Sunday, February 9, 2020

मेरी पहली लखनऊ यात्रा


शेष नारायण सिंह  

 1969 के  दिसंबर महीने में लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में एक अन्तरविश्वविद्यालय वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था.  मैंने उस मुकाबले में अपने विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया था.  कैनिंग कालेज का मुझे पहली बार वहीं दर्शन हुआ था.  कुल अट्ठारह साल उम्र थी. बी ए  का छात्र था. बच्चा दिखता था. उन दिनों  यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र के विभागध्यक्ष प्रो. पी एन  मसालदान साहब थे. उनके बारे में मैंने अपने किसी  शिक्षक से सुन रखा था. गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट ,१९३५ के  बाद जो थोड़ी बहुत ऑटोनोमी मिली थी ,उसके बारे में उनका एक लेख भी मैंने अपने कालेज की लाइब्रेरी में ऐसे ही पढ़ लिया था . बहुत पुराना लेख था लेकिन मजेदार लगा तो पढ़ गया . मसालदान नाम  थोडा लीक से हटकर था तो  याद रह गया था.  उनसे प्रभावित था . प्रतियोगिता शुरू होने के पहले उनके कमरे में सभी प्रतियोगियों को चाय के लिए बुलाया  गया था. जब मुझे उनका नाम बताया  गया तो मैं बेसाख्ता बोल पड़ा . ," सर  मेरी आपसे मुलाक़ात तो नहीं है लेकिन मैंने  यूनाइटेड प्रविन्सेस के बारे में आपके शोध  से संबधित एक लेख  एक लेख पढ़ा है . आपकी बातें , जो शायद आज़ादी के पहले लिखी गयी थीं  कितनी सटीक और prophetic थी. आज उत्तर प्रदेश में वही हो रहा  है जिसकी आशंका आपने  अपने शोध में बतायी थी. " उसके बाद उन्होंने मुझसे थोड़ी बहुत बातचीत की और प्रभावित हुए . मैं भी  सातवें   आसमान पर था .  मुझे लगा कि डिबेट में जीतूँ या हारूं ,  विद्वान प्रोफेसर से शाबासी पाने की यह ट्राफी संभालकर रखूँगा .  इतने ख्यातिप्राप्त विद्वान  से शाबासी पाने का अपना सुख है . 
 उन दिनों बहुत चौड़ी मोहरी के बेल बॉटम की पतलूनों का फैशन था . एक से एक फैशनबुल लोग कैम्पस में विराजते थे . मैं बहुत ही साधारण कपड़े पहनकर गया था . एक ऊनी कुर्ता और पैजामा. भाग्यशाली इसलिए था कि जब दो चार तोता रटंत लोगों के  भाषण समाप्त हो गए  तब मेरा  नंबर आया . कपडे  ठीक नहीं थे लिहाजा हूट हो गया . करीब तीस सेकण्ड तक लोग अजाक उड़ाते रहे . उसके बाद मैंने माननीय अध्यक्ष महोदय , देवियों और सज्जनों कहा . मुझे याद है जिस तरह मैंने  शुरुआती संबोधन किया , हाल में तड़ से  शांति स्थापित हो गयी .फिर मैंने ब्रह्मास्त्र चल दिया . मैंने कहा , मेरे पास जो सबसे अच्छी  पोशाक थी, मैं वह पहनकर आया हूं लेकिन आपके मजाक का  विषय बन गया . कृपया मेरी बार ज़रूर सुनिए क्योंकि अगर मई हूट होकर चला गया तो आने वाला समय मुझे तबाह कर देगा . आज आप गर मुझे ध्यान से सुन लेगें तो मेरा मुस्तकबिल संवर जाएगा . फिर मैंने संविद सरकारों के प्रयोग पर करीब पांच मिनट का भाषण दिया . बीच में कई कई बार तालियाँ बजीं. जब मैं मंच  से उतर कर अपनी सीट पर बैठने आया तो कई लोगों ने मुझसे हाथ मिलाया . प्रो मसालदान साहब ने भी बहुत तारीफ़ की और एम ए करने के लिए  लखनऊ आने  के लिए भी उत्साहित किया . खैर मैं गया नहीं .बहुत खुशी हुयी . पहले नम्बर पर तो  लखनऊ विश्वविद्यालय की कोई छात्रा आई लेकिन मेरा सेकंड आना भी मेरे लिए बहुत बड़ी जीत थी . जो आत्मविश्वास मुझे उस यात्रा से मिला वह आज तक बना  हुआ है . सही बात यह है कि बिलकुल शुद्ध ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकला हुआ एक ग्रामीण नौजवान बिना किसी सरकारी नौकरी की गारंटी के अपनी रोजी रोटी के लिए लड़ने में कामयाब हुआ ,उसमें उस शुरुआती कॉन्फिडेंस बूस्टर का बड़ा योगदान है . शुक्रिया लखनऊ
उसके बाद  तो इतनी बार लखनऊ गया कि अब वह शहर अपना ही लगता है .


