार के हाथियार न भी होते तो भी उन्होंने मन बना लिया था और इराक पर हमला ज़रूर करते ..टोनी ब्लेयर ने कहा कि उस हालत में वे किसी और बहाने से इराक पर हमला करते लेकिन सद्दाम हुसैन को ख़त्म कर देने का मन बन चुका था तो वे उसमें कोई भी अड़चन नहीं आने देना चाहते थे..टोनी ब्लेयर ने दावा किया कि उनकी योजना इस्लाम के अन्दर दुनिया भर में चल रहे तथाकथित संघर्ष को दुरु दुरुस्त करने की थी. ज़िंदगी की बाज़ी हार चुके एक अपमानित दम्भी राजनेता के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती. अपने ही लोगों से ठुकरा दिया गया एक पराजित नेता जब अपने आप को इस्लाम जैसे महान धर्म को दुरुस्त करने के काबिल पाने लगे तो उसके दिमागी तनाजुन के बारे में शक होना स्वाभाविक है ..टोनी ब्लेयर की इस्लाम के बारे में जानकारी का दावा सौ फीसदी बकवास है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि उन्हें और जार्ज बुश को अमरीकी और ब्रिटिश अफसरों ने चेतावनी दे दी थी कि इराक के पास सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं थे .ब्लेयर और बुश को २००१ में ही पता चल गया था कि इराक के पास कोई भी परमाणु हथियार नहीं है . संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों ने भी साफ़ बता दिया था कि इराक के पास १९९८ के बाद से कोई भी परमाणु हथियार नहीं था और न ही इसके पास ऐसे हथियार बनाने की क्षमता थी. बुश सीनियर के इराक हमले के बाद से ही इराक लगातार कमज़ोर हो रहा था, उस पर आर्थिक पाबंदी लगी हुई थी,उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी थी और उसके पड़ोसी देशों तक को विश्वास था कि इराक के पास सामूहिक नरसंहार के कोई हथियार नहीं थे और उन्हें सद्दाम हुसैन से कोई भी खतरा नहीं था..ब्रिटेन के सरकारी अफसरों ने भी लिख कर दे दिया था कि संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अगर कोई हमला किया गया तो वह गैर कानूनी होगा और अपने पक्ष का बचाव कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा..लेकिन अपनी जिद और अपने आका, जार्ज बुश की इच्छा को पूरा करने के लिए ब्रिटेन का प्रधान मंत्री किस हद तक जा सकता था इसका अंदाज़ लगा पाना बहुत ही मुश्किल है ..ब्लेयर ने अपनी सरकार के अटार्नी जनरल,लार्ड गोल्डस्मिथ को आदेश दे दिया कि अंतर राष्ट्रीय कानून की ऐसी व्याख्या कर दें जिनकी बिना पर हमले में भाग लेने वाली ब्रिटिश फौज को आपराधिक आरोपों से बचाया जा सके.. अब जब सारी दुनिया को पता है कि इराक पर हमला न केवल गैर कानूनी था बल्कि गलत कारणों के आधार पर किया गया था, इस बात की एक बार समीक्षा करने की ज़रुरत है कि इंसानियत के खिलाफ इस हमले के जिम्मेवार कौन लोग हैं ..इराक पर हुए ब्लेयर और बुश के हमले की वजह से कम से कम १० लाख लोगों की जाने गयी हैं और पश्चिमी देशों के प्रति पूरी दुनिया में जो नाराज़गी है ,उसका भी हिसाब माँगा जाना चाहिए.उस हमले के बाद दुनिया भर में अस्थिरता का माहौल बन गया है इसलिए इस हमले के बारे में फैसला लेने वालों को सद्दाम हुसैन के बाद की दुनिया की राजनीतिक हालात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उन्हें युद्ध अपराधी मान कर उनके ऊपर मुक़दमा चलाया जाना चाहिए
जब अमरीका ने इराक पर हमला किया था तो उसकी दुम की तरह एक और प्रधानमंत्री उसके पीछे पीछे लगा हुआ था. वह अमरीकी राष्ट्रपति बुश की हर बात पर हाँ में हाँ मिला रहा था. उस वक़्त के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री , टोनी ब्लेयर इतनी शेखी में थे कि लगता था कि वे दुनिया बदल देंगें , इराक के सद्दाम हुसैन को हटाकर इंसानियत को तबाही से बचा लेंगें..झूठ के सहारे मीडिया में ऐसी ऐसी ख़बरें छपवा दी थीं कि लगता था कि अगर सद्दाम हुसैन को ख़त्म न किया गया तो दुनिया पर पता नहीं क्या दुर्दिन आ जाएगा. उन्होंने अपने लोगों और पूरी दुनिया को बता रखा था कि इराक के पास सामूहिक संहार के हथियार थे और अगर इराक को फ़ौरन तबाह न किया गया तो सद्दाम हुसैन ४५ मिनट के अन्दर ब्रिटेन पर हमला कर सकते हैं इस सारे गड़बड़ झाले में ब्रिटिश और अमरीकी मीडिया की भूमिका भी कम नहीं है क्योंकि उसने भी ब्लेयर और बुश के राग झूठ को अपना स्थायी भाव बना लिया था. इराक के मामले की जांच कर रही चिल्कोट इन्क्वायरी ने जांच कर के पता लगाया है कि यह ४५ मिनट वाला शिगूफा किसी गंभीर इंटेलिजेंस का नतीजा नहीं था, वह तो पश्चिमी देशों के आला अधिकारियों ने एक टैक्सी ड्राईवर की बात पर विश्ववास करके अपनी रिपोर्ट में लिख दिया था. हुआ यह था कि बग़दाद के एक टैक्सी वाले ने अपनी गाडी की पिछली सीट पर बैठे दो फौजी अफसरों को आपस में गप्प मारते सुना था और उसने ब्रिटेन के इन इंटेलिजेंस अफसरों को यह जानकारी दे दी थी . इस तथाकथित जानकारी पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को इतना भरोसा था कि जब संयुक्त राष्ट्र सहित बाकी सभी विश्वसनीय संस्थाओं ने अपनी रिपोर्टों में यह लिख दिया कि इराक के पास सामूहिक संहार के हथियार नहीं हैं तो टोनी ब्लेयर और उनके आका , जार्ज डब्ल्यू बुश ने विश्वास नहीं किया..अपनी इस बेवकूफी की वजह से टोनी ब्लेयर को ब्रिटेन में कहीं भी मुंह छुपाने के लिये जगह नहीं बची है . उनसे ब्रिटेन की जनता जवाब मांग रही है , ब्रिटिश संसद को भी उन्होंने गुमराह किया , वहां भी उनसे जवाब माँगा जा सकता है और आपराधिक मामलों की अंतर राष्ट्रीय कोर्ट में भी उन्हें जवाब देना पड़ सकता है लेकिन ब्रिटेन के इस पूर्व प्रधान मंत्री की हिम्मत इन मंचों पर अपने झूठ का बचाव करने की नहीं पड़ रही है ..उन्होंने अपनी बात कहने के लिए बी बी सी वन के एक धार्मिक प्रोग्राम को चुना और वहां कहा कि अगर सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक संहार के हाथियार न भी होते तो भी उन्होंने मन बना लिया था और इराक पर हमला ज़रूर करते ..टोनी ब्लेयर ने कहा कि उस हालत में वे किसी और बहाने से इराक पर हमला करते लेकिन सद्दाम हुसैन को ख़त्म कर देने का मन बन चुका था तो वे उसमें कोई भी अड़चन नहीं आने देना चाहते थे..टोनी ब्लेयर ने दावा किया कि उनकी योजना इस्लाम के अन्दर दुनिया भर में चल रहे तथाकथित संघर्ष को दुरु दुरुस्त करने की थी. ज़िंदगी की बाज़ी हार चुके एक अपमानित दम्भी राजनेता के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती. अपने ही लोगों से ठुकरा दिया गया एक पराजित नेता जब अपने आप को इस्लाम जैसे महान धर्म को दुरुस्त करने के काबिल पाने लगे तो उसके दिमागी तनाजुन के बारे में शक होना स्वाभाविक है ..टोनी ब्लेयर की इस्लाम के बारे में जानकारी का दावा सौ फीसदी बकवास है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि उन्हें और जार्ज बुश को अमरीकी और ब्रिटिश अफसरों ने चेतावनी दे दी थी कि इराक के पास सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं थे .ब्लेयर और बुश को २००१ में ही पता चल गया था कि इराक के पास कोई भी परमाणु हथियार नहीं है . संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों ने भी साफ़ बता दिया था कि इराक के पास १९९८ के बाद से कोई भी परमाणु हथियार नहीं था और न ही इसके पास ऐसे हथियार बनाने की क्षमता थी. बुश सीनियर के इराक हमले के बाद से ही इराक लगातार कमज़ोर हो रहा था, उस पर आर्थिक पाबंदी लगी हुई थी,उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी थी और उसके पड़ोसी देशों तक को विश्वास था कि इराक के पास सामूहिक नरसंहार के कोई हथियार नहीं थे और उन्हें सद्दाम हुसैन से कोई भी खतरा नहीं था..ब्रिटेन के सरकारी अफसरों ने भी लिख कर दे दिया था कि संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अगर कोई हमला किया गया तो वह गैर कानूनी होगा और अपने पक्ष का बचाव कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा..लेकिन अपनी जिद और अपने आका, जार्ज बुश की इच्छा को पूरा करने के लिए ब्रिटेन का प्रधान मंत्री किस हद तक जा सकता था इसका अंदाज़ लगा पाना बहुत ही मुश्किल है ..ब्लेयर ने अपनी सरकार के अटार्नी जनरल,लार्ड गोल्डस्मिथ को आदेश दे दिया कि अंतर राष्ट्रीय कानून की ऐसी व्याख्या कर दें जिनकी बिना पर हमले में भाग लेने वाली ब्रिटिश फौज को आपराधिक आरोपों से बचाया जा सके.. अब जब सारी दुनिया को पता है कि इराक पर हमला न केवल गैर कानूनी था बल्कि गलत कारणों के आधार पर किया गया था, इस बात की एक बार समीक्षा करने की ज़रुरत है कि इंसानियत के खिलाफ इस हमले के जिम्मेवार कौन लोग हैं ..इराक पर हुए ब्लेयर और बुश के हमले की वजह से कम से कम १० लाख लोगों की जाने गयी हैं और पश्चिमी देशों के प्रति पूरी दुनिया में जो नाराज़गी है ,उसका भी हिसाब माँगा जाना चाहिए.उस हमले के बाद दुनिया भर में अस्थिरता का माहौल बन गया है इसलिए इस हमले के बारे में फैसला लेने वालों को सद्दाम हुसैन के बाद की दुनिया की राजनीतिक हालात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उन्हें युद्ध अपराधी मान कर उनके ऊपर मुक़दमा चलाया जाना चाहिए
Tuesday, December 15, 2009
बंगलादेश--इंसानी हौसलों की जीत का मुल्क
शेष नारायण सिंह
३८ साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. और उसके साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक , शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. . प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,. और उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझा था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे , उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्द गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया. दूसरी तरफ बचे खुचे पाकिस्तान के इतिहास में यह तारीख सबसे काले अक्षरों में लिख दी गयी. . उसकी फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया. . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं , शेख मुजीब को ही शहीद कर दिया गया. वहां भी फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया, कई बार तो वही लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे. लेकिन अब वहां लोकशाही की स्थापना हो चुकी है और शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी है..
बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों .. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया. और पाकिस्तानी फौज के सबसे खूंखार हाथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का भी योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..
लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन ३८ वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं लेकिन उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक वही शक्तियां जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . इस लिए अपने पड़ोसी देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए भारत को शेख हसीना को हर तरह की मदद देनी होगी. लगभग उसी तरह की मदद,जैसी १९७१ में दी गयी थी.
३८ साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. और उसके साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक , शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. . प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,. और उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझा था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे , उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्द गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया. दूसरी तरफ बचे खुचे पाकिस्तान के इतिहास में यह तारीख सबसे काले अक्षरों में लिख दी गयी. . उसकी फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया. . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं , शेख मुजीब को ही शहीद कर दिया गया. वहां भी फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया, कई बार तो वही लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे. लेकिन अब वहां लोकशाही की स्थापना हो चुकी है और शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी है..
बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों .. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया. और पाकिस्तानी फौज के सबसे खूंखार हाथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का भी योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..
लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन ३८ वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं लेकिन उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक वही शक्तियां जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . इस लिए अपने पड़ोसी देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए भारत को शेख हसीना को हर तरह की मदद देनी होगी. लगभग उसी तरह की मदद,जैसी १९७१ में दी गयी थी.
हैदराबाद और सरदार पटेल की याद
शेष नारायण सिंह
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता. १५ दिसंबर को सरदार पटेल की पुण्यतिथि के अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है ...१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए ५९ साल हो गए लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वासत्व में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना वैसे ही फैसले लेते रहेंगें जैसा इस बार लिया है और राजनीतिक संकट पैदा हो गया है
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता. १५ दिसंबर को सरदार पटेल की पुण्यतिथि के अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है ...१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए ५९ साल हो गए लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वासत्व में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना वैसे ही फैसले लेते रहेंगें जैसा इस बार लिया है और राजनीतिक संकट पैदा हो गया है
Friday, December 11, 2009
संयुक्त राष्ट्र के कोपेनहेगन सम्मलेन में धनी देशों की मनमानी
शेष नारायण सिंह
कोपेनहेगन में चल रही जलवायु वार्ता में विकसित देश दादागीरी के मूड में हैं। दुनिया भर के राष्ट्रों के कार्बन उत्सर्जन और उनके उत्तरदायित्व के बारे में चल रहे इस सम्मेलन में भाति-भाति के लोग शामिल हो रहे हैं। पृथ्वी को तबाही से बचाने के बजाय सभी देश अपने राष्ट्रहित में बात कर रहे हैं और उसमें कोई बुराई भी नहीं है। कूटनीति के बुनियादी सिद्धात हैं कि देश अपने राष्ट्रहित में बात करते हैं, लेकिन जब दूसरे देशों के हितों को कुचलने की कोशिश शुरू हो जाती है तो समस्या खड़ी हो जाती है। कई बार दूसरे मुल्क को रौंदने की ताकतवर देशों की कोशिश के चलते ही युद्ध की नौबत आ जाती है। कोपेनहेगन में जमा हुए देशों का एजेंडा तो है कि संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क में कार्बन उत्सर्जन के किसी सर्वमान्य फार्मूले पर पर्हुचें, लेकिन विकसित देशों की नीयत साफ नहीं दिख रही है। विकसित देशों की कोशिश यह है कि क्योटो प्रोटोकाल से हटकर एक समझौता विकासशील और गरीब मुल्कों के ऊपर थोप दिया जाए, जिसकी वजह से उनके औद्योगिक विकास में ब्रेक लग जाए और वे हमेशा के लिए इन विकसित देशों पर निर्भर हो जाएं। कोपेनहेगन में सम्मेलन इसलिए किया गया है कि क्योटो की संधि को और चुस्त-दुरुस्त किया जाए, लेकिन तथाकथित विकसित देश इस मौके का इस्तेमाल बाकी दुनिया को आर्थिक गुलामी की जंजीर पहनाने के लिए करना चाहते हैं।
डेनमार्क की मार्फत इन विकसित देशों ने एक ऐसा मसौदा तैयार किया है जो अगर लागू हो गया तो जी-77 के देश और चीन कार्बन उत्सर्जन को संभालने के बोझ के नीचे दब जाएंगें। हालाकि इस मसौदे को गुप्त रखा जा रहा था, लेकिन यह लीक हो गया और अखबारों ने प्रकाशित हो गया। अगर विकसित देश इस मसौदे में बताई गई आधी बातों को भी लागू करवाने में सफल हो गए तो भारत और चीन सहित बाकी देशों को हमेशा के लिए आर्थिक दौड़ में पछाड़ देंगे। अन्य बातों के अलावा इस मसौदे में विकसित देशों ने प्रति व्यक्ति कार्बन छोड़ने की जो सीमा तय की है वह भी अनुचित है। गरीब देशों के लिए यह सीमा 1.44 टन प्रति व्यक्ति और विकसित देशों के लिए 2.67 टन रखी गई है। 2050 तक के लिए प्रस्तावित कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र के अधिकार क्षेत्र से खींच कर संपन्न देशों के हवाले करने की साजिश का भी पर्दाफाश इस मसौदे के लीक हो जाने से हो गया है। दुनिया भर के कूटनीतिक जानकार इस दस्तावेज के नतीजों को मानवता के लिए बहुत खतरनाक मान रहे हैं। अगर यह मसौदा पास हो गया तो जलवायु परिवर्तन में लगने वाले खर्च को पूरी तरह से विश्व बैंक के हवाले कर दिया जाएगा और क्योटो प्रोटोकाल को कूड़ेदान में डाल दिया जाएगा। यह संयुक्त राष्ट्र को जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र से पूरी तरह से बेदखल कर देगा।
विकासशील देशों को इस मसौदे के आधार पर किसी तरह की चर्चा नहीं होने देनी चाहिए। डेनमार्क दस्तावेज से भारत और चीन सहित बाकी देशों में बहुत ही नाराजगी है। डेनमार्क दस्तावेज में प्रस्ताव है कि विकासशील देशों को ऐसे कटौती प्रस्तावों पर सहमत होने के लिए मजबूर कर दिया जाए जो मूल रूप से संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से हट कर हैं। संपन्न देशों की कोशिश है कि विकासशील देशों को कई खेमों में बांट दिया जाए। उनकी इस योजना का असर दिखने भी लगा है। बैठक में समुद्र के आसपास बसे छोटे देशों के संगठन के प्रतिनिधियों ने बगावत कर दी। यह संगठन वास्तव में जी-77 और चीन के संयुक्त मंच का ही सदस्य है, लेकिन उन्होंने माग करनी शुरू कर दी कि जलवायु परिवर्तन के संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क के अंतर्गत ही एक नया समझौता होना चाहिए, जिसमें भारत और चीन जैसे बड़े देशों पर कार्बन कटौती का ज्यादा जिम्मा आए। यानी क्योटो प्रोटोकाल को कमजोर करने की औद्योगिक देशों की साजिश के जाल में ये छोटे देश साफ फंसते नजर आ रहे हैं।
बात और साफ इसलिए हो गई कि डेनमार्क का प्रतिनधि भी इन देशों की हां में हां मिलाने लगा और भारत और चीन के खिलाफ भाषण देने लगा। जी-77 के सदस्य देश हक्के-बक्के रह गए। बैठक कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी और बाद में जब फिर चर्चा शुरू हुई तो जी-77 और चीन ने साफ कर दिया कि अमेरिका सहित सभी संपन्न देशों को क्योटो संधि के तहत ही कार्बन की कटौती को स्वीकार करना पड़ेगा। विकासशील देशों में इस बात को लेकर बहुत नाराजगी है कि तथाकथित डेनमार्कमसौदे पर गुपचुप बात हो रही है और कोशिश की जा रही है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोपेनहेगन पहुंचें तो उनके प्रभाव का इस्तेमाल करके विकसित देश अपनी मनमानी करने में कामयाब हो जाएं।
(दैनिक जागरण से साभार )
