Tuesday, February 6, 2018

मुश्किलों से मुक़ाबिल पत्रकारिता को सूचनाक्रांति ने पत्रकारिता का स्वर्णयुग बना दिया है



शेष नारायण सिंह 

पत्रकारिता का काम बहुत ही कठिन दौर  से  गुज़र रहा है .महानगरों से लेकर  दूर दराज़  के गाँवों में रहकर काम करने वालों की आर्थिक व्यवस्था बहुत सारे मामलों में चिंता का विषय है .यह ऐसा संकट है  जिसके कारण कई स्तर पर समझौते हो रहे हैं और सूचना के  निष्पक्ष  मूल्यांकन का काम बाधित हो रहा है . देश के कई बड़े अख़बार अपने कर्मचारियों  का आर्थिक शोषण करते हैं . उनसे पत्रकारिता से इतर काम करवाते हैं मालिक लोग  निजी संपत्ति में वृद्धि के लिए अखबार और पत्रकार की छवि का इस्तेमाल करते  हैं.  अखबार मालिकों का यही वर्ग  है  जहां पिछले वर्षों मजीठिया की वेतन संबंधी सिफारिशों को बेअसर  करने के लिए तरह  तरह के  तिकड़म किये गए थे. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना  करने वाले यह अखबार पत्रकारों के शोषण के भी सबसे बड़े हस्ताक्षर हैं . यह मालिक लोग वेतन इतना कम देते  हैं कि दो जून की रोटी का भी इंतजाम न हो सके . और उम्मीद करते हैं कि छोटे शहरों में उनके कार्ड को लेकर पत्रकारिता करता पत्रकार उनके लिए विज्ञापन भी  जुटाए . नाम लेने के ज़रूरत नहीं है लेकिन दिल्ली में ही नज़र दौड़ाने पर इस तरह के अखबारों और टीवी चैनलों के बारे में जानकारी मिल जायेगी .एक संस्मरण के माध्यम से इस बात को रेखांकित करना उचित होगा. हमारे एक  स्वर्गीय मित्र को करीब बीस साल पहले एक अख़बार  का राजस्थान का ब्यूरो प्रमुख बना दिया गया .    कह दिया गया कि आप जल्द से जल्द  जयपुर जाकर काम शुरू कर दीजिये .  वे परेशान थे कि वेतन की कोई बात किये बिना कैसे  जयपुर चले जाएँ .  अगले दिन फिर वे मालिक- सम्पादक से मिले और  कहा कि पैसे की कोई बात नहीं हुई  थी इसलिए मैंने सोचा कि स्पष्ट बात कर लूं .  मालिक-सम्पादक ने   छूटते ही कहा कि ,आप से पैसे की क्या बात करना है . आप हमारे मित्र हैं जाइए काम करिए और तरक्की करिए. संस्था को बस पचास हज़ार रूपये महीने भेज दिया करिएगा ,बाकी सब आपका .  दफ्तर का खर्च निकाल कर सब अपने पास रख लीजिये . पत्रकारिता की गरिमा को कम करने में इन बातों का  बहुत योगदान है .

