शेष नारायण सिंह
१९८९ के बाद से ही बीजेपी की राजनीति का सभी मकसद हासिल किये जाते रहे हैं .उनकी बात को सबसे ऊपर तक पंहुचाने में उनके विपक्षियों की सबसे बड़ी भूमिका रहती रही है .कांग्रेस का नेतृत्व जबतक लचर था ,बीजेपी को कोई परेशान नहीं कर सकता था . बीजेपी की बात को आगे बढाने में मीडिया की भूमिका भी बहुत ही अहम रही है . जब बाबरी मसजिद की हिफाज़त के दौरान उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने गोलियाँ चलवाई थीं तो वाराणसी से छपने वाले हिंदी के एक अखबार ने तो लिख दिया था कि खून से सरजू नदी लाल हो गयी थी. जो कि सच नहीं था.बाद में पता लगा कि खबर गलत थी . बाद के दौर में भी मीडिया ने बीजेपी की मदद की.बड़ी संख्या में मीडिया संगठनों में बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले पत्रकारों की मौजूदगी के कारण ऐसा माहौल बन गया कि अगर कोई बीजेपी के खिलाफ कोई तथ्यपरक खबर भी लिखता तो उस पर नज़रें तिरछी होने लगी थीं . लेकिन पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी के पक्ष में काम करने वाले पत्रकारों के सामने बड़ी मुश्किल है . जब से कर्नाटक की बीजेपी सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामे पब्लिक हुए हैं . मीडिया को उसे हाईलाईट करना पड़ रहा है. ताज़ा मामला तो बीजेपी के अध्यक्ष का ही है . एक बार फिर साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार में टू जी, कामनवेल्थ खेल,और अन्य घोटाले करने वाली यू पी ए और बीजेपी के नेता भ्रष्टाचार की पिच पर बराबर हैं . दोनों ही पार्टियों में भ्रष्टाचार है .सवाल केवल भ्रष्टाचार को मैनेज करने का है . बीजेपी के भ्रष्टाचार को उजागर करने में देश के हिंदी और अंग्रेज़ी , दोनों ही भाषाओं के सबसे बड़े अखबारों ने पूरी निष्पक्षता से काम किया है . नतीजा यह है कि अब भ्रष्टाचार के मामलों में कांग्रेस को बीजेपी घेर नहीं सकती . बीजेपी के मौजूदा अध्यक्ष के राजनीतिक कद को लेकर भी बीजेपी डिफेंसिव है . नितिन गडकरी अपनी ही पार्टी के सभी राष्ट्रीय नेताओं से छोटे पाए जा रहे हैं . लोकसभा और राज्य सभा में उनकी पार्टी के दोनों नेता ,उनसे बहुत बड़े हैं . उनके सभी पूर्व अध्यक्ष उनसे राजनीतिक हैसियत में बहुत ऊंचे हैं और ऊपर से उन्होने महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहने के दौरान कुछ ऐसे काम किये हैं जिसका खामियाजा उनकी पार्टी को आज भुगतना पड़ रहा है . उनकी पार्टी के निर्माताओं में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी का नाम लिया जाता है .. नितिन गडकरी के लिए वे ऊंचाइयां तो असंभव ही मानी जायेगीं .
बीजेपी की एक और मुश्किल है . उनका मुकाबला कांग्रेस से माना जाता है जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष का कद पार्टी के हर बड़े नेता से बड़ा है . सोनिया गांधी बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में राजनीति में आयीं . अध्यक्ष के रूप में सीताराम केसरी ने पार्टी को कहीं का नहीं छोड़ा था लेकिन सोनिया गांधी ने जीरो से शुरू करके पार्टी को सरकार तक पंहुचाया . विपक्षी पार्टी की मुखिया के रूप में काम शुरू किया और केन्द्र सरकार में अपने कार्यकर्ता को प्रधान मंत्री पद तक पंहुचाया . डॉ मनमोहन सिंह के बारे में उन दिनों कहा जाता था कि वे बहुत ही कमज़ोर प्रधान मंत्री हैं लेकिन अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधान मंत्री को दुबारा जीत दिलाकर उन्होंने साबित कर दिया कि वे देश की सबसे बड़ी राजनीतिक नेता हैं . बीजेपी के बहुत ही कुशल पार्टी प्रवक्ताओं के आरोपों पर भी चुप रहने की कला में प्रवीण सोनिया गांधी ने जब भी मौक़ा लगा तो संसद में लाल कृष्ण आडवानी तक को हडका लिया और आडवानी जी को मजबूर होकर अपना बयान वापस लेना पड़ा. यू पी ए के पहले कार्यकाल में मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसे क्रांतिकारी काम के बल पर उन्होंने अपनी सरकार को दूसरा कार्यकाल दिलवा दिया . इस हफ्ते सब्सिडी को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में भेजने की जिस योजना की घोषणा कांग्रेस की नियमित ब्रीफिंग में जाकर जयराम रमेश और पी चिदंबरम ने की है , वह गेम चेंजर की भूमिका निभाएगा और आब विपक्ष को और भी मज़बूत रणनीति के साथ आना पड़ेगा वर्ना अगर कहीं सोनिया गाँधी ने लगातार तीन बार अपनी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनवा दिया तो वे जवाहरलाल नेहरू के बराबर की राजनेता हो जायेगीं और बीजेपी के लिए बहुत मुश्किल होगी. बीजेपी को चाहिए कि वह फ़ौरन सोनिया गांधी को राजनीतिक चुनौती देने में सक्षम नेता की तलाश करे वर्ना बहुत देर हो चुकी होगी .क्योंकि आज की बीजेपी की राजनीति अपने अंदर से आ रही चुनौतियों को संभालने में परेशान है जबकि कांग्रेस समेत बाकी पार्टियां २०१४ या २०१३ जब भी लोक सभा चुनाव होंगें उसकी तैयारी में हैं .
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