कोपेनहेगन में चल रही जलवायु वार्ता में विकसित देश दादागीरी के मूड में हैं। दुनिया भर के राष्ट्रों के कार्बन उत्सर्जन और उनके उत्तरदायित्व के बारे में चल रहे इस सम्मेलन में भाति-भाति के लोग शामिल हो रहे हैं। पृथ्वी को तबाही से बचाने के बजाय सभी देश अपने राष्ट्रहित में बात कर रहे हैं और उसमें कोई बुराई भी नहीं है। कूटनीति के बुनियादी सिद्धात हैं कि देश अपने राष्ट्रहित में बात करते हैं, लेकिन जब दूसरे देशों के हितों को कुचलने की कोशिश शुरू हो जाती है तो समस्या खड़ी हो जाती है। कई बार दूसरे मुल्क को रौंदने की ताकतवर देशों की कोशिश के चलते ही युद्ध की नौबत आ जाती है। कोपेनहेगन में जमा हुए देशों का एजेंडा तो है कि संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क में कार्बन उत्सर्जन के किसी सर्वमान्य फार्मूले पर पर्हुचें, लेकिन विकसित देशों की नीयत साफ नहीं दिख रही है। विकसित देशों की कोशिश यह है कि क्योटो प्रोटोकाल से हटकर एक समझौता विकासशील और गरीब मुल्कों के ऊपर थोप दिया जाए, जिसकी वजह से उनके औद्योगिक विकास में ब्रेक लग जाए और वे हमेशा के लिए इन विकसित देशों पर निर्भर हो जाएं। कोपेनहेगन में सम्मेलन इसलिए किया गया है कि क्योटो की संधि को और चुस्त-दुरुस्त किया जाए, लेकिन तथाकथित विकसित देश इस मौके का इस्तेमाल बाकी दुनिया को आर्थिक गुलामी की जंजीर पहनाने के लिए करना चाहते हैं।
डेनमार्क की मार्फत इन विकसित देशों ने एक ऐसा मसौदा तैयार किया है जो अगर लागू हो गया तो जी-77 के देश और चीन कार्बन उत्सर्जन को संभालने के बोझ के नीचे दब जाएंगें। हालाकि इस मसौदे को गुप्त रखा जा रहा था, लेकिन यह लीक हो गया और अखबारों ने प्रकाशित हो गया। अगर विकसित देश इस मसौदे में बताई गई आधी बातों को भी लागू करवाने में सफल हो गए तो भारत और चीन सहित बाकी देशों को हमेशा के लिए आर्थिक दौड़ में पछाड़ देंगे। अन्य बातों के अलावा इस मसौदे में विकसित देशों ने प्रति व्यक्ति कार्बन छोड़ने की जो सीमा तय की है वह भी अनुचित है। गरीब देशों के लिए यह सीमा 1.44 टन प्रति व्यक्ति और विकसित देशों के लिए 2.67 टन रखी गई है। 2050 तक के लिए प्रस्तावित कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र के अधिकार क्षेत्र से खींच कर संपन्न देशों के हवाले करने की साजिश का भी पर्दाफाश इस मसौदे के लीक हो जाने से हो गया है। दुनिया भर के कूटनीतिक जानकार इस दस्तावेज के नतीजों को मानवता के लिए बहुत खतरनाक मान रहे हैं। अगर यह मसौदा पास हो गया तो जलवायु परिवर्तन में लगने वाले खर्च को पूरी तरह से विश्व बैंक के हवाले कर दिया जाएगा और क्योटो प्रोटोकाल को कूड़ेदान में डाल दिया जाएगा। यह संयुक्त राष्ट्र को जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र से पूरी तरह से बेदखल कर देगा।
विकासशील देशों को इस मसौदे के आधार पर किसी तरह की चर्चा नहीं होने देनी चाहिए। डेनमार्क दस्तावेज से भारत और चीन सहित बाकी देशों में बहुत ही नाराजगी है। डेनमार्क दस्तावेज में प्रस्ताव है कि विकासशील देशों को ऐसे कटौती प्रस्तावों पर सहमत होने के लिए मजबूर कर दिया जाए जो मूल रूप से संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से हट कर हैं। संपन्न देशों की कोशिश है कि विकासशील देशों को कई खेमों में बांट दिया जाए। उनकी इस योजना का असर दिखने भी लगा है। बैठक में समुद्र के आसपास बसे छोटे देशों के संगठन के प्रतिनिधियों ने बगावत कर दी। यह संगठन वास्तव में जी-77 और चीन के संयुक्त मंच का ही सदस्य है, लेकिन उन्होंने माग करनी शुरू कर दी कि जलवायु परिवर्तन के संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क के अंतर्गत ही एक नया समझौता होना चाहिए, जिसमें भारत और चीन जैसे बड़े देशों पर कार्बन कटौती का ज्यादा जिम्मा आए। यानी क्योटो प्रोटोकाल को कमजोर करने की औद्योगिक देशों की साजिश के जाल में ये छोटे देश साफ फंसते नजर आ रहे हैं।
बात और साफ इसलिए हो गई कि डेनमार्क का प्रतिनधि भी इन देशों की हां में हां मिलाने लगा और भारत और चीन के खिलाफ भाषण देने लगा। जी-77 के सदस्य देश हक्के-बक्के रह गए। बैठक कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी और बाद में जब फिर चर्चा शुरू हुई तो जी-77 और चीन ने साफ कर दिया कि अमेरिका सहित सभी संपन्न देशों को क्योटो संधि के तहत ही कार्बन की कटौती को स्वीकार करना पड़ेगा। विकासशील देशों में इस बात को लेकर बहुत नाराजगी है कि तथाकथित डेनमार्कमसौदे पर गुपचुप बात हो रही है और कोशिश की जा रही है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोपेनहेगन पहुंचें तो उनके प्रभाव का इस्तेमाल करके विकसित देश अपनी मनमानी करने में कामयाब हो जाएं।
(दैनिक जागरण से साभार )
Wednesday, December 9, 2009
हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म को एक बताने की राजनीति
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के सत्रह साल पूरे हो गए. . इन सत्रह वर्षो में अपनी योजना के अनुसार हिन्दुववादी राजनीतिक ताक़तों ने सत्ता के हर तरह के सुख का आनंद ले लिया. पहले वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई, फिर पी वी नरसिंह राव को सत्ता में बने रहने दिया, हालांकि संघ की इतनी ताक़त थी कि जब चाहते उसे ज़मींदोज़ कर सकते थे लेकिन नरसिंह राव, संघ का ही कम कर रहे थे इसलिए उन्हें बना रहने दिया.. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी पर बैठाकर आर एस एस ने भारतीय गणतंत्र की संस्थाओं को ढहाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. शिक्षा के भगवाकरण का काम मुरली मनोहर जोशी को सौंपा और अन्य भरोसे के बन्दों को सही जगह पर लगा दिया . योजना यह थी कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति जैसे कार्यों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में रखा जाएगा जिससे वह बार बार वोट देकर आर एस एस की पार्टी को सत्तासीन करती रहे . इसी सोच के तहत गुजरात की राज्य सरकार चलाने का मंसूबा बनाया गया था जो लगभग योजना के अनुसार चल रही है और किसी भी बहस में जब नरेन्द्र मोदी की साम्प्रादायिक राजनीति का सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो संघी चिन्तक और पत्रकार साफ़ कह देते हैं कि जनता ने मोदी को वोट देकर जिताया है और उन्हें अपनी राजनीतिक यानी हिन्दुत्ववादी योजना को लागू करने का अधिकार दिया है . आर एस एस वालों ने केंद्र सरकार के लिये भी ऐसा ही कुछ सोचा था लेकिन बात उलट गयी. केंद्र सरकार में सक्रिय बी जे पी वाले भ्रष्टाचार की उन बुलंदियों पर पंहुच गए जहां तक उनके पहले के कांग्रेसियों की जाने की हिम्मत नहीं पडी थी . बी जे पी अध्यक्ष , को टी वी के परदे पर घूस के रूपये झटकते पूरे देश ने देखा, मुंबई के एक धन्धेबाज़ भाजपाई ने तो ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिसमें बोफोर्स की ६५ करोड़ की घूस की रक़म होटल के बैरे को दी जाने वाली टिप जैसी लगने लगी. दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अक्सर चर्चा सुनी जाती थी कि तत्कालीन प्रधान मंत्री के एक दामादनुमा रिश्तेदार ने तो २० करोड़ के नीचे की रक़म कभी बतौर बयाना भी नहीं पकड़ी.मतलब यह कि बी जे पी की अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भ्रष्टाचार की उदाहरण बन गयी और उसकी रिश्वत खोरी की कथाएं इतनी चलीं कि कांग्रेस के भ्रष्ट नेतागण महात्मा लगने लगे. कुल मिलाकर स्वच्छ और कुशल प्रशासन की आड़ में में संघी एजेंडा लागू करने के सपने हमेशा के लिए दफन हो गए. जैसा कि प्रकृति का नियम है कि काठ की हांडी एक बार से ज्यादा नहीं चढ़ सकती, इसलिए अब हिन्दुत्व को हिन्दू धर्मं बताकर सत्ता हड़पने की कोशिश ख़त्म हो चुकी है लेकिन किसी और राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में फिर से हिंदुत्व को जिंदा करने की कोशिश शुरू हो गयी है . नागपुर के सर्वाच्च अधिकारी ने इस आशय का नारा दे दिया है लेकिन इस बार खेल थोडा बदला हुआ है . अबकी मुसलमानों को भी साथ लेने की बात की जा रही है . मुसलमानों के धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर फेरी लगाई जा रही है और बताया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे... बाबरी मस्जिद की राजनीति के बाद अवाम की ऑंखें बहुत सारे मामलों में खुल गयी थीं . एक तो यही कि धर्म के नाम पर पैसा बटोरने वाला कभी भी ईमानदार नहीं रह सकता. आर एस एस का तो बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि लोगों को समझ में आ गया कि राममंदिर के नाम पर किये गए आन्दोलन का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए करने वाले लोग धोखेबाज़ होते हैं . मुसलमानों में भी कुछ महत्वाकांक्षी लोग आगे आ गए थे . बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के आन्दोलन में शामिल बहुत सारे मुस्लिम नेता ३-४ साल के अन्दर ही बहुत मालदार हो गए थे. कुछ लोग केंद्र और राज्यों में मंत्री बने और कुछ लोग राजदूत वगैरह बन गए. गरज यह कि जनता को अब सब कुछ मालूम पड़ चुका है और ऐसा लगता है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके धोखा देने वालों को वह बख्शने वाली नहीं है .. पिछले २३ वर्षों की राजनीति का यह एक बड़ा सबक रहेगा अगर जनता यह मान ले धर्म की बात करने वालों से धर्म की बात तो की जायेगी लेकिन अगर वे राजनीति की बात करने लगेंगें तो उनसे उसी तरह का बर्ताव किया जाएगा जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने बी जे पी से करना शुरू कर दिया है . अगर धर्मनिरपेक्षता की बहस को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ तो बाबरी मस्जिद के नाम पर धंधा करने वालों का जो हस्र हुआ उसे देख कर शायद भविष्य में शातिर से शातिर ठग भी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने की हिम्मत नहीं करेगा. उस राजनीति में शामिल नेताओं ने पैसा-कौड़ी तो चाहे जितना बना लिया हो लेकिन उनकी विश्वसनीयता शून्य के आसपास ही मंडराती रहती है . शायद इसीलिए इस बार आर एस एस के मुखिया के बयानों में कुछ ट्विस्ट है . आजकल वे कहते पाए जा रहे हैं कि राममंदिर के लिए संतसमाज के आन्दोलन को वे समर्थन देंगें..यानी उन्हें भी इस बात का अंदाज़ लग गया है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके सत्ता नहीं मिलने वाली है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ जब आर एस एस ने आन्दोलन शुरू किया था तो सूचना की क्रान्ति नहीं आई थी . बहुत सारी बातें ऐसी भी लोगों ने सच मान ली थीं जो कि वास्तव में झूठ थीं लेकिन किसी मकसद को हासिल करने के लिए निहित स्वार्थ के लोग फैला रहे थे .अब ऐसा नहीं है . किसी भी नेता के लिए झूठ बोलकर पार पाना मुश्किल है क्योंकि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल ऐसा नहीं होने देंगें . इसलिए ऐसा लगता है कि अब धार्मिक आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए, आम आदमी को उकसाना उतना आसान नहीं होगा, जितना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले था
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के सत्रह साल पूरे हो गए. . इन सत्रह वर्षो में अपनी योजना के अनुसार हिन्दुववादी राजनीतिक ताक़तों ने सत्ता के हर तरह के सुख का आनंद ले लिया. पहले वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई, फिर पी वी नरसिंह राव को सत्ता में बने रहने दिया, हालांकि संघ की इतनी ताक़त थी कि जब चाहते उसे ज़मींदोज़ कर सकते थे लेकिन नरसिंह राव, संघ का ही कम कर रहे थे इसलिए उन्हें बना रहने दिया.. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी पर बैठाकर आर एस एस ने भारतीय गणतंत्र की संस्थाओं को ढहाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. शिक्षा के भगवाकरण का काम मुरली मनोहर जोशी को सौंपा और अन्य भरोसे के बन्दों को सही जगह पर लगा दिया . योजना यह थी कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति जैसे कार्यों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में रखा जाएगा जिससे वह बार बार वोट देकर आर एस एस की पार्टी को सत्तासीन करती रहे . इसी सोच के तहत गुजरात की राज्य सरकार चलाने का मंसूबा बनाया गया था जो लगभग योजना के अनुसार चल रही है और किसी भी बहस में जब नरेन्द्र मोदी की साम्प्रादायिक राजनीति का सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो संघी चिन्तक और पत्रकार साफ़ कह देते हैं कि जनता ने मोदी को वोट देकर जिताया है और उन्हें अपनी राजनीतिक यानी हिन्दुत्ववादी योजना को लागू करने का अधिकार दिया है . आर एस एस वालों ने केंद्र सरकार के लिये भी ऐसा ही कुछ सोचा था लेकिन बात उलट गयी. केंद्र सरकार में सक्रिय बी जे पी वाले भ्रष्टाचार की उन बुलंदियों पर पंहुच गए जहां तक उनके पहले के कांग्रेसियों की जाने की हिम्मत नहीं पडी थी . बी जे पी अध्यक्ष , को टी वी के परदे पर घूस के रूपये झटकते पूरे देश ने देखा, मुंबई के एक धन्धेबाज़ भाजपाई ने तो ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिसमें बोफोर्स की ६५ करोड़ की घूस की रक़म होटल के बैरे को दी जाने वाली टिप जैसी लगने लगी. दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अक्सर चर्चा सुनी जाती थी कि तत्कालीन प्रधान मंत्री के एक दामादनुमा रिश्तेदार ने तो २० करोड़ के नीचे की रक़म कभी बतौर बयाना भी नहीं पकड़ी.मतलब यह कि बी जे पी की अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भ्रष्टाचार की उदाहरण बन गयी और उसकी रिश्वत खोरी की कथाएं इतनी चलीं कि कांग्रेस के भ्रष्ट नेतागण महात्मा लगने लगे. कुल मिलाकर स्वच्छ और कुशल प्रशासन की आड़ में में संघी एजेंडा लागू करने के सपने हमेशा के लिए दफन हो गए. जैसा कि प्रकृति का नियम है कि काठ की हांडी एक बार से ज्यादा नहीं चढ़ सकती, इसलिए अब हिन्दुत्व को हिन्दू धर्मं बताकर सत्ता हड़पने की कोशिश ख़त्म हो चुकी है लेकिन किसी और राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में फिर से हिंदुत्व को जिंदा करने की कोशिश शुरू हो गयी है . नागपुर के सर्वाच्च अधिकारी ने इस आशय का नारा दे दिया है लेकिन इस बार खेल थोडा बदला हुआ है . अबकी मुसलमानों को भी साथ लेने की बात की जा रही है . मुसलमानों के धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर फेरी लगाई जा रही है और बताया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे... बाबरी मस्जिद की राजनीति के बाद अवाम की ऑंखें बहुत सारे मामलों में खुल गयी थीं . एक तो यही कि धर्म के नाम पर पैसा बटोरने वाला कभी भी ईमानदार नहीं रह सकता. आर एस एस का तो बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि लोगों को समझ में आ गया कि राममंदिर के नाम पर किये गए आन्दोलन का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए करने वाले लोग धोखेबाज़ होते हैं . मुसलमानों में भी कुछ महत्वाकांक्षी लोग आगे आ गए थे . बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के आन्दोलन में शामिल बहुत सारे मुस्लिम नेता ३-४ साल के अन्दर ही बहुत मालदार हो गए थे. कुछ लोग केंद्र और राज्यों में मंत्री बने और कुछ लोग राजदूत वगैरह बन गए. गरज यह कि जनता को अब सब कुछ मालूम पड़ चुका है और ऐसा लगता है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके धोखा देने वालों को वह बख्शने वाली नहीं है .. पिछले २३ वर्षों की राजनीति का यह एक बड़ा सबक रहेगा अगर जनता यह मान ले धर्म की बात करने वालों से धर्म की बात तो की जायेगी लेकिन अगर वे राजनीति की बात करने लगेंगें तो उनसे उसी तरह का बर्ताव किया जाएगा जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने बी जे पी से करना शुरू कर दिया है . अगर धर्मनिरपेक्षता की बहस को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ तो बाबरी मस्जिद के नाम पर धंधा करने वालों का जो हस्र हुआ उसे देख कर शायद भविष्य में शातिर से शातिर ठग भी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने की हिम्मत नहीं करेगा. उस राजनीति में शामिल नेताओं ने पैसा-कौड़ी तो चाहे जितना बना लिया हो लेकिन उनकी विश्वसनीयता शून्य के आसपास ही मंडराती रहती है . शायद इसीलिए इस बार आर एस एस के मुखिया के बयानों में कुछ ट्विस्ट है . आजकल वे कहते पाए जा रहे हैं कि राममंदिर के लिए संतसमाज के आन्दोलन को वे समर्थन देंगें..यानी उन्हें भी इस बात का अंदाज़ लग गया है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके सत्ता नहीं मिलने वाली है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ जब आर एस एस ने आन्दोलन शुरू किया था तो सूचना की क्रान्ति नहीं आई थी . बहुत सारी बातें ऐसी भी लोगों ने सच मान ली थीं जो कि वास्तव में झूठ थीं लेकिन किसी मकसद को हासिल करने के लिए निहित स्वार्थ के लोग फैला रहे थे .अब ऐसा नहीं है . किसी भी नेता के लिए झूठ बोलकर पार पाना मुश्किल है क्योंकि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल ऐसा नहीं होने देंगें . इसलिए ऐसा लगता है कि अब धार्मिक आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए, आम आदमी को उकसाना उतना आसान नहीं होगा, जितना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले था
लिब्रहान रिपोर्ट जैसी ही रही उस पर लोकसभा में बहस
शेष नारायण सिंह
लोक सभा में लिब्रहान कमीशन की जांच के नतीजों पर नियम १९३ के तहत दो दिन की चर्चा हुई. . लोक सभा के इतिहास में यह चर्चा उन चर्चाओं में गिनी जायेगी जिनका स्तर बहुत ही निम्नकोटि का था. .. लोकसभा के सदस्यों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वे चाहें तो बहस का स्तर रसातल तक ले जा सकते हैं .. इस बार उन्होंने अपनी इस योग्यता का विधिवत परिचय दिया. ज़्यादातर नेता इस तर्ज में भाषण देते रहे जैसे कोई चुनाव होने वाला हो . बहस के दौरान बहुत सारी बातें ऐसी हुईं जिन्हें प्रहसन और विद्रूप की श्रेणी में रखा जा सकता है. कुछ अभद्र टिप्पणियाँ भी की गयीं. . उत्तर प्रदेश के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने जब अपनी असंसदीय भाषा वाली टिप्पणी की तो बहुत ही मगन दिख रहे थे.. बी जे पी को लगा कि नागपुर की ताज़ा फरमाइश के हिसाब से हिंदुत्व के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण का यह अच्छा मौक़ा है . शायद इसीलिये उसके नेता कल्पनालोक के तर्क देते पाए गए. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह होमवर्क करके क्लास में आये बच्चे की तरह उत्साहित थे तो सुषमा स्वराज ने बाबरी विध्वंस के लिए आये लोगों की भीड़ को जन आन्दोलन कह डाला और उसके नेता लाल कृष्ण अडवाणी को जननायक कह दिया. ताज़ा इतिहास में भारत ने दो जननायक देखे हैं. एक तो महात्मा गाँधी और दूसरे जयप्रकाश नारायण . दोनों ने ही सत्ता को हमेशा अपने से दूर रखा और जन मानस में आज भी उनकी चावी ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता कामी नहीं था. . अब उनकी श्रेणी में अडवाणी को रखने की कोशिश की जा रही है जिन्हें बी जे पी ने पिछले चुनाव में एक सत्तालोभी व्यक्ति के रूप में पेश करके पूरे देश में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार का अभिनय करवाया और अब आर एस एस वाले उन्हें विपक्ष के नेता पद से भी हटा रहे हैं और वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं ..उनकी छवि सत्ता के एक लोभी व्यक्ति की है .. अगर अडवाणी जननायक हैं तो मायावती , लालू यादव,जयललिता जैसे लोग भी उसी श्रेणी में आयेंगें . अब जनता को तय करना हो कि जिस बहस में इस तरह की काल्पनिक बातें कही गयी हों उसे क्या कहा जाएगा. . जहां तक कांग्रेस का सवाल है,लगता है उसने बहस को गंभीरता से नहीं लिया.जगदम्बिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को उतार कर बहस की गंभीरता को कांग्रेस ने बहुत ही हल्का कर दिया..