प्रेस की आज़ादी सबसे ज़रूरी बात है  लेकिन आजकल वह सबसे ज़्यादा मुश्किल में है .उसको बाधित करने के बहुत   सारे तरीके सिस्टम में मौजूद हैं  .अक्सर  देखा गया है कि सिस्टम किस तरह से दखल देता है . ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के पास हिदायत आ जाती है कि कुछ ख़ास लोगों के खिलाफ खबर नहीं चलाना है . लेकिन नीचे वालों को इस तरह से समझाया जाता था जिससे  उन्हें  मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . मुझे जब   बीस साल पहले टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह शुरुआती काल था . अखबार से आये एक व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर व्यवस्था ने ऐसा सिस्टम बना दिया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. आज बीस साल बाद सब कुछ बदल गया है ,सिस्टम अपना काम कर रहा है और कुछ ख़बरें नज़रंदाज़ की जा रही  हैं और कुछ ऐसे मुद्दों को बहुत बड़ा बताया जा  रहा  है जिनके खबर होने पर ही शक रहती है. इसके चलते पत्रकार बिरादरी को बड़ा कष्ट है .कई बार तो इन बड़े लोगों के कारण साधारण पत्रकार की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं
लेकिन उम्मीद ख़त्म नहीं हुई है ,अभी  उम्मीद  बाकी है . सूचना क्रान्ति ने अपने देश में पाँव जमा लिया  है .भारत के सूचना टेक्नालोजी के जानकारों की पूरी दुनिया में हैसियत बन चुकी है .इसी सूचना क्रान्ति की कृपा से आज वेब पत्रकारिता सम्प्रेषण का ज़बरदस्त माध्यम बन चुकी  है . वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है .अब लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों के वेब  पोर्टल हैं  . लेकिन बहुत सारे  स्वतंत्र पत्रकारों ने भी इस दिशा में ज़बरदस्त तरीके से हस्तक्षेप कर दिया है . इन स्वतंत्र पत्रकारों के पास साधन बहुत कम हैं लेकिन यह हिम्मत नहीं हार रहे  हैं . उनको आधुनिक युग का अभिमन्यु कहा जा सकता  है . मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगें .हालांकि मूल महाभारत युद्ध में शासक वर्गों ने अभिमन्यु को घेर कर मारा था लेकिन मौजूदा समय में सूचना की क्रान्ति के युग का महाभारत चल रहा है .. जनपक्षधरता के इस यज्ञ में आज के यह वेब पत्रकार अपने काम के माहिर हैं और यह शासक वर्गों की १८ अक्षौहिणी सेनाओं का मुकाबला पूरे होशो हवास में कर रहे हैं . कल्पना कीजिये कि वेब के ज़रिये राडिया काण्ड का खुलासा न हुआ होता तो नीरा  राडिया की सत्ता की  दलाली की कथा के सभी खलनायक मस्ती में रहते और सरकारी समारोहों में मुख्य अतिथि बनते रहते और पद्मश्री आदि से सम्मानित होते रहते..लेकिन इन बहादुर वेब पत्रकारों ने टी वीप्रिंट और रेडियो की पत्रकारिता के संस्थानों को मजबूर कर दिया कि वे सच्चाई को जनता के सामने लाने के इनके प्रयास में इनके पीछे चलें और लीपापोती की पत्रकारिता से बचने की कोशिश करें ..

वास्तव में हम जिस दौर में रह रहे हैं वह पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग है . इस जनवादीकरण को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ा योगदान तो सूचना क्रान्ति का है क्योंकि अगर सूचना की क्रान्ति न हुई होती तो चाह कर भी कम खर्च में सच्चाई को आम आदमी तक न पंहुचाया जा सकता. और जो दूसरी बात हुई है वह यह कि अखबारों और टी वी चैनलों में मौजूद सेठ के कंट्रोल से आज़ाद हो कर काम करने वाले पत्रकारों की राजनीतिक और सामाजिक समझदारी बिकुल खरी है . इन्हें किसी कर डर नहीं है यह सच को डंके की चोट पर सच कहने की तमीज रखते हैं और इनमें हिम्मत भी है ..कहने का मतलब यह नहीं है कि अखबारों में और टी वी चैनलों में ऐसे लोग नहीं है जो सच्चाई को समझते नहीं हैं . वहां  बहुत अच्छे पत्रकार  हैं और जब वे अपने मन की बात लिखते हैं तो वह सही  मायनों में पत्रकारिता होती है