नतीजे कुछ भी हों दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचार का नया व्याकरण गढ़ा गया है


शेष नारायण सिंह

दिल्ली विधान सभा २०२० के चुनाव के लिए मतदान हो गया . नतीजे अभी नहीं आये लेकिन एग्जिट पोल आ गया है. एग्जिट  पोल के संकेतों पर अगर विश्वास किया जाए तो साफ़ है कि दिल्ली की जनता ने फैसला केजरीवाल सरकार के काम काज को ध्यान में रखकर ही किया है . वर्तमान सरकार के मुख्यमंत्री की पार्टी को निश्चित जीत का संकेत एग्जिट पोल ने  दे दिया है . जनता ने चुनाव के दौरान केंद्र  सरकार के मंत्रियों , बीजेपी के कार्यकर्ताओं और आर एस एस के स्वयंसेवकों की उन बातों पर विश्वास नहीं किया जो दिन रात उनके कान में कही जा रही थीं.  पिछले पचास वर्षों से  देश के चुनावों को देखने के अनुभव के आधार पर बता सकता हूं कि इतना अजीबोगरीब चुनाव  मैंने  कभी नहीं देखा . दिल्ली जैसे अधूरे राज्य की विधान सभा में ३५ सीटें जीतने  के लिए सत्ताधारी पार्टी ने पूरी ताक़त लगा दी. पार्टी के मौजूदा और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष दिन रात प्रचार के काम में लगे रहे . बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को दिल्ली तलब कर लिया गया था. सबको चुनाव प्रचार करने के काम में लगा दिया  गया था . जिन राज्यों में कभी बीजेपी का शासन था वहां के उन नेताओं को मोहल्ले मोहल्ले जाकर प्रचार करने को कह दिया गया था जो कभी मुख्यमंत्री थे.  दिल्ली के प्रत्येक परिवार से संपर्क का काम आर एस एस के कार्यकताओं  के जिम्मे था . केंद्र सरकार के बहुत सारे  मंत्री दिल्ली  विधानसभा में चुनाव प्रचार की ड्यूटी पर थे .जब करीब २४० संसद सदस्यों की ड्यूटी उन बस्तियों में लगा दी गयी जहां कोई भी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं .  चुनाव के आखिरी दौर में उन संसद सदस्यों को वहीं झुग्गियों में जाकर रहना था, वहीं सोना था और वहीं खाना था.   सत्ताधारी पार्टी के वफादार पत्रकारों को भी ज़िम्मा दे दिया गया था कि दिल्ली चुनाव की अवधि में  पाकिस्तान, हिन्दू- मुस्लिम टकराव , देशप्रेम , राष्ट्रवाद , कश्मीर, राम मंदिर आदि मुद्दों के अलावा कोई भी असली मुद्दा चर्चा में न आने पाए . प्रधानमंत्री ने स्वयं  दिल्ली में चुनाव सभाएं कीं. टेलिविज़न पर उनका एक घंटा चालीस मिनट का  वह भाषण भी लाइव दिखाया गयाजो उन्होंने  लोकसभा में बहस के दौरान दिया था  . कई टीवी चैनलों के कान्क्लेव  हुए. वहां भी सभी पार्टियों के नेताओं के साथ  हुयी चर्चा को दिखाया गया . बीजेपी नेताओं की बातों को ख़बरों की हेडलाइन बनाई गयी. उनके विवादित बयानों पर बहसें हुईं . टीवी की बहसों का अगर एक महीने का रिकार्ड देखा जाय तो यह बात समझ में साफ़ साफ़ आ जायेगी .  