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर ही तरह तरह सवाल पूछे जा रहे हैं और उसके सार्वजनिक होने के बाद एक अलग बहस शुरू हो गयी है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जनता का नौ करोड़ रूपया और करीब सत्रह साल का वक़्त बरबाद करने के बाद जो जानकारी न्यायमूर्ति लिब्रहान ने इकठ्ठा की है उसमें नया क्या है? जो कुछ भी वे इकठ्ठा कर के लाये हैं वह जागरूक लोगों को पहले से ही मालूम था. उन्होंने बहुत सारे लोगों को अयोध्या में मौजूद बाबरी मस्जिद, जिसे संघ वाले विवादित ढांचा कहते हैं, के विध्वंस में शामिल बताया है . लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पता लगाया है ,उसका इस्तेमाल ज़िम्मेदार लोगों पर मुक़दमा चलाने में नहीं किया जा सकता. अगर उनकी जांच के आधार पर किसी के ऊपर मुक़दमा चलाना हो तो , नए सिरे से जांच करनी पड़ेगी . इसका मतलब यह हुआ कि फिर से एफ आई आर लिखी जायेगी, विवेचना होगी और अगर कोई अपराध पाया जाएगा तो आरोप पत्र दाखिल किये जायेंगें और अदालत में मुक़दमा चलेगा. सी बी आई के प्रवक्ता से जब पूछा गया कि न्यायमूर्ति लिब्रहान ने जो जानकारी इकठ्ठा की है , क्या उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किया जा सकता है. सी बी आई के प्रवक्ता ने साफ़ कहा कि उसका कोई इस्तेमाल नहीं है .अगर किसी गवाह ने जांच आयोग के सामने बयान दिया है तो उसकी उतनी भी मान्यता नहीं है जितनी कि एक मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान की होती है. आयोग के सामने दिए गए बयान से कोई भी गवाह मुकर सकता है और उसका कुछ नहीं बनाया बिगाड़ा जा सकता.. सवाल उठता है कि अगर किसी जांच की इतनी कीमत भी नहीं कि उसका इस्तेमाल आरोपित व्यक्ति को दण्डित करने के लिए किया जा सके ,तो उसकी ज़रुरत क्या है.इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन ,मुंबई दंगों के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गाँधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंग नाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं जो १९५२ के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायेदा नहीं हुआ.
.सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ के आधार पर बने आयोग के नतीजों के पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि न्यायिक जांच आयोग का गठन इस एक्ट के अनुसार नहीं होता, वह अलग मामला है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ,आर सी लाहोटी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्व नहीं है . किसी भी जज को १९५२ के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं . . उनका कहना है कि अगर इन् आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए.. किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार बार इस्तेमाल कर चुकी हैं .
कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ लागू होने के पहले कोई भी सार्वजनिक जांच पब्लिक सर्विस इन्क्वायारीज़ एक्ट , 1850 के तहत की जाती थी . इस लिए १९५२ में संसद में एक बिल लाकर यह कानून बनाया गया. लेकिन इस से कोई फायेदा नहीं हुआ. क्योंकि इस एक्ट में जो व्यवस्था है उसके हिसाब से अपनी धारा ८ बी की बिना पर यह कमीशन केवल गवाह या सरकारी दस्तावेज़ तलब कर सकता है . बाकी कुछ नहीं कर सकता .. इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह मांग बार बार उठ रही है कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ को रद्द कर देना चाहिए .क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकारें किसी बड़े मसले से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ही करती हैं . लेकिन अगर इसे रद्द नहीं करना है तो इसे कुछ तो ताक़त दे दी जानी चाहिए. जैसा कि न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने बताया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता इस एक्ट का कोई लाभ नहीं है. .
लोक सभा में लिब्रहान कमीशन की जांच के नतीजों पर नियम १९३ के तहत दो दिन की चर्चा हुई. . लोक सभा के इतिहास में यह चर्चा उन चर्चाओं में गिनी जायेगी जिनका स्तर बहुत ही निम्नकोटि का था. .. लोकसभा के सदस्यों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वे चाहें तो बहस का स्तर रसातल तक ले जा सकते हैं .. इस बार उन्होंने अपनी इस योग्यता का विधिवत परिचय दिया. ज़्यादातर नेता इस तर्ज में भाषण देते रहे जैसे कोई चुनाव होने वाला हो . बहस के दौरान बहुत सारी बातें ऐसी हुईं जिन्हें प्रहसन और विद्रूप की श्रेणी में रखा जा सकता है. कुछ अभद्र टिप्पणियाँ भी की गयीं. . उत्तर प्रदेश के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने जब अपनी असंसदीय भाषा वाली टिप्पणी की तो बहुत ही मगन दिख रहे थे.. बी जे पी को लगा कि नागपुर की ताज़ा फरमाइश के हिसाब से हिंदुत्व के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण का यह अच्छा मौक़ा है . शायद इसीलिये उसके नेता कल्पनालोक के तर्क देते पाए गए. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह होमवर्क करके क्लास में आये बच्चे की तरह उत्साहित थे तो सुषमा स्वराज ने बाबरी विध्वंस के लिए आये लोगों की भीड़ को जन आन्दोलन कह डाला और उसके नेता लाल कृष्ण अडवाणी को जननायक कह दिया. ताज़ा इतिहास में भारत ने दो जननायक देखे हैं. एक तो महात्मा गाँधी और दूसरे जयप्रकाश नारायण . दोनों ने ही सत्ता को हमेशा अपने से दूर रखा और जन मानस में आज भी उनकी चावी ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता कामी नहीं था. . अब उनकी श्रेणी में अडवाणी को रखने की कोशिश की जा रही है जिन्हें बी जे पी ने पिछले चुनाव में एक सत्तालोभी व्यक्ति के रूप में पेश करके पूरे देश में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार का अभिनय करवाया और अब आर एस एस वाले उन्हें विपक्ष के नेता पद से भी हटा रहे हैं और वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं ..उनकी छवि सत्ता के एक लोभी व्यक्ति की है .. अगर अडवाणी जननायक हैं तो मायावती , लालू यादव,जयललिता जैसे लोग भी उसी श्रेणी में आयेंगें . अब जनता को तय करना हो कि जिस बहस में इस तरह की काल्पनिक बातें कही गयी हों उसे क्या कहा जाएगा. . जहां तक कांग्रेस का सवाल है,लगता है उसने बहस को गंभीरता से नहीं लिया.जगदम्बिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को उतार कर बहस की गंभीरता को कांग्रेस ने बहुत ही हल्का कर दिया..
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर ही तरह तरह सवाल पूछे जा रहे हैं और उसके सार्वजनिक होने के बाद एक अलग बहस शुरू हो गयी है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जनता का नौ करोड़ रूपया और करीब सत्रह साल का वक़्त बरबाद करने के बाद जो जानकारी न्यायमूर्ति लिब्रहान ने इकठ्ठा की है उसमें नया क्या है? जो कुछ भी वे इकठ्ठा कर के लाये हैं वह जागरूक लोगों को पहले से ही मालूम था. उन्होंने बहुत सारे लोगों को अयोध्या में मौजूद बाबरी मस्जिद, जिसे संघ वाले विवादित ढांचा कहते हैं, के विध्वंस में शामिल बताया है . लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पता लगाया है ,उसका इस्तेमाल ज़िम्मेदार लोगों पर मुक़दमा चलाने में नहीं किया जा सकता. अगर उनकी जांच के आधार पर किसी के ऊपर मुक़दमा चलाना हो तो , नए सिरे से जांच करनी पड़ेगी . इसका मतलब यह हुआ कि फिर से एफ आई आर लिखी जायेगी, विवेचना होगी और अगर कोई अपराध पाया जाएगा तो आरोप पत्र दाखिल किये जायेंगें और अदालत में मुक़दमा चलेगा. सी बी आई के प्रवक्ता से जब पूछा गया कि न्यायमूर्ति लिब्रहान ने जो जानकारी इकठ्ठा की है , क्या उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किया जा सकता है. सी बी आई के प्रवक्ता ने साफ़ कहा कि उसका कोई इस्तेमाल नहीं है .अगर किसी गवाह ने जांच आयोग के सामने बयान दिया है तो उसकी उतनी भी मान्यता नहीं है जितनी कि एक मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान की होती है. आयोग के सामने दिए गए बयान से कोई भी गवाह मुकर सकता है और उसका कुछ नहीं बनाया बिगाड़ा जा सकता.. सवाल उठता है कि अगर किसी जांच की इतनी कीमत भी नहीं कि उसका इस्तेमाल आरोपित व्यक्ति को दण्डित करने के लिए किया जा सके ,तो उसकी ज़रुरत क्या है.इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन ,मुंबई दंगों के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गाँधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंग नाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं जो १९५२ के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायेदा नहीं हुआ.
.सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ के आधार पर बने आयोग के नतीजों के पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि न्यायिक जांच आयोग का गठन इस एक्ट के अनुसार नहीं होता, वह अलग मामला है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ,आर सी लाहोटी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्व नहीं है . किसी भी जज को १९५२ के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं . . उनका कहना है कि अगर इन् आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए.. किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार बार इस्तेमाल कर चुकी हैं .
कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ लागू होने के पहले कोई भी सार्वजनिक जांच पब्लिक सर्विस इन्क्वायारीज़ एक्ट , 1850 के तहत की जाती थी . इस लिए १९५२ में संसद में एक बिल लाकर यह कानून बनाया गया. लेकिन इस से कोई फायेदा नहीं हुआ. क्योंकि इस एक्ट में जो व्यवस्था है उसके हिसाब से अपनी धारा ८ बी की बिना पर यह कमीशन केवल गवाह या सरकारी दस्तावेज़ तलब कर सकता है . बाकी कुछ नहीं कर सकता .. इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह मांग बार बार उठ रही है कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ को रद्द कर देना चाहिए .क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकारें किसी बड़े मसले से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ही करती हैं . लेकिन अगर इसे रद्द नहीं करना है तो इसे कुछ तो ताक़त दे दी जानी चाहिए. जैसा कि न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने बताया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता इस एक्ट का कोई लाभ नहीं है. .
Tuesday, December 8, 2009
भारत-रूस परमाणु समझौता--अमरीकी ब्लैकमेल से छुटकारा
शेष नारायण सिंह
भारत और रूस के बीच परमाणु समझौता हो गया है. इस समझौते में बहुत सारी शर्तें नहीं हैं सीधे सीधे दोस्तों के बीच होने वाली समझदारी जैसी बात की गयी है . अमरीका से हुए परमाणु समझौते में जहां भारत को पूरी तरह से झुकाने की बात की गयी थी , हाइड एक्ट लगाया गया था, १२३ समझौता किया गया था . अमरीकी राजनीति का हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा , भारत को परमाणु सहायता के बारे में उपदेश देता फिरता था. लगभग हर अमरीकी बयान में यह बात छुपी रहती थी कि अगर कभी फिर परमाणु परीक्षण कर लिया तो सब कुछ बर्बाद करके रख देंगें. कुल मिलाकर ऐसा माहौल तैयार कर लिया गया था कि लगता था कि भारत के साथ परमाणु समझौता करके अमरीका ने बहुत बड़ा एहसान किया है . लेकिन रूस के समझौते में ऐसी कोई बात नहीं है . अमरीकी समझौते में जहां जहां कोई कसर रख ली गई थी, उसे रूसी परमाणु समझौता भर देता है और एक तरह से यह मुकम्मल इंतज़ाम कर दिया गया है कि भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए अब यूरेनियम की सप्लाई के लिये किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा. रूस ने कह दिया है कि जब भी जितनी भी युरेनियम की ज़रुरत हो , रूस देगा.
रूस भारत का दुर्दिन का साथी रहा है . .जो दुर्दिन का साथी होता है वही असली मित्र होता है .सोवियत रूस भारत का ऐसा ही साथी हुआ करता था.जब १९७१ में पाकिस्तान की दोस्ती के चक्कर में अमरीकी राष्ट्रपति कूटनीतिक मूर्खताओं के कीर्तिमान बना रहे थे और भारत को परमाणु हमले की धमकी तक दे रहे थे ,उस वक़्त सोवियत रूस की सरकार भारत के साथ चट्टान की तरह खडी थी. भारत के रक्षा तंत्र के विकास में सोवियत रूस का सबसे ज्यादा योगदान है .इसीलिये भारत में रूस की दोस्ती को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . सोवियंत रूस के टूटने के बाद मास्को में जो लोग सत्ता में आये, वे कुछ वर्ष तो भ्रमित रहे लेकिन अब उनकी दिशा तय हो चुकी है . बदली हालात में भी भारत और रूस की दोस्ती बहुत ही मह्त्वपूर्ण है. रूस से अपनी दोस्ती को संभालने के लिये भारत की तरफ से भी कोशिश की जाती है . भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की रूस की दो दिन की यात्रा को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच साल में एक बार शिखर स्तर पर मुलाक़ात होती है . वर्तमान यात्रा उसी शिखर सम्मलेन के सिलसिले का हिस्सा थी. .इस यात्रा में रक्षा समझौते को फिर से ताज़ा किया गया है , मल्टीपुल ट्रांसपोर्ट विमान और सांस्कृतिक आदान प्रदान के समझौतों के अलावा अपनेपन की अनुभूति को और पुख्ता करने का काम भी किया गया है...
रूस और भारत के बीच गहरी दोस्ती के चलते दोनों देशों के बीच बड़े नेताओं की आवाजाही लगी ही रहती है . इस साल भी भारत से कई बड़े नेता रूस गए और वहां से भी राजनीतिक स्तर पर बड़े पैमाने पर लोग आये. भारत की राष्ट्रपति, प्रतिभा पाटिल तो वहां इस वर्ष गयी ही थीं, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री , और वाणिज्य मंत्री भी इसी साल रूस की यात्रा पर हो आये हैं ..इस अवसर पर जारी संयुक्त घोषणा पत्र में वे सारी बातें शामिल हैं जिनसे दोनों देशों के बीच और बेहतर सम्बन्ध बनाने में मदद मिलेगी. ..लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समझौता , परमाणु करार को ही माना जाएगा . बाकी समझौते तो रूस के साथ होने ही थे. लेकिन परमाणु करार में भारत को अपने बराबर हैसियत देकर रूस ने सही अर्थों में दोस्ती निभाई है .. इसी तरह के परमाणु समझौते को कर के अमरीका ने भारत को इतना मजबूर और बेचारा बना दिया था कि उसे अपनी घरेलू राजनीति में बहुत ज्यादा मुश्किलें पेश आई थी . सरकार में सहयोग दे रही वामपंथी पार्टियों ने मनमोहन सिंह को बहुत ही नचाया था और जब समर्थन वापस ले लिया तो नया समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड़े थे... . रूस से हुये समझौते के बाद अब मनमोहन सिंह की सरकार को घरेलू राजनीति में भी ताकत मिलेगी. विश्वमंच पर भी भारत को अपने कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी. भारत के राजनयिकों की बड़ी इच्छा है कि उन्हें भी परमाणु हथियार संपन्न देशों का रुतबा मिले.. इस समझौते के बाद अमरीका समेत बाकी विकसित देशों पर दबाव पड़ेगा कि भारत को अपमानित करने की कोशिश न करें और अपनी बिरादरी में शामिल कर लें .सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के मामले में भी इस से फायदा हो सकता है... जहां तक इस समझौते के व्यापारिक महत्व का सवाल है , भारत के साथ साथ रूस को भी भारी फायदा होगा, उसके उद्योगों को ताक़त मिलेगी. . वैसे यह बात अमरीका के बारे में भी सच है लेकिन अमरीकी मानसिकता वही सुपर पावर वाली है इसलिए वे अगर अपने लाभ के लिए भी कोई सौदा करते हैं तो दूसरे पक्ष के ऊपर एहसान लादने से बाज़ नहीं आते. इस लिए रूस का समझौता अब भारत को अमरीकी ब्लैकमेल से भी निजात दिलाएगा
भारत और रूस के बीच परमाणु समझौता हो गया है. इस समझौते में बहुत सारी शर्तें नहीं हैं सीधे सीधे दोस्तों के बीच होने वाली समझदारी जैसी बात की गयी है . अमरीका से हुए परमाणु समझौते में जहां भारत को पूरी तरह से झुकाने की बात की गयी थी , हाइड एक्ट लगाया गया था, १२३ समझौता किया गया था . अमरीकी राजनीति का हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा , भारत को परमाणु सहायता के बारे में उपदेश देता फिरता था. लगभग हर अमरीकी बयान में यह बात छुपी रहती थी कि अगर कभी फिर परमाणु परीक्षण कर लिया तो सब कुछ बर्बाद करके रख देंगें. कुल मिलाकर ऐसा माहौल तैयार कर लिया गया था कि लगता था कि भारत के साथ परमाणु समझौता करके अमरीका ने बहुत बड़ा एहसान किया है . लेकिन रूस के समझौते में ऐसी कोई बात नहीं है . अमरीकी समझौते में जहां जहां कोई कसर रख ली गई थी, उसे रूसी परमाणु समझौता भर देता है और एक तरह से यह मुकम्मल इंतज़ाम कर दिया गया है कि भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए अब यूरेनियम की सप्लाई के लिये किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा. रूस ने कह दिया है कि जब भी जितनी भी युरेनियम की ज़रुरत हो , रूस देगा.
रूस भारत का दुर्दिन का साथी रहा है . .जो दुर्दिन का साथी होता है वही असली मित्र होता है .सोवियत रूस भारत का ऐसा ही साथी हुआ करता था.जब १९७१ में पाकिस्तान की दोस्ती के चक्कर में अमरीकी राष्ट्रपति कूटनीतिक मूर्खताओं के कीर्तिमान बना रहे थे और भारत को परमाणु हमले की धमकी तक दे रहे थे ,उस वक़्त सोवियत रूस की सरकार भारत के साथ चट्टान की तरह खडी थी. भारत के रक्षा तंत्र के विकास में सोवियत रूस का सबसे ज्यादा योगदान है .इसीलिये भारत में रूस की दोस्ती को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . सोवियंत रूस के टूटने के बाद मास्को में जो लोग सत्ता में आये, वे कुछ वर्ष तो भ्रमित रहे लेकिन अब उनकी दिशा तय हो चुकी है . बदली हालात में भी भारत और रूस की दोस्ती बहुत ही मह्त्वपूर्ण है. रूस से अपनी दोस्ती को संभालने के लिये भारत की तरफ से भी कोशिश की जाती है . भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की रूस की दो दिन की यात्रा को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच साल में एक बार शिखर स्तर पर मुलाक़ात होती है . वर्तमान यात्रा उसी शिखर सम्मलेन के सिलसिले का हिस्सा थी. .इस यात्रा में रक्षा समझौते को फिर से ताज़ा किया गया है , मल्टीपुल ट्रांसपोर्ट विमान और सांस्कृतिक आदान प्रदान के समझौतों के अलावा अपनेपन की अनुभूति को और पुख्ता करने का काम भी किया गया है...
