शेष नारायण सिंह
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट की घोषणा हो गई। सब को पता है कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद कोई धार्मिक प्रोजेक्ट नहीं था, वह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट था। उस विवाद के कारण उसका संचालन करने वालों को भारी राजनीतिक लाभ भी मिला। बाबरी मस्जिद को विवाद में लाने की आरएसएस की जो मूल योजना थी, वह मनोवांछित फल दे चुकी है। आज केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आरएसएस के राजनीतिक संगठन यानी भाजपा की सरकार है। यह सफलता एक दिन में नहीं हासिल हुई है। 1946 में मुहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आह्वान के बाद जब पंजाब और बंगाल में साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए तो आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने दंगाग्रस्त इलाकों में हिन्दुओं की बहुत मदद की थी। उनकी लोकप्रियता अविभाजित पंजाब और बंगाल में बहुत ही ज़्यादा थी। उन दिनों आरएसएस का अपना कोई राजनीतिक संगठन नहीं था लेकिन यह माना जाता था कि जिसकी भी आरएसएस वाले मदद करेंगे, उसको चुनावी सफलता मिलेगी। लेकिन आ•ाादी मिलने के छ: महीने के अन्दर ही महात्मा गांधी की हत्या हो गई। गांधीजी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी लेकिन उसके साथ आरएसएस के सबसे बड़े नेता एमएस गोलवलकर और उनकी विचारधारा के पुरोधा, वीडी सावरकर भी संदेह की बिना पर गिरफ्तार हो गए थे जो आरएसएस के लिए बड़ा झटका था। बाद में गोलवलकर और सावरकर तो छूट गए लेकिन हिन्दू महासभा के नेताओं- नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी हो गई। नाथूराम के भाई-गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास की स•ाा हुई। महात्मा गांधी की हत्या के बाद हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को राजनीतिक नुकसान हुआ। उस दौर के हिन्दू महासभा के बड़े नेता, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू महासभा को छोड़ दिया और नई पार्टी, भारतीय जनसंघ बना ली। जनसंघ की स्थापना में उनको उनके मित्र एमएस गोलवलकर के सौजन्य से आरएसएस के एक कुशाग्रबुद्धि प्रचारक, दीनदयाल उपाध्याय सहयोग करने के लिए मिल गए। हिन्दू महासभा से दूरी बनाकर भारतीय जनसंघ ने काम शुरू किया। 1952 के चुनाव में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगाल में लोकप्रियता के कारण वहां उनको सीटें भी मिलीं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या में नाम आने के कारण आरएसएस की स्वीकार्यता हमेशा से ही सवालों के घेरे में आ गई थी। अपनी स्थापना के एक दशक बाद जनसंघ के सामने एक बड़ा अवसर आया जब डॉ. राम मनोहर लोहिया ने गैर- कांग्रेसवाद की राजनीति के हवाले से अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ स्वतंत्र पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ का गठबंधन बनाकर 1963 में चार सीटों के लोकसभा उपचुनाव में जाने का फैसला किया। चारों पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं को चुनाव लड़ाया गया। डॉ. लोहिया, आचार्य कृपलानी और मीनू मसानी तो जीत गए लेकिन दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव हार गए। चुनाव में हार के बावजूद जनसंघ को इस चुनाव का लाभ यह मिला कि उस समय तक राजनीतिक अछूत बने रहने का उसका कलंक धुल गया। मुख्य पार्टियों से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। उसके चार साल बाद 1967 में जब राज्यों में संविद सरकारों के प्रयोग हुए तो उत्तर भारत के कई राज्यों में जनसंघ के विधायक भी मंत्री बने। अब आरएसएस की राजनीतिक शाखा मुख्यधारा में आ चुकी थी। शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में वे अपने अन्य संगठनों के •ारिये बड़े पैमाने पर काम कर ही रहे थे। असली ता$कत जनसंघ को तब मिली जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हुईं और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में जनसंघ के नेता भी शामिल हो गए। नतीजा यह हुआ कि जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें भारतीय जनसंघ बड़े घटक में रूप में शामिल हुई। जनता पार्टी चली नहीं। ढाई साल में ही टूट गई। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हो गई। 1980 में जनता पार्टी इसलिए टूटी थी कि पार्टी के बड़े समाजवादी नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें। मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक विचारधारा है। आरएसएस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया। शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की। लेकिन जब 1984-85 के लोकसभा चुनाव में 542 सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया। जनवरी 1985 में कलकत्ता में आरएसएस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी को भी बुलाया गया और सा$फ बता दिया गया कि अब गांधीवादी समाजवाद जैसे शब्दों को भूल जाइए। पार्टी को हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के हिसाब से चलाया जाएगा। वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के विवाद की राजनीति का जो राजनीतिक मोबिलाइ•ोशन बहुत समय से चला आ रहा था उसको और मजबूत किया जाएगा। आरएसएस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया। विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना 1966 में हो चुकी थी लेकिन वह उतना सक्रिय नहीं था। 