मुझे उम्मीद नहीं थी कि अपने जीवन में सच को इस बुलंदी के साथ कह सकने वालों के दर्शन हो पायेगा जो कबीर साहेब की तरह अपनी बात को कहते हैं और किसी की परवाह नहीं करते लेकिन खुशी है कि आज के पत्रकार सोशल मीडिया के ज़रिये अपनी बात डंके की चोट कह रहे  हैं .  आज सूचना किसी साहूकार की मुहताज नहीं है . मीडिया के यह नए जनपक्षधर उसे आज वेब पत्रकारिता के ज़रिये सार्वजनिक डोमेन में डाल दे रहे हैं और बात दूर तलक जा रही है . राडिया ने जिस तरह का जाल फैला रखा था  वह हमारे राजनीतिक सामाजिक जीवन में घुन की तरह घुस चुका है .. ऐसे पता नहीं कितने मामले हैं जो दिल्ली के गलियारों में घूम रहे होंगें . जिस तरह से राडिया ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को अपने लपेट में ले लिया वह कोई मामूली बात नहीं है . इस से बहुत ही कमज़ोर एक घोटाला हुआ था जिसे जैन हवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है . उसमें सभी पार्टियों के नेता बे-ईमानी करते पकडे गए थे लेकिन कम्युनिस्ट उसमें नहीं थे . इस बार कम्युनिस्ट भी नहीं बचे हैं . . यानी जनता के हक को छीनने की जो पूंजीवादी कोशिशें चल रही हैं उसमें पूंजीवादी राजनीतिक दल तो शामिल हैं हीकम्युनिस्ट भी रंगे हाथों पकडे गए हैं . सबको मालूम है कि जब राजा की चोरी पकड़ी जाती है तो उससके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती हमने देखा है कि  जैन हवाला काण्ड दफन हो गया था . ऐसे मामले दफन होते  हैं तो हो जाएँ लेकिन सूचना पब्लिक डोमेन में आयेगी तो अपना काम करेगी ,जनमत बनायेगी .
वेब पत्रकारिता की ताकत बढ़ जाने के कारण मेरा विश्वास है कि आज पत्रकारीय का स्वर्ण युग है . बस इस क्रान्ति में शामिल हो जाने की ज़रूरत है . अपनी  नौकरी के साथ साथ सूचनाक्रांति के महारथी बनने का   विकल्प  आज के पत्रकार के पास है . और विकल्प उपलब्ध हो तो उससे बड़ी आज़ादी कोई नहीं होती ..

दंगे पर फ़ौरन क़ाबू न किया गया तो पूंजी निवेश को ज़बरदस्त झटका लगेगा



शेष नारायण सिंह 


उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में  दो गुटों में हुई मुठभेड़ साम्प्रदायिक दंगे की शक्ल ले चुकी है . देश प्रेम ,तिरंगा, झंडा फहराने का अधिकार  और  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे विषय भी  झगडे के बीच मुद्दा बनने की होड़ में हैं . किसी भी तरह का दंगा समाज के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा होता है . यह एक राष्ट्र के रूप में हम सबके लिए चिंता की बात  होती है. खासकर  तब ,  जबकि  देश में औद्योगिक विकास के लिए ज़बरदस्त मुहिम चल रही है और प्रधानमंत्री ने सारी दुनिया के सामने यह बात सिद्ध कर दी है कि  देश के नौजवानों को  रोज़गार देने में निजी उद्योग के विकास की सबसे अहम भूमिका है . देश  भर में उद्योगों को जाल बिछाया जाना है और उसके लिए विदेशी पूंजी की भी बड़ी भूमिका  होगी . इस माहौल  में अगर देश में दंगे भड़कते हैं तो औद्योगिक विकास में बाधा आयेगी क्योंकि कोई भी उद्यमी अशांति के माहौल में कारोबार शुरू नहीं करेगा .इस तरह से दंगा करने वाले प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री को अपना लक्ष्य हासिल करने से रोक रहे  हैं .