रूस और भारत के बीच गहरी दोस्ती के चलते दोनों देशों के बीच बड़े नेताओं की आवाजाही लगी ही रहती है . इस साल भी भारत से कई बड़े नेता रूस गए और वहां से भी राजनीतिक स्तर पर बड़े पैमाने पर लोग आये. भारत की राष्ट्रपति, प्रतिभा पाटिल तो वहां इस वर्ष गयी ही थीं, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री , और वाणिज्य मंत्री भी इसी साल रूस की यात्रा पर हो आये हैं ..इस अवसर पर जारी संयुक्त घोषणा पत्र में वे सारी बातें शामिल हैं जिनसे दोनों देशों के बीच और बेहतर सम्बन्ध बनाने में मदद मिलेगी. ..लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समझौता , परमाणु करार को ही माना जाएगा . बाकी समझौते तो रूस के साथ होने ही थे. लेकिन परमाणु करार में भारत को अपने बराबर हैसियत देकर रूस ने सही अर्थों में दोस्ती निभाई है .. इसी तरह के परमाणु समझौते को कर के अमरीका ने भारत को इतना मजबूर और बेचारा बना दिया था कि उसे अपनी घरेलू राजनीति में बहुत ज्यादा मुश्किलें पेश आई थी . सरकार में सहयोग दे रही वामपंथी पार्टियों ने मनमोहन सिंह को बहुत ही नचाया था और जब समर्थन वापस ले लिया तो नया समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड़े थे... . रूस से हुये समझौते के बाद अब मनमोहन सिंह की सरकार को घरेलू राजनीति में भी ताकत मिलेगी. विश्वमंच पर भी भारत को अपने कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी. भारत के राजनयिकों की बड़ी इच्छा है कि उन्हें भी परमाणु हथियार संपन्न देशों का रुतबा मिले.. इस समझौते के बाद अमरीका समेत बाकी विकसित देशों पर दबाव पड़ेगा कि भारत को अपमानित करने की कोशिश न करें और अपनी बिरादरी में शामिल कर लें .सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के मामले में भी इस से फायदा हो सकता है... जहां तक इस समझौते के व्यापारिक महत्व का सवाल है , भारत के साथ साथ रूस को भी भारी फायदा होगा, उसके उद्योगों को ताक़त मिलेगी. . वैसे यह बात अमरीका के बारे में भी सच है लेकिन अमरीकी मानसिकता वही सुपर पावर वाली है इसलिए वे अगर अपने लाभ के लिए भी कोई सौदा करते हैं तो दूसरे पक्ष के ऊपर एहसान लादने से बाज़ नहीं आते. इस लिए रूस का समझौता अब भारत को अमरीकी ब्लैकमेल से भी निजात दिलाएगा
Monday, December 7, 2009
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका.
आज अखबारों में एक सम्पादकीय छपा है .. दुनिया भर के ४५ देशों के ५६ अखबारों में वही पीस छापा गया है जिसमें विश्व के नेताओं से अपील की गयी है कि दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाओ. उसी सम्पादकीय का भावानुवाद प्रस्तुत है.
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका.
जलवायु परिवर्तन अब एक कड़वी सच्चाई है .अगर फ़ौरन क़दम न उठाये गए तो पृथ्वी पर रहने वालों की सुरक्षा और सम्पन्नता ख़त्म हो जायगी. हो सकता है कि धरती पूरी तरह से बाँझ हो जाए. कोपेनहेगन में करीब २ हफ्ते बाद होने वाले सम्मलेन से दुनिया को बहुत उम्मीद है लेकिन लगता है कि वहां कोई कोई समझौता नहीं होने वाला है . प्रदूषक गैसों को वातावरण में छोड़ने वाले उद्योगों और ऊर्जा पैदा करने वाली अन्य तरकीबों की वजह से भूमंडल का तापमान बढ रहा है. पिछले १४ वर्षों का रिकॉर्ड देखा जाय तो पता लगेगा कि ११ साल ज़रुरत से ज्यादा गर्म रहे हैं और यही खतरे की घंटी है ..इन्हीं कारणों से पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की चीज़ों की कीमतों में वृद्धि हुई है . अगर जलवायु परिवर्तन के मसले को हल न कर लिया गया तो इसे बतौर चेतावनी माना जा सकता है.. इस विषय पर वैज्ञानिक पत्रिकाओं में पहले चर्चा होती थी कि सारा गड़बड़ इंसानों का किया धरा है लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है . अब चर्चा का विषय यह है कि अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है ..
जलवायु में परिवर्तन कोई एक दिन में नहीं हुआ है . यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है . इसको रोकने की कोशिशों में अगले २ हफ्ते बहुत ही अहम् भूमिका निभा सकते हैं . कोपेनहेगन में १९२ देशों की सरकारों के प्रतिनिधि जमा होंगें ..उनके सामने बस एक मकसद होना चाहिए कि जलवायु को और भी तबाह होने से बचाएं. इन नेताओं के सामने झगडा करके बातचीत को रोक देने का विकल्प नहीं है इस लिए इन्हें हर हाल में सुलह करने की कोशिश करनी चाहिए, एक दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप लगाने से बचना चाहिए. अगर यह लोग किसी समझौते पर नहीं पंहुच सके तो इनका काम राजनीति की सबसे बड़ी नाकामियों में दर्ज किया जाएगा. पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि यह लड़ाई धनी और गरीब देशों के बीच के बाकी झगड़ों की तरह न हो जाय. क्योंकि अगर ये नेता यहाँ से कोई सही फैसला किये बिना लौटे तो आने वाली नस्लों को कोई सफाई देने लायक भी नहीं रह जायेंगें ..इस बात की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए कि कोपेनहेगन में कोई संधि हो जायेगी. लेकिन उस दिशा में क़दम तो उठाये जा सकते हैं .इस सारे मामले में उम्मीद की एक किरण अमरीका के राष्ट्रपति पद पर बराक ओबामा की मौजूदगी है क्योंकि उनके पहले तो आठ साल तक अमरीका ने जलवायु के मुद्दे पर जमकर अड़ंगेबाजी की है ..हालांकि आज भी दुनिया के भविष्य के लिए जो भी फैसले होने हैं उसमें अमरीकी राजनीति का ख़ासा असर रहता है क्योंकि चाह कर भी ओबामा , अमरीकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं कर सकते. और वहां अभी भी वही मानसिकता हावी है जिसके आधार पर पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश काम किया करते थे..लेकिन कोपेनहेगन में जो लोग जमा हो रहे हैं उन्हें राजनेता के रूप में अपनी पह्चान को भुलाकर अपने आप को स्टेट्समैन के रूप में प्रस्तुत करना पड़ेगा .अगर वे किसी समझौते पर न पंहुंच सकें तो उन्हें इस बात की कोशिश करनी पड़ेगी कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करने के लिये एक टाइम टेबुल बना कर वापस लौटें और जब जून में जर्मनी में लोग मिलें तो कुछ कर गुजरने का मौक़ा हो.... समझौते की बुनियाद में संपन्न और गरीब मुल्कों के बीच इस बात पर सहमति होनी चाहिए कि प्रदूषण के मुद्दे पर न्यायपूर्ण सर्वसम्मत फैसला हो.. दिक्क़त यह है कि संपन्न देश आज के आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें. . या एक तर्क प्रणाली यह होती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं ,उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए लेकिन सब को मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है . सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है ..इस लिय विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था. सामाजिक न्याय का तकाज़ा है कि विकसित देश दुनिया भर के सारे प्रदूषण को एक इकाई माने और उसे दुरुस्त करने की लिए सबके साथ मिलकर क़दम उठायें जिसमें संपन्न देशों को ज्यादा धन खर्च करने के लिए पहल करनी पड़ेगी और जलवायु को ठीक करने के लिए गरीब मुल्क जो कटौती करेंगें उसकी भरपाई अमीरों की जेब से की जायेगी. . ज़ाहिर है इस सारे काम में खर्च भारी होगा लेकिन वह हर हाल में उस खर्च से कम होगा जो दुनिया के संपन्न देशों ने आर्थिक मंदी को रोकने के लिए किया है . यहाँ यह भी याद रखना पड़ेगा कि कि आर्थिक मंदी से बड़ा खतरा जलवायु वाला है क्योंकि अगर इसे तुरंत न रोका गया तो पहल इंसानियत के हाथ से निकल चुकी होगी और तबाही इस पृथ्वी की नियति बन जायेगी. ज़ाहिर है कि कोपेनहेगन में जुटे नेताओं से मानवता को बहुत उम्मीदें हैं , उन्हें चाहिए कि उन उम्मीदों पर खरा उतरें
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका.
जलवायु परिवर्तन अब एक कड़वी सच्चाई है .अगर फ़ौरन क़दम न उठाये गए तो पृथ्वी पर रहने वालों की सुरक्षा और सम्पन्नता ख़त्म हो जायगी. हो सकता है कि धरती पूरी तरह से बाँझ हो जाए. कोपेनहेगन में करीब २ हफ्ते बाद होने वाले सम्मलेन से दुनिया को बहुत उम्मीद है लेकिन लगता है कि वहां कोई कोई समझौता नहीं होने वाला है . प्रदूषक गैसों को वातावरण में छोड़ने वाले उद्योगों और ऊर्जा पैदा करने वाली अन्य तरकीबों की वजह से भूमंडल का तापमान बढ रहा है. पिछले १४ वर्षों का रिकॉर्ड देखा जाय तो पता लगेगा कि ११ साल ज़रुरत से ज्यादा गर्म रहे हैं और यही खतरे की घंटी है ..इन्हीं कारणों से पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की चीज़ों की कीमतों में वृद्धि हुई है . अगर जलवायु परिवर्तन के मसले को हल न कर लिया गया तो इसे बतौर चेतावनी माना जा सकता है.. इस विषय पर वैज्ञानिक पत्रिकाओं में पहले चर्चा होती थी कि सारा गड़बड़ इंसानों का किया धरा है लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है . अब चर्चा का विषय यह है कि अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है ..
जलवायु में परिवर्तन कोई एक दिन में नहीं हुआ है . यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है . इसको रोकने की कोशिशों में अगले २ हफ्ते बहुत ही अहम् भूमिका निभा सकते हैं . कोपेनहेगन में १९२ देशों की सरकारों के प्रतिनिधि जमा होंगें ..उनके सामने बस एक मकसद होना चाहिए कि जलवायु को और भी तबाह होने से बचाएं. इन नेताओं के सामने झगडा करके बातचीत को रोक देने का विकल्प नहीं है इस लिए इन्हें हर हाल में सुलह करने की कोशिश करनी चाहिए, एक दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप लगाने से बचना चाहिए. अगर यह लोग किसी समझौते पर नहीं पंहुच सके तो इनका काम राजनीति की सबसे बड़ी नाकामियों में दर्ज किया जाएगा. पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि यह लड़ाई धनी और गरीब देशों के बीच के बाकी झगड़ों की तरह न हो जाय. क्योंकि अगर ये नेता यहाँ से कोई सही फैसला किये बिना लौटे तो आने वाली नस्लों को कोई सफाई देने लायक भी नहीं रह जायेंगें ..इस बात की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए कि कोपेनहेगन में कोई संधि हो जायेगी. लेकिन उस दिशा में क़दम तो उठाये जा सकते हैं .इस सारे मामले में उम्मीद की एक किरण अमरीका के राष्ट्रपति पद पर बराक ओबामा की मौजूदगी है क्योंकि उनके पहले तो आठ साल तक अमरीका ने जलवायु के मुद्दे पर जमकर अड़ंगेबाजी की है ..हालांकि आज भी दुनिया के भविष्य के लिए जो भी फैसले होने हैं उसमें अमरीकी राजनीति का ख़ासा असर रहता है क्योंकि चाह कर भी ओबामा , अमरीकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं कर सकते. और वहां अभी भी वही मानसिकता हावी है जिसके आधार पर पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश काम किया करते थे..लेकिन कोपेनहेगन में जो लोग जमा हो रहे हैं उन्हें राजनेता के रूप में अपनी पह्चान को भुलाकर अपने आप को स्टेट्समैन के रूप में प्रस्तुत करना पड़ेगा .अगर वे किसी समझौते पर न पंहुंच सकें तो उन्हें इस बात की कोशिश करनी पड़ेगी कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करने के लिये एक टाइम टेबुल बना कर वापस लौटें और जब जून में जर्मनी में लोग मिलें तो कुछ कर गुजरने का मौक़ा हो.... समझौते की बुनियाद में संपन्न और गरीब मुल्कों के बीच इस बात पर सहमति होनी चाहिए कि प्रदूषण के मुद्दे पर न्यायपूर्ण सर्वसम्मत फैसला हो.. दिक्क़त यह है कि संपन्न देश आज के आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें. . या एक तर्क प्रणाली यह होती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं ,उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए लेकिन सब को मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है . सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है ..इस लिय विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था. सामाजिक न्याय का तकाज़ा है कि विकसित देश दुनिया भर के सारे प्रदूषण को एक इकाई माने और उसे दुरुस्त करने की लिए सबके साथ मिलकर क़दम उठायें जिसमें संपन्न देशों को ज्यादा धन खर्च करने के लिए पहल करनी पड़ेगी और जलवायु को ठीक करने के लिए गरीब मुल्क जो कटौती करेंगें उसकी भरपाई अमीरों की जेब से की जायेगी. . ज़ाहिर है इस सारे काम में खर्च भारी होगा लेकिन वह हर हाल में उस खर्च से कम होगा जो दुनिया के संपन्न देशों ने आर्थिक मंदी को रोकने के लिए किया है . यहाँ यह भी याद रखना पड़ेगा कि कि आर्थिक मंदी से बड़ा खतरा जलवायु वाला है क्योंकि अगर इसे तुरंत न रोका गया तो पहल इंसानियत के हाथ से निकल चुकी होगी और तबाही इस पृथ्वी की नियति बन जायेगी. ज़ाहिर है कि कोपेनहेगन में जुटे नेताओं से मानवता को बहुत उम्मीदें हैं , उन्हें चाहिए कि उन उम्मीदों पर खरा उतरें
Saturday, December 5, 2009
जाति-संस्था मनु की देन नहीं -- डा. बी आर अंबेडकर
शेष नारायण सिंह
डा.अंबेडकर के ५३वे निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
डा.अंबेडकर के ५३वे निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
Thursday, December 3, 2009
चीनी मिल के शीरे में भी किसान को हिस्सा दो
शेषनारायण सिंह
अजित सिंह बुरे फंस गए हैं . दिल्ली में गन्ना किसानों के बहुत ही बड़े जमावड़े के बाद उनकी राजनीति में कुछ चमक आनी शुरू हुई थी लेकिन अब वह धुन्धलाना शुरू हो गयी है . दिल्ली में आकर किसानों ने सरकार से वह पूंजीपति परस्त गन्ना अध्यादेश तो वापस करवा दिया था जिसे पता नहीं कितनी रिश्वत देकर मिल मालिकों ने बनवाया था. लेकिन गन्ने की प्रति कुंतल कीमत के सवाल पर अजित सिंह गड़बड़ा गए. किसानों की मांग तो २८० रूपये प्रति कुंतल की थी लेकिन सब को पता था कि वह होने वाला नहीं है लेकिन यह उम्मीद सब को थी कि कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य के बराबर तो यू पी वालों को मिल ही जाएगा या पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के बराबर तो मानकर चल रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २०० से भी कम के मिल मालिकों के प्रस्ताव पर अजित सिंह ने हुक्म जारी कर दिया कि गन्ना देना शुरू कर दिया जाए. लेकिन किसानों ने उनकी बात नहीं मानी. इस बीच खबर आई कि किसी चीनी मिल में अजित सिंह का कुछ स्वार्थ है . बस फिर क्या था ,गन्ना किसानों में गुस्से की लहर दौड़ गयी. . फिर किसानों की एक पंचायत बुलाई गयी . जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़ी संख्या में किसान जमा हुए. अजित सिंह खुद तो इस पंचायत में नहीं गए लेकिन अपने ख़ास मित्र और विधायक सत्येन्द्र सोलंकी को भेज दिया. सोलंकी पारदर्शी राजनीति में विश्वास करते हैं और पार्टी के बड़े नेताओं के आशीर्वाद के बिना भी राजनीति में सफल हैं और जनता की मदद से चुनाव जीतते हैं . गन्ना किसानों की पंचायत में जो बातें सामने आयीं वे किसी भी किसान के आत्म गौरव को झकझोर सकती थीं. बहरहाल अपने समर्थकों को समझाने बुझाने में सोलंकी सफल रहे लेकिन पंचायत की मंशा से अब कोई भी बड़ा नेता अनभिज्ञ नहीं है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता अब जान गयी है कि दिल्ली में किसानों की ताक़त की वजह से सेठों के समर्थन वाला अध्यादेश वापस लिया गया था, उसमें उन नेताओं का कोई योगदान नहीं था जो वोटों की लालच में जंतर मंतर की भीड़ में आकर शामिल हो गए थे. .अजित सिंह की राजनीति की मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के ऐसे कई नेता है जिनका क़द उनसे बड़ा है . वे सभी लोग , चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने की वजह से अजित सिंह की इज्ज़त करते हैं . इस सारे खेल में अजित सिंह से उम्मीद की जाती है कि वे स्वर्गीय चौधरी साहेब जितने बड़े तो नहीं बन पायेंगें लेकिन कोशिश तो करते रहेंगें. उस महान किसान नेता ने किसानों के हित के लिए हमेशा संघर्ष किया था और अपने बड़े से बड़े निजी स्वार्थ को किसानों के आत्म सम्मान की लड़ाई में आड़े नहीं आने दिया था. . लेकिन जब अजित सिंह किसी मिल मालिक के लाभ के लिए किसानों की बात को हल्का करने की कोशिश करेंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. संतोष की बात यह है कि मिल मालिकों की समझ में आ गया है कि अजित सिंह के फरमान का कोई मतलब नहीं है और उन्होंने किसानों से सीधी बात शुरू कर दी है . कुछ मिलों ने तो २२० रूपये के रेट पर गन्ना खरीदना शुरू भी कर दिया है. राजनीति में किसी नेता की विश्वस्नीयता पर सवाल उठना बहुत बुरा होता है . आज अजित सिंह उसी दौर से गुज़र रहे हैं . अगर उन्होंने फ़ौरन से भी पहले अपनी साख को फिर से न संभाल लिया तो इतिहास के गर्त में ऐसे पंहुच जायेगें जैसे कहीं कभी थे ही नहीं.
गन्ना किसानों की राजनीति में इस तरह से पोल खुलने के बाद अजित सिंह क्या करेंगें , यह तो वे ही जानें लेकिन सूचना क्रान्ति की वजह से मीडिया में आये बदलाव के कारण डर के मारे ही सही,राजनेता ज्यादा धंध फंद से बचने की कोशिश कर रहे हैं . पहले जहां नेता लोग रूपये पैसे लेकर हजम करने में कोई संकोच नहीं करते थे, अब बीस बार सोचने लगे हैं .राजनीतिक शिक्षा और सूचना की उपलब्धता के चलते अब जनता भी पहले से जादा चौकन्ना हो गयी है . अब उसे मालूम है कि गन्ना किसान को उसकी प्रति कुंतल कीमत देने के बाद , मिल मालिक अपने फायदे की बात शुरू करता है . वह लेवी की चीनी के नाम पर सरकार से सुविधा लेता है और इस तरह से बात की जाती है जैसे बस सब कुछ उसी चीनी तक सीमित रहता है . हर चीनी मिल में बहुत बड़ी मात्र में शीरा निकालता है जिस से अल्कोहल जैसी महंगी चीज़ें बनती हैं जिस से मिल मालिक को असली फायदा होता है . जबकि गन्ने की खेती और चीनी मिल मालिकं के बीच बातचीत केवल चीनी की होती है . जागरूकता का तकाज़ा है कि चीनी के साथ साथ शीरे को भी मिल और गन्ना किसान की कीमतों के अध्ययन में शामिल किया जाए . लेकिन यह तभी संभव होगा जब गन्ना किसानों का भी एक ऐसा संगठन बने जो मिल मालिकों से सारे मोल भाव को किसानों के हित में लाने की कोशिश करे. क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर अब किसानों के हित की बात को सही तरीके से प्रस्तुत करने के मामले में विश्वास नहीं किया जा सकता.