नागरिकता कानून में हुए संशोधन ( सी ए ए ) के  खिलाफ देश में चल रहे विरोध को भी मुस्लिम रंग देने की पूरी कोशिश टीवी की बहसों में की गयी . जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों पर हुए पुलिस के हिंसक हमलों के खिलाफ जब अपने मोहल्ले ,शाहीन बाग़ के सामने की  सड़क पर कुछ  महिलाओं ने  विरोध  प्रदर्शन किया तो उसको प्रशासन ने शुरू में नज़रंदाज़ किया . वह प्रदर्शन इतना बड़ा हो गया कि शाहीन बाग़ अब एक मुहावरा बन चुका है . शाहीन बाग़ दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में से एक है . शायद इसी बात को  ध्यान में रखकर  उसको केवल मुसलमानों के आन्दोलन की तरह  चित्रित करने की कोशिश की गयी . अगर किसी ने किसी टीवी  चैनल पर यह कह दिया कि शाहीन बाग़ में सभी धर्मों के लोग इकठ्ठा हो रहे हैं तो  उसको चुप  करा दिया गया . वफादार पत्रकारों और चैनलों को वहां भेजकर बाकायदा  रिपोर्टिंग का आयोजन किया  गया .लेकिन दिल्ली की जनता के बीच नेताओं के प्रति तो अविश्वसनीयता है ही ,मीडिया के प्रति भी भारी अविश्वसनीयता देखी गयी.  चुनाव के दौरांन एक गुमनाम पत्रकार के रूप  में घूमते हुए मैंने खुद देखा कि जनता अपनी सूचना के लिए मीडिया पर निर्भर नहीं थी. सभी लोग अपने तरीके से  सूचना इकठ्ठा कर रहे थे .
 बीजेपी के सभी बड़े-छोटे  नेताओं के  भाषणों में कांग्रेस के खिलाफ ज़बरदस्त फोकस रखा जा रहा था. बीजेपी की रणनीति का हिस्सा था कि अगर कांग्रेस मजबूती से  चुनाव लडेगी तो आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों को नुक्सान होगा . लेकिन ऐसा हुआ नहीं . लगता है कि कांग्रेस ने मन बना लिया था कि अपनी कुरबानी पेश करके वे बीजेपी को फायदा नहीं पंहुचाना चाहते थे. शायद इसीलिये उन्होंने चुनाव के पहले दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष एक ऐसे आदमी को बनाया जो संजय गांधी युग में सक्रिय था . बाद में भी  सक्रिय तो रहे लेकिन कभी भी ज़मीनी नेता नहीं रहे .उधर आम आदमी पार्टी वाले ऐसे  किसी भी मुद्दे पर चर्चा करने को तैयार ही नहीं होते थे जो उनकी कमजोरी को रेखांकित कर दे . आम आदमी पार्टी के तीनों बड़े नेता, अरविन्द  केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय  सिंह ने शाहीन बाग़ , हिन्दू-मुस्लिम, कश्मीर जैसे मुद्दों को छुआ तक नहीं . अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ दिया  लेकिन बीजेपी के गली मोहल्ले के नेता से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित कर रहे थे .  इस बार  दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा स्वास्थ्यपीने का पानी और बिजली  रहीं  . आम आदमी पार्टी के नेता इन्हीं  बिन्दुओं पर मतदाता को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम करते  रहे . उधर  बीजेपी वाले   हिंदुस्तान-पाकिस्तानशाहीन बाग़ ,  कश्मीर और राम मंदिर पर चर्चा करने की कोशिश  कर रहे थे .बीजेपी वाले आम आदमी पार्टी को शाहीन बाग़ वाला बताकर उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत  कर  रहे थे .लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान  चालीसा का पाठ करके  अपने को हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम कर दिया  .
 चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर  निर्माण के ट्रस्ट की घोषणा करके बीजेपी ने चुनावी विमर्श में एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जोड़ दिया था  . अगर इस घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी वाले चुनाव आयोग जाते और आचार संहिता की अनदेखी का मामला उठाते तो उनको राम मंदिर विरोधी साबित करने में मदद मिल सकती थी . लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने उस पर  भी कोई उल्टी टिप्पणी नहीं की . घोषणा के समय का विरोध असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोगों ने ही किया जिनके बारे में जानकारों के एक वर्ग की अजीब राय है. बहुत सारे ऐसे लोग मिल जायेंगे जो यह  कहते पाए जाते हैं कि असुदुद्दीन ओवैसी की राजनीति से उत्तर भारत में बीजेपी को बहुत फ़ायदा होता  है . जब असुदूद्दीन ओवैसी का बयान आया तो आर एस एस के पत्रकारों और मीडिया संगठनो ने उस बयान को पूरी मुस्लिम बिरादरी की राय साबित करने के लिए बहुत मेहनत  की लेकिन किसी ने उन बातों को तवज्जो नहीं दी . सबको मालूम  है कि उनके  बयानों से आजकल बीजेपी का चुनावी फायदा होता है .
अब चुनाव  प्रचार ख़त्म हो गया है . भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि सारी कोशिशों के बावजूद  दिल्ली विधानसभा का चुनाव सांप्रदायिक नहीं हुआ . दूसरी ज़रूरी बात यह रही कि शाहीन बाग़ के सत्याग्रह आन्दोलन के बहाने देश में मुसलमानों के खिलाफ साम्प्रदायिक ज़हर घोलने की कोशिश की गयी लेकिन ऐसा  करने में  किसी को सफलता नहीं मिली.  शाहीन बाग़ की अपनी कई यात्राओं  में  मैंने खुद ही देखा कि वह आन्दोलन मुसलमानों का आन्दोलन नहीं था. वहां सभी धर्मों के लोग थे . सबसे बड़ी बात यह थी कि उसकी  क़यादत औरतों के हाथ में थी. जो लडकियां वहां रजिस्टर लेकर खड़ी रहती थीं , उनकी फर्राटेदार  हिंदी ,उर्दू और अंग्रेज़ी प्रभावित करती थी. शाहीन बाग़ वास्तव में एक ऐसा आन्दोलन है जिसमे औरतों की भागीदारी ने यह उम्मीद जता दी है कि आने वाले दौर में औरतें भी उसी तरह से सियासत की अगली सफ में मौजूद  होंगीं जैसे उत्तरी यूरोप के देशों में देखा जाता है .  स्वीडन , डेनमार्क,  नार्वे  आदि में सरकार में बहुमत औरतों का ही है . शांतिपूर्ण तरीके से आन्दोलन चलाने की  जो मिसाल दिल्ली के शाहीन बाग़ की ख़वातीन ने क़ायम की है उसको आदर्श मानकर लखनऊ मुंबई आदि शहरों में  औरतों ने मोर्चा संभाल लिया है. इस आन्दोलन ने एक ख़ास और साबित कर दिया है  कि अपने हक के  लिए लड़ने के लिए किसी भी पार्टी में शामिल होना  बिलकुल ज़रूरी नहीं है .
 दिल्ली विधानसभा के चुनाव  में नतीजे अभी नहीं आये हैं . एकाध दिन में आ जायेंगे लेकिन इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि अगर केजरीवाल जैसा संतुलित नेता  मुकाबिल खड़ा हो तो  आर एस एस और बीजेपी  किसी भी   सूरत में राजनीति को साम्प्रदायिक रंग नहीं दे सकेंगे . 