अपने देश में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरुआत योजनाबद्ध तरीके से महात्मा गांधी के १९२० के आन्दोलन के बाद से मानी जाती है. जब अंग्रेजों ने देखा कि महात्मा गांधी की अगुवाई में पूरे देश के हिन्दू और मुसलमान एक हो गए हैं ,तो उनको अपनी हुकूमत के भविष्य के बारे में चिंता होने लगी. उसके बाद से ही अंग्रेजों ने दंगों के बारे में एक विस्तृत रणनीति बनाई और संगठित तरीके से देश में दंगों का आयोजन होने लगा .अब तक के दंगों के इतिहास और उसकी राजनीति को समझने  के लिए माना जाता रहा है कि शासक वर्ग अपने राजनीतिक हितों की साधना के लिए दंगे करवाते हैं . लेकिन अब साम्प्रदायिक झगड़ों को समझने के विमर्श में एक नया  सिद्धांत बौद्धिक स्तर पर चर्चा  में है . बताया  गया है कि साम्प्रदायक दंगों की शुरुआत कोई न कोई व्यापारी करवाता  है और बाद में उसको राजनेताधार्मिक नेता या सामाजिक समूह अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है .  डॉ अनिरबान मित्रा और प्रोफेसर देबराज रे ने इस नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया है . " इम्प्लीकेशंस ऑफ ऐन इकानामिक थियरी ऑफ कानफ्लिक्ट: हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन इण्डिया " शीर्षक वाला यह शोध पत्र  जब दुनिया  भर में अति सम्माननीय पत्रिका ," जर्नल आफ पोलिटिकल इकानामी " में जब अगस्त 2014 में छपा तो  यह  दंगे की राजनीति को समझने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है .


अब मुल्कों में जंग नहीं होती। अब एक ही मुल्क के लोग आपस में कट मरते हैं। ,पाकिस्तान,सीरिया और इराक में चल रही लड़ाइयां इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं। इन देशों में भयानक संघर्ष की स्थिति है .इस संघर्ष में शामिल हर शख्स मुसलमान है। कोई राजा है तो कोई राजा बनने के लिए लड़ रहा है। जो हैरानी की बात है वह यह है कि पश्चिम एशिया में सत्ता पर कब्जा करने की जो जद्दोजहद चल रही हैउस हर लड़ाई में खून इंसान का बह रहा हैआम आदमी का बह रहा हैऐसे लोगों का खून बह रहा है जिनको इस लड़ाई में या तो मौत मिलेगी या गरीबी। लड़ाई की अगुवाई करने वालों को राज मिलेगावे जिसकी कठपुतलियां हैं उनको आर्थिक लाभ होगाअमेरिका और रूस इस इलाके में हो रही लड़ाई में अपने-अपने हित साध रहे हैंउनकी कठपुतलियां पूरे अरब को रौंद रही हैंऔर आम आदमी की जिंदगी तबाह कर रही हैं और अपने देश का मुस्तकबिल उन्हीं ताकतों के हवाले कर रही हैं जिन्होंने पूरी अरब दुनियां को आज से सौ साल पहले टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। विश्वयुद्ध के प्रमुख कारणों में से एक अरब इलाकों में मिले तेल पर कब्जा करना भी था।