अजित सिंह बुरे फंस गए हैं . दिल्ली में गन्ना किसानों के बहुत ही बड़े जमावड़े के बाद उनकी राजनीति में कुछ चमक आनी शुरू हुई थी लेकिन अब वह धुन्धलाना शुरू हो गयी है . दिल्ली में आकर किसानों ने सरकार से वह पूंजीपति परस्त गन्ना अध्यादेश तो वापस करवा दिया था जिसे पता नहीं कितनी रिश्वत देकर मिल मालिकों ने बनवाया था. लेकिन गन्ने की प्रति कुंतल कीमत के सवाल पर अजित सिंह गड़बड़ा गए. किसानों की मांग तो २८० रूपये प्रति कुंतल की थी लेकिन सब को पता था कि वह होने वाला नहीं है लेकिन यह उम्मीद सब को थी कि कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य के बराबर तो यू पी वालों को मिल ही जाएगा या पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के बराबर तो मानकर चल रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २०० से भी कम के मिल मालिकों के प्रस्ताव पर अजित सिंह ने हुक्म जारी कर दिया कि गन्ना देना शुरू कर दिया जाए. लेकिन किसानों ने उनकी बात नहीं मानी. इस बीच खबर आई कि किसी चीनी मिल में अजित सिंह का कुछ स्वार्थ है . बस फिर क्या था ,गन्ना किसानों में गुस्से की लहर दौड़ गयी. . फिर किसानों की एक पंचायत बुलाई गयी . जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़ी संख्या में किसान जमा हुए. अजित सिंह खुद तो इस पंचायत में नहीं गए लेकिन अपने ख़ास मित्र और विधायक सत्येन्द्र सोलंकी को भेज दिया. सोलंकी पारदर्शी राजनीति में विश्वास करते हैं और पार्टी के बड़े नेताओं के आशीर्वाद के बिना भी राजनीति में सफल हैं और जनता की मदद से चुनाव जीतते हैं . गन्ना किसानों की पंचायत में जो बातें सामने आयीं वे किसी भी किसान के आत्म गौरव को झकझोर सकती थीं. बहरहाल अपने समर्थकों को समझाने बुझाने में सोलंकी सफल रहे लेकिन पंचायत की मंशा से अब कोई भी बड़ा नेता अनभिज्ञ नहीं है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता अब जान गयी है कि दिल्ली में किसानों की ताक़त की वजह से सेठों के समर्थन वाला अध्यादेश वापस लिया गया था, उसमें उन नेताओं का कोई योगदान नहीं था जो वोटों की लालच में जंतर मंतर की भीड़ में आकर शामिल हो गए थे. .अजित सिंह की राजनीति की मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के ऐसे कई नेता है जिनका क़द उनसे बड़ा है . वे सभी लोग , चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने की वजह से अजित सिंह की इज्ज़त करते हैं . इस सारे खेल में अजित सिंह से उम्मीद की जाती है कि वे स्वर्गीय चौधरी साहेब जितने बड़े तो नहीं बन पायेंगें लेकिन कोशिश तो करते रहेंगें. उस महान किसान नेता ने किसानों के हित के लिए हमेशा संघर्ष किया था और अपने बड़े से बड़े निजी स्वार्थ को किसानों के आत्म सम्मान की लड़ाई में आड़े नहीं आने दिया था. . लेकिन जब अजित सिंह किसी मिल मालिक के लाभ के लिए किसानों की बात को हल्का करने की कोशिश करेंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. संतोष की बात यह है कि मिल मालिकों की समझ में आ गया है कि अजित सिंह के फरमान का कोई मतलब नहीं है और उन्होंने किसानों से सीधी बात शुरू कर दी है . कुछ मिलों ने तो २२० रूपये के रेट पर गन्ना खरीदना शुरू भी कर दिया है. राजनीति में किसी नेता की विश्वस्नीयता पर सवाल उठना बहुत बुरा होता है . आज अजित सिंह उसी दौर से गुज़र रहे हैं . अगर उन्होंने फ़ौरन से भी पहले अपनी साख को फिर से न संभाल लिया तो इतिहास के गर्त में ऐसे पंहुच जायेगें जैसे कहीं कभी थे ही नहीं.
गन्ना किसानों की राजनीति में इस तरह से पोल खुलने के बाद अजित सिंह क्या करेंगें , यह तो वे ही जानें लेकिन सूचना क्रान्ति की वजह से मीडिया में आये बदलाव के कारण डर के मारे ही सही,राजनेता ज्यादा धंध फंद से बचने की कोशिश कर रहे हैं . पहले जहां नेता लोग रूपये पैसे लेकर हजम करने में कोई संकोच नहीं करते थे, अब बीस बार सोचने लगे हैं .राजनीतिक शिक्षा और सूचना की उपलब्धता के चलते अब जनता भी पहले से जादा चौकन्ना हो गयी है . अब उसे मालूम है कि गन्ना किसान को उसकी प्रति कुंतल कीमत देने के बाद , मिल मालिक अपने फायदे की बात शुरू करता है . वह लेवी की चीनी के नाम पर सरकार से सुविधा लेता है और इस तरह से बात की जाती है जैसे बस सब कुछ उसी चीनी तक सीमित रहता है . हर चीनी मिल में बहुत बड़ी मात्र में शीरा निकालता है जिस से अल्कोहल जैसी महंगी चीज़ें बनती हैं जिस से मिल मालिक को असली फायदा होता है . जबकि गन्ने की खेती और चीनी मिल मालिकं के बीच बातचीत केवल चीनी की होती है . जागरूकता का तकाज़ा है कि चीनी के साथ साथ शीरे को भी मिल और गन्ना किसान की कीमतों के अध्ययन में शामिल किया जाए . लेकिन यह तभी संभव होगा जब गन्ना किसानों का भी एक ऐसा संगठन बने जो मिल मालिकों से सारे मोल भाव को किसानों के हित में लाने की कोशिश करे. क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर अब किसानों के हित की बात को सही तरीके से प्रस्तुत करने के मामले में विश्वास नहीं किया जा सकता.
Tuesday, December 1, 2009
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, इशरत जहां को न्याय की उम्मीद
शेष नारायण सिंह
गुजरात में मोदी की सरकार अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ भी करने में कोई संकोच नहीं कर रही है . मुंबई की एक लडकी, इशरत जहां को ,कुछ तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में कथित मुठभेड़ में मार डाला गया था. . इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और अब मामले के हर पहलू पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र है.. न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था . एस पी तमांग के एरेपोर्ट के बाद ,सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रो में साम्प्रदायिकता के जमे होने की ख़बरें आयीं थीं. जहां तक गुजरात सरकार और उसकी पुलिस का सवाल है , पिछले कई वर्षों के मोदी राज में वहां तो साम्प्रदायिकता पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है . इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. ज़्यादातर टी वी चैनलों ने , इशरत के हत्यारे पुलिस वालों की बाईट लेकर दिन दिन भर खबर चलाई थी कि गुजरात पुलिस ने एक खूंखार महिला आतंकवादी और उसके साथियों को मुठभेड़ में मार गिराया था .. बहरहाल इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के बारे में जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो कुछ गंभीर किस्म के पत्रकारोंने अपनी गलती मानी और खेद प्रकट किया लेकिन जो गुरु लोग साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही सच्चाई देखते हैं वे चुप रहे , सांस नहीं ली.. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. और इशरत की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. इशरत की मां का आरोप है कि गुजरात हाई कोर्ट भी राज्य की पुलिस के संघ प्रेमी रुख को ही आगे बढाता है .हालांकि किसी कोर्ट के बारे में उनके इस आरोप को सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत दी है . हुआ यह था कि जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो गुजरात हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी थी और कह दिया कि उस रिपोर्ट पर कोईभी कार्रवाई नहीं हो सकती थी. शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और अब देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आ गया है कि गुजरात हाई कोर्ट में इशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए जाएँ...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . . जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस दीपक वर्मा की अदालत ने ७ दिसंबर को मामले की सुनवाई का हुक्म भी सुना दिया है .. शमीमा कौसर को इस बात से सख्त एतराज़ है कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद, गुजरात हाई कोर्ट मामले को रफा दफा करने के चक्कर में है..नरेन्द्र मोदी सरकार ने गुजरात हाई कोर्ट में प्रार्थना की थी कि एस पी तमांग की रिपोर्ट गैर कानूनी है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए क्योंकि एस पी तमांग ने जो जांच की है वह उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है . गुजरात हाई कोर्ट ने ९ सितम्बर के दिन इस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी हाई कोर्ट के इसी फैसले के खिलाफ शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी जिस पर अब फैसला आया है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी है जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें और मोदी टाईप लोग समाज के हर क्षेत्र में भारी पड़ जायेंगें.. ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी जनवादी लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. वरना मोदी के साथी कभी भी, किसी भी वक़्त महात्मा गाँधी की अगुवाई में हासिल की गयी आज़ादी को वोट के ज़रिये तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकत्रंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पड़ेगा
गुजरात में मोदी की सरकार अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ भी करने में कोई संकोच नहीं कर रही है . मुंबई की एक लडकी, इशरत जहां को ,कुछ तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में कथित मुठभेड़ में मार डाला गया था. . इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और अब मामले के हर पहलू पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र है.. न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था . एस पी तमांग के एरेपोर्ट के बाद ,सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रो में साम्प्रदायिकता के जमे होने की ख़बरें आयीं थीं. जहां तक गुजरात सरकार और उसकी पुलिस का सवाल है , पिछले कई वर्षों के मोदी राज में वहां तो साम्प्रदायिकता पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है . इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. ज़्यादातर टी वी चैनलों ने , इशरत के हत्यारे पुलिस वालों की बाईट लेकर दिन दिन भर खबर चलाई थी कि गुजरात पुलिस ने एक खूंखार महिला आतंकवादी और उसके साथियों को मुठभेड़ में मार गिराया था .. बहरहाल इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के बारे में जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो कुछ गंभीर किस्म के पत्रकारोंने अपनी गलती मानी और खेद प्रकट किया लेकिन जो गुरु लोग साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही सच्चाई देखते हैं वे चुप रहे , सांस नहीं ली.. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. और इशरत की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. इशरत की मां का आरोप है कि गुजरात हाई कोर्ट भी राज्य की पुलिस के संघ प्रेमी रुख को ही आगे बढाता है .हालांकि किसी कोर्ट के बारे में उनके इस आरोप को सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत दी है . हुआ यह था कि जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो गुजरात हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी थी और कह दिया कि उस रिपोर्ट पर कोईभी कार्रवाई नहीं हो सकती थी. शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और अब देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आ गया है कि गुजरात हाई कोर्ट में इशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए जाएँ...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . . जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस दीपक वर्मा की अदालत ने ७ दिसंबर को मामले की सुनवाई का हुक्म भी सुना दिया है .. शमीमा कौसर को इस बात से सख्त एतराज़ है कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद, गुजरात हाई कोर्ट मामले को रफा दफा करने के चक्कर में है..नरेन्द्र मोदी सरकार ने गुजरात हाई कोर्ट में प्रार्थना की थी कि एस पी तमांग की रिपोर्ट गैर कानूनी है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए क्योंकि एस पी तमांग ने जो जांच की है वह उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है . गुजरात हाई कोर्ट ने ९ सितम्बर के दिन इस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी हाई कोर्ट के इसी फैसले के खिलाफ शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी जिस पर अब फैसला आया है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी है जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें और मोदी टाईप लोग समाज के हर क्षेत्र में भारी पड़ जायेंगें.. ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी जनवादी लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. वरना मोदी के साथी कभी भी, किसी भी वक़्त महात्मा गाँधी की अगुवाई में हासिल की गयी आज़ादी को वोट के ज़रिये तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकत्रंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पड़ेगा
Monday, November 30, 2009
एक अफसर की मौत और नौकरशाही की मजबूरियां
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के आला अफसर हरमिंदर राज सिंह की लखनऊ के उनके सरकारी मकान में आधी रात के बाद मौत हो गयी. वे ५६ वर्ष के थे. राज्य सरकार के सबसे महत्वपूर्ण विभागों में से एक आवास विभाग के प्रमुख सचिव थे . अभी ४ साल बाद रिटायर होना था. काबिल लाफ्सर थे , हो सकता है कि राज्य सरकार की सबसे बड़ी नौकरशाही की कुर्सी पर पंहुच जाते. उनके मुख्य सचिव होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था. लखनऊ की नौकरशाही जुबान में कहें तो वे बहुत ही अच्छी ज़िंदगी बसर कर रहे थे लेकिन एकाएक उनकी मौत हो गयी. हादसे के दिन हालांकि छुट्टी थी लेकिन वे दफ्तर गए थे , दिन भर काम किया था , शाम को किसी पार्टी में गए थे , हंसी- खुशी घर आये थे , पति पत्नी एक ही कमरे में सो रहे थे और रात को उठे और और अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से खुद को गोली मार ली. लखनऊ पुलिस का कहना है कि उन्होंने आत्महत्या कर ली. जो पुलिस अफसर टेलीविजन वालों को उनकी मौत की जानकारी दे रहा था , उसके हाव भाव से लग रहा था कि जिसे भी ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी और जो दवा खा रहा होगा , उसे तो आत्महत्या कर ही लेना चाहिए , जैसे आत्महत्या करना कोई कोई ज़रूरी ड्यूटी हो. उत्तर प्रदेश के आई ए एस अफसरों के संगठन के एक अधिकारी भुस रेड्डी ने टी वी चैनलों को बताया कि हरमिंदर राज सिंह की मौत उनकी सर्विस के लिए एक बड़ा हादसा है और इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए.. उनका संगठन इसे पूरी गंभीरता से लेता है और इसे बहुत बड़ी बात मानता है . उत्तर प्रदेश के आई ए एस असोसिएशन ने सर्विस में भ्रष्टाचार कम करने और अधिकारियों के सम्मान की बहाली के लिए कई बार लड़ाई का रास्ता भी अपनाया है , इसलिए श्री रेड्डी की बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. और अगर कोई हरमिंदर राज सिंह की मौत को रूटीन की आत्म हत्या बताने की कोशिश करता है तो उसे जल्दबाजी न करने की सलाह दी जानी चाहिए. . आत्महत्या करना एक बहुत ही कठिन फैसला है और जांच शुरू होने के पहले ही पुलिस का यह ऐलान निश्चित रूप से मृत आत्मा का अपमान करने जैसा है . एक सफल और बा रुतबा ज़िंदगी जी रहा अफसर बी पी की वजह से आत्म हत्या कर लेगा , यह बात किसी के गले नहीं उतरने वाली नहीं है . . दूसरी तरफ हरमिंदर राज सिंह की मौत के मामले में राजनीतिक दलों के कूद पड़ने की वजह से मामला राजनीतिक होता दिख रहा है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मामले की सी बी आई जांच की मांग करके राज्य सरकार और उसकी पुलिस को घेरने की कोशिश शुरू कर दी है. ज़ाहिर है चाहे जितनी सच्च्ची जांच करे लेकिन अगर वह काम उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन काम करने वाले किसी विभाग से करवाया जाएगा , तो नतीजे शक के दायरे के बाहर कभी नहीं निकल पायेंगें. इस लिए उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए कि जांच सी बी आई के हवाले करके इस मुद्दे पर राजनीति होने का मौक़ा न दे. इतने बड़े अधिकारी की अकाल मृत्यु कोई मामूली हादसा नहीं है, बिना शुरुआती जांच किये लखनऊ पुलिस की तरफ से इसे बी पी की वजह से की गयी आत्म हत्या कहना बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आचरण है .क्योंकि इस घोषणा के कारण आगे होने वाली जांच प्रभावित हो सकती है .
लेकिन इसे केवल पुलिस की असफलता कह देना भी ठीक नहीं होगा. हरमिंदर राज सिंह की मौत के कारणों का पता तो जांच के बाद चलेगा हो.. सकता है कि वह आत्महत्या का ही मामला हो . लेकिन अगर यह आत्महत्या का मामला है तो निश्चित रूप से बहुत सारे सवाल पैदा करता है.. क्या जिसे भी, ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी उसे आत्महत्या कर लेना चाहिए. इस तरह के प्रचार पर फ़ौरन रोक लगनी चाहिए. . अगर आत्महत्या है तो एक प्रमुख कारण तनाव और डिप्रेशन ही होगा . लेकिन एक भाग्य विधाता की नौकरी कर रहे राज्य के टॉप अफसर के तनाव के क्या कारण हैं इसकी भी जांच की जानी चाहिए.. उत्तर प्रदेश में नौकरशाही एक अजीब दौर से गुज़र रही है . ज़्यादातर लोग अपनी आमदनी से ज्यादा धन इकठ्ठा करते पाए जाते हैं. राज्य के आई ए एस अफसरों के संगठन ने ही अपनी बिरादरी के कई अधिकारियों को भ्रष्ट घोषित करके बात को संभालने की कोशिश की है .यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि आई ए एस या कोई और भी सरकारी अफसर जब नौकरी ज्वाइन करता है तो वह संविधान को लागू करने की शपथ लेता है , वह वचन देता है कि किसी के साथ भी पक्षपात नहीं करेगा लेकिन जब वह रिश्वत की कमाई में जुट जाता है तो राजनीतिक नेता उसे अपने आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने लगता है . बस यहीं गड़बड़ हो जाती है . पिछले २० वर्षों से तो उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है . राज्य में बहुत सारे ईमानदार अफसर भी हैं लेकिन वे आम तौर पर हाशिये पर ही रहते हैं . मुख्य मंत्री का कार्यालय ऐसे अफसरों को जिम्मेवारी के काम देता है जो उनकी हाँ में हाँ मिला सकें. इसमें बी जे पी, समाजवादी पार्टी, बी एस पी और कांग्रेस बराबर के हिस्सेदार हैं .ज्यादातर पार्टियों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग महत्व पाने लगे हैं इसलिए अगर अफसर संविधान और राष्ट्र हित के बुनियादी सिद्धांत से ज़रा सा भी विचलित होता है तो यह अपराधी तत्व उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने लगते हैं . उसके बाद तो भ्रष्ट प्रशासन का एक सिलसिला शुरू हो जाता है जिसका कोई अंत नहीं होता. हरमिंदर राज सिंह की अकाल मौत के सन्दर्भ में एक बार फिर यह कोशिश की जानी चाहिए कि राज्य का नौकरशाह उन कामों से अपने को अलग कर ले जो संविधान सम्मत नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो आने वाले कल में कोई भी अफसर तनाव के कारण तो 'आत्महत्या' नहीं करेगा
उत्तर प्रदेश के आला अफसर हरमिंदर राज सिंह की लखनऊ के उनके सरकारी मकान में आधी रात के बाद मौत हो गयी. वे ५६ वर्ष के थे. राज्य सरकार के सबसे महत्वपूर्ण विभागों में से एक आवास विभाग के प्रमुख सचिव थे . अभी ४ साल बाद रिटायर होना था. काबिल लाफ्सर थे , हो सकता है कि राज्य सरकार की सबसे बड़ी नौकरशाही की कुर्सी पर पंहुच जाते. उनके मुख्य सचिव होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था. लखनऊ की नौकरशाही जुबान में कहें तो वे बहुत ही अच्छी ज़िंदगी बसर कर रहे थे लेकिन एकाएक उनकी मौत हो गयी. हादसे के दिन हालांकि छुट्टी थी लेकिन वे दफ्तर गए थे , दिन भर काम किया था , शाम को किसी पार्टी में गए थे , हंसी- खुशी घर आये थे , पति पत्नी एक ही कमरे में सो रहे थे और रात को उठे और और अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से खुद को गोली मार ली. लखनऊ पुलिस का कहना है कि उन्होंने आत्महत्या कर ली. जो पुलिस अफसर टेलीविजन वालों को उनकी मौत की जानकारी दे रहा था , उसके हाव भाव से लग रहा था कि जिसे भी ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी और जो दवा खा रहा होगा , उसे तो आत्महत्या कर ही लेना चाहिए , जैसे आत्महत्या करना कोई कोई ज़रूरी ड्यूटी हो. उत्तर प्रदेश के आई ए एस अफसरों के संगठन के एक अधिकारी भुस रेड्डी ने टी वी चैनलों को बताया कि हरमिंदर राज सिंह की मौत उनकी सर्विस के लिए एक बड़ा हादसा है और इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए.. उनका संगठन इसे पूरी गंभीरता से लेता है और इसे बहुत बड़ी बात मानता है . उत्तर प्रदेश के आई ए एस असोसिएशन ने सर्विस में भ्रष्टाचार कम करने और अधिकारियों के सम्मान की बहाली के लिए कई बार लड़ाई का रास्ता भी अपनाया है , इसलिए श्री रेड्डी की बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. और अगर कोई हरमिंदर राज सिंह की मौत को रूटीन की आत्म हत्या बताने की कोशिश करता है तो उसे जल्दबाजी न करने की सलाह दी जानी चाहिए. . आत्महत्या करना एक बहुत ही कठिन फैसला है और जांच शुरू होने के पहले ही पुलिस का यह ऐलान निश्चित रूप से मृत आत्मा का अपमान करने जैसा है . एक सफल और बा रुतबा ज़िंदगी जी रहा अफसर बी पी की वजह से आत्म हत्या कर लेगा , यह बात किसी के गले नहीं उतरने वाली नहीं है . . दूसरी तरफ हरमिंदर राज सिंह की मौत के मामले में राजनीतिक दलों के कूद पड़ने की वजह से मामला राजनीतिक होता दिख रहा है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मामले की सी बी आई जांच की मांग करके राज्य सरकार और उसकी पुलिस को घेरने की कोशिश शुरू कर दी है. ज़ाहिर है चाहे जितनी सच्च्ची जांच करे लेकिन अगर वह काम उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन काम करने वाले किसी विभाग से करवाया जाएगा , तो नतीजे शक के दायरे के बाहर कभी नहीं निकल पायेंगें. इस लिए उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए कि जांच सी बी आई के हवाले करके इस मुद्दे पर राजनीति होने का मौक़ा न दे. इतने बड़े अधिकारी की अकाल मृत्यु कोई मामूली हादसा नहीं है, बिना शुरुआती जांच किये लखनऊ पुलिस की तरफ से इसे बी पी की वजह से की गयी आत्म हत्या कहना बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आचरण है .क्योंकि इस घोषणा के कारण आगे होने वाली जांच प्रभावित हो सकती है .