Saturday, February 8, 2020

नतीजों के पहले दिल्ली चुनाव की संभावनाओं पर नज़र- कामकाज का रिकार्ड जीतेगा या साम्प्रदायिक कार्ड





शेष नारायण सिंह 



सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट की घोषणा हो गई। सब को पता है कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद कोई धार्मिक प्रोजेक्ट नहीं था, वह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट था। उस विवाद के कारण उसका संचालन करने वालों को भारी राजनीतिक लाभ भी मिला। बाबरी मस्जिद को विवाद में लाने की आरएसएस की जो मूल योजना थी, वह मनोवांछित फल दे चुकी है। आज केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आरएसएस के राजनीतिक संगठन यानी भाजपा  की सरकार है। यह सफलता एक दिन में नहीं हासिल हुई है। 1946 में मुहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आह्वान के बाद जब पंजाब और बंगाल में साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए तो आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने दंगाग्रस्त इलाकों में हिन्दुओं की बहुत मदद की थी। उनकी लोकप्रियता  अविभाजित पंजाब और बंगाल में बहुत ही ज़्यादा थी। उन दिनों आरएसएस का अपना कोई राजनीतिक संगठन नहीं था लेकिन यह माना जाता था कि जिसकी भी आरएसएस वाले मदद करेंगे, उसको चुनावी सफलता मिलेगी। लेकिन आ•ाादी मिलने के छ: महीने के अन्दर ही महात्मा गांधी की हत्या हो गई। गांधीजी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी लेकिन उसके साथ आरएसएस के सबसे बड़े नेता एमएस गोलवलकर और उनकी विचारधारा के पुरोधा, वीडी सावरकर भी संदेह की बिना पर गिरफ्तार हो गए थे जो आरएसएस के लिए बड़ा झटका था। बाद में गोलवलकर और सावरकर तो छूट गए लेकिन हिन्दू महासभा के नेताओं- नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी हो गई। नाथूराम के भाई-गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास की स•ाा हुई। महात्मा गांधी की हत्या के बाद हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को राजनीतिक नुकसान हुआ। उस दौर के हिन्दू महासभा के बड़े नेता, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू महासभा को छोड़ दिया और नई पार्टी, भारतीय जनसंघ बना ली। जनसंघ की स्थापना में उनको उनके मित्र एमएस गोलवलकर के सौजन्य से आरएसएस के एक कुशाग्रबुद्धि प्रचारक, दीनदयाल उपाध्याय सहयोग करने के लिए मिल गए। हिन्दू महासभा से दूरी बनाकर भारतीय जनसंघ ने काम शुरू किया। 1952 के चुनाव में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगाल में लोकप्रियता के कारण वहां उनको सीटें भी मिलीं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या में नाम आने के कारण आरएसएस की स्वीकार्यता हमेशा से ही सवालों के घेरे में आ गई थी। अपनी स्थापना के एक दशक बाद जनसंघ के सामने एक बड़ा अवसर आया जब डॉ. राम मनोहर लोहिया ने गैर- कांग्रेसवाद की राजनीति के हवाले से अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ स्वतंत्र पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ का गठबंधन बनाकर 1963 में चार सीटों के लोकसभा उपचुनाव में जाने का फैसला किया। चारों पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं को चुनाव लड़ाया गया। डॉ. लोहिया, आचार्य कृपलानी और मीनू मसानी तो जीत गए लेकिन दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव हार गए। चुनाव में हार के बावजूद जनसंघ को इस चुनाव का लाभ यह मिला कि उस समय तक राजनीतिक अछूत बने रहने का उसका कलंक धुल गया।  मुख्य पार्टियों से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। उसके चार साल बाद 1967 में जब राज्यों में संविद सरकारों के प्रयोग हुए तो उत्तर भारत के कई राज्यों में जनसंघ के विधायक भी मंत्री बने। अब आरएसएस की राजनीतिक शाखा मुख्यधारा में आ चुकी थी। शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में वे अपने अन्य संगठनों के •ारिये बड़े पैमाने पर काम कर ही रहे थे। असली ता$कत जनसंघ को तब मिली जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हुईं और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में जनसंघ के नेता भी शामिल हो गए। नतीजा यह हुआ कि जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें भारतीय जनसंघ बड़े घटक में रूप में शामिल हुई। जनता पार्टी चली नहीं। ढाई साल में ही टूट गई। भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हो गई। 1980 में जनता पार्टी इसलिए टूटी थी कि पार्टी के बड़े समाजवादी नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें। मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक विचारधारा है। आरएसएस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया। शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की। लेकिन जब 1984-85 के लोकसभा चुनाव में 542 सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया। जनवरी 1985 में कलकत्ता में आरएसएस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी को भी बुलाया गया और सा$फ बता दिया गया कि अब गांधीवादी समाजवाद जैसे शब्दों को भूल जाइए। पार्टी को हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के हिसाब से चलाया जाएगा। वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के विवाद की राजनीति का जो राजनीतिक मोबिलाइ•ोशन बहुत समय से चला आ रहा था उसको और मजबूत किया जाएगा। आरएसएस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया। विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना 1966 में हो चुकी थी लेकिन वह उतना सक्रिय नहीं था। 