भारत में भी स्वार्थी राजनेताओं ने 1940 के दशक में इसी तरह के धर्म आधारित खूनी संघर्ष की बुनियाद रख दी थी। जब अंग्रेजों की समझ में आ गया कि अब इस देश में उनकी हुकूमत के अंतिम दिन आ गए हैं तो उन्होंने मुल्क को तोड़ देने की अपनी प्लान बी पर काम शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अगस्त 1947 में जब आजादी मिली तो एक नहीं दो आजादियां मिलींभारत के दो टुकड़े हो चुके थेसाम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबे पूरे हो चुके थे लेकिन सीमा के दोनों तरफ ऐसे लाखों परिवार थे जिनका सब कुछ लुट चुका था।  भारत और पाकिस्तान आजाद हो गए थे। दोनों ही देशों में साम्राज्यवादी ताकतों के नक्शेकदम पर राज करने की सौगंध खा चुके लोग नए शासक वर्ग बन चुके थेदोनों ही देशों में ऐसी अर्थव्यवस्था की बुनियाद डाल दी गई थी जिसमें आम आदमी की हिस्सेदारी केवल राजनीतिक पार्टियों को सरकार सौंप देने भर की थी। लेकिन जो हिंसक अभियान शुरू हुआ उसको अब बाकायदा  संस्थागत रूप दिया  जा चुका है। भारत की आजादी के पहले हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उसने हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास का ऐसा बीज बो दिया था जो आज बड़ा पेड़ बन चुका है और अब उसके जहर से समाज के कई स्तरों पर नासूर विकसित हो रहा है। भारत की राजनीतिकसामाजिक और सांस्कृतिक जिंदगी में अब दंगे स्थायी भाव बन चुके हैं। आजादी के बाद से भारत में बहुत सारे दंगे हुए। अधिकतर दंगों के आयोजकों का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सम्प्रदायों का धु्रवीकरण रहा है।  देखा यह गया है कि भारत में अधिकतर दंगे चुनावों के कुछ पहले सत्ता को ध्यान में रख कर करवाए जाते हैं। विख्यात भारतविद् पॉल ब्रास ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ''द प्रोडक्शन ऑफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कंटेम्परेरी इण्डिया" में दंगों का बहुत ही विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने साफ कहा है कि हर दंगे में जो मुकामी नेता सक्रिय होता हैदोनों ही समुदायों में उसकी इच्छा राजनीतिक शक्ति हासिल करने की होती है लेकिन उसको जो ताकत मिलती है वह स्थानीय स्तर पर ही होती है।  उसके ऊपर भी राजनेता होते हैं जो साफ नज़र नहीं आते लेकिन वे बड़ा खेल कर रहे होते हैं। अपनी किताब में पॉल ब्रास ने यह बात बार-बार साबित करने की कोशिश की है कि भारत में दंगे राजनीतिक कारणों से होते हैंहालांकि उसका असर आर्थिक भी होता है लेकिन हर दंगे में मूलरूप से राजनेताओं का हाथ होता है।  पॉल ब्रास की अॅथारिटी को चुनौती देना मेरा मकसद नहीं है। आम तौर पर माना जाता है कि वे इस विषय के सबसे गंभीर आचार्य हैं। हिन्दू मुस्लिम संबंधों और झगड़ों पर ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष वार्षणेय ने  भी बहुत गंभीर काम किया है,उनके विमर्श में पॉल ब्रास की बहुत सारी स्थापनाओं को चुनौती दी गई है लेकिन उनके भी निष्कर्ष लगभग वही हैं।

अब तक आमतौर पर यही माना जाता रहा है कि दंगों के पीछे राजनीतिक मकसद ही  होते हैं। लेकिन अब एक नया दृष्टिकोण भी बहस में आ गया है।  डॉ. अनिरबान मित्रा और प्रोफेसर देबराज रे के शोध के बाद दंगों को समझने के अध्ययन में एक नया आयाम जुड़ गया है . डॉ. मित्रा  कहते हैं कि 'राजनीतिशास्त्री और समाजशास्त्री  जातीय हिंसा के बारे में लिखते रहे हैं। लेकिन उनके लेखन में अक्सर आर्थिक कारणों को अहमियत नहीं दी जाती। हमारा विश्वास है कि इकानामिक थियरी और उसके तरीकों से संघर्ष को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।'  इस पर्चे के अनुसार भारत के कई इलाकों में धर्म का इस्तेमाल आर्थिक सम्पन्नता के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए कोई आदमी अपने जिले में कोई सामान बेचता है। अक्सर उसके मुकाबले में और लोग भी वही सामान या वही सेवाएं बेचने लगते हैं। अगर  वह कारोबारी मुसलमान है तो अपनी बिरादरी वालों को इकट्ठा करके दंगे की हालात पैदा कर देता है और अगर हिन्दू है तो वह मुसलमानों के खिलाफ लोगों  को भड़काता है। यह  व्यापारी किसी धर्म के मानने वालों से नफरत नहीं करतेबस कम्पीटीशन को खत्म करने के लिए सारा सरंजाम करते हैं और उनको उसका फायदा भी होता है। 