लेकिन इसे केवल पुलिस की असफलता कह देना भी ठीक नहीं होगा. हरमिंदर राज सिंह की मौत के कारणों का पता तो जांच के बाद चलेगा हो.. सकता है कि वह आत्महत्या का ही मामला हो . लेकिन अगर यह आत्महत्या का मामला है तो निश्चित रूप से बहुत सारे सवाल पैदा करता है.. क्या जिसे भी, ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी उसे आत्महत्या कर लेना चाहिए. इस तरह के प्रचार पर फ़ौरन रोक लगनी चाहिए. . अगर आत्महत्या है तो एक प्रमुख कारण तनाव और डिप्रेशन ही होगा . लेकिन एक भाग्य विधाता की नौकरी कर रहे राज्य के टॉप अफसर के तनाव के क्या कारण हैं इसकी भी जांच की जानी चाहिए.. उत्तर प्रदेश में नौकरशाही एक अजीब दौर से गुज़र रही है . ज़्यादातर लोग अपनी आमदनी से ज्यादा धन इकठ्ठा करते पाए जाते हैं. राज्य के आई ए एस अफसरों के संगठन ने ही अपनी बिरादरी के कई अधिकारियों को भ्रष्ट घोषित करके बात को संभालने की कोशिश की है .यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि आई ए एस या कोई और भी सरकारी अफसर जब नौकरी ज्वाइन करता है तो वह संविधान को लागू करने की शपथ लेता है , वह वचन देता है कि किसी के साथ भी पक्षपात नहीं करेगा लेकिन जब वह रिश्वत की कमाई में जुट जाता है तो राजनीतिक नेता उसे अपने आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने लगता है . बस यहीं गड़बड़ हो जाती है . पिछले २० वर्षों से तो उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है . राज्य में बहुत सारे ईमानदार अफसर भी हैं लेकिन वे आम तौर पर हाशिये पर ही रहते हैं . मुख्य मंत्री का कार्यालय ऐसे अफसरों को जिम्मेवारी के काम देता है जो उनकी हाँ में हाँ मिला सकें. इसमें बी जे पी, समाजवादी पार्टी, बी एस पी और कांग्रेस बराबर के हिस्सेदार हैं .ज्यादातर पार्टियों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग महत्व पाने लगे हैं इसलिए अगर अफसर संविधान और राष्ट्र हित के बुनियादी सिद्धांत से ज़रा सा भी विचलित होता है तो यह अपराधी तत्व उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने लगते हैं . उसके बाद तो भ्रष्ट प्रशासन का एक सिलसिला शुरू हो जाता है जिसका कोई अंत नहीं होता. हरमिंदर राज सिंह की अकाल मौत के सन्दर्भ में एक बार फिर यह कोशिश की जानी चाहिए कि राज्य का नौकरशाह उन कामों से अपने को अलग कर ले जो संविधान सम्मत नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो आने वाले कल में कोई भी अफसर तनाव के कारण तो 'आत्महत्या' नहीं करेगा
राष्ट्रहित के लिए चीन की अगुवाई भी मंज़ूर
शेष नारायण सिंह
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में आजकल सबसे अहम् मुद्दा जलवायु परिवर्तन का है. विकसित देशों क्व सघन औद्योगिक तंत्र की वजह से वहां प्रदूषण करने वाली गैसें बहुत ज्यादा निकलती हैं उनकी वजह से पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को झेलना पड़ता है .. अमरीका सहित विकसित देशों की कोशिश है कि भारत और चीन सहित अन्य विकास शील देशों को इस बात पर राजी कर लिया जाए कि वे अपनी औद्योगीकरण की गति धीमी कर दें जिस से वातावरण पर पड़ने वाला उल्टा असर कम हो जाए.. लेकिन जिन विकासशील देशों में विकास की गति ऐसे मुकाम पर है जहां औद्योगीकारण की प्रक्रिया का तेज़ होना लाजिमी है, वे विकसित देशों की इस राजनीति से परेशान हैं . पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन की कूटनीति दुनिया के देशों के आपसी संबंधों का प्रमुख मुद्दा बन चुकी है . लेकिन इस बार कोपेनहेगन में दिसंबर में होने वाले शिखर सम्मलेन में कुछ ऐसे प्रस्ताव आने की उम्मीद है जो आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन की राजनीति को प्रभावित करेंगें. . त्रिनिदाद में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भी जलवायु परिवर्तन का मुद्दा छाया रहा. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और रानी एलिज़ाबेथ तो थे ही, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी जलवायु परिवर्तन के बुखार की ज़द में थे. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी त्रिनिदाद की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन पंहुचे हुए थे, हालांकि उनके वहां होने का कोई तुक नहीं था. . पश्चिमी यूरोप के देशों और अमरीका की कोशिश है कि भारत और चीन समेत उन विकासशील देशों को घेर कर औद्योगिक गैसों के उत्सर्जन के मामले में अपनी सुविधा के हिसाब से राजी कर लिए जाय . पोर्ट ऑफ़ स्पेन में इकठ्ठा हुए ज़्यादातर देश विकासशील माने जाते हैं , कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के अलावा सभी राष्ट्रमंडल देश औद्योगीकरण की दौड़ में पिछड़े हुए हैं . इसलिए उनको राजी करना ज्यादा आसान होगा. बाकी अन्य मंचों पर भी यह अभियान चल रहा है. कम विकसित देशों और अविकसित देशों को वातावरण की शुद्धता के महत्व के पाठ लगातार पढाये जा रहे हैं . विकसित देशों के इस अभियान का नेतृत्व , अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कर रहे हैं.. उनकी कोशिश है कि भारत सहित उन देशों को अर्दब में लिया जाय जो कोपेनहेगन में औद्योगिक देशों की मर्जी के हिसाब से फैसले में अड़चन डाल सकते हैं . ओबामा की चीन यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. . वहां जाकर उन्होंने जो ऊंची ऊंची बातें की हैं , उनको पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल है लेकिन चीनी नेताओं को खुश करने की गरज से ओबामा महोदय थोडा बहुत हांकने से भी नहीं सकुचाये.
बहरहाल चीज़ें बहुत आसान नहीं हैं . राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने साफ़ कह दिया कि ऐसी कोई भी बात वे मानने को तैयार नहीं होंगें जो न्यायसंगत न हो . उन्होंने साफ़ कहा कि भारत प्रदूषण करने वाली गैसों में कमी करने के ऐसे किसी भी दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने को तैयार है जिसके लक्ष्य महत्वाकांक्षी हों लेकिन शर्त यह है कि उसकी बुनियाद में सबके प्रति न्याय की भावना हो., जो संतुलित हो और जो हर बात को विस्तार से स्पष्ट करता हो. . भारत की कोशिश है कि एक ऐसा समझौता हो जाए जो वैधानिक रूप से सभी पक्षों को बाध्य करता हो. डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि आजकल विकसित देश यह कोशिश कर रहे हैं कि कोपेनहेगन में अगर कानूनी दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं हो सके तो एक राजनीतिक प्रस्ताव से काम चला लिया जाएगा. भारत ने कहा कि अभी बहुत समय है और इस समय का इस्तेमाल एक सही और न्यायपूर्ण प्रस्ताव पर सहमति बनाने के लिए किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि कोपेनहेगन में जो कुछ भी हासिल किया जाए उसको बाली एक्शन प्लान के मापदंड के अनुसार ही होना चाहिए.. डा. सिंह ने कहा कि बहुपक्षीय समझौते के लिए निर्धारित एजेंडा बहुत ही स्पष्ट है और उसको घुमाफिरा कर कुछ ख़ास वर्गों के हित में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.
पश्चिमी देशों की कोशिश है कि वे एक ऐसा ड्राफ्ट जारी कर दें जो कोपेनहेगन में चर्चा का आधार बन जाए और सारी बहस उसी के इर्द गिर्द घूमती रहे. खबर है कि इस ड्राफ्ट में वह सब कुछ है जो विकसित देश चाहते हैं . यह ड्राफ्ट १ दिसंबर को डेनमार्क की तरफ से जारी किया जाएगा. लेकिन इसकी भनक चीन को लग गयी है और उसने एक ऐसा डाक्यूमेंट तैयार कर लिया है जिसमें उन बातों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसके नीचे आकर भारत,चीन , दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील कोई समझौता नहीं करेंगें. . वे चार मुद्दे इस ड्राफ्ट में बहुत ही प्रमुखता से बताये गए हैं .वे चार मुद्दे हैं. पहला - यह चारों देश कभी भी गैसों के उत्सर्जन के बारे में ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगें जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो ., उत्सर्जन के ऐसे किसी प्रस्ताव को नहीं मानेगें जिसके लिए माकूल मुआवज़े का प्रावाधन न हो , अपने देश के औद्योगिक उत्सर्जन पर किसी तरह की जांच या निरीक्षण नहीं मंज़ूर होगा और जलवायु परिवर्तन को किसी तरह के व्यापारिक अवरोध के हथियार के रूप के रूप में इस्तेमाल होने देंगें. , भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश भी इस चर्चा में शामिल हैं . उन्होंने बताया कि जब चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ ने शुक्रवार को उन्हें बताया तो उन्होंने उनसे सहमति ज़ाहिर की और कहा कि यह ड्राफ्ट बातचीत शुरू करने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है . उन्होंने कहा कि चीन ने इस दिशा में एक सक्रिय, सकारात्मक अगुवाई शुरू कर दी है और भारत उस का समर्थन करेगा. .
अमरीका की यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री को सामरिक साझेदार के रूप में राजी करने में ओबामा का शायद यह भी उद्देश्य रहा हो कि भारत को कोपेनहेगन में भी अपनी तरफ मोड़ लेंगें तो चीन को दबाना आसान हो जाएगा. लेकिन लगता है कि ऐसा होने नहीं जा रहा है . क्योंकि भारत अपने राष्ट्रीय हित को अमरीका की खुशी के लिए बलिदान नहीं करने वाला है. यह अलग बात है कि सामरिक साझेदारी के आलाप के शुरू होते ही भारत ने परमाणु मसले पर इरान के खिलाफ वोट देकर अपनी वफादारी और मंशा का सबूत दे दिया है .लेकिन जलवायु वाले मुद्दे पर ऐसा नहीं लगता कि भारत अपनी आने वाली पीढ़ियों से दगा करेगा और अमरीका की जी हुजूरी करेगा भारत ने तो एक तरह से ऐलान कर दिया है कि अपने परमपरागत दुश्मन, चीन के साथ मिलकर भी वह राष्ट्रहित के मुद्दों को उठाएगा.
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में आजकल सबसे अहम् मुद्दा जलवायु परिवर्तन का है. विकसित देशों क्व सघन औद्योगिक तंत्र की वजह से वहां प्रदूषण करने वाली गैसें बहुत ज्यादा निकलती हैं उनकी वजह से पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को झेलना पड़ता है .. अमरीका सहित विकसित देशों की कोशिश है कि भारत और चीन सहित अन्य विकास शील देशों को इस बात पर राजी कर लिया जाए कि वे अपनी औद्योगीकरण की गति धीमी कर दें जिस से वातावरण पर पड़ने वाला उल्टा असर कम हो जाए.. लेकिन जिन विकासशील देशों में विकास की गति ऐसे मुकाम पर है जहां औद्योगीकारण की प्रक्रिया का तेज़ होना लाजिमी है, वे विकसित देशों की इस राजनीति से परेशान हैं . पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन की कूटनीति दुनिया के देशों के आपसी संबंधों का प्रमुख मुद्दा बन चुकी है . लेकिन इस बार कोपेनहेगन में दिसंबर में होने वाले शिखर सम्मलेन में कुछ ऐसे प्रस्ताव आने की उम्मीद है जो आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन की राजनीति को प्रभावित करेंगें. . त्रिनिदाद में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भी जलवायु परिवर्तन का मुद्दा छाया रहा. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और रानी एलिज़ाबेथ तो थे ही, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी जलवायु परिवर्तन के बुखार की ज़द में थे. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी त्रिनिदाद की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन पंहुचे हुए थे, हालांकि उनके वहां होने का कोई तुक नहीं था. . पश्चिमी यूरोप के देशों और अमरीका की कोशिश है कि भारत और चीन समेत उन विकासशील देशों को घेर कर औद्योगिक गैसों के उत्सर्जन के मामले में अपनी सुविधा के हिसाब से राजी कर लिए जाय . पोर्ट ऑफ़ स्पेन में इकठ्ठा हुए ज़्यादातर देश विकासशील माने जाते हैं , कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के अलावा सभी राष्ट्रमंडल देश औद्योगीकरण की दौड़ में पिछड़े हुए हैं . इसलिए उनको राजी करना ज्यादा आसान होगा. बाकी अन्य मंचों पर भी यह अभियान चल रहा है. कम विकसित देशों और अविकसित देशों को वातावरण की शुद्धता के महत्व के पाठ लगातार पढाये जा रहे हैं . विकसित देशों के इस अभियान का नेतृत्व , अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कर रहे हैं.. उनकी कोशिश है कि भारत सहित उन देशों को अर्दब में लिया जाय जो कोपेनहेगन में औद्योगिक देशों की मर्जी के हिसाब से फैसले में अड़चन डाल सकते हैं . ओबामा की चीन यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. . वहां जाकर उन्होंने जो ऊंची ऊंची बातें की हैं , उनको पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल है लेकिन चीनी नेताओं को खुश करने की गरज से ओबामा महोदय थोडा बहुत हांकने से भी नहीं सकुचाये.
बहरहाल चीज़ें बहुत आसान नहीं हैं . राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने साफ़ कह दिया कि ऐसी कोई भी बात वे मानने को तैयार नहीं होंगें जो न्यायसंगत न हो . उन्होंने साफ़ कहा कि भारत प्रदूषण करने वाली गैसों में कमी करने के ऐसे किसी भी दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने को तैयार है जिसके लक्ष्य महत्वाकांक्षी हों लेकिन शर्त यह है कि उसकी बुनियाद में सबके प्रति न्याय की भावना हो., जो संतुलित हो और जो हर बात को विस्तार से स्पष्ट करता हो. . भारत की कोशिश है कि एक ऐसा समझौता हो जाए जो वैधानिक रूप से सभी पक्षों को बाध्य करता हो. डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि आजकल विकसित देश यह कोशिश कर रहे हैं कि कोपेनहेगन में अगर कानूनी दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं हो सके तो एक राजनीतिक प्रस्ताव से काम चला लिया जाएगा. भारत ने कहा कि अभी बहुत समय है और इस समय का इस्तेमाल एक सही और न्यायपूर्ण प्रस्ताव पर सहमति बनाने के लिए किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि कोपेनहेगन में जो कुछ भी हासिल किया जाए उसको बाली एक्शन प्लान के मापदंड के अनुसार ही होना चाहिए.. डा. सिंह ने कहा कि बहुपक्षीय समझौते के लिए निर्धारित एजेंडा बहुत ही स्पष्ट है और उसको घुमाफिरा कर कुछ ख़ास वर्गों के हित में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.
पश्चिमी देशों की कोशिश है कि वे एक ऐसा ड्राफ्ट जारी कर दें जो कोपेनहेगन में चर्चा का आधार बन जाए और सारी बहस उसी के इर्द गिर्द घूमती रहे. खबर है कि इस ड्राफ्ट में वह सब कुछ है जो विकसित देश चाहते हैं . यह ड्राफ्ट १ दिसंबर को डेनमार्क की तरफ से जारी किया जाएगा. लेकिन इसकी भनक चीन को लग गयी है और उसने एक ऐसा डाक्यूमेंट तैयार कर लिया है जिसमें उन बातों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसके नीचे आकर भारत,चीन , दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील कोई समझौता नहीं करेंगें. . वे चार मुद्दे इस ड्राफ्ट में बहुत ही प्रमुखता से बताये गए हैं .वे चार मुद्दे हैं. पहला - यह चारों देश कभी भी गैसों के उत्सर्जन के बारे में ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगें जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो ., उत्सर्जन के ऐसे किसी प्रस्ताव को नहीं मानेगें जिसके लिए माकूल मुआवज़े का प्रावाधन न हो , अपने देश के औद्योगिक उत्सर्जन पर किसी तरह की जांच या निरीक्षण नहीं मंज़ूर होगा और जलवायु परिवर्तन को किसी तरह के व्यापारिक अवरोध के हथियार के रूप के रूप में इस्तेमाल होने देंगें. , भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश भी इस चर्चा में शामिल हैं . उन्होंने बताया कि जब चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ ने शुक्रवार को उन्हें बताया तो उन्होंने उनसे सहमति ज़ाहिर की और कहा कि यह ड्राफ्ट बातचीत शुरू करने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है . उन्होंने कहा कि चीन ने इस दिशा में एक सक्रिय, सकारात्मक अगुवाई शुरू कर दी है और भारत उस का समर्थन करेगा. .
अमरीका की यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री को सामरिक साझेदार के रूप में राजी करने में ओबामा का शायद यह भी उद्देश्य रहा हो कि भारत को कोपेनहेगन में भी अपनी तरफ मोड़ लेंगें तो चीन को दबाना आसान हो जाएगा. लेकिन लगता है कि ऐसा होने नहीं जा रहा है . क्योंकि भारत अपने राष्ट्रीय हित को अमरीका की खुशी के लिए बलिदान नहीं करने वाला है. यह अलग बात है कि सामरिक साझेदारी के आलाप के शुरू होते ही भारत ने परमाणु मसले पर इरान के खिलाफ वोट देकर अपनी वफादारी और मंशा का सबूत दे दिया है .लेकिन जलवायु वाले मुद्दे पर ऐसा नहीं लगता कि भारत अपनी आने वाली पीढ़ियों से दगा करेगा और अमरीका की जी हुजूरी करेगा भारत ने तो एक तरह से ऐलान कर दिया है कि अपने परमपरागत दुश्मन, चीन के साथ मिलकर भी वह राष्ट्रहित के मुद्दों को उठाएगा.