1985 के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगता था कि आरएसएस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वीएचपी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा। 1985 से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है। बीजेपी के लोगों ने पूरी तरह से समर्पित होकर हिन्दू राष्ट्रवाद की अपनी राजनीति की सफलता के लिए काम किया। उनको एडवांटेज यह रहा कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना काम ठीक से नहीं किया इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार-प्रसार हो गया। बीजेपी ने बहुत ही कुशलता से हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के बीच की दूरी को मिटाने के लिए दिन-रात कोशिश की। उन्होंने सावरकर की हिंदुत्व की राजनीति को ही हिन्दू धर्मं बताने का अभियान चलाया। नतीजा यह हुआ बड़ी संख्या में हिन्दू धर्म के अनुयायी उसके साथ जुड़ गए। वही लोग 1991 में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं। वही लोग 1992 में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ, वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया।
पिछले तीस वर्षों में आरएसएस ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मुद्दे को •ाबरदस्त हवा दी। कुछ गैर •िाम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे। बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की। गांव-गांव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इक_ा किया गया और एक बड़ी राजनीतिक जमात तैयार कर ली गई। बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर- •िाम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आरएसएस को फायदा हुआ। हद तो तब हो गई जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने 26 जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी। बीजेपी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था। उन लोगों ने इन गैर-•िाम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की। बाबरी मस्जिद के नाम पर हिन्दू-मुसलमान के बीच बहुत बड़ी खाई बनाने की कोशिश की गई और उसमें आरएसएस को बड़ी सफलता मिली। अब तो टीवी की बहस में भावनाओं को भड़का लिया जाता है।
अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लोग चुनाव में किये गए वायदों को पूरी तरह से दरकिनार करके हिन्दू गौरव के मुद्दों पर चुनाव लड़ने में कोई संकोच नहीं करते। दिल्ली विधानसभा का चुनाव सबसे ता•ाा उदाहरण है। आम आदमी पार्टी के नेता, अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ दिया है लेकिन बीजेपी के गली-मोहल्ले के नेता से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित कर रहे हैं। पोलस्ट्रेट नामक संगठन के नवीनतम सर्वे के मुताबिक इस बार दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी और बिजली हैं। आम आदमी पार्टी के नेता इन्हीं बिन्दुओं पर मतदाता को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। लेकिन बीजेपी वाले हिंदुस्तान-पाकिस्तान, शाहीन बा$ग, कश्मीर और राम मंदिर पर फोकस करने की बात कर रहे हैं। बीजेपी वाले आम आदमी पार्टी को शाहीन बा$ग वाला बताकर उनको हिन्दू-विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत कर रहे हैं। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान चालीसा का पाठ करके अपने को हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम कर दिया है।
चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर निर्माण के ट्रस्ट की घोषणा करके बीजेपी ने चुनावी विमर्श में एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जोड़ दिया है। अगर इस घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी वाले चुनाव आयोग जाते और आचार संहिता की अनदेखी का मामला उठाते तो उनको राम मंदिर विरोधी साबित करने में मदद मिल सकती थी। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने उस पर भी कोई उल्टी टिप्पणी नहीं दी। घोषणा के समय का विरोध असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोग ही कर रहे हैं जिनके बयानों से आजकल बीजेपी का चुनावी हित ही होता है।
राममन्दिर का विवाद एक ऐसा विवाद था जिसकी वजह से बीजेपी को भारी फायदा अब तक हुआ है। जाहिर है दिल्ली विधान सभा का चुनाव बीजेपी के लिए बहुत ही बड़ी प्रतिष्ठा का चुनाव बन गया है। जिस चुनाव में बीजेपी के सबसे बड़े रणनीतिकार मोहल्लेे-मोहल्ले घूमकर अपनी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं। पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा राममंदिर के निर्माण की घोषणा उसे चुनाव के ठीक पहले की गई है। राजनीतिशास्त्र के किसी भी विद्यार्थी के लिए इस चुनाव के नतीजे बहुत ही दिलचस्प अध्ययन साबित होने वाले हैं। सबकी नज़र 11 फरवरी पर होगी और उसी दिन तय होगा कि भावनात्मक मुद्दे भारी पड़ेंगे या मौजूदा सरकार का पांच साल का काम जीत दिलाएगा।