इस रिसर्च में 1950 से 2000 के बीच के दंगों के भारत सरकार के आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। इस दौर में उन सभी लोगों के केस जांचे गए हैं जिनको दंगों के दौरान चोट लगी या जो घायल हुए। घरेलू खर्च के सरकारी सर्वे के आंकड़े भी इस्तेमाल किए गए है। शोध के नतीजे निश्चित रूप से एक नई समझ की तरफ संकेत  करते हैं। दंगे के अर्थशास्त्र को एक नया आयाम दे दिया गया है। बताया गया है कि दंगों में सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमानों को होती है। लिखते हैं, ''एक साफ पैटर्न नजर आता है। जब मुसलमानों की सम्पन्नता बढ़ती हैउसके अगले साल और बाद के वर्षों में धार्मिक संघर्ष बढ़ जाता है।"  देखा यह गया है कि अगर मुसलमानों की खर्च करने की क्षमता में एक प्रतिशत की वृद्धि होती है तो उस इलाके में हिंसक दंगों में पांच प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। लेकिन हिन्दुओं के मामले में यह बिल्कुल उलटा है। अगर हिन्दू सम्पन्न होते हैं तो उनके खिलाफ कोई दंगा नहीं होता। इस रिसर्च के पहले भी ऐसी बहुत सारी  किताबें आई हैं जिनके अनुसार दंगों का कारण आर्थिक भी  होता है लेकिन अभी तक ऐसी कोई किताब या कोई सिद्धांत नहीं आया है जिसमें यह देखा जा सके कि दंगों में एक निश्चित आर्थिक पैटर्न होता है। इस शोध में यही बात जोर देकर कही गई है।

जाहिर है कि दंगों के मुख्य कारणों में आर्थिक मुद्दों को शामिल करना और राजनीतिक लाभ को उसका बाई प्रॉडक्ट मानना एक नई बात है और इससे विवाद पैदा होगा लेकिन यह भी सच है जब भी कोई नया सिद्धांत आता है तो जिन लोगों की बुद्धिमत्ता को चुनौती मिल रही होती है उनको चिंता होती है। जर्नल ऑफ पोलिटिकल इकानामी  जैसी सम्माननीय  शोष पत्रिका में इस शोध पत्र के छपने के बाद बहस की शुरुआत हो गयी थी ,कई लोग इसको खारिज भी कर रहे हैं . अब  संघर्ष और वैमनस्य के अध्येता मानने लगे हैं कि  हिन्दू-मुस्लिम झगडे आर्थिक लाभ के लिए ही किये  जाते हैं .कई बार लूट ही उद्देश्य होता है लेकिन अक्सर संसाधनों पर कब्जा , ख़ास उद्योग से किसी को बाहर करना ,प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करना आदि होता . राजनीतिक लाभ तो नेता लोग ऐसी हालात से निकाल ही लेते हैं लेकिन मुख्य प्रेरणा आर्थिक ही होती है . आर्थिक कारणों से दंगों
को हवा देने वाले नज़र नहीं आते . लेकिन वे अपने मुकामी स्वार्थ के लिए दंगों को बढाते हैं और अपने विरोधी कारोबारी के काम का एक हिस्सा झटकने के चक्कर में रहते हैं. यह भी सच है कि उनके स्वार्थ के चलते पूरे देश में पूंजी निवेश का माहौल खराब होता है. इसलिए सरकार को चाहिए कि अगर देश में नए उद्योग लगाकर नौजवानों को रोज़गार देना है तो किसी भी तरह के दंगे पर फ़ौरन रोक लगाई जानी चाहिए

महात्मा गांधी के हत्यारे को हीरो बनाने वाले देशद्रोही हैं



शेष नारायण सिंह


महात्मा गांधी की शहादत को सत्तर साल हो गए. महात्मा गांधी की हत्या जिस आदमी ने की थी वह कोई अकेला इंसान नहीं था. उसके साथ साज़िश में भी बहुत सारे लोग शामिल थे और देश में उसका समर्थन करने वाले भी बहुत लोग थे . वह एक विचारधारा का नेता था जिसकी बुनियाद में नफरत कूट कूट कर भरी हुयी है .तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने एक पत्र में लिखा  था कि  महात्मा जी की हत्या के दिन  कुछ लोगों ने खुशी से मिठाइयां बांटी थीं. नाथूराम गोडसे और उसके साथियों के पकडे जाने के बाद से अब तक उसके साथ सहानुभूति दिखाने वाले चुपचाप रहते थे ,उनकी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि कहीं यह बता सकें कि वे नाथूराम से सहानुभूति रखते हैं  . लेकिन अब बात बदल गयी है .अब उसके साथियों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है . देश के हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करें वाले एक नेता ने एक दिन एक   टीवी डिबेट में बिना पलक झपके कह दिया था कि नाथूराम गोडसे आदरणीय है  और   गांधी की  हत्या किसी और हत्या जैसी ही एक घटना है. उसके समर्थक अब  नाथूराम को सम्मान देने की कोशिश करने लगे  हैं . कुछ शहरों  में नाथूराम गोडसे के मंदिर भी बन गए हैं.