1985 के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगता था कि आरएसएस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वीएचपी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा। 1985 से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है। बीजेपी के लोगों ने पूरी तरह से समर्पित होकर हिन्दू राष्ट्रवाद की अपनी राजनीति की सफलता के लिए काम किया। उनको एडवांटेज यह रहा कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना काम ठीक से नहीं किया इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार-प्रसार हो गया। बीजेपी ने बहुत ही कुशलता से हिन्दू धर्म और  हिंदुत्व के बीच की दूरी को मिटाने के लिए दिन-रात कोशिश की। उन्होंने सावरकर की हिंदुत्व की राजनीति को ही हिन्दू धर्मं बताने का अभियान चलाया। नतीजा यह हुआ बड़ी संख्या में हिन्दू धर्म के अनुयायी उसके साथ जुड़ गए। वही लोग 1991 में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं। वही लोग 1992 में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ, वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया।
पिछले तीस वर्षों में आरएसएस ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मुद्दे को •ाबरदस्त हवा दी। कुछ गैर •िाम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे। बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की। गांव-गांव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इक_ा किया गया और एक बड़ी राजनीतिक जमात तैयार कर ली गई। बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर- •िाम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आरएसएस को फायदा हुआ। हद तो तब हो गई जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने 26 जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी। बीजेपी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था। उन लोगों ने इन गैर-•िाम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की। बाबरी मस्जिद के नाम पर हिन्दू-मुसलमान के बीच बहुत बड़ी खाई बनाने की कोशिश की गई और उसमें आरएसएस को बड़ी सफलता मिली। अब तो टीवी की बहस में भावनाओं को भड़का लिया जाता है।
अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लोग चुनाव में किये गए वायदों को पूरी तरह से दरकिनार करके हिन्दू गौरव के मुद्दों पर चुनाव लड़ने में कोई संकोच नहीं करते।  दिल्ली विधानसभा का चुनाव सबसे ता•ाा उदाहरण है। आम आदमी पार्टी के नेता, अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ दिया है लेकिन बीजेपी के गली-मोहल्ले के नेता से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित कर रहे हैं। पोलस्ट्रेट नामक संगठन के नवीनतम सर्वे के मुताबिक इस बार दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी और बिजली हैं। आम आदमी पार्टी के नेता इन्हीं बिन्दुओं पर मतदाता को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।  लेकिन बीजेपी वाले हिंदुस्तान-पाकिस्तान, शाहीन बा$ग, कश्मीर और राम मंदिर पर फोकस करने की बात कर रहे हैं। बीजेपी वाले आम आदमी पार्टी को शाहीन बा$ग वाला बताकर उनको हिन्दू-विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत कर रहे हैं। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान चालीसा का पाठ करके अपने को हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम कर दिया है।
चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर निर्माण के ट्रस्ट की घोषणा करके बीजेपी ने चुनावी विमर्श में एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जोड़ दिया है। अगर इस घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी वाले चुनाव आयोग जाते और आचार संहिता की अनदेखी का मामला उठाते तो उनको राम मंदिर विरोधी साबित करने में मदद मिल सकती थी। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने उस पर भी कोई उल्टी टिप्पणी नहीं दी। घोषणा के समय का विरोध असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोग ही कर रहे हैं जिनके  बयानों से आजकल बीजेपी का चुनावी हित ही होता है।
राममन्दिर का विवाद एक ऐसा विवाद था जिसकी वजह से बीजेपी को भारी फायदा अब तक हुआ है। जाहिर है दिल्ली विधान सभा का चुनाव बीजेपी के लिए बहुत ही बड़ी प्रतिष्ठा का चुनाव बन गया है। जिस चुनाव में बीजेपी के सबसे बड़े रणनीतिकार मोहल्लेे-मोहल्ले घूमकर अपनी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं। पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा राममंदिर के निर्माण की घोषणा उसे चुनाव के ठीक पहले की गई है। राजनीतिशास्त्र के किसी भी विद्यार्थी के लिए इस चुनाव के नतीजे बहुत ही दिलचस्प अध्ययन साबित होने वाले हैं। सबकी नज़र 11 फरवरी पर होगी और उसी दिन तय होगा कि भावनात्मक मुद्दे भारी पड़ेंगे या मौजूदा सरकार का पांच साल का काम जीत दिलाएगा।