शेष नारायण सिंह
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सरकार ने दो कमेटियों का गठन किया है जिनका ज़िम्मा यह है कि देश में अधिक से अधिक रोज़गार सृजित किये जाएँ और आर्थिक विकास को रफ़्तार दी जाए .२०१४ में नरेंद्र मोदी की जीत का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने देश के नौजवानों से वायदा किया था कि प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का सृजन किया जाएगा और देश से बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी . लेकिन मोदी की पहली सरकार के कार्यकाल में इस दिशा में कोई सफलता नहीं मिली. शायद इसीलिये इस बार , सरकार की शपथ होते ही उन्होंने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है . सर्वशक्तिमान कमेटियों में रोज़गार वाली कमेटी में प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ,रेलमंत्री पीयूष गोयल, नरेंद्र सिंह तोमर, रमेश पोखरियाल निश्शंक ,धर्मेन्द्र प्रधान, महेंद्र नाथ पाण्डेय, संतोष कुमार गंगवार और हरदीप पुरी को शामिल किया गया है .पूंजी निवेश और आर्थिक विकास वाली कमेटी में पांच सदस्य हैं, इसमें अमित शाह, निर्मला सीतारमन, नितिन गडकरी और पीयूष गोयल हैं . शपथ ग्रहण के एक हफ्ते के अन्दर इस तरह की पहल करना इस बात का साफ़ संकेत हैं कि प्रधानमंत्री २०१४ के वायदों को अपने दूसरे कार्यकाल में मुकम्मल तरीके से पूरा करना चाहते हैं . पहले कार्यकाल में वे अपने मूल चुनावी वायदों को अंजाम तक नहीं पंहुचा पाए थे . शायद इसीलिए २०१९ के चुनाव प्रचार के दौरान उनको बहुत से भावनात्मक और लोकलुभावन मुद्दे लाने पड़े और मीडिया के सहयोग से ऐसा माहौल बनाना पडा जिसमें विपक्ष भी दो करोड़ नौकरियों जैसे उन वायदों को बहस का मुद्दा न बना सके. लगता है कि इस बार वे असली काम करके २०२४ का चुनाव जीतने की योजना बना रहे हैं . उनकी २०१९ की जीत में पुलवामा और बालाकोट पर फोकस के अलावा 'घर में घुसकर मारने ' वाली बात का बहुत योगदान है लेकिन यह भी सच है कि गरीबों के लिए किये गए उनके काम का भी योगदान कम नहीं है . ग्रामीण इलाकों में शहरी मध्यवर्ग की सम्पन्नता की निशानी को उनके गाँव में ही उपलब्ध करवा देना नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में एक महत्वपूर्ण कारक है . गाँव के गरीबों को टायलेट, रसोई गैस, बिजली और पक्के मकान देना गरीबी पर एक ज़बरदस्त हमला था. हालांकि यह भी सच है इन स्कीमों में जो ही धन लगा उसका आर्थिक और औद्योगिक विकास में कोई योगदान नहीं है . इन योजनाओं में बहुत बड़ी सरकारी रक़म लगी है जिसे आर्थिक विकास की योजनाओं में लगाया जा सकता था . उस हालत में देश में आर्थिक विकास होता और सपन्नता भी बढ़ती लेकिन सरकार ने गरीबी को हटाने का डायरेक्ट रास्ता चुना .यह सभी काम शुद्ध रूप से वेलफेयर स्टेट के काम हैं . इनकी वजह से कोई रोज़गार भी नहीं सृजित हुआ है . लेकिन इस काम के कारण मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग अपनी जातीय वफादारी को छोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना शुभचिंतक मानने लगा है . उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के गाँवों में घूमते हुए यह बात बिलकुल साफ़ नज़र आ रही थी कि जिस जाति के मतदाताओं को मायावती अपनी जागीर मानती थीं वह धीरे से नरेंद्र मोदी का मतदाता बन गया था. अगर मायावती का समाजवादी पार्टी से समझौता न होता तो उनकी हार २०१४ से भी ज्यादा तकलीफदेह होती . उत्तर प्रदेश में मायावती को शून्य से बढकर दस लोकसभा सीटें मिलने के पीछे मुख्य कारण यह है कि उनको समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के कारण मुसलमानों के वोट तो एकमुश्त मिले ही , यादवों ने भी बड़ी संख्या में वोट दिया . नरेंद्र मोदी के गरीब ग्रामीणों के लिए किये काम ने बड़ी संख्या में दलित मतदाताओं को मायावती से दूर खींच लिया .