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महात्मा गांधी के हत्यारे को इस तरह से सम्मानित करने के पीछे वही रणनीति और सोच काम कर रही है जो महात्मा गांधी की ह्त्या के पहले थी .गांधी की हत्या के पीछे के तर्कों का बार बार परीक्षण किया गया है लेकिन एक पक्ष जो बहुत ही उपेक्षित रहा है वह है  कि महात्मा गांधी को मारने वाले संवादहीनता की राजनीति के पोषक थे वे बात को दबा देने और छुपा देने की रणनीति पर काम करते थे जबकि महात्मा गांधी अपने समय के सबसे महान कम्युनिकेटर थे. उन्होंने आज़ादी की लडाई से जुडी हर बात को बहुत ही  साफ़ शब्दों में बार बार समझाया था. पूरे देश के जनमानस में अपनी बात को इस तरह फैला दिया था की हर वह आदमी जो सोच सकता था ,जिसके पास ऐसा दिमाग था जो काम कर सकता था, वह गांधी के साथ था .

महात्मा गांधी की अपनी सोच में नफरत का हर स्तर पर विरोध किया गया था. पूरी दुनिया में महात्मा गांधी का बहुत सम्मान है .  पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक और भक्त फैले हुए हैं। महात्मा जी के सम्मान का आलम तो यह है कि वे जातिधर्मसंप्रदायदेशकाल सबके परे समग्र विश्व में पूजे जाते हैं। वे किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं। हां यह भी सही है कि भारत में ही एक बड़ा वर्ग उनको सम्मान नहीं करता बल्कि नफरत करता है। इसी वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के चलते ही 30 जनवरी 1948 के दिन गोली मारकर महात्मा जी की हत्या कर दी गयी थी उनके हत्यारे के वैचारिक साथी अब तक उस हत्यारे को सिरफिरा कहते थे लेकिन यह सबको मालूम है कि महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे का काम नहीं था। वह उस वक्त की एक राजनीतिक विचारधारा के एक प्रमुख व्यक्ति का काम था। उनका हत्यारा ,नाथूराम गोडसे कोई सड़क छाप आदमी नहीं थावह हिंदू महासभा का नेता था और अपनी पार्टी के 'अग्रणीनाम के अखबार का संपादक था। गांधी जी की हत्या के आरोप में उसके बहुत सारे साथी गिरफ्तार भी हुए थे। ज़ाहिर है कि गांधीजी की हत्या करने वाला व्यक्ति भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करता था और उसके वे साथी भी जो आजादी मिलने में गांधी जी के योगदान को कमतर करके आंकते हैं। अजीब बात है कि गोडसे को महान बताने वाले और महात्मा गांधी  के योगदान को कम करके आंकने वालों के हौसले आजकल  बढे हुए  हैं .