Saturday, November 28, 2009
अमरीका का सामरिक सहयोगी बनना आज़ादी से समझौता है
शेष नारायण सिंह
भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके प्रशासन ने अमेरिका में वह ओहदा प्राप्त कर लिया जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था. अब हम अमेरिका के रणनीतिक साझेदार हैं. यह रणनीतिक साझेदारी क्या गुल खिला सकती है इसका पहला प्रमाण प्रधानमंत्री के भारत लौटने से पहले ही भारत पहुंच गया है. परमाणु परीक्षण के मुद्दे पर आईएईए में भारत उस ईरान के खिलाफ जा खड़ा हुआ है जिसके साथ भारत का सदियों पुराना संबंध है.
जाहिर है भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया है इसलिए अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के खास मेहमान डा. मनमोहन सिंह और उनके मेजबान ने बार-बार इस बात का ऐलान किया। दोनों ने ही कहा कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। अब आतंकवाद की मुखालिफत, जलवायु परिवर्तन, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की जाएगी। आतंकवाद के मसले पर दोनों देशों के बीच एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए गए। भारत के पड़ोस में मौजूद आतंक का ज़िक्र करके अमरीकी राजनयिकों ने भारत को संतुष्ट करने का प्रयास किया है।
भारत की लगातार शिकायत रहती है कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। साझा बयान में भारत की यह शिकायत दूर करने की कोशिश की गई है। दोनों ही देशों ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवादियों के सुरक्षित इलाकों पर नजर रखी जायेगी। भारत के परमाणु समझौते पर अमरीकी ढिलाई की चर्चा पर विराम लगाते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने साफ किया और कहा कि भारत अमरीकन परमाणु समझौते की पूरी क्षमता का दोनों देशों के हित में इस्तेमाल किया जाएगा। ओबामा ने भारत को परमाणु शक्ति कहकर भारत में महत्वाकांक्षी कूटनीति के अति आशावादी लोगों को भी खुश कर दिया है। अमरीका की तर्ज पर ही कमजोर देशों के ऊपर दादागिरी करने के सपने पास रहे दक्षिणपंथी राजनयिकों को इससे खुशी होगी। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि अमरीका अब भारत पर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने के लिए दबाव नहीं डालेगा या वह अब भारत को उन देशों की सूची में शामिल कर देगा जो अधिशासिक के रूप से परमाणु शक्ति संपन्न देश माने जाते हैं। क्या अमरीका में मौजूद पाकिस्तान परस्त लॉबी के लोग ओबामा को भारत के प्रति ज्यादा पक्षधरता दिखाने का अवसर देंगे। व्हाइट हाउस के प्रांगण में डा. मनमोहन सिंह का स्वागत करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा कि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश मिलकर दुनिया से परमाणु हथियारों को खत्म करने में सहयोग कर सकते हैं। हालांकि बयान से तो लगता है कि अमरीका भारत को अपने बराबर मानता है लेकिन कूटनीति की भाषा में कई शब्दों के अलग मतलब होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की वाहवाही करके अमरीकी कोशिश चल रही है कि भारत अपने आपको परमाणु अप्रसार संधि की मौजूदा भेदभावपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर दे। वैसे भी अप्रैल 2010 में परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन प्रस्तावित है। कहीं अमरीका यह कोशिश तो नहीं कर रहा है कि भारत को उस सम्मेलन में अपने हिसाब से घुमा ले। जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक थे।
अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को रणनीतिक पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, जो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन अब पूरी हो चुकी है और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका है। अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है और आज अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की ही है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है।
अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्रिटेन वगैरह आते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कल से ही अमरीकी फौजे भारत में डेरा डालने लगेंगी। अमरीका की विदेश नीति अब एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्थन कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत के विदेशनीति के नियामक फौरन सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। अब तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीकी उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है।
भारत एक विकासमान और विकसित देश है, विश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है जबकि पाकिस्तान तबाही के कगार पर खड़ा एक मुल्क है, जिसके रोज़मर्रा के खर्च भी अमरीकी और सउदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता से ही चल रहे हैं। इसलिए अमरीका भी पाकिस्तान को अब वह महत्व नहीं दे सकता है। भारत अमरीकी रणनीतिक साझेदारी की बात अब एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकता, अखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे।
भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके प्रशासन ने अमेरिका में वह ओहदा प्राप्त कर लिया जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था. अब हम अमेरिका के रणनीतिक साझेदार हैं. यह रणनीतिक साझेदारी क्या गुल खिला सकती है इसका पहला प्रमाण प्रधानमंत्री के भारत लौटने से पहले ही भारत पहुंच गया है. परमाणु परीक्षण के मुद्दे पर आईएईए में भारत उस ईरान के खिलाफ जा खड़ा हुआ है जिसके साथ भारत का सदियों पुराना संबंध है.
जाहिर है भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया है इसलिए अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के खास मेहमान डा. मनमोहन सिंह और उनके मेजबान ने बार-बार इस बात का ऐलान किया। दोनों ने ही कहा कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। अब आतंकवाद की मुखालिफत, जलवायु परिवर्तन, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की जाएगी। आतंकवाद के मसले पर दोनों देशों के बीच एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए गए। भारत के पड़ोस में मौजूद आतंक का ज़िक्र करके अमरीकी राजनयिकों ने भारत को संतुष्ट करने का प्रयास किया है।
भारत की लगातार शिकायत रहती है कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। साझा बयान में भारत की यह शिकायत दूर करने की कोशिश की गई है। दोनों ही देशों ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवादियों के सुरक्षित इलाकों पर नजर रखी जायेगी। भारत के परमाणु समझौते पर अमरीकी ढिलाई की चर्चा पर विराम लगाते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने साफ किया और कहा कि भारत अमरीकन परमाणु समझौते की पूरी क्षमता का दोनों देशों के हित में इस्तेमाल किया जाएगा। ओबामा ने भारत को परमाणु शक्ति कहकर भारत में महत्वाकांक्षी कूटनीति के अति आशावादी लोगों को भी खुश कर दिया है। अमरीका की तर्ज पर ही कमजोर देशों के ऊपर दादागिरी करने के सपने पास रहे दक्षिणपंथी राजनयिकों को इससे खुशी होगी। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि अमरीका अब भारत पर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने के लिए दबाव नहीं डालेगा या वह अब भारत को उन देशों की सूची में शामिल कर देगा जो अधिशासिक के रूप से परमाणु शक्ति संपन्न देश माने जाते हैं। क्या अमरीका में मौजूद पाकिस्तान परस्त लॉबी के लोग ओबामा को भारत के प्रति ज्यादा पक्षधरता दिखाने का अवसर देंगे। व्हाइट हाउस के प्रांगण में डा. मनमोहन सिंह का स्वागत करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा कि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश मिलकर दुनिया से परमाणु हथियारों को खत्म करने में सहयोग कर सकते हैं। हालांकि बयान से तो लगता है कि अमरीका भारत को अपने बराबर मानता है लेकिन कूटनीति की भाषा में कई शब्दों के अलग मतलब होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की वाहवाही करके अमरीकी कोशिश चल रही है कि भारत अपने आपको परमाणु अप्रसार संधि की मौजूदा भेदभावपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर दे। वैसे भी अप्रैल 2010 में परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन प्रस्तावित है। कहीं अमरीका यह कोशिश तो नहीं कर रहा है कि भारत को उस सम्मेलन में अपने हिसाब से घुमा ले। जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक थे।
अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को रणनीतिक पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, जो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन अब पूरी हो चुकी है और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका है। अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है और आज अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की ही है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है।
अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्रिटेन वगैरह आते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कल से ही अमरीकी फौजे भारत में डेरा डालने लगेंगी। अमरीका की विदेश नीति अब एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्थन कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत के विदेशनीति के नियामक फौरन सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। अब तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीकी उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है।
भारत एक विकासमान और विकसित देश है, विश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है जबकि पाकिस्तान तबाही के कगार पर खड़ा एक मुल्क है, जिसके रोज़मर्रा के खर्च भी अमरीकी और सउदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता से ही चल रहे हैं। इसलिए अमरीका भी पाकिस्तान को अब वह महत्व नहीं दे सकता है। भारत अमरीकी रणनीतिक साझेदारी की बात अब एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकता, अखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे।
Friday, November 27, 2009
राजनाथ सिंह होंगें हिन्दुत्व के नए अलम्बरदार
शेष नारायण सिंह
ख़बरों में बने रहकर भारतीय राजनेता बहुत कुछ हासिल कर लेता है. खबर चाहे पक्ष में हो या खिलाफ हो, वह नेताओं के बड़े काम की होती है. जब १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गाँधी को जनता ने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है . इंदिरा गाँधी की समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करें. आपराधिक राजनीति का विशेषज्ञ उनका बेटा , जो इमरजेंसी की तानाशाही के लिए बराबर का ज़िम्मेदार था , अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मुक़दमों की पैरवी में व्यस्त हो गया था लेकिन इंदिरा गाँधी के सामने दिशाभ्रम की स्थिति थी. ठीक ऐसे वक़्त में तत्कालीन गृहमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को संजीवनी दे दी .इंदिरा गाँधी की राजनीतिक गिरफ्तारी का आदेश दे दिया और सी बी आई के एक अति उत्साही अफसर ने इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार भी कर लिया . अगले दिन इंदिरा गाँधी हर अखबार के पहले पेज पर छा गयीं. और भारत की राजनीति में उनकी धमाकेदार वापसी का रास्ता खुल गया. इसलिए राजनीति में अगर कोई व्यक्ति या पार्टी अखबारी सुर्ख़ियों में बना रहने में सफलता हासिल कर लेता है तो उसे राजनीति में अपनी मंजिल पाने में आसानी होती है . खबर चाहे नकारात्मक कारणों से ही छपे , उसका फायदा होता है.
राजनीति की सफलता का यह मन्त्र बी जे पी वालों ने खूब अच्छी तरह से समझ लिया है. इसीलिए पार्टी के नेता अक्सर विवादों में छाये रहते हैं .आजकल नया विवाद लोकसभा में लिब्रहान आयोग पर होने वाली बहस के सन्दर्भ में है .पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सदन में उपनेता सुषमा स्वराज को इस विषय में होने वाली बहस को शुरू करने की जिम्मेदारी दी थी लेकिन चंदौली वाले बाबू साहब ने खेल बदल दिया है .अब लोकसभा में बहस की शुरुआत पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे। इस घटनाक्रम से पार्टी में लोकसभा में आडवाणी के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। अभी तक सुषमा स्वराज को ही इसका स्वाभाविक दावेदार माना जाता रहा है।
बी जे पी को उम्मीद थी कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर देगी. लेकिन ऐसा न हो सका . मीडिया में जो लोग आर एस एस के बन्दे माने जाते हैं वे भी लिब्रहान पर कोई तूफ़ान नहीं पैदा कर सके लेकिन बी जे पी की कोशिश है कि उस पर होने वाली बहस को जोरदार बनाया जाए. जैसी की उम्मीद थी , रिपोर्ट में बी जे पी और आर एस एस के आला नेताओं को अपराधी की तरह पेश किया गया है इसलिए भाजपा ने इस पर बहस की शुरुआत के लिए दोनों सदनों के अपने प्रखर वक्ताओं राज्यसभा में अरुण जेटली व लोकसभा में सुषमा स्वराज को तय किया था। लेकिन गुरुवार को अचानक भाजपा ने सुषमा स्वराज की जगह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लोकसभा में बहस शुरू कराने का फैसला किया। सुषमा स्वराज पार्टी की दूसरी प्रमुख वक्ता होंगी, जबकि अयोध्या मामले से सीधे जुड़े रहे दोनों प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी व डा मुरली मनोहर जोशी बहस में हस्तक्षेप करेंगे। राजनाथ सिंह का नाम तय होने का किस्सा जितना रोचक है, उतना ही पार्टी की अंदरूनी राजनीति को लेकर संवेदनशील भी है। उपनेता सुषमा स्वराज ने लोकसभा में अपने बगल में बैठे राजनाथ सिंह से चर्चा करते हुए उनसे सदन में किसी बहस में हिस्सा लेने के बारे में पूछा. राजनाथ सिंह ने कहा कि वे ऐसी किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं, जिसकी तारीख तय हो. सुषमा स्वराज ने उनसे लिब्रहान आयोग पर अगले मंगलवार को होने वाली बहस में हिस्सा लेने की बात कही. राजनाथ सिंह राजी हो गए.अब सुषमा के सामने कोई चारा नहीं था उन्होंने बहस की शुरुआत करने के लिए राजनाथ को संकेत किया और उन्होंने सहमति दे दी .सुषमा स्वराज ने खुद को दूसरे वक्ता के रूप में रखा और इस बदलाव की जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को दे दी. राजनाथ सिंह अयोध्या आंदोलन के समय पार्टी के बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सक्रिय थे जबकि सुषमा स्वराज दिल्ली में ही रहती थीं और सत्ता के गलियारों की माहिर के रूप में उनकी पहचान होती थी. सच्ची बात यह है कि १९९२ तक राजनाथ सिंह की पहचान बनारस से आये एक नौजवान कार्यकर्ता के रूप में होती थी, वे उत्तर प्रदेश के बड़े नेताओं में भी नहीं गिने जाते थे. अडवाणी गुट के खिलाफ, आर एस एस की शह पर उनको राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया गया है .कोशिश है कि उन्हें हिन्दुत्व-वादी राजनीति के नए अलंबरदार के रूप में स्थापित किया जाए. ज़ाहिर है इस डिजाइन को अमली जामा पहनाने के लिये इस मुद्दे पर उनको बोलने का मौक़ा देकर पार्टी को संसद में एक हिंदुत्ववादी छवि के नेता के रूप में उन्हें आगे बढ़ाने का मौका भी मिलेगा। अभी लोकसभा में आडवाणी व डा जोशी प्रख्रर हिंदुत्ववादी व संघ विचारधारा के प्रमुख नेता हैं। हालांकि इस बदलाव से लोकसभा में आडवाणी के भावी उत्तराधिकारी को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू हो गई है।
ख़बरों में बने रहकर भारतीय राजनेता बहुत कुछ हासिल कर लेता है. खबर चाहे पक्ष में हो या खिलाफ हो, वह नेताओं के बड़े काम की होती है. जब १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गाँधी को जनता ने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है . इंदिरा गाँधी की समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करें. आपराधिक राजनीति का विशेषज्ञ उनका बेटा , जो इमरजेंसी की तानाशाही के लिए बराबर का ज़िम्मेदार था , अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मुक़दमों की पैरवी में व्यस्त हो गया था लेकिन इंदिरा गाँधी के सामने दिशाभ्रम की स्थिति थी. ठीक ऐसे वक़्त में तत्कालीन गृहमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को संजीवनी दे दी .इंदिरा गाँधी की राजनीतिक गिरफ्तारी का आदेश दे दिया और सी बी आई के एक अति उत्साही अफसर ने इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार भी कर लिया . अगले दिन इंदिरा गाँधी हर अखबार के पहले पेज पर छा गयीं. और भारत की राजनीति में उनकी धमाकेदार वापसी का रास्ता खुल गया. इसलिए राजनीति में अगर कोई व्यक्ति या पार्टी अखबारी सुर्ख़ियों में बना रहने में सफलता हासिल कर लेता है तो उसे राजनीति में अपनी मंजिल पाने में आसानी होती है . खबर चाहे नकारात्मक कारणों से ही छपे , उसका फायदा होता है.
राजनीति की सफलता का यह मन्त्र बी जे पी वालों ने खूब अच्छी तरह से समझ लिया है. इसीलिए पार्टी के नेता अक्सर विवादों में छाये रहते हैं .आजकल नया विवाद लोकसभा में लिब्रहान आयोग पर होने वाली बहस के सन्दर्भ में है .पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सदन में उपनेता सुषमा स्वराज को इस विषय में होने वाली बहस को शुरू करने की जिम्मेदारी दी थी लेकिन चंदौली वाले बाबू साहब ने खेल बदल दिया है .अब लोकसभा में बहस की शुरुआत पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे। इस घटनाक्रम से पार्टी में लोकसभा में आडवाणी के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। अभी तक सुषमा स्वराज को ही इसका स्वाभाविक दावेदार माना जाता रहा है।
बी जे पी को उम्मीद थी कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर देगी. लेकिन ऐसा न हो सका . मीडिया में जो लोग आर एस एस के बन्दे माने जाते हैं वे भी लिब्रहान पर कोई तूफ़ान नहीं पैदा कर सके लेकिन बी जे पी की कोशिश है कि उस पर होने वाली बहस को जोरदार बनाया जाए. जैसी की उम्मीद थी , रिपोर्ट में बी जे पी और आर एस एस के आला नेताओं को अपराधी की तरह पेश किया गया है इसलिए भाजपा ने इस पर बहस की शुरुआत के लिए दोनों सदनों के अपने प्रखर वक्ताओं राज्यसभा में अरुण जेटली व लोकसभा में सुषमा स्वराज को तय किया था। लेकिन गुरुवार को अचानक भाजपा ने सुषमा स्वराज की जगह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लोकसभा में बहस शुरू कराने का फैसला किया। सुषमा स्वराज पार्टी की दूसरी प्रमुख वक्ता होंगी, जबकि अयोध्या मामले से सीधे जुड़े रहे दोनों प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी व डा मुरली मनोहर जोशी बहस में हस्तक्षेप करेंगे। राजनाथ सिंह का नाम तय होने का किस्सा जितना रोचक है, उतना ही पार्टी की अंदरूनी राजनीति को लेकर संवेदनशील भी है। उपनेता सुषमा स्वराज ने लोकसभा में अपने बगल में बैठे राजनाथ सिंह से चर्चा करते हुए उनसे सदन में किसी बहस में हिस्सा लेने के बारे में पूछा. राजनाथ सिंह ने कहा कि वे ऐसी किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं, जिसकी तारीख तय हो. सुषमा स्वराज ने उनसे लिब्रहान आयोग पर अगले मंगलवार को होने वाली बहस में हिस्सा लेने की बात कही. राजनाथ सिंह राजी हो गए.अब सुषमा के सामने कोई चारा नहीं था उन्होंने बहस की शुरुआत करने के लिए राजनाथ को संकेत किया और उन्होंने सहमति दे दी .सुषमा स्वराज ने खुद को दूसरे वक्ता के रूप में रखा और इस बदलाव की जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को दे दी. राजनाथ सिंह अयोध्या आंदोलन के समय पार्टी के बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सक्रिय थे जबकि सुषमा स्वराज दिल्ली में ही रहती थीं और सत्ता के गलियारों की माहिर के रूप में उनकी पहचान होती थी. सच्ची बात यह है कि १९९२ तक राजनाथ सिंह की पहचान बनारस से आये एक नौजवान कार्यकर्ता के रूप में होती थी, वे उत्तर प्रदेश के बड़े नेताओं में भी नहीं गिने जाते थे. अडवाणी गुट के खिलाफ, आर एस एस की शह पर उनको राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया गया है .कोशिश है कि उन्हें हिन्दुत्व-वादी राजनीति के नए अलंबरदार के रूप में स्थापित किया जाए. ज़ाहिर है इस डिजाइन को अमली जामा पहनाने के लिये इस मुद्दे पर उनको बोलने का मौक़ा देकर पार्टी को संसद में एक हिंदुत्ववादी छवि के नेता के रूप में उन्हें आगे बढ़ाने का मौका भी मिलेगा। अभी लोकसभा में आडवाणी व डा जोशी प्रख्रर हिंदुत्ववादी व संघ विचारधारा के प्रमुख नेता हैं। हालांकि इस बदलाव से लोकसभा में आडवाणी के भावी उत्तराधिकारी को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू हो गई है।
Thursday, November 26, 2009
राजनीति की सर्वोच्चता के बिना लोकशाही संभव नहीं
शेष नारायण सिंह
केंद्र सरकार ने एक ऐसी स्कीम बनायी है जिसके हिसाब से अब मंत्रियों के काम काज की समीक्षा की जायेगी.. कैबिनेट सचिवालय की ओर से एक कागज़ तैयार किया गया है जिसके अनुसार अब सभी मंत्रियों के काम की ग्रेडिंग की जायगी और उसके आधार पर उन्हें नंबर दिए जायेंगें. रिजल्ट फ्रेमवर्क डाक्यूमेंट नाम की इस योजना का उद्देश्य मंत्रियों को अनुशासन में रखना और उन्हें अच्छे काम के लिए उत्साहित करना बताया गया है. आजकल राजनेताओं के बारे में जनता की राय बहुत अच्छी नहीं होती इसलिए उनको सज़ा देने की इच्छा लगभग हर आदमी में रहती है. इस तरह की नकेल लगेगी तो जनता को खुशी होगी . इस योजना के सफल या असफल होने के बारे में बहस करने को कोई मतलब नहीं है .लेकिन इतना तय है कि अगर यह योजना लागू हो गयी तो अपने देश की सत्ता को चला रही नौकरशाही के हाथ एक ऐसा हथियार लग जाएगा जिसे इस्तेमाल करने की धमकी दे कर अफसर लोग नेताओं को हड्काने का काम करेंगे . अगर ऐसा हुआ तो यह लोकशाही के सपने के मुंह पर एक ज़ोरदार थप्पड़ होगा. यह एक फैसला आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना को पलट देने की ताक़त रखता है...