गरीबों को लाभ पंहुचाने वाली योजना से जनसमर्थन तो जुटा लिया गया लेकिन देश औद्योगिक क्षमता में कोई शक्ति नहीं जुडी .प्रधानमंत्री ने देश में औद्योगिकीकरण के ज़रिये रोज़गार बढ़ाने और सम्पन्नता की बात अपने २०१३-१४ के चुनावी अभियान में की थी . सरकार में आने के बाद उन्होने इस काम को पूरा करने के लिए कई तरह की पहल भी की . मेक इन इण्डिया, स्टार्ट अप इण्डिया ,कौशल विकास, मुद्रा लोन ,सौ स्मार्ट शहर आदि योजनायें इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए घोषित की गईं थीं . लेकिन इनमें से कोई भी योजना परवान नहीं चढ़ सकी . २०१४ के चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने देश में आर्थिक विकास लाने के बहुत बड़े बड़े वायदे किये थे .बेरोजगारी से जूझ रहे देश के ग्रामीण इलाकों के नौजवानों को उन्होंने रोज़गार का वायदा किया था . नरेंद्र मोदी के अभियान की ताक़त इतनी थी कि उनकी बात देश के दूर दराज़ के गाँवों तक पंहुंची और उनकी बात का विश्वास किया गया . शहरी गरीब और मध्यवर्ग को भी नरेंद्र मोदी ने प्रभावशाली तरीके से संबोधित किया था . उन्होने कहा कि वह बेतहाशा बढ़ रही कीमतों पर लगाम लगा देगें .रोज़ रोज़ की महंगाई के कारण मुसीबत का शिकार बन चुके शहरी मध्यवर्ग और गरीब आदमी को भी लगा कि अगर मोदी की राजनीति के चलते महंगाई से निजात पाई जा सकती है तो इनको भी आजमा लेना चाहिए . पूरे देश के गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को नरेंद्र मोदी के भाषणों की उस बात पर भी विश्वास हो गया जिसमें वे कहते थे की देश का बहुत सारा धन विदेशों में जमा है जिसको वापस लाया जाना चाहिए. मोदी जी ने बहुत ही भरोसे से लोगों को विश्वास दिला दिया था कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापस आ गया तो हर भारतीय के हिस्से १५ से २० लाख रूपये अपने आप आ जायेगें . उनकी इस बात का भी विश्वास जनता ने किया .हालांकि यह भी सच्चाई है कि उन्होंने यह कभी नहीं कहा था कि सबके बैंक खाते में १५-१५ लाख रूपये जमा कर दिए जायेंगे.