हालांकि इस सारे माहौल में एक बात और भी सच हैवह यह कि महात्मा गांधी से नफरत करने वाली बहुत सारी जमातें बाद में उनकी प्रशंसक बन गईं। जो कम्युनिस्ट हमेशा कहते रहते थे कि महात्मा गांधी ने एक जनांदोलन को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया थावही अब उनकी विचारधारा की तारीफ करने के बहाने ढूंढते पाये जाते हैं। अब उन्हें महात्मा गांधी की सांप्रदायिक सदभाव संबंधी सोच में सदगुण नजर आने लगे है।लेकिन आज भी गोडसे के भक्तों की एक जमात है जो महात्मा गांधी को आज भी उतनी ही नफरत करती है ,जितना आजादी के समय करती थी.
आर.एस.एस. के ज्यादातर विचारक महात्मा गांधी के विरोधी रहे थे लेकिन 1980 में आर एस एस के अधीन काम करने वाली राजनीतिक पार्टी,बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद के सिद्घांत का प्रतिपादन करके इस बात को ऐलानिया स्वीकार कर लिया कि महात्मा गांधी का अनुसरण किये  बिना भारत में राजनीतिक सत्ता तक  पंहुचना नामुमकिन है और उनका सम्मान किया जाना चाहिए। अब देखा गया है कि आर एस एस और उसके मातहत सभी संगठन महात्मा गांधी को अपना हीरो  बनाने की कोशिश करते पाए जाते हैं . आर एस एस के बहुत सारे समर्थक कहते हैं की महात्मा गांधी कभी भी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे. ऐसा इतिहास के अज्ञान के कारण ही कहा जाता है क्योंकि महात्मा गांधी के जीवन के तीन बड़े आन्दोलन  कांग्रेस पार्टी के ही आन्दोलन थे. १९२० के आन्दोलन को कांग्रेस से मंज़ूर करवाने के लिए महात्मा गांधी ने कलकत्ता और नागपुर के अधिवेशनों में बाक़ायदा अभियान चलाया था . देशबंधु चितरंजन दास ने कलकत्ता सम्मलेन में गांधी जी का विरोध किया था लेकिन महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में वह ताकता थी कि नागपुर में देशबंधु चितरंजन दास खुद महात्मा गांधी के समर्थक बन गए . १९३० का आन्दोलन भी जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता वाली कांग्रेस पार्टी के लाहौर में पास हुए प्रस्ताव का नतीजा था. १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन भी मुंबई में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में लिया गया था .  महात्मा  गांधी खुद १९२४ में बेलगाम में हुए कांग्रेस के उन्तालीसवें  अधिवेशन के अध्यक्ष थे . लेकिन वर्तमान कांग्रेसियों को इंदिरा गांधी के वंशज  गांधियों के सम्मान की इतनी चिंता  रहती है कि महात्मा गांधी की विरासत को अपने नज़रों के सामने छिनते देख रहे हैं और उनके  सम्मान तक की रक्षा नहीं कर पाते. इसके अलावा जिन अंग्रेजों ने महात्मा जी को उनके जीवनकाल में अपमान की नजर से देखाउनको जेल में बंद कियाट्रेन से बाहर फेंका उन्हीं के वंशज अब दक्षिण अफ्रीका और इंगलैंड के हर शहर में उनकी मूर्तियां लगवाते फिर रहे हैं। इसलिए गांधी के हत्यारे को सम्मानित करने की कोशिश में लगे लोगों को समझ लेना चाहिए कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के हीरो और दुनिया भर में अहिंसा की राजनीति के संस्थापक को अपमानित करना असंभव है . इनको इन कोशिशों से बाज आना चाहिए.
मौजूदा सरकार को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि महात्मा गांधी के हत्यारे को सम्मानित करने वालों को शाह देने की कोशिश उन पर भी भारी पड़ सकती है .महात्मा गांधी की शहादत के दिन को देश में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है . लेकिन आजकल   बीजेपी के कई नेता  "पूज्य बापू को उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन. "  करते देखे जा रहे हैं. तीस जनवरी को शहीद दिवस मानने से संकोच देखा जा सकता है . सरकार को इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि  गांधी के हत्यारों को सम्मानित करने वालों को सज़ा दिलवाएं .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने ही समकालीन अमरीकी इतिहास के सबसे यशस्वी  राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दिल्ली में अपनी सरकारी यात्रा के दौरान  बार बार यह बताया था कि उनके निजी जीवन और अमरीका के सार्वजनिक जीवन में महात्मा गांधी का कितना महत्व है . ज़ाहिर है महात्मा गांधी का नाम भारत के राजनेताओं के लिए बहुत बड़ी राजनीतिक पूंजी है . अगर उनके हत्यारों को सम्मानित करने वालों पर लगाम न लगाई गयी तो बहुत मुश्किल पेश आ सकती है . प्रधानमंत्री समेत सभी नेताओं को चाहिए कि नाथूराम गोडसे को भगवान बनाने की कोशिश करने वालों की मंशा को सफल न होने दें वरना भारत के पिछली सदी के इतिहास पर भारी कलंक लग जाएगा .