इस बात में दो राय नहीं है कि आज के हमारे नेता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुके हैं लेकिन उनके ऊपर नौकरशाही की सलीब लादना ठीक नहीं होगा... सच्ची बात यह है कि कैबिनेट सचिवालय की ओर आया हुआ प्रस्ताव बहुत ही साधारण सी भाषा में है . अगर हल्ला गुल्ला शुरू हो गया तो नौकरशाही के शीर्ष पर बैठे लोग साफ़ कह देंगें कि शासन व्यवस्था के सुधार के लिए एक कोशिश की जा रही थी . अगर जनमत इसके खिलाफ है तो प्रताव पर आगे काम नहीं किया जाएगा. लेकिन अगर यह प्रस्ताव आगे बढ़ गया तो हमेशा के लिए कार्यपालिका के ऊपर नौकरशाही के दबदबे का इंतज़ाम हो जाएगा. इसलिए इस देश के राजनीतिक नेता वर्ग को चाहिए कि इस तरह से लगाम लगाने की कोशिश को फ़ौरन रोकें और अपने आप को दुरुस्त करने के लिए कोशिश शुरू कर लें वरना एक बार अगर अफसरशाही का शिकंजा कस गया तो बचने की सारी संभावनाएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगी... अभी शायद नेताओं को यह खेल समझ में नहीं आ रहा है लेकिन अगर ऐसा हो गया तो उसकी भयानकता का अंदाज़ लगा पाना मुश्किल होगा. ट्रेलर के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के काम काज के बारे में जानकारी लेना ठीक होगा . वहां एक दौर ऐसा आया जब राजनीतिक प्रबंधन के कारण अपराधियों को मंत्री बनाने का सिलसिला शुरू हो गया . आज आलम यह है कि वहां अफसर जो चाहता है, वही होता है और सम्बंधित मंत्री को अपने ही विभाग के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए या तो अपने विभाग के प्रमुख सच्चिव से पूछना पड़ता है और या मुख्य मंत्री के दफ्तर में उसके विभाग के इंचार्ज सचिव से पूछना पड़ता है. जहां तक फैसले लेने की बात है, वह तो पूरी तरह से अफसरों के हाथ में ही है . वे सीधे मुख्य मंत्री को रिपोर्ट करते हैं . राजनीतिक शक्ति के इस क्षरण के लिए राजनीतिक नेता ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपनी उस शक्ति का सही इस्तेमाल नहीं किया जो उनको लोकतंत्र की वजह से मिली हुई थी. यह वही उत्तर प्रदेश है जहां साठ के दशक मे बहुत बड़े एक अफसर को कैबिनेट के एक मंत्री ने इस लिए सज़ा दे दी थी कि उसने एक ब्लाक प्रमुख के लिये अपशब्दों का प्रयोग कर दिया था. उस वक़्त के मुख्य मंत्री स्वर्गीय चन्द्रभानु गुप्त ने कार्रवाई की सख्ती को कम करने की कोशिश की थी लेकिन आज़ादीकी लड़ाई में शामिल रह चुके राजनेताओं का जलवा ऐसा था कि बात राजनीतिक बॉस की ही चली ..
इसलिए राजनीतिक नेताओं पर नौकरशाही की लगाम लगाने की कोशिश की मुखालिफत की जानी चाहिए.. राजनीति में शामिल होने वाला व्यक्ति सब कुछ छोड़कर वहां जाता था लेकिन आजकल तो यह धंधा हो गया है इसके लिए भी राजनीतिक कमिसार के रूप में विकसित हो रहे कुछ अफसर ही ज़िम्मेदार हैं जो राजनीतिक ताक़त के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को साध लेते हैं और फिर सत्ता को अपने इशारों पर घुमाते हैं .. आज़ादी की लड़ाई का इथोस ऐसा था कि मान लिया गया था कि जो व्यक्ति कैबिनेट दर्जे का मंत्री बनाया जाएगा वह अप्रमेय होगा, उसे किसी की सर्टिफिकेट की ज़रुरत नहीं होगी. वह लोकशक्ति का प्रतिनधि होगा और लोकराज की व्यवस्था में सबसे ऊपर विराजमान होगा. उसकी ख्याति कस्तूरी जैसी होगी जसके बारे में किसी को बताने की ज़रुरत नहीं होगी. उसका यश स्वयमेव विख्यात होगा. लोकनीति के निर्धारण की उसकी क्षमता अद्वितीय होगी .और वह लोकशक्ति का सच्चा प्रतिनिधि होगा. सरकारी नौकर उसकी नीतियों को निर्धारित करने में कोई भूमिका नहीं निभाएगा . वह केवल मंत्री का आदेश पाकर उसे लागू करने का काम करेगा. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम एक देश के रूप में इस तरह की अप्रमेय योग्यता वाले सौ पचास लोगभी राजनीति के क्षेत्र तक नहीं पंहुचा सकते. इसीलिए संविधान में व्यवस्था थी कि प्रधान मंत्री जब तक संतुष्ट रहेगा तभी तक कोई मंत्री अपने पद पर बना रह सकता है .लेकिन यहाँ तो हालात बिलकुल अलग हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में कुछ ऐसे मंत्री भी हैं जिनको प्रधान मंत्री किसी भी सूरत में अपने साथ नहीं रखना चाहते लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते उन्हें झेल रहे हैं . इसी का फायदा उठाकर नौकरशाही ने अपनी चाल चल दी है . देखना यह है कि क्या इस देश में पीछे रास्ते से एक बार फिर से नौकरशाही की हुकूमत कायम हो जायेगी .. अगर राजनीतिक नेता संभले नहीं तो यह खतरा जितना आज है उतना कभी नहीं था. .हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि राजनेता को जनता चुनती है और वहीं जनता पर राज करने क अधिकारी होता है . उसके अधिकार को कुचलने की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए.
केंद्र सरकार ने एक ऐसी स्कीम बनायी है जिसके हिसाब से अब मंत्रियों के काम काज की समीक्षा की जायेगी.. कैबिनेट सचिवालय की ओर से एक कागज़ तैयार किया गया है जिसके अनुसार अब सभी मंत्रियों के काम की ग्रेडिंग की जायगी और उसके आधार पर उन्हें नंबर दिए जायेंगें. रिजल्ट फ्रेमवर्क डाक्यूमेंट नाम की इस योजना का उद्देश्य मंत्रियों को अनुशासन में रखना और उन्हें अच्छे काम के लिए उत्साहित करना बताया गया है. आजकल राजनेताओं के बारे में जनता की राय बहुत अच्छी नहीं होती इसलिए उनको सज़ा देने की इच्छा लगभग हर आदमी में रहती है. इस तरह की नकेल लगेगी तो जनता को खुशी होगी . इस योजना के सफल या असफल होने के बारे में बहस करने को कोई मतलब नहीं है .लेकिन इतना तय है कि अगर यह योजना लागू हो गयी तो अपने देश की सत्ता को चला रही नौकरशाही के हाथ एक ऐसा हथियार लग जाएगा जिसे इस्तेमाल करने की धमकी दे कर अफसर लोग नेताओं को हड्काने का काम करेंगे . अगर ऐसा हुआ तो यह लोकशाही के सपने के मुंह पर एक ज़ोरदार थप्पड़ होगा. यह एक फैसला आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना को पलट देने की ताक़त रखता है...
इस बात में दो राय नहीं है कि आज के हमारे नेता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुके हैं लेकिन उनके ऊपर नौकरशाही की सलीब लादना ठीक नहीं होगा... सच्ची बात यह है कि कैबिनेट सचिवालय की ओर आया हुआ प्रस्ताव बहुत ही साधारण सी भाषा में है . अगर हल्ला गुल्ला शुरू हो गया तो नौकरशाही के शीर्ष पर बैठे लोग साफ़ कह देंगें कि शासन व्यवस्था के सुधार के लिए एक कोशिश की जा रही थी . अगर जनमत इसके खिलाफ है तो प्रताव पर आगे काम नहीं किया जाएगा. लेकिन अगर यह प्रस्ताव आगे बढ़ गया तो हमेशा के लिए कार्यपालिका के ऊपर नौकरशाही के दबदबे का इंतज़ाम हो जाएगा. इसलिए इस देश के राजनीतिक नेता वर्ग को चाहिए कि इस तरह से लगाम लगाने की कोशिश को फ़ौरन रोकें और अपने आप को दुरुस्त करने के लिए कोशिश शुरू कर लें वरना एक बार अगर अफसरशाही का शिकंजा कस गया तो बचने की सारी संभावनाएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगी... अभी शायद नेताओं को यह खेल समझ में नहीं आ रहा है लेकिन अगर ऐसा हो गया तो उसकी भयानकता का अंदाज़ लगा पाना मुश्किल होगा. ट्रेलर के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के काम काज के बारे में जानकारी लेना ठीक होगा . वहां एक दौर ऐसा आया जब राजनीतिक प्रबंधन के कारण अपराधियों को मंत्री बनाने का सिलसिला शुरू हो गया . आज आलम यह है कि वहां अफसर जो चाहता है, वही होता है और सम्बंधित मंत्री को अपने ही विभाग के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए या तो अपने विभाग के प्रमुख सच्चिव से पूछना पड़ता है और या मुख्य मंत्री के दफ्तर में उसके विभाग के इंचार्ज सचिव से पूछना पड़ता है. जहां तक फैसले लेने की बात है, वह तो पूरी तरह से अफसरों के हाथ में ही है . वे सीधे मुख्य मंत्री को रिपोर्ट करते हैं . राजनीतिक शक्ति के इस क्षरण के लिए राजनीतिक नेता ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपनी उस शक्ति का सही इस्तेमाल नहीं किया जो उनको लोकतंत्र की वजह से मिली हुई थी. यह वही उत्तर प्रदेश है जहां साठ के दशक मे बहुत बड़े एक अफसर को कैबिनेट के एक मंत्री ने इस लिए सज़ा दे दी थी कि उसने एक ब्लाक प्रमुख के लिये अपशब्दों का प्रयोग कर दिया था. उस वक़्त के मुख्य मंत्री स्वर्गीय चन्द्रभानु गुप्त ने कार्रवाई की सख्ती को कम करने की कोशिश की थी लेकिन आज़ादीकी लड़ाई में शामिल रह चुके राजनेताओं का जलवा ऐसा था कि बात राजनीतिक बॉस की ही चली ..
इसलिए राजनीतिक नेताओं पर नौकरशाही की लगाम लगाने की कोशिश की मुखालिफत की जानी चाहिए.. राजनीति में शामिल होने वाला व्यक्ति सब कुछ छोड़कर वहां जाता था लेकिन आजकल तो यह धंधा हो गया है इसके लिए भी राजनीतिक कमिसार के रूप में विकसित हो रहे कुछ अफसर ही ज़िम्मेदार हैं जो राजनीतिक ताक़त के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को साध लेते हैं और फिर सत्ता को अपने इशारों पर घुमाते हैं .. आज़ादी की लड़ाई का इथोस ऐसा था कि मान लिया गया था कि जो व्यक्ति कैबिनेट दर्जे का मंत्री बनाया जाएगा वह अप्रमेय होगा, उसे किसी की सर्टिफिकेट की ज़रुरत नहीं होगी. वह लोकशक्ति का प्रतिनधि होगा और लोकराज की व्यवस्था में सबसे ऊपर विराजमान होगा. उसकी ख्याति कस्तूरी जैसी होगी जसके बारे में किसी को बताने की ज़रुरत नहीं होगी. उसका यश स्वयमेव विख्यात होगा. लोकनीति के निर्धारण की उसकी क्षमता अद्वितीय होगी .और वह लोकशक्ति का सच्चा प्रतिनिधि होगा. सरकारी नौकर उसकी नीतियों को निर्धारित करने में कोई भूमिका नहीं निभाएगा . वह केवल मंत्री का आदेश पाकर उसे लागू करने का काम करेगा. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम एक देश के रूप में इस तरह की अप्रमेय योग्यता वाले सौ पचास लोगभी राजनीति के क्षेत्र तक नहीं पंहुचा सकते. इसीलिए संविधान में व्यवस्था थी कि प्रधान मंत्री जब तक संतुष्ट रहेगा तभी तक कोई मंत्री अपने पद पर बना रह सकता है .लेकिन यहाँ तो हालात बिलकुल अलग हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में कुछ ऐसे मंत्री भी हैं जिनको प्रधान मंत्री किसी भी सूरत में अपने साथ नहीं रखना चाहते लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते उन्हें झेल रहे हैं . इसी का फायदा उठाकर नौकरशाही ने अपनी चाल चल दी है . देखना यह है कि क्या इस देश में पीछे रास्ते से एक बार फिर से नौकरशाही की हुकूमत कायम हो जायेगी .. अगर राजनीतिक नेता संभले नहीं तो यह खतरा जितना आज है उतना कभी नहीं था. .हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि राजनेता को जनता चुनती है और वहीं जनता पर राज करने क अधिकारी होता है . उसके अधिकार को कुचलने की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए.
वे कठिनाई और गरीबी में खुश रहना जानते थे
शेष नारायण सिंह
'प्रभाष जी न किसी के जीवन में हस्तक्षेप करते थे और न ही अपने या अपने परिवार के जीवन में किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त करते थे.' आज भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय( पी आई बी) में बुलाई गयी एक शोक सभा में उनके. करीबी सहयोगी और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने मौजूद लगों को यह जानकारी दी...पी आई बी के इतिहास में शायद पहली बार किसी वरिष्ठ पत्रकार की याद में शोक सभा का आयोजन किया गया जो कि कभी सरकारी पद पर न रहा हो.. पी आई बी की महानिदेशक ,नीलम कपूर की पहल पर हुए इस आयोजन में कई वरिष्ठ पत्रकार और पी आई बी के अधिकारी मौजूद थे. . प्रभाष जी के पुत्र सोपान जोशी ने बताया कि वे कठिनाई और गरीबी में बहुत खुश रहना जानते थे और उनके इस सदगुण को वे हमेशा याद रखना चाहते हैं .. प्रभाष जी जब १९५५ में घर से निकल गए थे तो पत्रकारिता करने नहीं गए थे . वह तो संयोग था कि उन्हें हमेशा अच्छे सम्पादक और मालिक मिले और मिलते गए.. सोपान ने राहुल बारपुते, नरेंद्र तिवारी, और राम नाथ गोयनका का ज़िक्र किया..वरिष्ठ पत्रकार , पुण्य प्रसून वाजपेयी ने प्रभाष जी से जुडी अपनी निजी यादों का ज़िक्र किया और कहा कि वे किसी मंत्री और राह चलते फक्कड़ इंसान से उसी गंभीरता से बातचीत करते थे. इस अवसर पर प्रन्जोय गुहा ठाकुरता ने प्रभाष जी के अंतिम दिनीं में हुई बातचीत का उल्लेख किया . उनके सौजन्य से ही स्वर्गीय प्रभाष जी का अंतिम भाषण भी सभा में सुनाया गया. राम बहादुर राय ने बताया कि अगर प्रभाष जी ने पहल ने की होती तो जैन हवाला काण्ड की उनकी बहुचर्चित खबर छप ही न पाती क्योंकि अखबार के समाचार सम्पादक ने तो उस खबर को रोकने का मन बना लिया था. दरअसल खबर २ दिन तक दबी रही. जब प्रभाष जी को पता चला तब खबर छप सकी. जैन हवाला काण्ड आज के मधु कोड़ा की तरह एक राजनीतिक भ्रष्टाचार का माला था अजिस्में ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों के नताओं के नाम थे.राम बहादुर राय ने कहा कि प्रभाष जी मौलिक आदमी थे , जहां उनका फ़र्ज़ जुटने की प्रेरणा देता था वे उसमें जुट जाते थे . उन्होंने नतीजों की परवाह कभी नहीं की. अपनी इसी प्रकृत्ति के कारण वे आदमी से मानव बन गए थे.. उन्होंने समाज सेवा,राजनीतिक परिवर्तन , व्यवस्था परिवर्तन और लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था.
'प्रभाष जी न किसी के जीवन में हस्तक्षेप करते थे और न ही अपने या अपने परिवार के जीवन में किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त करते थे.' आज भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय( पी आई बी) में बुलाई गयी एक शोक सभा में उनके. करीबी सहयोगी और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने मौजूद लगों को यह जानकारी दी...पी आई बी के इतिहास में शायद पहली बार किसी वरिष्ठ पत्रकार की याद में शोक सभा का आयोजन किया गया जो कि कभी सरकारी पद पर न रहा हो.. पी आई बी की महानिदेशक ,नीलम कपूर की पहल पर हुए इस आयोजन में कई वरिष्ठ पत्रकार और पी आई बी के अधिकारी मौजूद थे. . प्रभाष जी के पुत्र सोपान जोशी ने बताया कि वे कठिनाई और गरीबी में बहुत खुश रहना जानते थे और उनके इस सदगुण को वे हमेशा याद रखना चाहते हैं .. प्रभाष जी जब १९५५ में घर से निकल गए थे तो पत्रकारिता करने नहीं गए थे . वह तो संयोग था कि उन्हें हमेशा अच्छे सम्पादक और मालिक मिले और मिलते गए.. सोपान ने राहुल बारपुते, नरेंद्र तिवारी, और राम नाथ गोयनका का ज़िक्र किया..वरिष्ठ पत्रकार , पुण्य प्रसून वाजपेयी ने प्रभाष जी से जुडी अपनी निजी यादों का ज़िक्र किया और कहा कि वे किसी मंत्री और राह चलते फक्कड़ इंसान से उसी गंभीरता से बातचीत करते थे. इस अवसर पर प्रन्जोय गुहा ठाकुरता ने प्रभाष जी के अंतिम दिनीं में हुई बातचीत का उल्लेख किया . उनके सौजन्य से ही स्वर्गीय प्रभाष जी का अंतिम भाषण भी सभा में सुनाया गया. राम बहादुर राय ने बताया कि अगर प्रभाष जी ने पहल ने की होती तो जैन हवाला काण्ड की उनकी बहुचर्चित खबर छप ही न पाती क्योंकि अखबार के समाचार सम्पादक ने तो उस खबर को रोकने का मन बना लिया था. दरअसल खबर २ दिन तक दबी रही. जब प्रभाष जी को पता चला तब खबर छप सकी. जैन हवाला काण्ड आज के मधु कोड़ा की तरह एक राजनीतिक भ्रष्टाचार का माला था अजिस्में ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों के नताओं के नाम थे.राम बहादुर राय ने कहा कि प्रभाष जी मौलिक आदमी थे , जहां उनका फ़र्ज़ जुटने की प्रेरणा देता था वे उसमें जुट जाते थे . उन्होंने नतीजों की परवाह कभी नहीं की. अपनी इसी प्रकृत्ति के कारण वे आदमी से मानव बन गए थे.. उन्होंने समाज सेवा,राजनीतिक परिवर्तन , व्यवस्था परिवर्तन और लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था.
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