२०१४ के चुनाव अभियान के दौरान प्रधान मंत्री ने आर्थिक विकास को मुख्य मुद्दा बनाया था. उसी के सहारे बेरोजगारी ख़त्म करने की बात भी की थी. सरकार में आने पर पता चला कि उनकी आर्थिक विकास की दृष्टि में देश को मैनुफैक्चरिंग हब बनाना बुनियादी कार्यक्रम है . प्रधानमंत्री की योजना थी कि देश भर में कारखानों और फैक्टरियों में का जाल बिछा दिया जाए . अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि यह बिलकुल सही सोच है . प्रधानमंत्री को उम्मीद थी कि विदेशी कम्पनियां भारत में बड़े पैमाने पर निवेश करेगीं और चीन की तरह अपना देश भी पूरी दुनिया में कारखानों के देश के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा . उनकी इस योजना में देश में कारखाने लगाने का माहौल बनाने की बात सबसे प्रमुख है . सभी जानते हैं कि जहां कारखाने लगाए जाने हैं ,उस राज्य की कानून व्यवस्था सबसे अहम पहलू है . महाराष्ट्र और गुजरात में तो कानून व्यवस्था ऐसी है जिसके आधार पर कोई विदेशी कंपनी वहां पूंजी निवेश की बात सोच सकती है लेकिन दिल्ली के आसपास के राज्यों की कानून व्यवस्था ऐसी बिलकुल नहीं है कि वहां कोई विदेशी कंपनी चैन से कारोबार कर सके.कानून व्यवस्था के अलावा उद्योगपतियों की एक मांग रही है कि श्रम कानूनों में बड़े बदलाव किये जाएं .उनको भारत के श्रम कानूनों से बहुत परेशानी होती है . उनकी हमेशा से ही इच्छा रही है कि श्रम कानून ऐसे हों कि वे जब चाहें कारखाने में काम करने वाले लोगों को नौकरी से हटा सकें . अभी के कानून ऐसे हैं कि पक्के कर्मचारी को हटा पाना बहुत ही मुश्किल होता है . किसी भी सरकार के लिए उद्योग लॉबी की इस मांग को पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल होता है . नरेंद्र मोदी की पहली सरकार भी इस दिशा में उद्योग लॉबी को संतुष्ट नहीं कर सकी . अभी गठित कमेटियों से उम्मीद की जा रही है कि वह ऐसी हालात पैदा करने में मदद करे .उद्योगपतियों की दूसरी मांग रहती है कि जहां भी उनके कारखाने लगाए जाएँ वहां उनको ज़मीन सस्ती , बिना किसी झंझट और इफरात मात्रा में मिल जाए. अंग्रेजों के ज़माने का पुराना भूमि अधिग्रहण कानून इसी तरह का था लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने उसमें ज़रूरी बदलाव किया था. उस बदलाव में बीजेपी की भी सहमति थी . उद्योगपति लॉबी ने इन बदलावों को नापसंद किया था . आर्थिक विकास को रफ़्तार देने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने उसको बदलने के मन बना लिया लेकिन संसद से मंजूरी की संभावना नहीं थी क्योंकि किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए किसी भी किसान विरोधी कानून को समर्थन दे पाना बिलकुल असंभव है . इसलिए सरकार ने अध्यादेश के ज़रिये पूंजीपति लॉबी की यह इच्छा पूरी कर दी है . उसमें विदेशी कम्पनियों को ज़यादा सुविधा और अधिकार देने का प्रावधान था . सरकार को उम्मीद थी कि इन कानूनों के बाद सब कुछ बदल जायेगा और विदेशी पूंजीपति भारत में उसी तरह से जुट पडेगा जिस तरह से चीन में जुट पडा है .लेकिन ऐसा हुआ नहीं .नरेंद्र मोदी सरकार का आर्थिक विकास का जो माडल देश के सामने पेश किया गया है उसमें विदेशी पूंजी का बहुत महत्व है . विदेशी पूंजी के सहारे देश में आद्योगिक मजबूती लाकर बेरोजगारी ख़त्म करने का प्रधानमंत्री का चुनावी वायदा इसी बुनियाद पर आधारित है .
कुल मिलाकर यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि महंगाई, बेरोजगारी और काला धन के बुनियादी नारे को लागू करने की प्रधानमंत्री की इच्छा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया है जिससे यह नज़र आये कि महंगाई और बेरोजगारी को ख़त्म करने की दिशा में कोई ज़रूरी पहल भी हुई . यह बात सरकार को भी मालूम है .प्रधानमत्री को मालूम है कि अब जनता को भावनात्मक मुद्दों और लोकलुभावन स्कीमों के सहारे वोट देने के लिए तैयार करना मुश्किल होगा .शायद इसी सोच के कारण नई सरकार के पदारूढ़ होते ही नई कमेटियों का गठन करके तुरंत काम शुरू कर दिया गया है .
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